Saturday, September 17, 2022

अदू का आंठवा जन्मदिन: आनंद यात्रा के आंठ वर्ष!

 
१७ सितम्बर २०२२

✪ "ओह! मै कितनी क्युट थी!"
✪ वो छोटा बेबी कहाँ गया! ए वक़्त रूक जा, थम जा ठहर जा वापस जरा दौड़ पीछे!
✪ उत्तराखण्ड में लिया आनन्द और दिल्ली से वापसी की यात्रा
✪ मै दुनिया की सबसे लकी लड़की हूँ!
✪ स्कूल जाते समय स्वागत करनेवाले फूल!
✪ ना शेरवा का डर, ना बाघवा का डर, डर त डर टिपटिपवा का डर!
✪ ढेर सारी मौज और मस्ती

प्रिय अदू, यह तुम्हारा आंठवा जन्मदिन!! अदू, अब तुम सचमुच आंठ वर्ष की हो गई हो! हमारी पीढि की दृष्टि में कहें, तो कुछ कुछ होता है की‌ छोटी अंजली जितनी तुम बड़ी हुई हो! तुम्हारा एक फोटो भी था, बिल्कुल उसके जैसा!! हर साल की अनगिनत यादें हैं| लेकीन अब ये आंठ साल बहुत महसूस हो रहे हैं| और रह रह कर उस छोटे से बेबी की- छोटी अदू की याद आ रही है- वह अदू जो रैंगते रैंगते एक कमरे से दूसरे कमरे में‌ जाती थी| जो मिठी किलकारी मारती थी| उसे उठा लेना बहुत आसान भी था! उसे उठाने पर वो मुझे ठीक कन्धे पर ही कांटती थी! किलकारी मार कर हंसती थी! मेरे साथ बहुत खेलती थी और हाँ! वो बेबी दोपहर में सोता भी था! कभी कभी तो मेरे कन्धे पर ही सो जाता था! लगभग पीछले वर्ष तक तुम छोटे बच्चे जैसे रैंगते हुए कमरे में आती थी! तुम्हे उठाना आसान था| अब तो तुम्हे लगभग उठा ही नही पाता हूँ| अब तो तुम मुझे धकेल सकती हो, गिरा भी सकती हो! इतनी बड़ी हुई हो!

और अदू, एक बार जब मैने लैपटॉप पर तुम्हे तुम्हारे बचपन के फोटो दिखाए थे, तो तुम्हे कितनी ख़ुशी हुई थी! तुमने तुरन्त कहा था, ओह निनू, मै इतनी क्युट थी! रह रह कर उसे छोटे से बच्चे की याद आती है| उसकी, जिसने मुझे कहानियाँ कहना सीखाया, खेलना सीखाया, तरह तरह के आवाज सीखाए| वो छोटी अदू जो इतनी मिठी थी कि सिर्फ मेरे शर्ट के बटन से खुश होती थी! उड़ते हुए पंछी को देख कर खुशी से भर जाती थी! उस छोटी अदू को मै बहुत मिस करता हूँ| अब भी तुम उतनी ही मिठी हो| लेकीन उस बचपन की बात और थी| उस समय का तुम्हारा खुशी‌ से झूमना- चिल्लाना! ख़ुश होने पर तुम जोर से हसती भी थी और जब रोती थी, तो वो तुम्हारा ध्यान होता था!

रूकना जीवन का स्वभाव ही नही है! जो है, वो आगे जानेवाला है| जो अब है, वह अवस्था बदलनेवाली है| गति यही प्रकृति का नियम है! इसलिए प्रकृति तुम्हे ऐसी छोटी नही‌ रखेगी|‌ लेकीन फिर भी‌ मन में तुम्हारी बचपन की यादों को संजोता रहता हूँ, देखता रहता हूँ| तुम्हारे साथ की हुई मस्ती, तरह तरह के आवाज और तुम्हारा मैने खाया हुआ जंगल और चोटी! और हां, याद रखना, वह चोटी मेरी ही है, बस मैने सम्हालने के लिए तुम्हे दी है! तुमने लिए हुए तरह तरह के नाम- टमडी, टमकडी, ब्याऊ, पाबई ऐसे नाम और मुझे दिए हुए टोमड्या, ब्याऊ, निनू ऐसे नाम! और तुमने मुझे दिया हुआ और इस वक्त ट्रेंडिंग में होनेवाला नाम- टॉइंड्या! इन्हे लिखना भी कितना मज़ेदार है! यह सब देखते हुए बार बार मन कहता है- ए वक़्त रूक जा, थम जा ठहर जा, वापस जरा दौड़ पीछे! मुझे सन्तोष इस बात का है कि हर साल की ऐसी अनगिनत मिठीं यादे मैने तुम्हारे हर वर्ष के पत्र में लिखी हैं! और निश्चित ही मेरी फोटोग्राफिक स्मृति में भी वे सदैव जीवित हैं| और हम इतना आनन्द लेते हैं तो उसे आगे भी जारी रखनेवाले ही हैं!

उत्तराखण्ड में लिया आनन्द और दिल्ली से वापसी की यात्रा

पीछले साल हमने बहुत मस्ती की और आनन्द लिया| पीछले जन्म दिन पर स्कूल बन्द होने के कारण तुम नाराज थी| तुम्हारी नई स्कूल- केन्द्रीय विद्यालय शुरू तो हुई थी| लेकीन ऑनलाईन स्कूल तुम्हे पसन्द नही थी| कार्टून देखते हुए और आर्टस- क्राफ्टस करते हुए तुम खुद का मनोरंजन करती थी| कभी कभी तुम्हारे दोस्त- भाई बहन को व्हॉईस मॅसेज करती थी| हम मिल कर भी कभी कहानी कहते थे| अक्तूबर में लेकीन बड़े मज़ेदार दिन बिते| हम १५ दिनों के लिए उत्तराखण्ड को- पिथौरागढ़ को गए थे| और तुम तो हमारे लौटने के बाद भी बर्फ देखने के लिए वहीं‌ रही थी! और वहाँ होते हुए भी जब हम गूँजी को गए थे, तब भी कुछ दिन हमसे दूर रही| बुंगाछीना, सत्गड़ और बस्तड़ी में बिताए तुम्हारे दिन लेकीन बहुत अनुठे थे! हिमालय के गाँव और खेत, बहुत सारे भाई- बहन- मौसी- नाना- नानी और कल्लू- भोटू जैसे बड़े "भ्याऊँ" और ढेरों बकरिया, पेड़ और पहाड़! ऐसे माहौल का आनन्द तुमने लिया था! मुझे याद है सत्गड में घर के छत पर पहली बार तुमने क्रिकेट ठीक से खेला था! और बाद में हमने बुंगाछीना में एक छोटा ट्रेक भी किया था! उसमें भी तुम्हे थोड़ी दूरी तक उठाना पड़ा था! और सत्गड़ में चढाई की पगडण्डी पर भी तुम चली थी और एक बार उस चढाई पर मै तुम्हे उठा भी सका था! ऐसे हमने बहुत मज़े लिए थे! और तुमने तो हमसे भी ज्यादा आनन्द लूटा, क्यों कि आगे भी एक महिने तक तुम रूकी थी| और तुम समझ रही थी कि कितनी‌ अनुठी चीज़ों का आनन्द तुम ले रही हो! तुम्हे आनन्द देनेवाली बहुत सी चीज़ें थी, फिर भी‌ तुम इतनी छोटी थी कि तुम्हे रोना आना स्वाभाविक था| फिर भी तुम ज्यादा रोयी नही| जब हम तुम्हे विदा कह कर निकले और तुमने हमें बाय किया था| उसके बाद तुम्हारा रोना टूट पड़ा था| अत्यधिक ठण्डे मौसम में भी तुम वहाँ अच्छे से रही और बाद में ओमीक्रॉन के चलते जब तुम्हे वापस लाने का निर्णय किया, तब भी तुम रोयी! बर्फ का गिरना शुरू होने के कुछ दिन पहले ही तुम्हे लाना पड़ा था|

तुम्हे ले कर की हुई दिल्ली से परभणी की यात्रा! तुम तो मौसी के साथ पिथौरागढ़- दिल्ली ऐसी थकानभरी यात्रा कर के आयी थी| तुम्हे बहुत नीन्द आ रही थी और मै जैसे तैसे तुम्हे सोने से रोक कर स्टेशन पर पहुँचा| तब मैने जाना कि समस्त महिलाओं को बच्चों को ले कर यात्रा करना कितना कठिन होता होगा! निजामुद्दीन के बाहर के ही होटल से स्टेशन के प्लॅटफॉर्म तक पहुँचना मेरे लिए एक मुश्कील अभियान ही था! लेकीन तुमने भी तुम्हारी एक बैग उठायी और मेरा हाथ थामे चलती रही| सीट पर पहुँचने के बाद तुरन्त सो भी गई! बाद में तुम्हारे हिन्दी और मराठी बोलने से और खेल- कुद से सभी सहयात्रियों को तुमने खूब हंसाया! लगातार खेलती रही, सभी का मन बहलाती रही!  पूरी यात्रा अच्छी बिती, लेकीन परभणी में प्लैटफॉर्म पर ट्रेन आते आते तुम्हे उल्टी हुई! लेकीन फिर भी वहाँ भी तुमने शिकायत नही की|

तुम शान्त मन की हो| भीतर से बहुत निश्चिन्त हो| एक गहरी समझ तुम्हारे पास है| इस कारण तुम्हारी बहुत सी चीज़ें तुम खुद ही करती हो और बहुत अच्छी भी करती हो| तुम्हारा चीज़ों को रखना इतना अच्छा होता है कि मेरी कोई चीज़ कहाँ है, यह मै तुम्हे ही पूछता हूँ और तुम भी वह बता देती हो! दिल्ली से लौटने के बाद कुछ दिन हम परभणी में रहे| वहाँ तुम अनन्या- आजू के साथ खेलती थी| परभणी का घर हम छोड़ रहे थे, इसलिए तुम्हे दुख हो रहा था| लेकीन वहाँ‌ भी तुम्हारी शिकायत नही थी| जो अभी सामने है, उसमें से ख़ुश रहने का विकल्प तुम बराबर ढूँढ लेती हो| परभणी का घर छोड़ना तुम्हारे मन में जरूर था|‌ क्यों कि बहुत बाद में एक बार तुमने दादाजी को बोला कि क्यों दादाजी, आपने परभणी का घर क्यों छोड़ दिया? तब तुमने उन्हे सजा के तौर पर रोज एक कहानी कहने के लिए कहा था! हम सब परभणी से एक छोटी बस से पुणे आ रहे थे, तब अंताक्षरी में तुम्हे पता होनेवाले गाने सुन कर सभी चौकन्ने रह गएं! सभी को लगा कि ये गानें तुम्हे कब पता हुए! (उदा., जैसे साजन का गाना)!


आर्ट और क्राफ्ट
 
कोरोना राक्षस के बाद के दिनों में हमें चिकू पिकू पत्रिका ने बहुत साथ दिया, नही! उसकी कहानियाँ तुम्हे बहुत पसन्द आने लगी, जैसे याद ही हो गई! और तुम्हारे कारण सुन सुन के मुझे भी वह पसन्द आने लगी| चिकू पिकू के कारण तुम्हारे मराठी की मेरी चिन्ता दूर हो गई| बहुत मन लगा कर तुम पढ़ने लगी| कभी कभी तो मुझ पर ग़ुस्सा पर मुझे पत्र भी लिख कर फैंकती भी हो! चिकू पिकू की दिदी लोगों को एक बार तुमने मैसेज किया था| उसमें तुमने कहा था कि मुझे तो सभी दिदी लोग पसन्द आते हैं| मैने कहा कि ऐसा क्यों कहा, तब तुम्हारा उत्तर था कि किसी एक का ही नाम लेती तो और दिदीयों को बुरा नही लग जाता! ऐसी तुम्हारी समझ है|

कोरोना के बाद विद्यालय शुरू होने के पहले कुछ महिने हम लगातार साथ थे| क्यों कि तुम्हारी नानी उत्तराखण्ड में ही रूकने के कारण मै ज्यादा यात्रा नही कर सकता था| उसमें भी खेलने के लिए थोड़े ही दोस्त और बाहर का डर इससे हम घर में ही होते थे| यहाँ तुमने तुम्हारी आर्ट और क्राफ्ट को और निखार दिया| हमेशा कुछ ना कुछ करती रहती थी| स्टेपलर की पिन्स से किताब या बही बनाना तो तुम्हे बहुत पसन्द आता था! ये दिन वैसे कठिन ही गए| क्यों कि माँ साथ में होने पर भी दिन भर हम दोनों ही साथ हुआ करते थे| उससे कभी तनातनी भी हो जाती थी| या कभी तुम्हे तुम्हारे पेपा, रुद्रा- पिनाकी के साथ भी छोड़ना पड़ता था|‌ क्यों कि मेरा भी काम चलता था| कभी कभी हम अनन्या- आजू के पास डिएसके में जाते थे| वहाँ जाने पर तो तुम दिनभर मुझसे बात भी नही करती थी, इतनी बहनों में खो जाती थी! एक बार जब हम वहाँ जाने के लिए निकले थे, तब तुमने मुझे कहा भी कि *मै तो दुनिया की सबसे लकी लड़की हूँ!* मुझे दो बहनें हैं, दादा- दादी के पास मै जा रही हूँ| वहाँ तुमने बहुत एंजॉय किया| उस समय तुम बहनें साथ खेलती, किताब पढ़ती थी, तारा राणी सिरियल भी साथ देखती और सोती भी साथ ही थी| और मै तुमसे खेलने आता तो तुम चिल्लाती थी कि आतू बचाओ! वहाँ से लौटने पर लेकीन तुम्हे बहनों की याद से तकलीफ हुई और अब भी होती है... लेकीन ऐसा क्राफ्ट करते करते और कुछ विडियोज देख कर तुम्हे कई कल्पनाएँ सुझती हैं| ऐसे ही तुम डबल टेप के इस्तेमाल के द्वारा स्टिकर्स बनाना सीख गई! जैसे पहले कोई चित्र उतारना- स्मायली, कोई प्राणी या तुम्हारा वो प्यारा युनिकॉर्न- एक सिंगा! या बीटीएस आर्मी! कभी तारा भी| फिर तुम उसमें रंग भरती और उसके बाद पर्र पर्र कर के ग्ल्यू स्टिक से उस पर एक तरह का लैमीनेशन बनाती| और फिर छोटे डबल टेप के टुकड़े से चिपक सकनेवाला स्टिकर बनाती! तुम्हारी ये कुछ ट्रिक्स तो मुझे भी पसन्द आयी! अब मै भी ऐसा स्टिकर बना सकता हूँ!

स्कूल जाते समय स्वागत करनेवाले फूल!

धीरे धीरे कोरोना राक्षस को सभी बच्चों की इच्छाशक्ति के सामने हार माननी पड़ी और वह निकलने के लिए तैयार हुआ| जल्द ही स्कूल खुलेंगे ऐसा पता चला| उससे हमारे लिए तो बहुत कुछ बदल गया| क्यों कि हम चाकण छोड़ कर औंध रहने के लिए आए, तुम्हारी स्कूल के पास! तुम्हारी स्कूल से हमारी कईं चीज़ें बदली| नया घर मिल गया| उससे कई लोग हमेशा मिलने के लिए आने लगे| तुम्हे कबीर के रूप में स्वीट सा मित्र मिला! वो बेचारा बिल्डिंग में कोई दोस्त न होने से उदास था! उसकी और तुम्हारी दोस्ती को खिलते समय ही नही लगा! दादा- दादी भी पुणे में आने के कारण उनसे अधिक मिलना होने लगा| बाद में तो मामा- मामी भी नागपूर से फिर पुणे आए| लेकीन इसमें स्कूल का फिर से शुरू होना बहुत बड़ी बात थी| मुझे याद है वह दिन| कोरोना ने दो सालों तक स्कूल रोकी थी|‌ अन्त में तिसरी कक्षा का वर्ष शुरू हुआ और अप्रैल में स्कूल खुल गई| पहले ही दिन भोर होते होते तुम उठ कर जल्द तैयार हुई| बल्की रात में ही सब स्कूल बैग भर कर तुम जल्द सोयी थी| इतना तुम्हारा समय का ख्याल पक्का है! स्कूल में जाने के लिए हम निकले तो तुम्हारे स्वागत के लिए आँगने में फुलों की चदरिया जैसी बिछायी गई थी! स्कूल शुरू होने के बाद कई दिनों तक तुम खुशी की सैर कर रही थी| लेकीन वास्तव में बिल्कुल नया माहौल, लिखने- पढ़ने का तनाव और थकान| फिर भी तुम उसमें से आनन्द देनेवाले पहलुओं को ही देखती रही| कुछ लोग शिकायत- केन्द्रित होते हैं| लेकीन तुम आनन्द- केन्द्रित हो| नए स्कूल में तुम्हे बहुत कुछ मन को भाया| बहुत दिनों के बाद तुम्हे तुम्हारी उम्र के दोस्त और सहेलियाँ मिली| स्कूल का क्लास रूम- ग्राउंड और शिक्षक भी मिले| बाद में तो स्कूल वैन के दोस्त भी मिले|



बच्चों को अगर हमं बेहतर चीज़ें देते हैं तो जो अच्छा नही है, उसे रोकने के लिए उन्हे कहना नही पड़ता है| स्कूल में और बाद में होमवर्क- शुद्धलेखन अभ्यास और स्वाध्याय में तुम्हे इतनी रुचि आने लगी जिससे तुम्हारे टीवी के वे दोस्त- पेपा- रुद्रा- पिनाकी आदि एकदम कम हो गए! उसके साथ स्कूल और चिकू पिकू पत्रिका से जल्द ही तुम्हारी पढ़ने और लिखने की धिमी हुई गाड़ी तेज़ हुई| जन्मदिन पर हैरी पॉटर का पहिला पुस्तक दे कर मै इस गाड़ी के इंजिन को और भी आगे धकेल रहा ही हूँ! पुस्तक पढ़ने का मज़ा भी तुम्हे पसन्द आने लगा है| कहानी और कविता पढ़ना और पसन्द आने लगा है| जब तुम छोटी थी, तब तुम्हारा एक गाना था| वही गाना चिकू पिकू पत्रिका में जब तुमने पढ़ा तो इतना तुम्हे भाया और इतना मज़ा आया कि तुम उसे गाने लगी! बहुत बार तुमने उसे गाया! और तुम्हारे स्कूल में भी तुम्हे बहुत मज़ेदार कहानियाँ मिलती हैं! वह टिपटिपवा की कहानी तो कितनी‌ मज़ेदार है!


ना शेरवा का डर, ना बाघवा का डर, डर त डर टिपटिपवा का डर!

तुम्हे यह कहानी सुनाते हुए तुम्हे भी मज़ा आया और मुझे भी! इस वर्ष की और खास यादों में झोंबी और ज्युरासिक वर्ल्ड पिक्चर भी हैं! झोंबी देखते समय तुम्हे बिल्कुल डर लगा ही नही| तुम्हे तो उन झोम्बियों पर हंसी ही आ रही थी! इस पिक्चर के बाद लेकीन एक घटना घटी| पिक्चर में झोंबी आ जाने के बाद कुछ दिन घर में भी एक छोटा नन्हा सा झोंबी बीच बीच में आ कर सभी को डराता था! ज्युरासिक वर्ल्ड में तो और मौज आयी! मुझे लगा था कि तुम्हे बहुत डर लगेगा| तुम कहोगी कि चलो, बाहर निकलते हैं| लेकीन हुआ कुछ उल्टा ही! डायनॉसॉर को देख कर तुम इतनी ज्यादा मुस्कुराई और तुम्हे बहुत मज़ा आने लगा! डर तो इतना सा भी नही लगा! तुम तो डरी नही, लेकीन बाद में फिर घर में अचानक से दहाड़नेवाले डायनॉसॉर से सभी बहुत डरने लगे! और जब मै भी तुम्हारी नक्ल कर तुम्हे डराता था, तब तुम भी ठिठकती थी! और अभी इन दिनों तुम हर किसी को भॉsssक भॉsssक कर रही हो| और मै भी "जैसी करनी वैसी भरनी" (तुम्हारे ही कार्टून का वाक्य) कह कर तुम्हे डराता हूँ!  तुम्हारे इन दिनों के सबसे प्यारे कार्टून मित्र- वे पेपा सुअर, बाईस्का जुबाईस्का रुद्रा, कर भला तो हो भला कहनेवाला वो कोई इन्सान या प्राणी और गिटार बजानेवाले वे बड़े बड़े भालू! इन तुम्हारे कार्टून्स में उस एक सिंगा अर्थात् युनिकॉर्न की कितनी बड़ी क्रेज है! कमाल करते हैं वे लोग! तुम्हारी सभी चीज़ों में वही एक सिंगा- युनिकॉर्न! चाहे वह स्कूल बैग हो, टिफिन बैग हो, पेन्सिल या ड्रेस या पर भी! इन लोगों से सच में मार्केटिंग सीखना चाहिए! तुम्हारे कार्टून के मित्र और प्राणियों की पूछताछ करता हूँ तो कैसी मुस्कुराती हो! और हर जगह एक सिंगा देख कर मै ठिठक जाता हूँ और तुम उससे ख़ुश होती हो और बराबर मेरे सामने क्ले का एक सिंगा कर के छुपाती हो!

ढेर सारी मौज और मस्ती

अदू, तुम अब "इतनी बड़ी" हुई हो और अब लगभग तुम्हे मै उठा नही सकता हूँ! लेकीन फिर भी हम उतनी ही मस्ती करते हैं और मज़े भी करते हैं! जब तुम स्कूल जाती हो, तो कभी कभी सड़क पर किसी गाड़ी से कोई बड़ा "भ्याऊ" खिड़की से मुंह बाहर निकालते हुए दिखाई देता है! या वैन की राह देखते समय अचानक कोई पेपा सुअर दौड़ते हुए आता है! एक बार तो मैने तुम्हे कहा भी कि तुम्हे पेपा इतना अच्छा लगता है तो तुम उसे गोद में उठा क्यों नही लेती हो? या उसके पीठ पर भी क्यों नही बैठती हो! हमारे बैडमिंटन का मज़ा भी अलग ही है! उसमें तुम्हारा वह रुठना और मुझ पर ग़ुस्सा करना| और ग़ुस्से में तुम कहती हो कि नही, अब तुमसे नही बात करूँगी, कभी नही| और तब जब मै कहता हूँ, ओह, अच्छा, बहुत खूब! तो तुम तुरन्त कहती हो नही नही, अभी से ही बात करती हूँ! एक बार जब हम बैडमिंटन खेल रहे थे, तब पेड़ पर चढ़ी बिल्ली याद है ना! ये सब मै भी उतना ही एंजॉय करता हूँ जितनी तुम करती हो! या जब तुम स्कूल से आती हो, तो हम उपर की मंजिल पर जाते हैं| तब मै धीरे से तुम्हे समझे बिना आगे हो लेता हूँ और द्वार की तरफ दौड़ता हूँ और कहता हूँ येस, पहला नंबर मेरा! तब तुम भी दौड़ कर मुझे ओवरटेक करती हो| या कभी कभी कहती हो, ठीsssक है, जाओ तुम ही आगे (मुझे कुछ फर्क नही पड़ता है)! या कभी तुम मेरे पीछे दौड़ती हो और अचानक मै ठहर जाता हूँ और तुम मुझसे टकराती हो और चिल्ला के कहती हो निनू, तुम पगले हो क्या? तुम कितने फनी हो! फोन पर बोलते समय भी तुम ऐसी ही बात करती हो, पगले राक्षस! क्या क्या नाम तुमने मुझे दिए हैं! इन दिनों टॉईंड्या नाम प्रचलन में है! टाईप करने में भी कठिन यह नाम है! कहाँ कहाँ से तुम्हे टोमड्या, टॉईंड्या ऐसे नाम सुझते हैं!

तुम्हारा वो औ पाबई लिटल डक का आवाज निकालना इन दिनों थोड़ा कम हुआ है| लेकीन तुम्हारी नौटंकी, एक्टिंग और ओवर एक्टिंग बिल्कुल भी रूकी नही है| रोने की नक्ल तो इतनी आश्चर्यजनक करती हो! सभी एक्स्प्रेशन्स, स्वर और शोरगुल! उसके साथ आँखों में आंसू दिखें, इसके लिए पानी की बून्दें भी लगाती हो! रोने की नक्ल करते हुए माँ को फोन करती हो| कभी कभी ग़ुस्सा करने पर हाथ बान्ध कर मुंह मोड़ लेती हूँ| कभी कभी जब मुझे तुम्हारा पीछा छुड़ाना होता है, तो मै भी झगड़ने का नाटक करता हूँ जिसे तुम तुरन्त पकड़ लेती हो! कभी छिप के बैठती हो! तुम्हारी स्मृति बहुत ही तेज़ है, इससे तुम्हे बचपन की यादें भी याद आती हैं| जब मेरी गोद में कैसे तो भी लेटती हो तो सोने का नाटक करती हो और मुझे बताती हो कि नीन्द का पहला- दूसरा- तिसरा गेअर आया और तब खर्राटे भी लेती हो! एक बार सुनी‌ हुईं चीज़ें भी तुम्हे ठीक याद रहती हैं!

इस वर्ष की और यादों में स्कूल के साथ तुम्हारा ड्रॉईंग क्लास! तुम्हारे चित्र अब और बेहतर बन रहे हैं| चित्र उतारने के लिए जो संयम और जो स्थिर चित्त चाहिए, वह तुम्हारे पास है| इसलिए तुम्हारे पढ़ने के आलस्य की मुझे उतनी चिन्ता नही होती है| और जब मुझे तुम्हे याद देनी होती है, तो मै तुम्हे सिर्फ पढ़ाई आलसी कह के पुकारता हूँ! या तुम बचपन में जैसे अटकते अटकते पढ़ती थी, वैसा पढ़ता हूँ! तब तुम्हारे चेहरे के भाव और ग़ुस्सा देखने जैसा होता है! पीछले दो महिनों की और एक खास बात थी हमारी डबलसीट राईडस! और एक या दो सालों तक शायद हम ऐसी राईडस कर सकेंगे! तुम्ही साईकिल पर से स्कूल में छोड़ते समय या नदी पर घूमाने के लिए ले जाते समय मुझे बहुत मज़ा आया| एक बार तो हम डबल सीट ही गिरीश चाचा के यहां गए! १५ किलोमीटर डबल सीट राईड हुई थी यह! तब थोड़ी बरसात भी चल रही थी| लेकीन तुम्हारा कहना था कि इतनी थोड़ी बरसात में तो चिंटी भी नही डरेगी! ऐसी यह आंठ सालों की आनन्द यात्रा अदू! कितना भी कहने पर पूरी नही कही जाएगी, ऐसी कहानी है यह!

एक कहानी तुम्हे कह कर यह पत्र पूरा करता हूँ| तुम्हे खरगोश और कछुए की कहानी तो पता है हि| उस कहानी में बाद में हुई घटना कहता हूँ| हार के कारण खरगोश बड़ा नाराज़ था| सभी उसका मज़ाक उड़ाते थे| तब बाद में खरगोशों ने तय किया कि हम भी जीत के दिखाएंगे| तब खरगोश ने फिर एक बार कछुए को चैलेंज किया| सड़क पहले की ही थी| रेस का समय तय किया और निकले| इस बार खरगोश बड़ा सचेत था| पहले खरगोश जैसी गलती वह नही करनेवाला था| रास्ते में कहीं पर भी वह सोया नही| बैठा भी नही| तेज़ी से दौड़ता गया और पहुँचा और जीत भी गया! कछुआ पीछे ही रहा और हार गया| खरगोश ख़ुश हुआ| लेकीन कछुआ नाराज़ हुआ| नाराज़ कछुए ने फिर एक बार खरगोश को चैलेंज दिया| खरगोश भी तैयार हुआ| इस बार रास्ता कछुए ने तय किया| उसे जैसे चाहिए था वैसा लिया| दोनों निकले| खरगोश तेज़ी से आगे बढ़ा| बीच में एक पहाड़ था| खरगोश त्वरा से उस पर चढ़ा और उसके ठीक सामने खाई थी| वहाँ वह फिसला और सामने ही एक नदी बह रही थी| वहाँ जा कर खरगोश ठिठक गया| उसे तो तैरना नही आता था| कछुआ धीरे धीरे डोलते हुए आया और उसने आराम से वह नदी पार की| नदी के उस तरफ ही निशान था| इस बार कछुआ जीता|

लेकीन खरगोश हारा, इसका कछुए को भी बुरा लगा| क्यों कि दोनों में अब दोस्ती हुई थी ना| दोनों ने सोचा कि ऐसी रेस अब दोबारा नही चाहिए| एक ही बार अन्तिम रेस खेलेंगे| तब उन्होने वही रास्ता तय किया| शुरू में जमीन, फिर पहाड़ और फिर नदी| दोनों निकले| लेकीन इस बार उनमें दोस्ती थी| इसके लिए शुरू में खरगोश ने कछुए को पीठ पर लिया| दोनों तेज़ी से आगे बढ़े| कछुए ने खरगोश को पहाड़ पर थोड़ा रोका और आराम से उतरने के लिए कहा| उसे फिसलने से बचाया| आगे जब नदी आयी, तो खरगोश रूक गया| कछुआ नीचे उतरा और उसने खरगोश को पीठ पर लिया और वे दोनों पार हुए और दोनों एक ही समय पर पहुँचे और जीते!

इसे पूरा पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

- निरंजन वेलणकर 09422108376 (उसको लिखे हुए अन्य पत्र पढ़ने हो या उसके लिटल डक के आवाज, कहानियाँ और गाने सुनने हो तो मैसेज कर सकते हैं|)

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