Saturday, September 28, 2013

चेतावनी प्रकृति की: ९



 . . . आज यह बात कहते समय मैत्री की अगली टीम उत्तराखण्ड में कार्यरत है। सितम्बर माह में मैत्री की टीम ने १७०० से अधिक परिवारों को राशन वितरण किया है। और आगे भी कर रही है। टीन शेडस के लिए घरों का सर्वे भी किया जा रहा है। फिलहाल अभी अगस्त के पहले सप्ताह तक के कार्य की बात आगे बढाते हैं। ४ अगस्त की सुबह पूरा हेल्पिया ग्राम बादलों से घिरा है। सामने का भी ठीक से दिखाई नही दे रहा है। आज अर्पण संस्था के सचिव के साथ मीटिंग के लिए पिथौरागढ़ जाना है। सर को उनसे तकनिकी तरह की कई बातें करनी है। इसके अलावा वहाँ के एटीएम से पैसे भी निकालने है। ग्रामीण और दूर दराज का इलाका होने के कारण ओगला, डीडीहाट, जौलजिबी, धारचुला आदि स्थानों पर एटीएम में धन राशि ही नही थी। इससे यह एक समस्या बनी। अब पिथौरागढ़ में तीन एटीएम मिलेंगे।

हेल्पिया से पिथौरागढ़ का फासला मात्र पचास किलोमीटर का है। पर पहाडी रास्ता होने के कारण और खास कर बरसाती मौसम के कारण समय अधिक लगा। सड़क की हालत तकलीफ़देह है। बीच बीच में लैंड स्लाईडिंग के कारण कच्चे रास्ते से जाना होता है और बारीश तथा किचड से वह रास्ता भी कष्ट देता है। इस रास्ते पर कनाली छीना तहसील मुख्यालय आता है और वही इस रास्ते का सबसे ऊँचा बिन्दु है।

यात्रा में अर्पण के सदस्य भी है। बातचीत काफी चल रही है। सर ने काफी बाते बतायी। वे १९७८ से पहाड़ में आ रहे हैं। पहाड़ का चप्पा चप्पा घूम चुके हैं। कई स्थानों पर ट्रेकिंग के लिए तो आते ही है; उसके अलावा भी बहुत घूमे हैं। उन्होने कहा कि 16 जून की बाढ आने के कुछ ही दिन पहले ३० मई को वे हरिद्वार में थे। उस समय वहाँ का तपमान ४६ अंश से. था; जो कि अत्यंत अविश्वसनीय और बिलकुल अप्रत्याशित था। उन्होने कहा के इसी से संकेत मिल रहा था कि पर्यावरण में बडी उथल पुथल हो रही है। गिरीप्रेमी संस्था के एव्हरेस्ट मुहिम पूरी करनेवाले उनके एक मित्र है। उनसे हाल ही में उनकी बात हुईं। गिरीप्रेमी संस्था भी मैत्री के साथ काफी अहम भुमिका इस राहत कार्य में निभा रही है। सर के मित्र ने कहा था कि हिमालय में ६००० मीटर की ऊँचाई पर वे गए थे और वहाँ बर्फ की बजाय बारीश हो रही थी। जब की इतनी अधिक ऊँचाई पर कभी भी बारीश नही होती है। यह पर्यावरण में आए बदलाव की एक झलक मात्र है। सर मौसम शास्त्र के विशेषज्ञ भी हैं। उन्होने इन सब बातों पर और प्रकाश डालते हुए एक संकल्पना का जिक्र किया। जिसे अंग्रेज़ी में वेस्टर्न डिस्टर्बन्स कहा जाता है। यह एक मौसमी घटना है; और हर साल इसके होने की सम्भावना बनती है। उन्होने बताया कि केदारनाथ में जो बादल फटें; उसके पीछे कई बातें थी। एक तो बहुत बडी परिधि का कम दबाव का क्षेत्र बन गया था। अर्थात् जून महिने की गर्मी के कारण। उस समय वहाँ काफी दूर के इलाकों से नमीं खींची गईं। जैसे भारत के पूर्व तट पर आए किसी समुद्री तुफान का घेरा कई हजार किलोमीटर तक का हो सकता है और उससे कई हजार किलोमीटर दूर होनेवाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में भी बारीश होती है; उसी प्रकार इस कम दबाव के क्षेत्र में हजारो किलोमीटर दूर से नमीं खीचीं गई। कॅस्पियन समुद्र तक के दूर के इलाकों से नमी खींची गईं और फिर वह कम दबाव का बिन्दु फटा। मौसम शास्त्र के अनुसार यह आज कल सम्भव है। चार वर्ष पूर्व लेह में बादल फटे थे। हर बरसात में किसी ना किसी पहाडी़ क्षेत्र में बादल फटते ही हैं। तो ऐसा ही हुआ; पर नमीं की घनता अत्याधिक थी और उससे केदारनाथ से जुडे़ सैकडों किलोमीटर के घेरे में अप्रत्याशित और असाधारण बरसात हुईं। इससे सब आपदा टूट पडी़।

मौसम में यह बदलाव होने के कई कारण है। जैसे पहले भी बात की जा चुकी है- पहाडों पर पेडों को नष्ट किया जाना; वहाँ मानव क्रिया से तनाव पैदा होना; वैश्विक तपमान में वृद्धि; प्राकृतिक जल मार्गों में अतिक्रमण आदि। देखा जाए तो यह पूरी विपदा बिलकुल भी अनपेक्षित नही है। सर के शब्दों में दैवी तो बिलकुल भी नही है; वरन् पूर्णत: मानवी है। और जितना मानव ने बनाया था; उतना ही प्रभावित हुआ। प्राकृतिक घटकों को हानि न पहुँची। उत्तराखण्ड में लोग बता रहे हैं कि कई बार नए झरने पैदा होने से भी गाँव बहे हैं। जैसे पहाड़ पर बस्ती बनायी और जल प्रपात के मार्ग अवरूद्ध हो गए; तो वे दूसरे मार्ग तो ढूंढेंगे ही। नदीयाँ भी ऐसा ही कुछ कर रही हैं। उनकी क्षमता से काफी अधिक पानी उनमें आने पर वे अब प्रवाह बदल रही हैं। पानी के तेज बहाव के बल से अब यह प्रवाह सीधा हो रहा है। इन सब बातों का मतलब साफ है। असल प्रश्न यह है कि क्या हम इससे कुछ सबक़ लेंगे और अपनी विकास की अवधारणा में परिवर्तन करेंगे या नही???

सर का फिटनेस भी अद्भुत है। ५६ की आयु होने के बावजूद वे टीम के सबसे फिट व्यक्ति है। और उन्होने ही बताया कि उनका वर्तमान फिटनेस कुछ भी नही है। वास्तव में कुछ साल पहले एक दुर्घटना में उनका पैर काफी क्षतिग्रस्त हुआ था। वे महिनों तक बिस्तर में थे। फिर धीरे धीरे चलने लगे। कमजोर घुटना होते हुए भी उन्होने ट्रेकिंग शुरू किया और आज कौनसी भी राह पर बेझिझक चलते है। वरन् अन्य युवाओं से आगे जाते है। मन में सवाल आता है कि यदि उनका यह फिटनेस ‘कुछ भी ‘ नही है; तो पहले का फिटनेस कैसा रहा होगा! अर्थात् पहाड़ का आदि होना तथा फिटनेस बेहतर होना यह बात जीवनशैली से भी जुडी है। जो भी ऐसी जीवनशैली का चयन करेगा; उसे उसका फल मिलेगा। पहाड़ में भी दिखाई दे रहा है कि सब लोग फिट नही है। जिनकी जीवनशैली आरामदेह है; जैसे कोई दुकानदार हो; कोई ड्रायव्हर हो; तो उन्हे भी पहाडी राहों पर तकलीफ होती है। खैर।

पिथौरागढ़ के पन्द्रह किलोमीटर पहले पलेटा नाम का एक कस्बा आता है। वहाँ एक दुकान में पन्नियों (प्लास्टिक की थैलियाँ) के बारे में बात हुई। स्टोअर में राशन पैक करने के लिए काफी पन्नियाँ चाहिए। फिर एक बार देखने में आया कि पहाड़ में हर कोई हर किसी को पहचान रहा है। कम से कम दो- तीन तरह से पहले से ही एक दूसरे को जानता है। यह बात उनकी जीवनशैली की तरफ भी इशारा करती है। वे अब तक टी.व्ही, इंटरनेट, शॉपिंग, क्रिकेट के इतने दिवाने नही हुए हैं!
पिथौरागढ़ में आयटीबीपी का एटीएम बन्द है। आगे भी एटीएम से कॅश नही मिली। बडी दिक्कत है। फिर कई घण्टों तक मीटिंग चली। दो संस्थाओं की भागीदारी से सम्बन्धित विषय चर्चा में आए। अब स्थिति यह है कि आपात्काल पुनर्वसन के मुद्दे को ले कर कई संस्थाएँ- कई बडी संस्थाएँ- और कंपनीज यहाँ आनेवाली है। इसलिए हर कोई अपने लिए स्थानीय भागीदार ढूँढ रहा है। बडी डोनर एजन्सीज अब कदम रखने जा रही हैं या आ चुकी हैं। इस वजह से अब स्थानीय संस्थाओं पर भी कुछ दबाव है; अगर उन्हे भी आपात्काल पुनर्वसन की बहती गंगा में कुछ मिले हो उसके लिए उनका लालयित होना आश्चर्यकारक नही कहा जा सकता है। इससे जुडे कई डायनॅमिक्स है। ऐसे बडी संस्थाओं के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से धर्म प्रसार करनेवाले भी आते है और कई बार देखा गया है कि फिर बाद में स्थानीय संस्कृति में बडे हस्तक्षेप होते है; फंड ड्रिवन एप्रोच से काम चलता है। धरातल की आवश्यकता और प्राथमिकता भूलायी दी जाती है। इन सबके बीच मैत्री को उसका फोकस बरकरार रखना है; अपना काम जारी रखना है; फिर साथ में कोई हो या न हो। और सर इसी बात को सुनिश्चित कर रहे हैं। मैत्री का कार्य अब तक सबको पता चल गया है। यदि कुछ बदलाव हुआ तो भी कार्य न रूकेगा। और अब उत्तराखण्ड के अन्य क्षेत्रों से भी मैत्री को असेसमेंट के लिए बुलाया जा रहा है। पिथौरागढ़ मीटिंग में सर का यह भी प्रयास है कि कोई स्थानीय जिओलॉजिस्ट मैत्री से जुड़ जाए। इससे नदी के प्रवाह का मार्ग, सुरक्षित इलाकें आदि का विस्तार से अध्ययन किया जा सकेगा। इसके लिए सम्पर्क बनाए जा रहे है।

कई घण्टों की मीटिंग के बाद अन्य कुछ व्यक्तियों से मिलना हुआ। ये पिथौरागढ़ के वाणिज्य क्षेत्र के कुछ लोग है; जो राहत कार्य में कुछ योगदान दे रहे हैं। जैसे धारचुला के आपदाग्रस्त शिविर के लोगों के लिए चारपायी देना आदि। अपने अपने तरिके से और अपने स्तर पर कार्यरत है। उनसे मिलने के बाद फिर हेल्पिया के लिए निकल गए। निकलते ही रात हुई थी; पहुँचने में काफी देर हुई। आज हमारे जीप के चालक मित्र घर न जा सकेंगे; वे भी हमारे साथ ही रहेंगे। उनसे भी अच्छी दोस्ती हुई है। वे भी मात्र चालक न रह कर टीम के एक सक्रिय सदस्य बने है। सभी तरह के कामों में हिस्सा ले रहे हैं।

रह रह कर तवाघाट के आगे के गाँवों में कार्यरत दोस्तों की याद आती है। वे अब शायद नारायण आश्रम के पास होंगे। हर शिविर में बहोत से रुग्ण मिलते होंगे। और चढाई. . . दिक्कत तो होनी ही थी; फिर भी उन्होने रास्ता पार कर लिया होगा। और शायद उन्हे नारायण आश्रम से बर्फ भी दिखेगी। 

                                                                               ***

. . .  अगले दिन ५ अगस्त को पुणे से भेजा गया सामग्री का ट्रक पहुँचने वाला है। अब उसे उतार कर सब सामान को लगाने का बडा काम है। उसके लिए मीटिंग हुई। अर्पण के साथीयों से चर्चा कर किस प्रकार सामान की गठरियाँ बनानी है, यह तय हुआ। उसके लिए कुछ लोग भी आज के लिए बुलाए गए है। वे सामान उठा कर रखने और पॅक करने का काम करेंगे। सुबह ही ब्याडा के स्टोअर में जा कर तैयारी कर दी। लेकिन ट्रक आने में अब भी देर है। सब लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। आज कुछ साथियों के साथ सर छोरीबगड़ ग्राम जाएँगे। मेरे जाने के बारे में पूछने पर कहा कि मुझे स्टोअर में रूकना जरूरी है। क्यों कि सर न होने पर सब लोग कैसे काम कर रहे हैं; यह भी देखना आवश्यक है। अब धीरे धीरे इस टीम के वापस जाने का समय भी पास आ रहा है। ऐसे में अर्पण के साथियों को भी एक तरह से काम हँड ओव्हर करना होगा। उसके लिए उन्हे स्वतंत्र रूप से भी काम करने का अवसर देना होगा। इस वजह से ब्याडा़ के स्टोअर में न रूकते हुए छोरीबगड़ चले गए। वहाँ भी वे असेसमेंट करेंगे। छोरीबगड़ ग्राम लुमती के आगे आता है। सड़क अब मुश्किल से लुमती तक बनी है। इसलिए शायद उन्हे वहाँ भी काफी चलना पडेगा। ये जौलजिबी मुन्स्यारी रोड पर आनेवाला गाँव है। वहाँ भी स्टोअर ढूँढना है।

आखिर कर दोपहर के बाद ट्रक आया। सामग्री के थैलियों की गिनती की। सब सामान वैसा का वैसा है। बस सफर में कुछ कुछ गठरियाँ थोडी़ हिल गई है। अब उसे ठीक कर रखना है। सामान उठाने में अपनी क्षमता के अनुसार सहभाग लिया। बडा़ वजन उठाना तो अभ्यास से आता है। जिसको पहले से अनुभव होगा, वह अच्छे से उठाएगा। जिसको उतना अनुभव नही होगा, नही उठा पाएगा। इसमें अच्छा और बुरा कुछ भी नही है। बस क्षमता के अनुसार काम करना है। और मैत्री की टीम में यह बात बडी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। व्यक्तिगत क्षमता और टीम की आवश्यकता का मेल अच्छा बिठाया गया है। और सभी साथी भी अलग अलग तरिके से सहयोग ले रहे हैं। अब जैसे सामान को गाँवों में ले जाने के लिए किस प्रकार गठरियाँ बनानी चाहिए; हर परिवार को कौनसी चीजें एक पॅक में मिलनी चाहिए आदि चीजें अर्पण के दीदी लोग तय कर रहे हैं। हर गाँव में क्या राशन उपलब्ध है, इसकी भी खबर उन्हे हैं। फिर हर परिवार को दिया जानेवाला पॅक कितना हो; उसका वजन कितना हो; यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि दुर्गम राहों से वे अपने घर सामग्री ले जाएंगे। इसलिए इसका भी ख्याल रखना जरूरी है। चामी- लुमती की सड़कों पर अभी बडे ट्रक नही जा पा रहे हैं। इसलिए छोटे ट्रक और टेम्पो ही जाएंगे। अब इन वाहनों के चालकों को वहाँ की सड़क पर इतना सामान ले जाने में शक हो रहा है। तो उन्हे कौन समझाएगा? अपने आप हमारे नारायण जी उन्हे समझाते हैं; मनाते हैं। यह टीम वर्क बिलकुल ऑरगॅनिक लग रहा है। बिलकुल एक फोकस के साथ काम हो रहा है।

ट्रक से सामान निकाल कर उसे लगाने में रात हो गईं। स्टोअर में मैत्री, गिरीप्रेमी और सहयोगी कंपनी- मॅग्ना स्टिअर के बैनर भी लगाए हैं। अब कल तक पूरा सामान गाँवों में वितरण के लिए तैयार होगा। कल तक तवा घाट के आगे गए साथी भी वापस आ जाएंगे। अब इस राहत कार्य के इस चरण का महत्त्वपूर्ण क्षण पास आ रहा है। इस लिए अब सबको थोडा ज्यादा प्रयास करना होगा। आज देर रात तक मीटिंग है। इसमें हर गाँव की आवश्यकता पर चर्चा होगी। सामान गाँवों में पहुँचाने के पहले चरण में लुमती, चामी, घरूडी, हुडकी, मनकोट आदि गाँवों के आपदाग्रस्त परिवारों को सामान देना है। इसके लिए अब बडी सूक्ष्म प्लैनिंग हो रही है। परिवारों की संख्या और पीडित परिवारों की संख्या देखी जा रही है। शाम मीटिंग में ही चल गई। अब कल सब दोस्त फिर मिलेंगे!

पलेटा के दुकान की सब्जियाँ


































   
स्टोअ लगाते समय का दृश्य मैत्री, मॅग्ना स्टिअर और गिरीप्रेमी संस्था के बैनर












 











क्रमश:

    

Friday, September 27, 2013

चेतावनी प्रकृति की: ८

. . . २ अगस्त की रात हेल्पिया लौटने के बाद थोडा विश्राम हुआ। अब तकनिकी चीजों पर ध्यान देना है। बाकी दो साथी सुबह दवाईयाँ ले कर धारचुला से निकलेंगे। वे जीप बदलते हुए और कठिन पैदल रास्ते से गुजरते हुए तवा घाट और उसके आगे खेला जाएँगे। उनके साथ सामान भी है। और डॉक्टरों की टीम आज खेला से आगे जाएगी और एन.एच.पी.सी. के गेस्ट हाउस पर विश्राम करेगी। तबाही के बाद भी एन.एच.पी.सी. परिसर में गेस्ट हाउस चालू है। हेल्पिया में आने पर कुछ खाँसी और जुक़ाम हो रहा है। सर ने बताया कि यह खाँसी और जुक़ाम ठण्ड से नही, वरन् गर्मी से हो रहा है! इन दिनों यहाँ रात को निरंतर बारीश हो रही है और दिन में भी आर्द्रता काफी है। इस गर्मी से यह हो रहा है। खैर।
 
अगले दिन पहले अस्कोट गए। वहाँ बैंक का खाता अभी तक सर्वर डाऊन होने की वजह से पूरी तरह नही खुल पाया है। और आनेवाले सामग्री और स्टोअर के भाडे़ आदि सब कामों के लिए तो धन की आवश्यकता अत्यंत है। एक बार खाता खुल जाने पर और चेकबूक मिलने पर पैसे चेकबूक से भी दिए जा सकते हैं। पर चेक बूक मिलने में आठ दिन लगेंगे, ऐसा सुनने में आया। फिर और कुछ तरकीब निकालनी पडी़। सर ने एस.बी.आय. के वरिष्ठ अफसरों से सम्पर्क किया और फिर चेकबूक मिल गया। खाता भी खुल गया। और एक बात इसी समय तय हो गई। अब ट्रक रुद्रपूर से सीधे अस्कोट आएगा। उसका इन्तजाम हो गया। अब उसके लिए किसी को जाने की आवश्यकता नही। अब बस जगह देख कर स्टोअर खडा़ करना है।

अस्कोट- जौलजिबी रोड पर ब्याडा़ नाम की जगह पर एक होटल के पास एक कमरा पहले ही ले रखा है। उसी को देख कर स्टोअर के लिए तय कर लिया। यहाँ पहले से कुछ राहत सामान भी रखा हुआ है। बस उसे थोडा़ ठीक करना है। कमरे में टर्पोलिन (तिरपाल) डालना पडेगा; जिससे पानी नही आएगा। होटल में और भी एक कमरा मिल गया; जहाँ कुछ कपडे़ ऑर्गनाईज कर रखने हैं। इसके लिए दो आदमी दिन भर के लिए रखे हैं। पहले के कमरे में से हर तरह के कपडों की बोरीयों को ठीक से पॅक कर दूसरे कमरे में रखना है। इसके साथ अन्य राशन, सब्जियाँ, दवाईयाँ आदि के बारे में भी निरंतर बातचीत चल रही है।

अर्पण में मुख्य रूप से दीदी लोग ही हैं। कुछ भाई भी हैं। अब इनसे ऐसी दोस्ती हो गई है जैसे काफी समय से यहीं रह रहे हैं! अर्पण मुख्य रूप से महिला सशक्तीकरण पर काम करती है। पंचायत राज, महिला अधिकार, महिला आत्मनिर्भरता आदि मुद्दों पर वह कुछ गाँवों में काम करती है। १२ सालों से वह काम कर रही है। यहाँ कुछ पैमाने पर ह्युमन ट्रॅफिकिंग होता है; शादी को ले कर महिलाओं को फंसाया जाता है; अत्याचार होता है। इन मुद्दों पर संस्था कार्य करती है। महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि की समकक्ष संस्थाओं की- ग्रामीण इलाकों में काम करनेवाली संस्थाओं की- तुलना में यह संस्था काफी अच्छी है। इसके कार्यालय से ले कर सदस्यों की सोच में भी इसकी प्रतिति आती है। संस्था के सदस्यों को बाहर के जगत् की अच्छी जानकारी है। काम की समझ अच्छी है। हालाँकि उन्होने कभी आपात्कालीन प्रबन्धन अर्थात डिजास्टर मॅनेजमेंट पर कार्य किया नही है; इसलिए कुछ कमीयाँ भी हैं। पर वे स्वाभाविक हैं। देखा जाए तो इस पूरे राहत कार्य में मेथॉडॉलॉजी की दृष्टी से कुछ कमीयाँ है। गाँवों के सर्व्हेज पूरे नही है। परिवारों की संख्या और उसमें आपदा पीडित परिवारों की संख्या आदि जानकारी वैज्ञानिक ढंग से उपलब्ध नही हुई है। पर आपात्काल में कैसे सब सामान्य रूप से हो सकता है? कुछ बातें कॉमन सेन्स और बुनियादी समझ पर भी तो करनी होती है। और आपात्कालीन कार्य में मैत्री संस्था का अनुभव काफी बडा़ है।

सुनने में आया कि जौलजिबी के पास  सड़क पर एक सरदार जी अपना ट्रक ले कर आए थे और उन्होंने ट्रक पर लादी हुई सब सामग्री सड़क पर ही बाँट दी। जो लोग वहाँ उपस्थित थे; उन्हे ही वह मिल गई। जाहिर है कि सड़क पर जो आ सकते हैं; उनको ही मिली। मैत्री- अर्पण का तरिका इससे निश्चित अलग है। प्रयास यही है कि ज्यादा से ज्यादा अन्दर के गाँवों तक पहुँचा जाए। जहाँ कोई भी सहायता नही पहुँच रही हो; वहाँ पहुँचा जाए। पहले चरण से मैत्री की टीम कंज्योती जैसे सड़क से काफी दूर होनेवाले गाँवों में जाती रही है। सामग्री और अनाज के सम्बन्ध में भी कोशिश की जा रही है कि वाजिब दाम में वह मिले जिससे अधिक मात्रा में उसे खरीद कर लोगों को दिया जा सके। यह भी कोशिश है कि सामग्री सबसे अधिक पीडित लोगों के पास जा कर ही देनी है। खुशहाल सड़क से जुडे स्थानों पर उससे देने से क्या मतलब?

एक बात तो स्पष्ट है कि जितने गाँवों तक मैत्री- अर्पण का सम्पर्क हुआ है; उससे काफी अधिक गाँव प्रभावित है। जैसे मुन्सयारी से कुछ दूरी के बाद मुन्सयारी- जौलजिबी सड़क पूरी तरह क्षतिग्रस्त है। वहाँ के गाँव टूटे हुए है। अब वहा कैसे पहुँचे? सवालों का सिलसिला थमता ही नही है। अन्जाने में सब लोग बरसात का मौसम समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तब जा कर कुछ राहत मिलेगी। गाँव से आना- जाना सम्भव होगा। उसके पहले- अर्थात् सितम्बर के पहले- सब काम अनिश्चित ही है। क्योंकि नई बनायीं जानेवाली सडकें भी जोखिमभरी ही है। बारीश के बाद ही कुछ सुकून मिलेगा। पानी भी कम हो जाएगा। लोग अपने खेत और घरों में कुछ समय के लिए तो जा सकेंगे. . . 

. . . वह दिन स्टोअर को सेट करने में ही बित गया। ट्रक अब रुद्रपूर से निकलेगा। कल यहाँ पहुँचने की सम्भावना है। बाकी सामग्री की भी बात चल रही है। अब तक साथी खेला पहुँच गए होंगे। अब उनसे सम्पर्क करने का माध्यम सॅटेलाईट फोन ही है। वे ही बीच में सम्पर्क करेंगे। एक बात जरूर अच्छी है। आज डॉक्टर और उनके साथ होनेवाले साथीयों को थोडा आराम मिला है। वे निरंतर शिविर लेते चले आए हैं। उनके देखने में अब तक कई चीजें आयी हैं। खास कर पायाभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मुख्य रूप से है। इससे संस्थागत प्रसव के बजाय घर में प्रसव होता है। स्वास्थ्य की उपेक्षा होती है। और यहाँ कुछ हद तक अंधश्रद्धा भी है। उपर के गाँवों में मुख्यत: स्थानीय आदिवासी रहते हैं। उनमें कुछ भेड चरानेवाले और जडीबुटी बनानेवाले भी है। इन लोगों तक आधुनिक स्वास्थ्य की पहुँच कम ही है। और जैसे खेला शिविर में देखा गया कि सरकारी डॉक्टर भी यहाँ अधिक सेवा देना नही चाहते हैं। खैर। आपदाग्रस्त और ऐसे दूरदराज के इलाके में ये सब बातें स्वाभाविक हैं।

ब्याडा में स्टोअर को तैयार करते करते शाम हो गईं। वापस जाते समय एक ग्रामीण दुकानदार से मिलना हुआ। वह एक बहुआयामी तरह का युवक है। ट्रक चलाता है; दुकान चलाता है; सब्जियाँ बेचता है; छोटा मोटा सामान भी बेचता है। वह ट्रक से जौलजिबी जा रहा था। रास्ते पर ही मिलना तय हुआ था। उससे कुछ खरीदने के लिए सर बात कर रहे थे। ट्रक से उतर कर हमारी जीप में मिलने आया। उस समय सर ने उससे जो बात की वह अविस्मरणीय थी।

सब्जी, राशन- जैसे आटा, चावल, शक्कर, दाल, सोयाबीन, तेल आदि सबके दाम सर ने उससे पूछे। और कई टन थोक में लेने में कितना दाम रहेगा यह पूछा। वह एक एक का जवाब देता गया। जैसे की अब तक देखा गया था, यहाँ आपात्काल में दाम कुछ बढे हुए हैं और सामान्य व्यापारी लोग दाम कम नही करना चाहते हैं। वे तो इस आपात्काल की बहती गंगा में हाथ धोना ही चाहते हैं। इस युवक- जिसका नाम कापडी था- का रुख भी कुछ ऐसा ही है। फिर सर ने उसे धीरे से समझाया- कि मैत्री- अर्पण कौन है; क्या कर रहे हैं; क्या करना चाहते है; गाँवों की स्थिति कैसी है; सब लोक किस प्रकार अपना समय दे रहे हैं; कैसे कैसे दूर से मदद इकठ्ठा की जा रही है: अलग अलग जगहों के क्या दाम है; थोक में कितने दाम है; उसको कितने दाम पर कितना प्रॉफिट होता है आदि। हर कोण से सर ने उसे समझाया। सर के पास की जानकारी बडी़ ठोस है। वह इन्कार नही कर पाया। एक तरह सर ने बडी़ कुशलता से उसे पता चले बिना उसके डिफेन्स को ध्वस्त किया। बातों ही बातों में वह अब सर द्वारा दिए गए दाम मानने के लिए राजी बना। और यहीं नही, सब सामान की डिलिव्हरी वह ब्याडा के स्टोअर में करने पर भी राजी हुआ। यह संवाद बहुत उम्दा एवम् अविस्मरणीय रहा।

. . . इस तरह कार्य से सम्बन्धित नए पहलूओं को सामने लाती ३ अगस्त की शाम ढल गईं। अब कल पिथौरागढ़ जाना है। अर्पण संस्था के सचिव से मिलना है। सर के साथ रहने के कारण ऐसे कई तकनिकी पहलू और देखने को मिलेंगे। अब वाकई इस कार्य का परम क्षण पास आता जा रहा है. . .

इस होटल के पास ही स्टोअर है। इन्द्रधनुष।
इन्द्रधनुष और बलखाती गोरी गंगा


  






















































क्रमश:  
  

Thursday, September 26, 2013

चेतावनी प्रकृति की: ७


. . . १ अगस्त की रात मैत्री और अर्पण की टीम खेला और गरगुवा गाँवों में रूकी हैं। गरगुवा में रात को मीटिंग हुई, उसमें काफी बातें चर्चा में आयीं। गाँव की राजनीति भी देखने में आई। लोग खुद ज्यादा श्रम किए बिना गाँव में सब सामान लाना चाहते हैं। यह मानवी स्वभाव है। इस गाँव का भी असेसमेंट किया जा रहा है और फिर सब मिल के तय करेंगे कि यहाँ क्या करना है। डॉक्टर लोग तो कल यहाँ आ ही जाएंगे। उसके अलावा अन्य सहायता के बारे में भी सोचना है। हेलिकॉप्टर का विकल्प इतना सम्भव नही लगता। उसमें सामग्री के भार की सीमा भी बहुत कम है। जो हेलिकॉप्टर्स आपदा प्रभावित इलाकों में कार्यरत हैं, वे एक बार में लगभग ५ क्विंटल याने ५०० किलोग्रॅम राशन ही ला सकते हैं। जब की योजना ऐसे गाँव के हर जरूरतमंद परिवार को करीब ३० किलोग्रॅम की बोरी देने की है। ऐसे में हेलिकॉप्टर भी बौना साबित होगा। शायद सबसे बेहतर विकल्प यही होगा कि सामग्री को तवा घाट या उसके पहले जहाँ तक सडक बनती है- एलागाड़- में लाया जाए और उसके पश्चात् ग्रामीण उसे स्वयं ले आए। क्यों कि नीचे से उपर सामग्री लाने के लिए मजदूर लगेंगे और आपात्काल की स्थिति में उनके दाम भी बहुत बढे हैं। 

टीम के कार्य के सम्बन्ध में भी सर ने कहा कि अब जल्द ही पुणे से ट्रक द्वारा भेजी गयी राहत सामग्री रुद्रपूर पहुँचेगा। १३ टन से अधिक सब तरह की सामग्री आ रही है। पुणे से आ रहा ट्रक उस सामग्री को रूद्रपूर के आगे नही ला सकता है। इसलिए या तो दो लोगों को रूद्रपूर जा कर नए ट्रक में उसे लाद कर लाना पडे़गा या फिर किसी तरह दूसरी किसी एजन्सी को वह काम सौंपना पडे़गा। सर इसके सम्बन्ध में हर विकल्प पर विचार कर रहे हैं। वे चाहते है कि किसी प्रकार कोई ट्रक की एजन्सी उसे वहीं से उठाएं और पिथौरागढ़ या अस्कोट तक ले आए; इससे दो व्हॉलंटीअर्स का समय अन्य अधिक आवश्यक कार्य में लगाया जा सकेगा। अभी तय नही हो पा रहा है। सर ने यह भी कहा कि वे टीम की आवश्यकता और हर सदस्य की क्षमता के अनुसार हर एक सदस्य या समूह को काम देने का प्रयास कर रहे हैं। और अब तक वे निश्चित ही हर एक की क्षमता और कौन कहाँ सही होगा यह समझ गए हैं। इसीलिए उन्होने मुझे उनके साथ वापस चलने के लिए कहा है। बाकी सदस्य आगे के गाँवों में शिविर और अन्य सहायता के लिए जाएँगे। मै, सर और अर्पण के दीदी लोग गरगुवा से वापस अस्कोट- हेल्पिया के बेस कँप पर जाएंगे और आनेवाली सामग्री के लिए स्टोअर की व्यवस्था करेंगे। और भी इस तरह के दूसरे तकनिकी काम है। मन में प्रतिक्रिया आयी कि एक तरह से यह पहाड़ से पीछे लौटना है। हाँ है। पर क्या करे, जब शरीर और फिटनेस इतना अच्छा न हो। और आगे डॉक्टर जहाँ जाएंगे वहाँ और भी चढाईभरा रास्ता है। सीधा चढते जाना होगा। जा तो मै भी सकूँगा; पर उसमें समय लगेगा; दिक्कत आएगी। इसके बजाय दूसरा काम करना अधिक बेहतर हो सकता है। स्टोअर की भी तैयारी करनी है। वहाँ और कुछ सामग्री खरीदनी है। उस तरह के काम है। और सर के साथ भी कोई होना चाहिए। इस प्रकार काम का बंटवारा हुआ। 

. . . जैसे रात ढली और सूरज के किरणों का आगमन हुआ, बरसात अपने आप रूक गई। उसका समय का अनुपालन वाकई अद्भुत है। सर ने कहाँ भी कि बारीश हमारा पुरजोर साथ दे रही है। अब यहाँ से पहले खेला में जाना है। फिर वहाँ से नीचे उतर कर धारचुला जाएंगे। दो साथी भी धारचुला तक वापस आएंगे; क्यों कि डॉक्टरों के पास दवाईयाँ कम बची है। तो धारचुला से दवाईयाँ  खरीद कर वे दोनो वापस जाएँगे। डॉक्टर लोग और उनके साथ और दो साथी आज खेला में शिविर लेंगे और फिर जैसे सम्भव होता है अगले गाँव जाएंगे। 

गरगुवा से खेला का रास्ता अब बिलकुल सरल लग रहा है। दो दिन पहले तक डरावना लगनेवाला दृश्य अब इतना सामान्य सा प्रतीत हो रहा है; आँखे और मन उसके आदि हो गए हैं। अब तक कहीं भी उतनी ठण्ड नही लगी थी। लेकिन यहाँ खेला- गरगुवा के पास ठण्ड जरूर लगी। ऊँचाई भी दो हजार मीटर से अधिक है। रास्ते में ही खेला से निकले साथी मिल गए। बातचीत हो गई। उनको गरगुवा का रास्ता समझा दिया। यहाँ पहाड़ में कई सारे पैदल रास्ते हैं। इसलिए ठीक से रास्ता बताना जरूरी है। ऐसे रास्ते में अधिक लोग भी नही आते- जाते दिखाई पडते हैं। यदा कदा कोई आता है और जाता है। वाकई यह दुनिया शहर की दुनिया से और ज्ञात विश्व से काफी अलग है. . .
खेला में थोडी देर रूके। यह गाँव बडा़ न होने पर भी बडा़ ही है। इसकी पुष्टि एक पोस्टर ने की। गाँव में कोई स्पर्धा का आयोजन था। उसकी खबर देनेवाला यह पोस्टर- उसमें सहभागिता शुल्क तो है हि, इनाम राशी कई हजारों में है। और इस गाँव में इंटर कॉलेज होना भी सूचक है। खेला में जानकारी से काफी अधिक परिवार थे; इसलिए यहाँ डॉक्टरों की दवाईयाँ भी अधिक इस्तेमाल हुईं। इसके आगे खेत जैसे गाँवों में भी घरों का नुकसान हुआ है।  खेला में सर ने सॅटेलाईट (नेपाली सिम के) फोन से पुणे सम्पर्क करने का प्रयास किया। लेकिन सम्पर्क नही हो पाया। 

खेला से लौटते समय एक अलग रास्ता लिया। आते समय तवा घाट से सीधे दो- ढाई घण्टा उपर चढ के आए थे। अब का रास्ता तिरछा है। तिरछा वैसे कहने को है; बीच बीच में चढाई और उतराई है हि। खेला के ही एक ग्रामीण युवक- वीरेन्द्र जी साथ में थे। उनसे दोस्ती कर ली। जब भी रास्ते में दिक्कत हुईं; फिसलन के आसार लगे; उनकी सहायता ली। उन्होने बताया इस परिसर में छिपला केदार यात्रा होती है। तब यहा बहुत यात्री आते है। उन्होने यहाँ की पंचायत संरचना समझायी। यहा पंचायत राज में कुछ परिवर्तन है। ग्राम पंचायत के साथ एक न्याय पंचायत स्तर भी होता है। उन्होने बताया कि धारचुला में ५६ ग्रामसभाएँ है। उन्होने पहाड़ के बीच नारायण आश्रम जानेवाली सडक भी बतायी। डॉक्टर और उनके साथी नारायण आश्रम जाएँगे। एक बार इस वजह से जलन जरूर हुई। पर अब जो है, वह है! एक बात तो स्पष्ट है। अगर ऐसे पहाडी रास्तों पर हंसते हुए चलना है, तो उसके लिए कडी मेहनत पहले से आवश्यक है। फिटनेस अच्छा या बहुत अच्छा होना चाहिए। ऐसे ‘डरावने’ (जो वस्तुत: बहुत सापेक्ष शब्द है!) रास्तों से भी अच्छा परिचय या कहिए मुठभेड पहले से होनी चाहिए। लौटते समय मन में यही ख्याल है। 

खेला से नीचे जानेवाली यह बिलखाती राह तिरछी नीचे उतरती है। और अब वह तवा घाट नही जा रही है। अब वह एलागाड़ (झिरो पॉइंट) जाएगी! इसका एक अर्थ यह हुआ की शायद वह अधिक लम्बी है। दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि तवा घाट आने के ठीक पूर्व सडक छोड कर हम जहाँ पैदल आए थे, उस खण्ड का हिस्सा छूट जाएगा। अर्थात् अब मात्र दो खण्डों पर पैदल चलना होगा। और यह भी लग रहा है कि शायद बी.आर.ओ. वालों ने एलागाड तक भी सड़क बना ली हो। हो सकता है। नीचे जाने पर पता चलेगा। रास्ता जैसे जैसे नीचे आता गया, वैसे ढलान बढी और बीच बीच में संकरा भी होता गया। उपर से पहाड़ से बहनेवाले मनमौजी प्रपात! और यह रास्ता ऐसा है कि १०० किलोमीटर की रफ्तार से ड्रायव्हिंग करते समय जितना ध्यान सड़क पर देना पडता है, बिलकुल उतना ध्यान यहाँ हर कदम पर देना पडता है! रास्ता निरंतर अंगडाई लेता रहता है। सजग हो कर ही चलना पडता है। खाई का एक्स्पोजर भी पास ही है। लेकिन यह रास्ता पार होता गया। नीचे पक्की सड़क भी दिखने लगी और हौसला बढाने लगी। उतरते समय मन में एक ही ख्याल है- जो साथी दवाईयाँ ले कर वापस उपर जाएंगे, उनका हश्र क्या होगा. . . 

कुछ दिक्कत के बाद उतर गए और सड़क पर जीप मिल गई। इस बार दाम थोडा़ अधिक लगाया। पर उतना तो चलेगा ही। ऐसे विखण्डित मार्ग पर वे यातायात सेवा जो दे रहे हैं! थोडी़ ही देर में जीप रूकी। अब वापस वही मैत्री- गिरीप्रेमी संस्था की पुलिया। उस पर जल प्रपात से ठण्डे पानी की छिंटे और तेज हवा आ रही हैं! उसे तो आसानी से पार कर लिया। लेकिन आगे एक जगह पर एक सूक्ष्म रॉक क्लाइंबिंग है। कल आते समय तो इससे आसानी से उतरना हुआ; पर अब चढना कठिन है। लेकिन फिर वीरेन्द्र जी ने हाथ दिया और जैसे तैसे उसे भी पार किया। मामुली खरोंच आयी। शरीर और मन को ऐसी राहों के लिए आदि बनाना है. . . जीप के बाद फिर थोडी पैदल यात्रा। यहाँ बी. आर. ओ. ने ब्रिज बनाया है। थोडी देर उसके लिए रूकना पडा। अन्जाने में मन अब भी अपने को कोस रहा है। 

यहीं पता चला कि तवा घाट के संगम पर जो बडा पूल था, वह नदी ने यहीं कही ला कर पटक दिया है! एक जगह उस पूल के कुछ अवशेष दिखायी भी दिए। यहाँ से धारचुला तक या फिर यहाँ से जौलजिबी तक बीच बीच में रास्ता वाकई जोखीमभरा है। क्योंकि कई जगह उसके उपर टूटे पहाड़ के हिस्से है। रास्ता बनाते समय उन्हे तोड़ कर ही तो रास्ता बनाया गया है। उनका डर है और फिर कुछ जगह पर रास्ते के नीचे का बेस टूट चूका है। युँ कहिए कि कुछ स्थानों पर रास्ता बिलकुल खोखला भी है। ट्रकवाले और अन्य लोग भी उसे देख कर अनदेखा करते हैं! शायद इसी वजह से दिल्ली- धारचुला बस अभी भी धारचुला के बजाय बलुवाकोट से ही लौट रही है। खैर।
देर सबेर दूसरी जीप ले कर धारचुला पहुँच गए। दवाईयों का एक बार सॉर्टिंग किया। डॉक्टरों ने सूचि बनायी है। उसके अनुसार अब सरकारी अस्पताल से दवाईयाँ लेनी हैं। इसी बीच कुछ साथी धारचुला आपदाग्रस्त शिविर भी गए और वहाँ कुछ कपडे बांट आए। वहाँ सप्ताह में एक दिन बच्चों के लिए दूध, हरी सब्जी, सोबायीन आदि भी देना है। बजार में जो उपलब्ध होगा वही देना पडेगा। और जो उपलब्ध नही है, उसे खरीदना है। अब अस्कोट में जा कर वही सब देखना पडेगा। धारचुला पहुँचने पर बीएसएनएल के फोन भी शुरू हुए। सबके घर पर बात हो गयी। एक साथी के परिवारवाले सम्पर्क न होने के कारण थोडे चिंतित थे; उनसे भी बात की गई। धारचुला में दवाईयों के साथ साथीयों के लिए कपडे और कुछ जरूरी सामान भी लिया गया। जाते समय उन्हे पता न था कि इतने दिन वहीं रूकना पडेगा। दवाईयाँ लेते लेते शाम हो गई। इसलिए अब वे दो साथी आज धारचुला में ही रहेंगे। क्यों कि अब वापस जाना और चढ पाना आज सम्भव नही है। वे आज विश्राम करेंगे और कल सुबह जल्दी निकलेंगे। बार बार मन उनके लिए चिंतित हो रहा है- कैसे वह इतनी चढाई चढेंगे और वह भी सामग्री ले कर?? और उनका आगे का रास्ता- खेला से पांगला, नारायण आश्रम और पांगू भी पूरा चढाई का ही है. . . 

. . .शाम आते आते बाकी हम लोग धारचुला से निकल लिए। अब बस हेल्पिया पहुँचना है। रास्ते में भी सर काफी काम फोन से कर रहे हैं। ट्रक को आगे लाने के लिए बात कर रहे हैं। राशन, अनाज और अन्य सामग्री सस्ते में कहाँ मिल सकती है, इसकी भी पूछताछ चल रही हैं। सामान के स्टोअर के बारे में भी बात हो रही है। और इतने काम को आगे ले जाने के लिए धन की आवश्यकता है। तो बैंक में खाता खोला है; पर अभी तक उन्होने चेक बूक नही दिया; कह रहे हैं कि सर्वर डाउन है। तो यह सब चल रहा हैं। हर कोई अपने सम्पर्क सूत्र प्रयोग कर अपना हिस्सा काम में ले रहा हैं। देखने में आया कि इस काम में कई अलग लोग भी जुड गए है। जैसे जीप के चालक नारायण जी- वे अर्पण संस्था के नही हैं। फिर भी सब तरह के कामों में स्वेच्छा से सहयोग ले रहे हैं। ऐसा लग ही नही रहा है कि वे ‘बाहर’ के है। अब तो सब मिल कर एक ही टीम के हैं। तनिक भी भेद नही। और हर कोई अपने लेवल पर कार्यरत है।

आते समय नया बस्ती में अर्पण की दीदी लोगों ने कुछ साडियाँ बाँटी। उनकी सब जगह- यहाँ भी- अच्छी पहचान है।  आगे के काम के बारे में सर काफी बातें समझा रहे हैं- जैसे कपडे बाँटना; चिकित्सा शिविर लेना; सहायता देना- ये बिलकुल उपरी कार्य है। वास्तविक महत्त्व का कार्य तो उससे अलग है। उन्होने बताया कि अब नदियाँ अपना मार्ग बदल रही हैं और सीधा प्रवाहित होने जा रही हैं। पहाड़ में अत्यधिक टूट फूट से काफी क्षेत्र असंरक्षित हो गया है। इसका जिओलॉजिकल तरिके से सर्वेक्षण होना चाहिए; उसके आधार पर कहाँ कहाँ बस्ती हो और कहाँ न हो; इसके लिए ले आउट बनाने चाहिए। सरकार से पैरवी की जानी चाहिए। अब धीरे धीरे राहत कार्य के अगले चरण भी शुरू होंगे। 

इन बातों के साथ काफी मिठी नोक-झोंक भी हो रही हैं! सर का तजुर्बा और हैसियत इतनी बडी होने के बावजूद भी वे एक दोस्त जैसे सबके साथ मजाक कर रहे हैं! आयु का भेद बिलकुल भी नही! कार्य के साथ हंसी मजाक भी चल ही रहा हैं! ऐसे समय सफर कितना भी हो; छोटा लगता है। 

जौलजिबी के आगे एक मोड कर कुछ वाहन खडे हैं। उतर कर देखा तो गड्ढे में एक ट्रक गिरी है। सामान्य से मोड पर दो लोग अपनी जान गंवा बैठे। शायद उसके पहले वे अपना होश शराब को गंवा बैठे होंगे। सफर आगे चलता जाता है। रूकना नही है। हेल्पिया पहुँचने तक रात हो गई। वहाँ पहुँचने पर अर्पण साथी और यहाँ तक कुतिया सीरो ने भी मुस्कान से स्वागत किया। अब कल से इस कार्य के दूसरे पहलू सामने आएंगे। 

गरगुवा से खेला जाने का पैदल रास्ता!

ऊँचे नीचे रास्ते और मंज़िल तेरी दूर. . . 
जीवन की धारा अनिवार्य रूप से मृत्यू अर्थात् उसका दूसरा छोर लाती है




































 
धारचुला में आखिरकर तिब्बत दूर न होने का एहसास देनेवाला कुछ दिख ही गया। एक होटल भी तिब्बती दिखा।


दो बार विस्थापित हुए नया बस्ती गाँव का एक घर. . . . नदी पीछे ही है. . .










































































क्रमश: