"मेरे गाँव में एक पुजारी था| वह सुबह तीन घण्टे और शाम को तीन घण्टे
बालाजी के मन्दिर में भजन करता था| उसका नाम किसी को भी याद नही था, सभी
उसे बालाजी ही कहते थे| उसका भजन चिल्लाना ज्यादा था| सभी लोग उसके शोर से
पीडित थे, लेकिन पुजारी होने के कारण कोई नही बोलता था| सभी लोग उसे बहुत
धार्मिक समझते थे, इसलिए कोई कुछ नही कहता था| वह उस मन्दिर के पास एक खाट
पे ही रात नौ बजे सो जाता था| उसकी खाट के सामने एक छोटा सा कुंआ था|
एक बार मैने सोचा की उसके चिल्लाने- चीखने का कुछ उपाय करना चाहिए| सोचा कि रात को ग्यारह बजे उसे उठा कर खाट समेत कुंए पर रख देते हैं और तब देखते है कि उसे बालाजी की कितनी याद आती है| मै छोटा था, तो मैने तीन पहलवानों को तैयार किया| रात में ग्यारह बजे वे आनेवाले थे| लेकिन एक पहलवान राजी नही हुआ| इसलिए मैने मेरे दादा को तैयार किया| पहले तो दादा बड़े चकित हुए कि उनसे ही मैने मदद माँगी| मैने कहा कि आप बस दो मिनट खाट उठाने के लिए हात दिजिए, फिर आप जो कहेंगे वह मै करूँगा| वे भी बड़े विरला थे, इसलिए वे तैयार हुए|
जब पहलवानों ने मेरे दादा को आते देखा तो वे डर गए- उन्हे लगा की पकड़े गए| मैने उनको समझाया कि एक पहलवान नही आनेवाला था, तो उसकी जगह दादा आए हैं| रात ग्यारह बजे पूरा सन्नाटा था| हमने चुपके से उसे उठाया और धीरे से खाट कुएं पर रख दी| वह सोता ही रहा| मैने तुरन्त दादा को जाने के लिए कहा- क्यों कि वे पकड़े जाते तो मुसीबत होती| फिर हम लोग कुछ दूरी पर खड़े हो कर उसे पत्थर मारने लगे| थोड़े ही देर में वह जग गया और उसके रौंगटे खड़े हुए! उसने जो चीख मारी... उस शोर से भीड़ इकठ्ठी हो गई. . . वह बहुत डर गया था| लोगों ने ही उसे कहा कि पहले कम से कम खाट से उठ कर बाहर तो आओ| तब भीड़ में से मैने उसे पूछा, क्यों जी, आपने सहायता के लिए बालाजी को क्यों नही याद किया? आप उसे भूल तो नही गए? वह आदमी सच्चा था| उस दिन से वह बदल ही गया| फिर उसने मुझे बाद में कहा, कि अच्छा किया तुमने| तुम्हारे कारण ही मै अब देख सकता हुँ कि मै जो शोरगुल करता था, वह उपर ही उपर था| भीतर तो डर के अलावा कुछ भी नही था| उस दिन जो चीख मैने मारी; वो मेरे अन्तर्मन से आयी थी| उससे मुझे एहसास हुआ कि मै कितनी बाहरी लिपापोती में लीन था| ऐसे उसने मुझे धन्यवाद दिया और उस दिन से उसकी जिन्दगी बदल सी गई| धीरे धीरे उसने सब पूजा बन्द की| वह कहने लगा कि, मन में अगर बालाजी नही है और डर है तो वही सही| उसे कैसे झुठलाएं? बूढा होते होते वह आदमी जागृत होता गया|" - ओशो
एक बार मैने सोचा की उसके चिल्लाने- चीखने का कुछ उपाय करना चाहिए| सोचा कि रात को ग्यारह बजे उसे उठा कर खाट समेत कुंए पर रख देते हैं और तब देखते है कि उसे बालाजी की कितनी याद आती है| मै छोटा था, तो मैने तीन पहलवानों को तैयार किया| रात में ग्यारह बजे वे आनेवाले थे| लेकिन एक पहलवान राजी नही हुआ| इसलिए मैने मेरे दादा को तैयार किया| पहले तो दादा बड़े चकित हुए कि उनसे ही मैने मदद माँगी| मैने कहा कि आप बस दो मिनट खाट उठाने के लिए हात दिजिए, फिर आप जो कहेंगे वह मै करूँगा| वे भी बड़े विरला थे, इसलिए वे तैयार हुए|
जब पहलवानों ने मेरे दादा को आते देखा तो वे डर गए- उन्हे लगा की पकड़े गए| मैने उनको समझाया कि एक पहलवान नही आनेवाला था, तो उसकी जगह दादा आए हैं| रात ग्यारह बजे पूरा सन्नाटा था| हमने चुपके से उसे उठाया और धीरे से खाट कुएं पर रख दी| वह सोता ही रहा| मैने तुरन्त दादा को जाने के लिए कहा- क्यों कि वे पकड़े जाते तो मुसीबत होती| फिर हम लोग कुछ दूरी पर खड़े हो कर उसे पत्थर मारने लगे| थोड़े ही देर में वह जग गया और उसके रौंगटे खड़े हुए! उसने जो चीख मारी... उस शोर से भीड़ इकठ्ठी हो गई. . . वह बहुत डर गया था| लोगों ने ही उसे कहा कि पहले कम से कम खाट से उठ कर बाहर तो आओ| तब भीड़ में से मैने उसे पूछा, क्यों जी, आपने सहायता के लिए बालाजी को क्यों नही याद किया? आप उसे भूल तो नही गए? वह आदमी सच्चा था| उस दिन से वह बदल ही गया| फिर उसने मुझे बाद में कहा, कि अच्छा किया तुमने| तुम्हारे कारण ही मै अब देख सकता हुँ कि मै जो शोरगुल करता था, वह उपर ही उपर था| भीतर तो डर के अलावा कुछ भी नही था| उस दिन जो चीख मैने मारी; वो मेरे अन्तर्मन से आयी थी| उससे मुझे एहसास हुआ कि मै कितनी बाहरी लिपापोती में लीन था| ऐसे उसने मुझे धन्यवाद दिया और उस दिन से उसकी जिन्दगी बदल सी गई| धीरे धीरे उसने सब पूजा बन्द की| वह कहने लगा कि, मन में अगर बालाजी नही है और डर है तो वही सही| उसे कैसे झुठलाएं? बूढा होते होते वह आदमी जागृत होता गया|" - ओशो