Monday, October 14, 2019

साईकिल पर जुले किन्नौर- स्पीति ११ (अन्तिम): इस यात्रा का विहंगावलोकन

११ (अन्तिम): इस यात्रा का विहंगावलोकन
 

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७ अगस्त की सुबह बससे लोसर से निकला और शाम को मनाली पहुँचा| वास्तव में इस पूरी यात्रा का यह हिस्सा ही सबसे अधिक डरावना और रोचक भी लगा| बहुत ज्यादा बरफ भी‌ करीब से देखने का मौका मिला| अब बात करता हूँ इस पूरी यात्रा के रिलेवन्स की| पहले साईकिल से जुड़े पहलूओं के बारे में बात करता हूँ| सामाजिक विषयओं को लेकर इसके पहले भी मैने कुछ साईकिल यात्राएँ की हैं| लेकीन इस बार विशेष यह रहा कि पहली बार मेरी साईकिल यात्रा के लिए कई संस्थाएँ और लोग भी सामने आए| एक तरह की स्पॉन्सरशिप मुझे मिली| जैसा मैने पहले लेख में कहा था, स्पॉन्सरशिप एक आंशिक हिस्सा ही होती है, बाकी की तैयारी और प्रैक्टीस राईडस आदि से जुड़ा बहुत बड़ा खर्चा स्वयं ही करना होता है| फिर भी, इस तरह की स्पॉन्सरशिप प्राप्त करना एक साईकिलिस्ट के तौर पर मेरे लिए बड़ी बात है| मै फिर एक बार मन्थन फाउंडेशन, रिलीफ फाउंडेशन एवम् अन्य सब संस्थाएँ तथा व्यक्तियों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होने कई तरह से इस यात्रा में सहयोग दिया, एक तरह का सहभाग भी लिया| हिमाचल प्रदेश में और अंबाला में भी मुझे कई लोगों से मदद लेनी पड़ी, उन्हे भी उनके सहयोग के लिए धन्यवाद! अगर इस तरह का सहयोग मुझे मिला न होता, तो मेरे लिए ऐसी यात्रा करना लगभग नामुमकीन होता| दूसरी बात साईकिल को लेकर मैने जो तैयारी की‌ थी, जो व्यवस्थाएँ की थी, वे सब कारगर साबित हुई| जैसे साईकिल को महंगे प्रचलित टायर्स के बजाय देसी लेकीन मजबूत टायर्स डाले थे| बहुत से पथरिले और खतरनाक रास्तों पर चलने के बावजूद एक भी पंक्चर नही हुआ! उसके साथ मैने साईकिल के लिए मेरे साईकिल मित्र और साईकिल रेसर शेख खुदूस से जो थैला बनवा लिया था, वो भी बहुत काम आया| इस तरह से अब ट्रेन में आसानी से साईकिल कहीं से कहीं ले जा सकता हूँ! एक परेशानी हमेशा के लिए हल हुई| साईकिल चलाने से जुड़ी बाकी तैयारी भी वैसे ही काम आई| साईकिल को भी धन्यवाद देता हूँ, उसने खूब साथ निभाया!






जहाँ तक साईकिल चलाने की बात है, जरूर आगे जा कर दिक्कत हुई| पर यह दिक्कत साईकिल चलाने में या पेडलिंग में नही हुई| ऐसी साईकिल यात्रा में पेडलिंग तो छोटा सा हिस्सा होता है, बाकी की व्यवस्थाएँ, सब मैनेजमेंट यह बड़ी बात होती है| जैसे ठीक से विश्राम लेना, ठीक से रेस्ट करना (मन से शान्त रहना, ज्यादा सोचना नही), ठीक से डाएट लेते रहना आदि| इस मामले में काफी हद तक मैने प्रयास किया| शुरू के हफ्ते तक ज्यादा दिक्कत नही हुई| लेकीन उसके बाद धीरे धीरे सेहत को तकलीफ होने लगी| खाने के ज्यादा विकल्प नही ढूँढ पाया और बाद में शरीर ने भी जबाब दे दिया| इससे मुझे यह सीख मिली कि चाहे शरीर कितना भी फिट क्यों हो, स्टैमिना भी कितना अच्छा क्यों हो, अन्त में बात आती है एडाप्टिबिलिटी की, विपरित स्थिति में टिकने की| ऐसे भी कई साईकिलिस्टस ने हिमालय में लम्बी साईकिल यात्राएँ की हैं, जो शायद उतने ज्यादा फिट नही थे, शायद उन्हे बड़े बड़े घाट पैदल भी चलने पड़े, लेकीन उनमें वह क्षमता थी कि वे परिस्थिति से एडजस्ट कर सकते थे, वहाँ ठहर सकते थे| यह चीज़ व्यक्ति- यक्ति के लिए अलग होती है| मै यह जानता था और इसलिए बीच बीच में मै मेरा बना- बनाया रूटीन बिगाड़ कर कभी देर रात जागता था, कभी बहुत लेट भी खाना खाता था| जिससे शरीर ऐसी स्थितियों के लिए भी तैयार रह सकें| लेकीन मेरे लिए यह सम्भव नही हुआ| इसके साथ एक दूसरी बात भी सामने आती है| बचपन से ले कर लगभग २६- २७ साल की उम्र तक बहुत प्रोटेक्टेड मेरा जीवन रहा है| तब तक कहीं भी किसी भी तरह की चुनौति या विपरित स्थितिओं से बहुत कम बार सामना हुआ| असुरक्षित और अन्जान दुनिया में मेरे कदम उसके बाद ही गए| शायद इस कारण से भी मुझमें उस क्षमता की कमी हो| ऐसा कोई व्यक्ति जिसने हर तरह की मुसीबतें झेली हैं, बहुत मेहनतभरी जिन्दगी जी है, शायद मुझसे आगे निकल जाता| और इसका ही एक मानसिक पहलू भी है| अगर मैने हिमाचल के किसी दुर्गम स्थान पर पहले कोई ट्रेक किया होता, तो भी शायद मै मानसिक रूप से और मजबूत रह पाता| फिर भी, जिसने अपने २६- २७ साल बहुत आरामदायी जीवन जिया हो, उस व्यक्ति के लिहाज़ से तो यह एक उपलब्धी ही माननी चाहिए| खैर! मनाली में पहुँचने तक महाराष्ट्र से बाढ़ की खबरें आने लगी| और बाद में मेरी योजना के अनुसार जब मै लेह से मनाली जानेवाला था, तब हिमाचल में भी भारी बारीश हुई और मनाली के पास हायवे और अन्य सड़के कई घण्टों तक बन्द रही| बहोत से टूरीस्ट फंसे भी थे| मनाली- लेह हायवे भी पचास घण्टे बन्द रहा! ट्रक ड्रायवर्स ने पर्यटकों को खाना बना कर खिलाया| मेरी किस्मत से मै इसमें से बच गया...




मै जहाँ‌ तक साईकिल चला पाया और जिस तरह के प्रदेश में चला पाया, उसमें लगभग ९०% हिमाचल प्रदेश, पूरा उत्तराखण्ड और जम्मू- कश्मीर और लगभग ५०% लदाख़ भी आता है| अर्थात् हिमालय में मध्यम स्तर और उच्च मध्यम स्तर की साईकिलिंग मै कर पाया| और स्पीति की सड़के लदाख़ और सिक्कीम के मुकाबले उतनी अच्छी नही है| एक साईकिलिस्ट के लिए यह भी एक उपलब्धी ही कही जानी चाहिए| और साथ ही मुझे अब हिमालय में साईकिल चलाने का बहुत अच्छा अनुभव भी मिला| अब तक का जो एक सपना था कि "वहाँ" साईकिल चलानी है, वह काफी हद तक पूरा हुआ| बाकी जो नही हो पाया, वो तो छूटता ही है| लेकीन इस बार जो मै नही कर पाया, उसका मलाल नही है| बल्की ऐसा लग रहा है कि मैने बहुत अन्दर तक हिमालय में साईकिल चलाई ८०० मीटर ऊँचाई से ले कर ४००० मीटर ऊँचाई तक साईकिल चलाता गया| इससे मेरी जो इच्छा थी, वो काफी हद तक समाप्त हो गई| साईकिलिंग के अलावा मैने पहले ही तय किया था कि इस बार हिमालय के अनुभव को अपने साथ लाऊँगा और वह भी शायद मै कर पाया| हिमालय से लौटने के बाद भी वह दूरी नही महसूस हो रही है| इतना उत्कट, इतना विराट और इतना जीवन्त अनुभव है कि वह अब जिन्दगीभर साथ रहेगा| और उतना ही अपूर्व- अविश्वसनीय भी!  हिमालय की स्मृति और साथ महसूस होता रहेगा| ये चन्द दिन मेरी जवानी के सेकंड इनिंग्ज जैसे गए! इससे अब मन में बिल्कुल इच्छा नही होती है कि फिर कभी वापस वहाँ साईकिल चलानी है| जितनी साईकिल चला पाया, उससे ही अनुगृहित हूँ, उससे ही धन्यभागी हूँ!





इस कारण अब वापस उस तरह की हिमालय यात्रा या साहसी साईकिल यात्रा करने की इच्छा नही रही| शायद यह अनुभव इतना ज्यादा प्रबल रहा, की जो कमी रही, वह भी दूर करने की इच्छा नही बची| २०१५ में लदाख़ में साईकिल चलायी थी, अब स्पीति में चलायी| हिमालय तो बहुत विराट है, अनन्त है| कितनी बार और कहाँ कहाँ चलाऊँगा? कितना भी चलाऊँगा, तो बहुत कुछ तो छूट ही जाएगा| इसके बजाय जो अनुभव मिला, उसे गहनता से महसूस करना है| इसलिए लगता नही कि मै फिर कभी हिमालय में इस तरह से साईकिल चलाऊँगा| ठीक वैसे ही जैसे हाफ मैरेथॉन और फुल मैरेथॉन में मेरी बाद में रुचि नही रही| मुझे लगता है जब कभी हम किसी अनुभव को सम्पूर्ण रूप से जिते है, उसमें डूबते हैं, तो उस अनुभव से हम कृतज्ञतापूर्वक मुक्त भी हो जाते हैं| २०१५ में शायद बहुत कमीयाँ रही, इसलिए हिमालय में साईकिल चलाने की बार बार इच्छा होती रही| इस बार वह कमी दूर हो गई और अब सिर्फ शान्ति है|





लेकीन इसका मतलब यह नही है कि साईकिल चलाने की ही इच्छा नही रही| साईकिल चलाना तो जीवन का हिस्सा सा बन गया है| साईलिल चलाता रहूँगा| लेकीन जब आगामी साईकिल यात्रा के बारे में सोचता हूँ तो लगता है वह क्रिएटीव होनी चाहिए| सिर्फ कोई साहसिक या कोई विपरित स्थिति की यात्रा नही होनी चाहिए| उस यात्रा को एक अर्थ होना चाहिए, समाज के हित में उससे कुछ लाभ होना चाहिए| जैसे स्वास्थ्य- एचआयवी एड्स और योग प्रसार को लेकर मैने जो साईकिल यात्राएँ की थी, वे काफी 'उपयोगी' रही| एक माध्यम के तौर पर साईकिल को जो विजिबिलिटी मिलती है, उसका वहाँ उपयोग हो सका| लोगों से जुड़ सका, कुछ छोटा सा ही, मगर ठोस लाभ हो सका| इस बार भी इसका प्रयास किया तो था| कुछ संस्थाओं से बातचीत भी हुई, कई लोगों से मिलना भी हुआ| हिमाचल में रामपूर बुशहर में ASHI और HIRD संस्था के लोगों से मिलना भी हुआ| लेकीन बाद में सम्पर्क साधनों का अभाव, लोगों की व्यस्तता आदि कारणों से उतना मिलना नही हो पाया| हालांकी, साईकिल में जो बात अन्तर्भूत होती है, वो तो हुई होगी| अर्थात् जिन जिन लोगों ने मुझे साईकिल चलाते देखा होगा, उनके लिए तो एक प्रश्न और एक विचार तो मेरी साईकिल ने प्रस्तुत किया ही था| और मैने वहाँ स्वास्थ्य और पर्यावरण को ले कर जो कुछ देखा, वहाँ के मजदूरों की सेहत और वहाँ के स्थानियों के स्वास्थ्य की समस्याएँ आदि पर तो मै मेरे निरीक्षण समाज में रख ही रहा हूँ, आप सबसे शेअर भी कर रहा हूँ| इन सब बातों पर विचार- मन्थन करने का छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ| फिर भी जितनी अपेक्षा थी, उतने सामाजिक लाभ इस यात्रा में नही हो पाए| लेकीन यह भी एक सीख है! साईकिल यात्रा में एक माध्यम के तौर पर साईकिल का इस्तेमाल अधिक इनोवेशन के साथ करना चाहिए| सिर्फ चुनौतियाँ या विपरितताओं के बजाय इससे समाज के लिए आउटपुट क्या मिलता है, यह भी‌ देखना चाहिए| आगामी साईकिल यात्रा में इसके बारे में जरूर गौर करूँगा| फिर एक बार इस यात्रा में सहयोग देनेवाली सभी संस्थाएँ एवम् सभी व्यक्तियों को धन्यवाद देता हूँ, यह पढ़ने के लिए भी आपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ| आगामी लेख में मिलने तक आपसे विदा लेता हूँ| धन्यवाद!





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