Wednesday, March 2, 2022

हिमालय की गोद में... (कुमाऊँ में रोमांचक भ्रमण) १४: रोमांचकारी पाताल भुवनेश्वर

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कल महाशिवरात्रि थी और आज मै एक अनुठे शिव मन्दिर पर लिख रहा हूँ| उत्तराखण्ड में होने के दौरान पाताल भुवनेश्वर को जाने का अवसर मिला| यह ट्रेक नही था, लेकीन एक ट्रेक जैसी ही थकानेवाली दूर की यात्रा थी| हिमालय में भ्रमण समाप्त होते होते वहाँ जाने का अवसर मिला| ९ नवम्बर की सुबह| गूंजी जैसे ही यह यात्रा जीप से करनी है| पाताल भुवनेश्वर पिथौरागढ़ जिले में ही स्थित है, लेकीन जाने का रास्ता बड़ी दूर से और घूमते हुए जाता है| मज़े की बात यह है कि हम जिस बुँगाछीना में कुछ दिन रहे थे, वहाँ से पैदल पगडण्डी से पाताल भुवनेश्वर पास ही था| लेकीन सड़क घूमते हुए जाती है| सुबह आठ बजे सत्गड से निकले| निकलते समय सत्गड पर बादल छाए हैं और ध्वज मन्दिर बादलों में खो गया है! इस बार हमारे साथ होंगे जितूजी, जो गूंजी के दौरान भी हमारे साथ थे| गाड़ी भी उन्ही की है| पिथौरागढ़ के पास तेल डाल कर बुँगाछीना- थल रास्ते से निकले| निकलते समय जाने की ही यात्रा लगभग १२० किलोमीटर की- कम से कम पाँच घण्टों की है, इसका अन्दाजा नही था| इस रूट पर मै थल- चौकोड़ी- बागेश्वर ऐसा दिसम्बर २०१२ में‌ अकेला घूमा था, उस यात्रा की याद आ रही है| पिथौरागढ़ में २०११ में पहली बार गया था, तब से पाताल भुवनेश्वर के बारे में सुना था| लेकीन जाने का मौका आज आया है!



थल गाँव से एक सड़क मुन्सियारी की तरफ जाती है, एक चौकोड़ी- बागेश्वर की तरफ जाती है| थल गाँव रामगंगा नदी के तट पर बंसा है| दूरी अधिक होने के कारण ज्यादा रूके बिना यात्रा चल रही है| थल में भी जब नाश्ते के लिए होटल नही मिला, तो एक दुकान से उठाया हुआ फास्ट फूड ही नाश्ते जैसा खा लिया| हिमालय में हम कहीं भी घूम रहे हो, तो भी ऊँचे पहाड़, लगातार मूड़नेवाले घाट के रास्ते, पहाड़ों के बीच खाई और खाई की गहराई से बीच बहनेवाली नदी यह दृश्य लगातार चलता रहता है! नदी के बाद सड़क फिर उपर उठनी लगती है! थल से सड़क उपर उठने लगी और चौकोड़ी तक उपर चढ़ेगी| उपर आने पर दूर के हिमाच्छादित शिखर दिखाई देने लगे| नीचे रामगंगा भी छोटी दिखाई देने लगी| यहाँ अदू को उलटी की तकलीफ हुई| इसलिए चौकोड़ी के कुछ पहले घाट में थोड़ी देर रूकना पड़ा| चौकोड़ी हे २००० मीटर ऊँचाई का पर्यटन स्थल है| यहाँ से सड़क मूड़ी और नीचे खाई की तरफ जाने लगी| पाताल भुवनेश्वर आखिर पाताल जैसे स्थान पर ही तो है|




लगभग दोपहर १२ बजे पाताल भुवनेश्वर पहुँचे| इस छोटे से स्थान पर अब बहुत से रेसॉर्टस और दुकान आदि खुल गए हैं| साथ में होनेवाले जितूजी ने मन्दिर की काफी जानकारी बतायी कि यहाँ‌ अन्दर हवा कम है जिससे छोटे बच्चों को साँस लेने में दिक्कत हो सकती है| यहाँ ३३ करोड़ देवताएँ रहती हैं, यहाँ से भूमिगत राह सीधा बद्रीनाथ- केदारनाथ तक जाती है, पाताल भुवनेश्वर देखने से चार धाम यात्रा का पुण्य मिलता है आदि आदि| मन्दिर के परिसर में भी इसी तरह के विवरण दिखे| मन्दिर के भीतर गुफा में कई जगह पर पत्थर से बनी रचनाएँ, गुफा में बहनेवाली जल धाराएँ, अन्दर की संरचना आदि को ले कर सैकड़ों मान्यताएँ हैं कि यहाँ सब देव वास करते हैं, यहीं पर ब्रह्मदेव आए थे आदि| इन सब बातों को वहीं छोड़ दिया| लेकीन एक प्राकृतिक और रमणीय स्थान के तौर पर यह गुफा बिल्कुल एंजॉय करने जैसी है| पास का परिसर भी सुन्दर है| सुदूर हिमशिखर लगातार साथ देते हैं|




गुफा में उतरते समय एक गाईड साथ में है| गुफा में जाते समय भी पत्थरों के बीच ही उतरना पड़ा| रॉक क्लाइंबिंग! ९० फीट गुफा की‌ गहराई है| अन्दर कई छोटी गुफाएँ/ कमरें हैं और उनकी भी कई कहानियाँ सुनने को मिली| अन्दर की सतह गिली है, इसलिए फिसलन का खतरा लगा| जमीन के नीचे जाने का अनुभव रोमांचकारी लगा| लगभग आधे घण्टे तक गुफा में अलग अलग जगहों पर गाईड ने घुमाया| किसी को भी साँस लेने में दिक्कत नही आयी| सिर्फ कहीं कहीं फिसलन का डर लगा| चढ़ते समय का रॉक क्लाइंबिंग अदू कैसे करेगी, यह सन्देह मन में था| उतरते और चढ़ते समय भी एक लोहे की रस्सी आधार देने के लिए है, फिर भी पैर रखने में जगह कम है| लेकीन अदू ने यह रॉक क्लाइंबिंग बड़ी आसानी से और जोश से किया! अन्दर क्या है, कैसे जाना है और क्या देखना है, यह बाहर से पता नही चलता है और इससे यह मन्दिर देखना रोमांचक लगा| हल्का सा तनाव भी लगा और बाहर आने पर एकदम राहत मिली| सत्गड में साथ क्रिकेट खेलनेवाला और ध्वज मन्दिर पर आनेवाला आदित्य यहाँ पर नही आया था| वह गेन्दबाज़ी करते समय (और बल्लेबाज़ी के समय भी) खुद को बुमराह कहता था| देखो बुमराह की बॉलिंग, कहता था! इसलिए भुवनेश्वर को मिलते समय बुमराह को ज़रूर मिस किया!




मन्दिर के बाहर ही एक होटल में भोजन किया और निकले| दोपहर के तीन बजे हैं| पहुँचने तक रात होनेवाली है| हिमालय के घाटों में दिन में यात्रा करना और रात में करना, इसमें फर्क होता है! साथ होनेवाले जितूजी अनुभवी चालक हैं, इसलिए कोई दिक्कत नही है| लौटते समय थोड़े अलग रूट से अर्थात् थल- डीडीहाट- ओगला- कनालीछीना ऐसे निकले, क्यों कि सुबह की सड़क रात के अन्धेरे में जाने में उतनी ठीक नही थी| साढ़ेपाँच बजे अन्धेरा हुआ और हिमालय अन्धेरे में विलुप्त हो गया| बीच बीच में लगनेवाले छोटे गाँवों के अलावा पूरा अन्धेरा है| लेकीन अन्धेरे में भी पहाड़ में कहीं कहीं दिए दिखाई दे रहे हैं| जितूजी को बातें बताने का शौक है, इसलिए वे कईं बातें बता रहे हैं| पहले भी उन्होने हमें गूंजी के बारे में बहुत कुछ बताया था| तब उन्होने कहा था कि काली गंगा का उगम काला पानी में होता है| लेकीन वहाँ काली नदी को काल अर्थात् मृत्यु या शिव के संहारक स्वरूप में संगिनी का प्रतिक माना जाता है| इसलिए जब तक जौलजिबी में गोरी गंगा नदी उसमें आ कर नही मिलती है, तब तक उसमें कोई भी पुण्य कर्म नही किए जाते हैं| ऐसी कईं बातें वे बता रहे हैं| इसलिए यह यात्रा थकानेवाली जरूर रही, लेकीन बोरींग बिल्कुल भी नही हुई| ओगला के बाद बड़ी सड़क- हायवे मिला और सत्गड पास आता गया| हालांकी सत्गड पहुँचने के बाद भी अत्यधिक ठण्ड में और थकी हुई हालत में दस मिनट का ट्रेक भी करना है| और उसके लिए मन से तो सभी थके हैं| सत्गड पहुँचने के बाद जैसे तैसे चलने लगे| सब की मनस्थिति देख कर मोबाईल में "लक्ष्य" चित्रपट के गाने लगाए| एक तो सभी थके हैं और रात में यहाँ अन्धेरे में कोई भी बाहर नही होता है| गाने सुनते हुए चढ़ने लगे| आसपास घना अन्धेरा और आकाश में टिमटिमते तारे!



अदू अक्सर यहाँ पैदल चलती है| लेकीन आज थकान के कारण वह उठाने को कह रही है| थोड़ी देर मैने और उसकी माँ ने उसे उठाया और चलते रहे| थोड़ा रूकते रहे और उसे भी चलाते रहे| धीरे धीरे ऐसे करते हुए वह चढाई पार हुई| इतना चल चुके, अब थोड़ी ही चढाई बाकी है, अब आसान पगडण्डी है, ऐसा कहते हुए उसे भी चलाया| मज़े की बात तो यह थी कि हमारे सत्गड के रिश्तेदार उसे आराम से कन्धे पर बिठा कर हाथ में वजनी सामान ले कर भी चल पाते हैं| अगर वे अभी साथ होते, तो उसे मुस्कुराते हुए कन्धों पर रख कर चल जाते| और दूसरी मज़े की बात यह कि एक बार खेलने के दौरान अदू ने मेरा हाथ उनके हाथ के पास रखा था| तब मेरा हाथ तो बहुत छोटा नजर आया, एकदम ही छोटा! उनका हाथ बहुत बड़ा लगा, मेहनत से ढला हुआ! कुमाऊँ प्रदेश गोरखाओं के नेपाल के बहुत करीब है और कुमाऊँ लोग गोरखाओं के छोटे भाई हैं, इसका भी स्मरण हुआ! अब जल्द ही हिमालय से विदा लेना है! लेकीन अदू यहीं पर उसकी मौसी के पास रहेगी| उसे हिमालय का सत्संग और कुछ समय तक मिलेगा!




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