Friday, December 6, 2024

Sobati Seva Foundation: A true companion


✪ A journey from diseases to wellness
✪ Awkward problems and hand-holding
✪ "I wish to die!"
✪ Difficulties faced by caregivers
✪ De-addiction from mobiles
✪ Right to enjoy and associated guilt
✪ Art of stopping at the right moment

Hello. Yesterday on 5th December, I could witness a different beginning. My aunt Smt. Varsha Welankar and my uncle Shri. Chandrashekhar Welankar has started a new organization! Actually, my uncle is recently retired from his professional life. But he and the aunt are starting this new innings. This programme was about an informal public opening of their organization- “Sobati Seva foundation.” A small function taking place in presence of family members, dear ones and seniors.

My uncle and aunt are rather unique. They became partners with a view to lead a unique objective and to lead life the way one likes. They are basically journalists. My aunt had come from a humble background with plenty of struggles with the system and she is a journalist with rebellious approach. She works in plenty of areas right from art, drawing, Mandala art to craft made out of newspapers. She is right there into translation and recently health sector also. The uncle is equally unique. He has a smiling face and knows a knack to extract humour out of any serious situation! His English is particularly worth listening and reading! And he is hugely well- read too.

Since 2013, the Aunt’s health problems started with the kidney issues. The word- even uttering it creates a panic in mind- “dialysis” was started and later on many complications happened. She actually had “returned from almost touching the other world!” Later on the kidney transplant was done, but her problems did not end there. Despite of this all troubles, she persuaded her art and her translation work with zest when time and health allowed her. She has translated plenty of books. Some books are horrible. That “Auschwitz’s photographer!” Such horrible book that we suffer badly while just reading it. It is a great dose of depression. But she took it as a challenge and translated it. She had the urge to share all that stuff with the people. And she also has a deep urge to share her experiences. She regularly writes her experiences about her illness, her suffering and her journey. She depicts it as if she is witnessing it from a distance.


Tuesday, November 26, 2024

"क्रिया" से "शुक्रिया" तक की यात्रा: ध्यान शिविर

"क्रिया" से "शुक्रिया" तक की यात्रा: ध्यान शिविर

करूं ओशो तेरा शुक्रिया... तुने जीवन को उत्सव बना दिया

आनन्द क्रिया योगाश्रम में हुआ ध्यान शिविर

अहोभाव और कीर्तन से शुरूआत

संगीत, नृत्य, भाव और मौन के साथ "सत् नाम" की खोज

सक्रिय ध्यान, नादब्रह्म ध्यान और अन्य विधियों का अभ्यास

ओशो तुने हमको जीना सीखा दिया

आनन्द क्रिया योगाश्रम- ऊर्जा का क्षेत्र

गुफा में ध्यान

कुछ नही हाथ आयेगा यहाँ फिर भी ऐ ज़िंदगी तेरा शुक्रिया

 

सभी को प्रणाम! अक्सर तो हम ज़िन्दगी से शिकायत करते रहते हैं कि हमें यह नही मिला, वो नही मिला या हमारे साथ ऐसा हुआ| लेकीन कभी कभी ज़िन्दगी ऐसा सौभाग्य देती है जिससे हमारी शिकायतें खो जाती हैं और हम अहोभाव से भर जाते हैं| ऐसा ही अवसर इस ध्यान शिविर के रूप में मिला जिसका अनुभव आपके साथ शेअर करना चाहता हूँ| पुणे से 35 किलोमीटर दूर प्रकृति की गहराई के बीचोबीच का यह आश्रम- आनन्द क्रिया योगाश्रम! पहले इस अनुठे आश्रम के बारे में बताता हूँ| परमहंस योगानन्द के शिष्य स्वामी क्रियानन्द (मूल नाम जेम्स डोनाल्ड वॉल्टर) ने योगानन्द जी, उनके गुरू श्री युक्तेश्वर गिरी और क्रिया योग परंपरा की धारा को आगे बढ़ाने के लिए विश्व भर में कई जगह आश्रम खड़े किए| पुणे के पास का यह आश्रम भी उनमें से एक है| क्रिया योग की परंपरा का होने के कारण इसका नाम "आनन्द क्रिया योगाश्रम" है| यहाँ के क्रिया योग मन्दिर में महावतार बाबाजी, लाहिरी महाशय (उन्नीसवी सदि के गुरू), श्री युक्तेश्वर गिरी, परमहंस योगानन्द, जीसस और कृष्ण की प्रतिमाएँ विराजमान है| इसी क्रिया योगाश्रम में इस शिविर में "क्रिया" से "शुक्रिया" तक की यात्रा ओशो और उनके दिवानों के साथ शुरू हुई!










 22 नवम्बर की दोपहर को चिंचवड में स्वामी एकान्त जी, स्वामी उज्ज्वल जी, मा प्रतिमा जी और अन्य साधकों से मिलना हुआ| स्वामी एकान्त जी की शायरी सुनने का अवसर मिला और उनके हस्ताक्षर में लिखी गई ओशो वाणि को पढ़ने का मौका मिला! स्वामी एकान्तजी के यहाँ कुछ साधक इकठ्ठा हुए और वहाँ से शिविर के स्थान के लिए निकले! धीरे धीरे रोजमर्रा के जीवन क्रम को एक तरफ रख दिया| मोबाईल को हवाई जहाज (एअरप्लेन मोड) पर रख दिया और मौन होने का प्रयास शुरू किया!


स्वामी एकान्त जी और स्वामी उमंग जी ने यह स्थान इस शिविर के लिए चुना है! चारों ओर पहाड़ और सन्नाटा! यहाँ जाने की सड़क भी वाहन के लिए दुभर है! कार को भी जैसे ट्रेकिंग करना पड़ रहा है! लेकीन एक बार पहुँचने के बाद इस रमणीय परिसर को देख कर बहुत सुकून मिला! यह आश्रम और ध्यान रिट्रीट केन्द्र बहुत फैला हुआ है! कई सारे कमरें, कक्ष, ध्यान कक्ष हैं! ठहरने का कमरा ढूँढने के लिए कुछ समय लगा| शाम को 6 बजे तक सभी साधक आते गए और धीरे धीरे ध्यान के लिए तैयार हुए|


व्हाईट रोब ध्यान सत्र- कीर्तन और शिथिलीकरण


स्वामी उमंग जी ने सभी का अहोभाव से स्वागत किया| स्वामी कुन्द कुन्द जी सभी से मिले और फिर इस महफील की शुरूआत हुई! मौन में ही साधकों को प्रणाम किया| पीछले वर्ष लोणावळा के पास हुए ध्यान शिविर का आखरी बिन्दु अहोभाव था| उसी अहोभाव के साथ स्वामी कुन्द कुन्द जी ने इस शिविर का आरम्भ किया| सभी गुरूओं को वन्दन कर श्वेत वस्त्र में सभी साधक ध्यान में डुबने के लिए तैयार हुए| "सत् नाम सत् नाम वाहे गुरू - हर पल जपां तेरा नाम" गीत के साथ कीर्तन शुरू हुआ! मन को आल्हादित और शान्त करता हुआ संगीत! कुछ देर खड़े रह कर झूमने के बाद स्वामीजी और ओशो के निर्देश के साथ सभी साधकों ने शरीर को शिथिल किया| आती- जाती साँस के प्रति सजग होने का प्रयास किया| पूरे शरीर को रिलैक्स किया| इन्स्ट्रुमेंटल संगीत से बड़ी मदद हुई! एक गहरे विश्राम की स्थिति का अनुभव मिला| कुछ पल इस स्थिति का आनन्द ले कर साधक खड़े हुए|


"एक तेरा साथ हमको दो जहाँ‌ से प्यारा है

ना मिले संसार, तेरा प्यार तो हमारा है"


इस अत्यधिक मिठे गीत के साथ अहोभाव और गहराई का अनुभव हुआ| इन गीतों ने ध्यान के माहौल को और गहरा किया! कुछ चर्चा और निर्देश के बाद यह सत्र समाप्त हुआ| जब ध्यान कक्ष से बाहर निकले, तो बड़ी ठण्ड से ठिठुरन का अनुभव हुआ! किसी से कोई बातचीत किए बिना भोजन लिया और इस परिसर का और सन्नाटे का कुछ क्षण आनन्द लिया| यह परिसर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है| मेरा कमरा कुछ चढ़ाई पर है| यहाँ चलते समय पैरों की गति कम महसूस हो रही है| जैसे ध्यान बढ़ता है, वैसे चीज़ें धिमी हो जाती हैं| आकाश में तारों की रोशनी दिखाई दे रही हैं! बृहस्पति (गुरू) सबसे अधिक चमक रहा हैं| एक एक कदम होश से चलने का प्रयास करते हुए कमरे पर लौटा और नीन्द की ओर बढ़ा|


शिविर का दूसरा दिन- 23 नवम्बर


सुबह जल्दी आँख खुली| फटाफट तैयार हो कर बाहर निकला| 6 बजे भी घना अन्धेरा है| आसमान में चाँद, गुरू और मंगल भी हैं! लेकीन ठण्ड! ठिठुरते हुए क्रिया योग मन्दिर की‌ ओर बढ़ा| कुछ साधक टहल रहे हैं| लेकीन जैसे स्वामीजी ने कहा था और मैने भी तय किया था- किसी से कोई बात नही की| यहाँ दो दिन ऐसे रहना है कि हम सब बिल्कुल अकेले हैं| अगर बातें करनी ही हो, तो प्रकृति से ही करनी है| कुछ देर चलने के बाद ठण्ड कुछ कम लगने लगी| धीरे धीरे पूरब में रोशनी आने लगी| सुबह की ताज़गी और ओस! पंछी चहचहाने लगे, पेड़ों के पत्ते हिलने लगे| पास की पहाड़ी का विहंगम दृश्य दिखाई देने लगा|


यह एडव्हान्स शिविर है, तो सभी साधक पुराने हैं अर्थात् पहले दो शिविर किए हुए| और शिविर के लिए मरून रोब और श्वेत वस्त्र आवश्यक है| पहली बार जीवन में मरून रोब परिधान किया| इस रोब को ले कर मन में कुछ भय भी है कि इसे कैसे पहनें, ठीक तो रहेगा ना| स्वामी उमंग जी ने शिविर के आयोजन की व्यस्तता के बीच मेरे लिए इसका प्रबन्ध किया है| वैसे तो यह है कुर्ते जैसा ही| लेकीन बहुत बड़ा| पैरों तक आ रहा है| कुछ कुछ गाऊन या साड़ी जैसे भी लग रहा है! मन में आनेवाली अस्वस्थता को देखता रहा| धीरे धीरे सहज महसूस होने लगा|


अब आज का पहला सत्र है सक्रिय ध्यान! सक्रिय ध्यान वाकई बहुत ऊर्जादायी अनुभव होता है| पीछले शिविर में बहुत मज़ा आया था| स्वामी कुन्द कुन्द जी ने इसके निर्देश दिए| इसमें चार चरण हैं- पहले अनियंत्रित साँसे लेना (केओटीक ब्रीदिंग), फिर चिल्लाना- जोर से चीखना (रेचन), फिर हु- हु का प्रबल उच्चारण और फिर शरीर को एकदम छोड़ देना और अन्तिम पाँचवा हिस्सा अहोभाव- कृतज्ञता के साथ झूमना| "मै मेरी पूरी शक्ति ध्यान में लगाऊँगा" इस संकल्प के साथ और ओशो की वाणि के साथ इसकी शुरूआत हुई! अपेक्षाकृत इस सक्रिय ध्यान में बहुत मज़ा आया| इस ध्यान को करने के लिए ग्रूप बहुत उपयोगी है| एक दूसरे की उपस्थिति से रेचन को और खुद को छोड़ने के लिए बल मिलता है| अनियंत्रित और तेज़ साँसे लेने लगा| कुछ दिनों में मेरे साईकिलिंग और अन्य व्यायाम में कुछ कमी हुई है! इसलिए नाभी की गहराई तक साँस धकेलने में दिक्कत हुई! अगर व्यायाम का अच्छा क्रम रहा होता, तो ज्यादा आसानी से और ज्यादा शक्ति से यह चरण कर पाता| खैर!


दूसरे चरण में तेज़ चीखना- चिल्लाना! मानो ध्यान के कक्ष में सैंकड़ो भेडिए, शेर, लोमड़ीयाँ और तरह तरह के जानवरों का पहाड़ ही टूट पड़ा! इस माहौल में धीरे धीरे मुझसे भी ऐसी ही आवाजें निकलने लगी! जो भी भीतर से व्यक्त होना चाहे उसे व्यक्त करना होता है| दस मिनट तक यह गर्जनाएँ होती रहीं! आश्रम में होनेवाले कुत्ते जरूर हैरान हुए होंगे कि यह हो क्या रहा है! उसके बाद हू- हू का चरण! बीच बीच में और तेज़ करने के लिए पुकारते ओशो और स्वामीजी! बीच बीच में शरीर कुछ थक रहा है, साँस धिमी हो रही है| फिर कुछ क्षण के बाद जोर से हू- हू! इस हू- मन्त्र की चोट नाभी पर करनी है| इससे अवचेतन में छिपा तनाव और अस्वस्थताओं का रेचन होता है| शरीर में बन्द ऊर्जा प्रवाहित होने के लिए मदद होती है| दस मिनट हू- हू करने के बाद जैसे ही ओशो ने "स्टॉप" कहा, वैसे ही रूक गया| शरीर जिस स्थिति में है, उसे वैसे ही छोड़ दिया| पैर इस तरफ, हाथ उस तरफ! लेकीन फिकर नही| शरीर और मन में जो हो रहा है, उसका साक्षी बनने का प्रयास किया| सक्रिय ध्यान के बाद गाल पर संवेदना हुई| शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा सी महसूस हो रही है| और इस बवंडर के बाद का सन्नाटा! आँधी के बाद की शान्ति! कुछ मिनटों तक इसका आनन्द लिया और फिर स्वामीजी के निर्देश के साथ आँखे बन्द रख कर सभी झूमने लगे| इस गहराई को आगे ले जाने के लिए इन्स्ट्रुमेंटल संगीत से बड़ी सहायता मिली! "मेरे ओशो" गीत पर झूमते हुए इस सत्र का समापन हुआ|


7 चक्र और तन्त्र साधनाएँ


चाय और नाश्ता करने के बाद कुछ समय परिसर में टहलने का आनन्द लिया| किसी से बात किए बीना अपने में डूबने का आनन्द ही कुछ और है! मोबाईल भी पूरी तरह चूप होने का भी कितना आनन्द है| बाहरी दुनिया से कोई सम्पर्क नही! बहुत दिनों बाद "एकान्त" का यह मौका मिला और अब उसका पूरा लुत्फ लेना है!


दिन के दूसरे सत्र की शुरूआत "नई सुबह की नई किरण, चलो रे पंछी पार गगन" इस गीत के साथ हुई| कितना भाव और मिठास! पूरा समा बन्ध रहा है अब! इस सत्र में स्वामीजी ने सांत चक्रों पर बात की| कुछ चर्चा भी हुई| सांत चक्र तथा हर एक चक्र और हर इन्द्रिय से जुड़े तंत्र योग के बारे में स्वामीजी ने बताया| जैसे मूलाधार चक्र- कर्म योग, स्वादिष्ठान चक्र- हठ योग, मणिपूर चक्र- ध्यान योग, अनाहत चक्र- भक्ति योग, विशुद्धी चक्र- राज योग, आज्ञा चक्र- ज्ञान योग और सहस्रार चक्र- सांख्य योग| हर चक्र से जुड़े सा रे ग म प ध नी सा स्वरों पर बात की| साथ ही हर एक इन्द्रिय के आलम्बन के द्वारा कैसे भीतर जाया जा सकता है इस पर चर्चा की|


साथ ही स्वामीजी ने तरह तरह की परंपराएँ और प्रणालियों के बारे में भी बताया| जैसे कि अघोरपंथी साधू! सभी लोग तो ऐसे सुव्यवस्थित ढंग से ध्यान में जाने के लिए तैयार नही होते हैं| उन लोगों का क्या होगा जो समाज से दूरी रखते हैं, कूड़े- कचरे में रहते है या गन्दगी में जीते हैं? उन तक भी ध्यान को ले जाना होगा ना| और ध्यान की कसौटी भी ऐसी स्थिति में करनी होगी| क्या लाशों और कब्र के बीच मन शान्त रह पा रहा है? क्या भय और घृणा के पार ध्यान जा रहा है? तो ऐसी प्रणालियाँ और विधियाँ खोजी गई| स्वामीजी जब यह बता रहे हैं, तब ओशो द्वारा हिप्पी लोगों को दिया गया ध्यान याद आया! अघोरपंथियों के समान नागा साधू प्रेत- योनि की चेतनाओं को आमन्त्रित कर अपने ध्यान की कसौटी करते हैं| स्वामीजी ने बताया कि ये अलग अलग प्रणालियाँ हैं और हमें इनके बारे में भी अवगत होना चाहिए| दूसरी प्रणालियों का भी हम आदर कर सके, उनमें जो essence है, उसे समझ सके| हर स्थिति से, हर माध्यम से खुद के बीच जाने का मार्ग ढूँढा जा सकता है| स्वामीजी का निवेदन बहुत स्वयंस्फूर्त है| बिना कोई कागज़ या नोटस या किसी उपकरण का सहारा लिए हुए वे निवेदन कर रहे हैं| निवेदन नही, बस संवाद कर रहे हैं, बोल रहे हैं!


स्वामीजी ने सभी साधकों से प्रेम पर चर्चा की| प्रेम, भक्ति और श्रद्धा पर विस्तार से बात की| प्रेम किसें कहें, क्या प्रेम नही है और क्या सिर्फ लेन देन है यह बताया| बिना किसी लेन- देन के और अपेक्षा के जहाँ सिर्फ दिया जाता है, उस प्रेम की बात की| अरविंद हिंगे स्वामी जी ने अपने विचार व्यक्त किए| प्रेम कैसे श्रद्धा बनता है और श्रद्धा कैसे भक्ति बनती है, यह भी स्वामीजी ने बताया| संन्यास लेने का महत्त्व भी बताया| इस पूरी चर्चा के समय में भी एक तरह से ध्यान जारी रहा| शरीर को स्थिर रखा और मन को सिर्फ सुनने पर लगाया| बीच बीच में कुछ विचार और प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं| उनको भी देखता रहा| इस चर्चा के सत्र का समापन संगीत और नृत्य के साथ ही हुआ| जब यह गीत सुनाई दिया तो पीछले शिविर की याद ताज़ा हो गई-


ये मत कहो खुदा से मेरी मुश्क़िलें बड़ी हैं

इन मुश्क़िलों से कह दो मेरा खुदा बड़ा है


शिविर में अब एक भाव तरंग की धारा बन रही है| मौन रह कर और इसी में मन को align कर इसका अधिक से अधिक आनन्द लेने का प्रयास कर रहा हूँ| सत्र के बाद भी इसी धारा में ठहरने का प्रयास कर रहा हूँ| ब्रेक में आश्रम के परिसर में टहलते समय अन्य साधकों को बात करते हुए, हंसी- मजाक करते हुए या फोन पर बोलते हुए देखा| ध्यान के माहौल को इससे बाधा होते दिखाई दी| यहाँ आश्रम में भी निर्देश है कि मौन ही रहना है| स्वामीजी ने भी कहा है कि ज्यादा से ज्यादा मौन ही रहें| फिर भी इतने पुराने साधक रोज के जीवन की तरह ही बातचीत कर रहे हैं, बड़े कैज्युअल हैं| इससे थोड़ी पीड़ा भी हुई| अपने लिए भी और उनके लिए भी| कितना बहुमोल यह अवसर, लेकीन कैसे इससे लोग चूक रहे हैं! मन में आनेवाले इन विचारों को भी देखता रहा और ज्यादा से ज्यादा प्रकृति के पास जाता रहा|


क्रियाओं के साध ध्यान को जोड़ना


अगले सत्र में स्वामीजी ने ध्यान के कुछ अभ्यास हमसे करवाए| चलना, स्पर्श करना, सूँघना, स्वाद लेना आदि क्रियाओं के साथ ध्यान को जोड़ने का अभ्यास करवाया गया| आदतवश हम क्रियाएँ बड़ी यन्त्रवत् करते हैं या तेज़ी से और अन्जान रह कर करते हैं| लेकीन वहीं क्रियाएँ हम सचेत हो कर करते हैं तो उनमें गहराई आती है| यंत्रवत् चलना और एक एक कदम होश के साथ रखते हुए चलने में बड़ा फर्क है| जहाँ भी हमारा होश या ध्यान align हो जाता है, उस चीज़ की गुणवत्ता में सुधार हो जाता है| हमारा खुद का चलना और ऐसे चलना जैसे मानो किसीने हमारा हाथ थामा है और हमें ले जा रहा है! जैसे ही हम "खुद के अहम् होने को" एक तरफ रख देते हैं, वैसे ही बहुत हल्के हो जाते हैं| इस सत्र में हर चक्र के स्थान पर हाथ रख कर सा, रे, ग, म, प, ध, नी के उच्चारण का अभ्यास भी करवाया गया| इसके बाद संगीत के साथ बहुत विश्राम का अनुभव हुआ|


नाद ब्रह्म ध्यान- भंवरे की गुंजन


इस सत्र की भी प्रतीक्षा थी| ओशो जी ने जो ध्यान की ढेर सारी विधियाँ खोजी है, उसमें नाद ब्रह्म ध्यान बड़ा अनुठा है| कुछ विधियाँ सक्रिय ध्यान की है और कुछ विपश्यना जैसी निष्क्रिय (पैसिव) ध्यान की विधियाँ है| इसमें नाद ब्रह्म ध्यान बिल्कुल मध्य में आता मालुम पड़ता है| हम् उच्चारण के साथ थोड़ा यह सक्रिय है, लेकीन उतना ही पैसिव भी है| दिन के चौथे सत्र में स्वामीजी ने यह ध्यान करवाया| इस ध्यान में हम्- ध्वनि की चोट से भीतर जाया जाता है| भंवरे की गुंजन! आधे घण्टे तक यह गुंजन किया| हम् ध्वनि का आनन्द लिया और उसका कम्पन भी शरीर में महसूस किया| अगले चरण में इन्स्ट्रुमेंटल संगीत के साथ हाथों को आगे ले जा कर बाहर ऊर्जा देने का और फिर अगले चरण में ऊर्जा प्राप्त करने का भाव किया| यह इन्स्ट्रुमेंटल संगीत बहुत गहरी शान्ति दे रहा है| अन्तिम चरण में सिर्फ शान्त बैठ कर साक्षीभाव का अनुभव किया| ध्यान की विधि- टेक्निक कौन सी भी हो, हर विधि- टेक्निक में "होश" या "साक्षीभाव" या देखना ही सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र होता है| कुछ मिनटों तक इस गुंजन से शरीर और मन में हुए परिवर्तन को देखते रहा| फिर धीरे धीरे स्वामीजी के निर्देश के साथ संगीत के साथ झूमने लगा| शिविर में हर सत्र का समापन गीत और नृत्य के साथ ही होता है! और ऐसे गीत तो इस माहौल को और पुलकित करते हैं, और प्रफुल्लित बनाते हैं-


और कुछ ना जानूँ, बस इतना ही जानूँ

तुझमें रब दिखता है यारा मै क्या करूं!

शिविर करने के पहले तो लगा था कि शायद एक एक सत्र कब बहुत लम्बा होगा| ऐसा लगेगा कि मानो कब यह खत्म होगा! लेकीन यहाँ तो समय का पता ही नही चल रहा है| एक के बाद एक सत्र होने लगे हैं और अब दूसरे दिन का अन्तिम सत्र भी आ रहा है| ब्रेक के समय इस आनन्द क्रिया योगाश्रम के परिसर की प्रकृति को भी महसूस किया| स्वामीजी ने बताया भी‌ था कि पेड़- पौधों का स्पर्श महसूस कीजिए| यहाँ कई सारे पेड़ है| मुझ जैसे पेड़ों के बारे में कुछ भी न जाननेवाले को भी कई पेड़ पहचान में आ रहे हैं| कई पौधों पर सुन्दर फूल खिले हैं| यहाँ सिर्फ होना भी ध्यान से कम नही हैं| बशर्तें हम रोजमर्रा की व्यस्तताओं को पूरी तरह छोड़ आते हैं|


कीर्तन और ध्यान


दिन का अन्तिम सत्र श्वेत वस्त्र में किया जानेवाला ध्यान सत्र है| इसमें शुरू में स्वामीजी ने दीक्षा लेने का और जीवित गुरू के सत्संग का महत्त्व बताया| श्वेत वस्त्र अर्थात् व्हाईट रोब का भी महत्त्व बताया| हर परंपरा के सद्गुरू भविष्य में आनेवाले साधकों के लिए कुछ सूत्र दे जाते हैं जिससे भविष्य में भी उनकी मौजुदगी और उनका मार्गदर्शन मिलता रहता है| बुद्ध के रेलिक्स या बुद्ध व्यक्तियों की समाधि या मन्दिर इसी लिए होते हैं| इस सत्र में स्वामीजी ने साधना को गहरे ले जाने की जरूरत के बारे में भी बताया| उन्होने याद दिलाया कि जीसस और मन्सूर जैसे ज्ञानी और संबुद्ध व्यक्तियों को भी जीवन के अन्तिम क्षण तक परीक्षा देनी पड़ी थी| तो हमें भी बहुत मेहनत करनी चाहिए और पूरा प्रयास करना चाहिए| चार साधकों ने संन्यास दीक्षा ली|


सभी परंपरा के बुद्ध व्यक्ति और तीर्थंकरों को नमन करते हुए इस सत्र में ध्यान की शुरूआत हुई| कीर्तन के माध्यम से भीतर जाने का प्रयास किया गया| संगीत के साथ साक्षीभाव को बढ़ाने का प्रयास किया गया| बाद में साँस के साथ शरीर को विश्राम दिया गया| आती- जाती साँस को देखने की विधि अर्थात् आनापान सति योग भी किया गया| सत्र के अन्त में स्वामीजी जो गीत लगा रहे हैं, उससे भी‌ गहरे जाने में सहायता हो रही है| जैसे यह गीत-


हर पल यहाँ जी भर जियो, जो है समा कल हो ना हो!


ओशो की सीख की कूँजि हर पल के क्षण में जीना यह है| और हमारे पास सिर्फ एक क्षण तो होता है| अगले क्षण का क्या भरोसा! कल का क्या भरोसा! कल होगा या नही भी होगा! हर पल को गहरा करो और हर पल को सजगता के साथ जिओ, यही तो ओशो का सन्देश है! जीने के साथ मरने की भी कला सीखानेवाले ओशो! इस सत्र का अन्तिम गीत जैसे इस पूरी शिविर की रूपरेखा जैसे लगा| कितने भावपूर्ण और गहरे स्वर! हम कितने सौभाग्यशाली है!


करूं ओशो तेरा शुक्रिया तुने हमको जीना सीखा दिया

अब नाचती मेरी धडकनें तुने कैसा जादू जगा दिया

हर रहगुजर हर रास्ता तुने ओशो हमको दिखा दिया

करूं ओशो तेरा शुक्रिया तुने हमको जीना सीखा दिया

तुने ध्यान की ऐसी आंख दी तुने प्रेम की‌ वो आंख दी

जीवन को उत्सव बना दिया

करूं ओशो तेरा शुक्रिया तुने जीवन को उत्सव बना दिया


इस माहौल में गहरी डुबकी लगती गई| आँसू आने लगे| ध्यान की इस धारा के साथ दूसरा दिन सम्पन्न हुआ|


शिविर का तीसरा दिन- 24 नवम्बर


शिविर का अन्तिम दिन! आज कुछ ज्यादा ही ठण्ड है| भोर के अन्धेरे में टहलने के लिए निकला| पौधों के पत्तों पर ओस अर्थात् शबनम दिखाई दे रही है| और यहाँ ध्यान में आँखें कृतज्ञता से नम है| कोहरा है जैसे अज्ञान का साया| लेकीन ध्यान करनेवाले हर एक का कोहरा एक दिन ढलने को है| जैसे रोशनी आने लगी, वैसे धीरे धीरे सभी सृष्टि जी उठी| दूर से उड़ते हुए आनेवाले एक पंछी की गूँज सुनाई दी| पास के पहाड़ों में वह आवाज प्रतिबिम्बित हुई और उसकी अनुगूँज भी सुनाई दी! ओशो के प्रवचन का वाक्य याद आया- जब कोई बुद्ध होता है, तो उसकी अनूगूँज पूरी पृथ्वी पर होती है और एक जब जागता है तो कई सोनेवालों की नीन्द खुलने का समय आता है!


कुछ साधकों के अनुरोध पर स्वामीजी ने सक्रिय ध्यान सत्र लिया| शुरू में मन में इस सत्र को ले कर कुछ अस्वस्थता और डर है| क्यों कि हम इसके आदि नही हैं| अपने को खुल कर व्यक्त करने के लिए और अपने अवचेतन को खाली करने के लिए हम तैयार नही होते हैं| लेकीन ध्यान शिविर का अवसर, संगीत और साथी साधकों की मौजुदगी के कारण यह सरल होता है| एक बार शुरू होने पर इस ध्यान में उतर पाया| शुरू‌ में इसके चरण बड़े लगे, लेकीन आसानी से पूरे हो गए| चार चरण पूरे होने के बाद का अन्तिम हिस्सा- कृतज्ञता या उत्सव- उसमें बड़ी शान्ति मिली| इस समय बजनेवाले इन्स्ट्रुमेंटल संगीत का वर्णन कैसे करूं! बस अद्भुत!


नाम ध्यान और सहज योग


अगले सत्र की शुरूआत "पधारो म्हारो देस" गीत के साथ हुई| पंछियों की चहचहाट और मोर का गुंजन होनेवाला यह गीत बहुत आल्हादित कर गया| इस सत्र में स्वामीजी ने संन्यास लिए साधकों को उनके नए नाम बताए| उनके द्वारा स्वामीजी को प्रणाम करना और उनसे दीक्षा लेना एक देखने जैसा अनुभव लगा| सभी साधक बिल्कुल स्तब्ध हो कर इस पल के साक्षी बने| संन्यास की दीक्षा अर्थात् नए जीवन की शुरूआत| पुराने जीवन का ढाँचा और आदतें तोड़ कर होशपूर्वक जीने की नई शुरूआत करने के लिए नया नाम सहायक होता है| इसके लिए नया नाम दिया जाता है| संन्यास लेनेवाले साधकों की खुशी और चेहरे पर होनेवाली शान्ति देखने जैसी है| पुराने संन्यासियों ने अपने परिवार में आए इन नए सदस्यों का स्वागत किया| एक दूसरे के गले लग कर आत्मीयता प्रकट की गई! कई साधकों ने अपने मनोगत भी व्यक्त किए| दो दिन के शिविर में कैसा लग रहा है, यह भी कहा| कुछ साधकों ने अपनी समस्याएँ भी बताई और उस पर भी स्वामीजी ने मार्गदर्शन किया| अपनी खुशी लेन- देन और शर्तों पर निर्भर मत होने दीजिए, दूसरा कैसे भी वर्तन करता हो, आप होश से काम लीजिए, यह उनका कहना है| साधना और ध्यान के लिए मेहनत तो करनी होगी, इस पर वे जोर दे रहे हैं| वे बता रहे हैं कि पुराने दिनों में भी बड़े बड़े ऋषियों को चौदह- चौदह साल तपश्चर्या करनी पड़ी थी| तो हमें बिल्कुल आलस नही करना है| साधकों की सरलता के लिए स्वामीजी बीच बीच में शायरी भी कह रहे हैं! और कहानियाँ भी बता रहे हैं!


इसी सत्र में नाम ध्यान अर्थात् ओंकार या अनहद ध्वनि पर ध्यान करने के बारे में विस्तार से बात की| जब हम बाहर की सभी ध्वनियों को एक तरफ रख कर भीतर निरंतर चलनेवाले अनाहत नाद को सुन पाते है, तो यह ध्यान किया जा सकता है| भीतर यह अनाहत नाद निरंतर चलता ही रहता है| रात के झिंगूर या हल्की सी हमिंग ध्वनि जैसा यह नाद सुना जा सकता है| स्वामीजी ने इसका भी अभ्यास सबको करवाया| इसके लिए सुफी इत्र की भी मदद ली गई| लगभग सभी साधक इस महिन नाद को पकड़ पाए| स्वामीजी ने सहज योग के बारे में भी बात की| इस सत्र का समापन सुफी शैलि का गीत मेरे ओशो के साथ हुआ! उल्हास और उत्सव के ये पल हैं!









गुफा में ध्यान- गुमराहों के हमराही


दोपहर में भोजन के बाद गुफा में जाना है| इस शिविर के आयोजन की पूरी तैयारी स्वामी उमंग जी और स्वामी एकान्त जी ने की है| स्वामी एकान्त जी की पत्नि मा प्रतिमा जी और स्वामी उमंग जी की पत्नि मा प्रेम सम्पत्ति जी तथा बेटी (छोटी मा) ऋद्धि भी आयोजन में सहभाग ले रही है| साथ ही ध्यान भी कर रही है और प्रश्न- उत्तर में भी सहभाग ले रही है| कितने सौभाग्यशाली हैं ये सब!


इस आनंद योग क्रियाश्रम के पास ही एक प्राकृतिक गुफा है| क्रिया योग परंपरा के लाहिरी महाशय को उनके गुरू महावतार बाबाजी ने हिमालय के पास रानीखेत में एक गुफा के पास दर्शन दिया था| इसी परंपरा से आनेवाले और इस आश्रम का निर्माण करनेवाले स्वामी क्रियानंद को ऐसी ही एक प्राकृतिक गुफा पास ही मिली| गुफा वाकई देखने जैसी तो है ही, लेकीन ध्यान स्थल भी है| स्वामीजी के साथ साथ पैदल चलते हुए वहाँ गए| यह एक छोटा लेकीन सुन्दर ट्रेक हुआ| स्वामीजी ने मौन रहते हुए हर एक कदम को और प्रकृति को महसूस करते हुए चलने के लिए कहा| प्रकृति का आनन्द लेते हुए धीरे धीरे सब गुफा तक पहुँच गए| सभी 30 साधक भीतर बैठ सकें, इतनी यह गुफा चौड़ी है| यहाँ पर भी स्वामीजी ने ध्यान करवाया| आँख बन्द कर ध्यान करने के बाद एक साधिका ने पाया कि यहाँ ऊर्जा फैली हुई है| बाद में स्वामीजी ने भी बताया कि यह गुफा भी ध्यान का एक एनर्जी फिल्ड है| जब स्वामीजी के कहने पर स्वामी एकान्त जी ने यह भजन गाया तो अत्यधिक शान्ति महसूस हुईं और आँखें नम हुईं-



हर युग में तुम जैसों को आना पड़ेगा

गुमराहों के हमराही होना पड़ेगा



विदाई का क्षण


गुफा से लौटने के बाद अन्तिम सत्र का समय आया! जीवन कितना बड़ा अवसर है, हमारा वर्तमान कितना बड़ा अवसर है, इस पर स्वामीजी ने बात की| उन्होने कहा कि हो सकता है हम में‌ से सभी फिर कभी शायद ना मिले| हम बड़े सौभाग्यशाली है कि हम इस ध्यान के पथ पर आए हैं| उन्होने बार बार जोर दे कर कहा कि वस्तुत: हम आए नही हैं, हमें बुलाया गया है! कभी ना कभी, किसी ना किसी जनम में हमने साधना की है, इसी लिए हम यहाँ आ पाए हैं| आगे भी जुड़े हुए रहना है, उनका भावपूर्ण निवेदन है| इसी भाव को कहने के लिए उन्होने यह गाना चुना-


तो क्या हुआ मुड़े रास्ते कुछ दूर संग चले तो थे

दोबारा मिलेंगे किसी मोड़ पे जो बाकी है वो बात होगी कभी

चलो आज चलते हैं हम


विदाई के ठीक पहले स्वामीजी ने और एक बात कही| जिन्दगी में कुछ नही मिलता है, फिर भी तेरा शुक्रिया है ज़िन्दगी! यहाँ मिलता कुछ नही, लेकीन इन्सान सीखता जाता है| और इसी की ओर इंगित करनेवाले भावपूर्ण गीत के साथ शिविर का समापन हुआ-


कुछ नही हाथ आयेगा यहाँ

फिर भी ऐ ज़िंदगी तेरा शुक्रिया


बड़ी ही मुश्किल से एक दूसरे को प्रणाम करते हुए, गले लगाते हुए सभी क्रिया योग मन्दिर से बाहर निकले| नम आँखों से शिविर स्थल से बाहर निकले| बस दो- ढाई दिनों का यह शिविर! लेकीन बड़ा ही गहरा अनुभव दे गया! हालांकी एक शिविर करने से सिर्फ शुरूआत होती है| इस प्रक्रिया को- इस ध्यान के अभ्यास को आगे भी जारी रखना चाहिए| स्वामीजी जैसे कहते हैं, दिन में कम से कम एक घण्टा अपनी पसन्द का ध्यान करना चाहिए| और सबसे बड़ी बात, खुद के आनन्द के लिए समय निकालना चाहिए| आनन्द क्रिया योगाश्रम में हुए शिविर की क्रिया

से शुक्रिया तक की यात्रा ऐसी रही!


शिविर में कितनी शान्ति मिली थी, इसका एक प्रमाण वहाँ से निकलने के बाद मिला| पूरे दिन ध्यान करते करते मन बहुत शान्त हो जाता है| शिविर से निकलने के तुरन्त बाद बाहर की बातचीत और शोर बहुत विपरित मालुम पड़ा| एक तरह से शान्त हुए मन पर इससे बड़ा आघात भी हुआ| जैसे चोट पड़ी| एक तरफ तो मन चाह रहा है कि उन किमती सन्नाटे के पलों को संजोए रखे| और ऐसे में भीड़ का यह शोरगुल! लेकीन फिर विचार आया कि इसे ध्यान की कसौटी की तरह देखा जा सकता है| क्या ऐसी भीड़ और शोर में शान्ति बनी रह सकती है? तो ही वह शान्ति असली है| फिर धीरे धीरे साक्षीभाव लौट आया| अब यहाँ जो शान्ति मिली है, उसे आगे बनाए रखना है और संसार की कसौटी पर इस ध्यान को कसते जाना है|


यह पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद| सभी सद्गुरूओं को वन्दन कर मेरी लेखणि को विराम देता हूँ| सभी को प्रणाम और सभी के प्रति कृतज्ञता|



- निरंजन वेलणकर,

पुणे. 09422108376


26 नवम्बर 2024

Wednesday, November 6, 2024

Festival of light in the sky!

Sky watching event in Anjanvel near Lonavala!

✪ Finally the comet is seen!
✪ Star show in a dark night sky
✪ Thrill to watch a shadow on Jupiter surface caused by its moon
✪ Rain of stars in the sky
✪ Wonderful landscape in the mountains
✪ Bedsa caves- two thousand years back!
✪ Anjanvel- the week-end spent well!

Hello. Recently we could experience the light festival in the sky. We could enjoy sky watching in a serene campus of Anjanvel agro tourism near Lonavala, Maharashtra, located amid wonderful mountains and forts. We could also share this joy of sky watching with others. Hereby I wish to share the experience with you. After many cloudy nights, me and my friend Gireesh Mandhale reached Anjanvel farm house. Glorious mountains and wonderful terrain! Crystal clear blue sky is assuring us that sky watching would be excellent here! We reached when it was getting dark. Venus is already shining in the west. In a hurry we set up the telescopes and prepared ourselves for the comet! Slowly faint stars appeared in the sky. As the darkness grew, small stars started shining! And yes, here is the comet C/2023 A3 (Tsuchinshan- ATLAS) at its expected position! With a large 8" aperture, a modest 4.5 " aperture telescope and a 15 X 70 binocular, it was clearly visible. As the eyes adjusted gradually, its tail is also visible. It was not visible to the naked eyes.







Tuesday, October 15, 2024

Thrilling experience of Saturn disappearing behind the Moon!

Yesterday it was very cloudy in the evening. So the comet C/2023 A3 (Tsuchinshan-ATLAS) could not be seen. Afterwards it also rained. But somehow the clouds gave way right at the time of the occultation! What a thrilling experience it was! It was wonderful to observe this event with my friend Gireesh Mandhale and through his large 8 inch telescope. We both had watched the Saturn- Moon occultation that had occurred on 23 January 2022 (22.5 years back)! And now we again observed this together. We had my 4.5 inch telescope and also a binocular. We had to wait till midnight and the conditions were very cloudy. But the reward was blissful! 



 

Photos and videos

Monday, October 14, 2024

Saturn to be occulted by Moon tonight on 14th October 2024!

Comet C/2023 A3 (Tsuchinshan-ATLAS) easily visible in the evening

 
✪ Wonderful opportunity to witness Saturn- Moon occultation
✪ Saturn suddenly will disappear behind dark part of the Moon and will reappear from behind its lighted part!
✪ In Maharashtra, the timing is around 11.45 pm to 1.40 am
✪ Comet C/2023 A3 (Tsuchinshan-ATLAS) is visible in evening near Venus
✪ Need dark skies and clear view of West of the comet
✪ Comet can be photographed with smartphone pro mode
✪ Both are wonderful events to experience
✪ Season of sky watching started!

Hello all.

Greetings. Tonight we have opportunity to witness and enjoy two sky wonders. The first is the Comet C/2023 A3 (Tsuchinshan-ATLAS). This comet has now become visible in the Evening sky. For next few days, from around 14th October to 19th October, it will appear in the Western sky near the brightest planet Venus. Best chance of observing this comet is coming 10 days. In ideal sky watching conditions- away from city lights, it will be visible to the naked eye as a small smudge. With binoculars and small telescope, it will be more clear. You can track its daily sky position on astronomical app such as stellerium. It can be photographed also by using a smartphone. For this, you need to use the pro- mode. Set the shutter speed to 4 seconds or 8 seconds. Set the ISO to 800 or 1600, depending on how dark sky you have. Set the focus to infinity. Have some support for mobile and keep it tilt towards west. Then set the timer to 5 seconds. You need to keep the mobile steady for some time (timer seconds + shutter speed duration). Then you can photograph it. After some attempts this comet can be photographed.


Thursday, October 10, 2024

सायकलीवर शिवथरघळ- एक अविस्मरणीय अनुभूती

✪ सह्याद्री पर्वतरांग व कोकणाचा संगम असलेली शिवथरघळ!
✪ "केल्याने होत आहे रे, आधी केलेची पाहिजे!"
✪ सोलो सायकलिंग नव्हे निसर्गाच्या सान्निध्यातली तीर्थयात्रा!
✪ शेकडो धबधबे, असंख्य डोंगर आणि अजस्र वरांधा घाट
✪ अजस्र धबधबा- जीवंत प्रवाहाचं रमणीय प्रतिक
✪ आयुष्यभराचा अनुभव देणारी १२४ किमीची थरारक सायकल राईड
✪ अनेक किल्ल्यांच्या परिसरातलं निसर्गाचं विराट रूप दर्शन
✪ परतीच्या थरारक प्रवासाची उत्सुकता

सर्वांना नमस्कार. २८ सप्टेंबर २०२४! कधी कधी आपल्याला अशी बुद्धी झाली ह्याचा आपल्यालाच विलक्षण आनंद होतो! खूप दिवसांपासून शिवथरघळ सायकल राईड करायची इच्छा होती. पावसाळ्यात बराच काळ वरांधा घाट बंद असतो. शिवाय ह्या भागामध्ये पाऊसही फार असतो. त्यामुळे राहून जात होतं. पण मग ठरलं. तरी निघतानासुद्धा पावसाची शक्यता होती. पण आतल्या आवाजाचं ऐकून निघालो! आणि नंतर स्वत:च्या नशीबाला असंख्य धन्यवाद देत राहिलो! पुणे ते शिवथरघळ अंतर साधारण १२० किमी! भोरच्या पुढे घाटाचा रस्ता व त्यामुळे साधारण ७-८ तास लागतील. अगदी कसोटी क्रिकेटमधल्या बॅटिंगसारखी ही खेळी असेल! सकाळी पावसाचा अंदाज बघण्यात वेळ गेल्यामुळे निघायला पावणेसात वाजले!





Sunday, September 22, 2024

Daughter's day is Everyday!


They say today is the daughter's day!





My little daughter celebrates it every day! So much joy of small things! Her joy after reading her tenth letter of her tenth birthday celebrated recently! His smiles and her mischievous response to that! Joy of playing with her and also studying! Her red face while I take her study and her getting delighted once she learns things! My learning from her about how to explain small things and also enjoy them! Her energy and charm! Her appreciation and encouragement from her! Her joyful enchanting face! Her writing down such funny things in her diary! When we experience all this, then we are bound to feel that our portion of happiness is everlasting!

Tuesday, September 17, 2024

दहाव्या वाढदिवसाचं पत्र: मस्ती की पाठशाला!

दि. १७ सप्टेंबर २०२४

प्रिय पाबई...

✪ वृक्षतोड, जंगल आणि शफाली वर्मा
✪ रवीन्द्रनाथ टागोर आणि हॅग्रिड
✪ बिच्चारे डोरेमॉन- शक्तीमॉन आणि तो पोकेमॉन
✪ "निनू, मला वाटलं तू सायकल मागून धरली होतीस!!"
✪ अंग्रेज के ज़माने के जेलर आणि “पारोसा”!
✪ गे नेक- एका कबुतराची व न वाचलेल्या पुस्तकाची कहाणी!
✪ एक साधू व त्याच्याभोवती स्तब्ध उभे असलेले अठरा लांडगे
✪ ॲलेक्सची धमाल, शोज, मस्ती आणि देवगड!
✪ तुम चेंदू‌ हो या चँपियन हो?
✪ बुद्धीबळ आणि वेटलिफ्टिंग!
✪ “दादा, तुझं नाव काय रे?”


आज तुझा दहावा वाढदिवस!!! चक्क दहावा! दहा वर्षं! "इतकी मोठी" तू झालीस! अर्थात् तू किती मोठी झाली‌ आहेस हे मला रोजच कळतं. मस्तीमध्ये तू मारामारी करतेस तेव्हा मला आता कधी कधी तुझे फटके जोरात बसतात! तुझ्यातली शक्ती चांगलीच कळते! आणि आता तुला कडेवर घेणं अशक्यप्राय होतंय! आपल्या डबल सीट राईडसही आता जवळ जवळ थांबल्या आहेत. तर वाढदिवसाच्या माझ्या पत्रांमधलं हे दहावं पत्र! तू माझ्याशी कधी कधी कशी भांडतेस, तसं मीसुद्धा तुझ्याशी भांडणार आहे ह्या पत्रातून! तेव्हा तयार राहा.

हे दहावं पत्र लिहीताना आनंद होतोय! दर वर्षीच्या पत्रातून मी त्यावेळच्या गोष्टी लिहून ठेवल्या आहेत. त्या त्या वर्षातल्या गमती! केलेली मजा, मस्ती, आठवणी आणि कधी कधी आजारपणाच्या आठवणीही. ह्या वर्षामध्ये अशा ब-याच गोष्टी झाल्या. हे लिहीताना ते सर्व आठवतंय. आणि त्याबरोबर गेली दहा वर्षंही आठवत आहेत! एवढसं सरपटत एका खोलीतून दुसर्‍या खोलीत जाणारं ते बाळ! त्या बाळाची तू आता नक्कल मस्त करतेस! ते बाळ अजिबात ओरडायचं नाही! अजिबात त्रास द्यायचं नाही, मारामारी करायचं नाही! आणि हो, त्या बाळाला छोटसं जंगल होतं. आधी एक छोटं झाड होतं. आणि दोन- अडीच वर्षांपासून छोट्या छोट्या मस्त शेंड्या होत्या. अजून मोठं झाल्यावर तर एक गलेलठ्ठ उंदीर तर कधी दोन सापसुद्धा असायचे! आता त्या जंगलाला, त्या वृक्षांना मी जाम मिस करतो. एके काळी ते इतकं मोठं जंगल असायचं की, त्यात घनदाट झाडीतून जाणारी पायवाट असायची! एक चढाव चढून त्या जंगलात ती वाट जायची. पुढे फिरून मग एक मोठा उतार लागायचा. आणि त्या उतारावरून घसरलं की बरोबर ज्वालामुखी लागायचा! सतत स्फोट करणारा ज्वालामुखी! वृक्षतोड फार वाढलीय, त्यामुळे ते जंगल आता मला आठवणींमध्येच दिसतं आणि तू म्हणतेस तसं इन यूवर ड्रीम्स! ते जंगल नसल्याचा मला भयंकर त्रास ह्या वर्षामध्ये सुरू झाला. ते जंगल परत कधी उगवेल माहित नाही! आणि आता तर तुझं जंगल मिलिटरी कॅडेटसारखं आहे! त्यामुळे ती शफाली वर्मा आठवते सारखी! नाम तो बड़ा हो गया, बाल छोटे रह गए!  


Sunday, September 15, 2024

भयंकर प्रामाणिकपणे काम करणारा कलासाधक: संकर्षण कर्‍हाडे

✪ ‘व्हायफळ' गप्पा पॉडकास्टवर उलगडत जाणारा संकर्षणचा प्रवास
✪ ओळखीच्या चेहर्‍याच्या मागे असलेल्या दिलदार माणसाचा परिचय
✪ परभणी, अंबेजोगाई, औरंगाबादच्या आठवणी व लहानपणीच्या खोड्या
✪ प्रशांत दामले, श्रेयस तळपदे व सिनियर्सकडून त्याचं शिकणं आपण शिकावं असं!
✪ “स्टेजवरचा माज खाली दाखवलास तर तो स्टेजवर उतरवला जाईल!”
✪ “तुला मनलं होतं‌ ना तुला बक्षीस द्यायचं हाय, रताळ्या!”
✪ “Soak the pressure and be there!”
✪ पुस्तकं‌ व माणसं वाचणारा अवलिया

संकर्षण कर्‍हाडे! बस नाम ही काफी है! घराघरात पोहचलेला चेहरा! कलाकार, नाटककार, अभिनेता, सूत्र संचालक, लेखक आणि कवी! पण ह्या सगळ्यांच्या पलीकडे असलेला माणूस म्हणून संकर्षण कसा आहे हे ह्या "व्हायफळ" पॉडकास्टमधून उलगडलं! Why फळ, म्हणजे फळाची चिंता कशाला, असं नावच असलेला हा पॉडकास्ट! इथे संकर्षण अगदी मित्रासोबत बोलावा तसा मनातून बोलतो आणि भेटतो. संकर्षण माझ्या परभणीचाच! गाववाला! आणि वयाने थोडा लहान! म्हणून "तो संकर्षण" असा एकेरी उल्लेख करतोय. त्याचं काम सगळ्यांनाच आवडतं. पण माणूस म्हणून संकर्षण कसा आहे हे माहिती नव्हतं. ते ह्या गप्पांमधून उलगडलं! गप्पा अर्थात् संभाषण, बोलणं व संवाद त्या अर्थाने खूप महत्त्वाचं माध्यम आहे. कृष्णाची गीता हेसुद्धा संभाषणच तर आहे.

ह्या गप्पांची सुरूवात होते संकर्षणच्या लहानपणापासून. त्याचं‌ गाव परभणी. जगात जर्मनी, भारतात परभणी हे जगाला सांगणारा संकर्षणच! त्याचं आजोळ अंबेजोगाई. तिथला वाडा, तेव्हाच्या घरातल्या रीती व त्याचं परभणीमधलं लहानपण. लहानपणी त्याने केलेल्या "दलिंदर" खोड्या! सायकल चालवताना शनिवार बाजारजवळ लोकांच्या कानाजवळ जाऊन ओरडणार आणि लांब पळून जाणार! आजोबांच्या मित्राला जवळ जाऊन "ए केशव!" अशी हाक मारणारा संकर्षण! तेच मित्र संध्याकाळी घरी आल्यावर खूप घाबरलेला! पण ते काहीच बोलत नाहीत म्हंटल्यावर "केशव दुसर्‍या कामासाठी आला," असं मनात म्हणणारा संकर्षण! प्रशांत दामलेंचा "संक्या" आणि मकरंद अनासपुरेंचा "संकर्शन कराडे!"


Thursday, September 5, 2024

Srikanth Bolla: An eye opener journey of the visually impaired person

 
✪ “I am not helpless, I don't need your mercy, I want equal treatment"
✪ 2% people don't have the eyesight, but 98% don't have the vision
✪ The boy being visually impaired, the father almost buried him
✪ Meeting with the scientist Dr. APJ Abdul Kalam and his help
✪ A teacher showing the way to realize potential
✪ First visually impaired Indian to learn science at the degree level after fighting with the system
✪ Higher education in the U.S.A. and then a businessman providing 80% jobs to the differently abled
✪ Courage to refuse a prestigious award "from the special category"
✪ Know us not for our disability, but for our abilities!

Hello. Yesterday saw recently released Rajkumar Rao starring "Srikanth" movie. Father, being a fan of Krishnammachari Srikanth, names his boy after him. But when he realizes that the boy is visually impaired, then feeling that the is future is dark, the same father decides to bury the boy! But his destiny had different ideas. The visually impaired boy born in a tribal region of Andhra Pradesh in 1991! The parents illiterate. Srikanth was brought up with other children in the village. He also went to the village school for some time. But he had to endure the discrimination done with visually impaired persons and lack of respect for his talent. Even if we just dare to try not to use our eyes for mere five minutes while doing our routine things, we would feel shattered. Even when we know that we have eyes, we cannot bear the darkness for just five minutes. His struggles were much more. Initially Srikanth had to strive through this. But the destiny had planned something different.


Wednesday, August 21, 2024

बलात्कारी मी: गरज आत्ममंथनाची

नमस्कार.
 

अतिशय अस्वस्थ करणार्‍या बातम्या रोज येत आहेत. समाजातले काही जण किती वाईट आहेत, हे सांगणारी भीषण स्थिती आहे ही. अतिशय मोठा प्रश्न आहे हा. ह्या विषयावर २०१६ मध्ये कोपर्डी प्रकरणाच्या वेळी लिहीलेला लेख शेअर करत आहे. एका वेगळ्या कोनातून ह्या प्रश्नावर त्यामध्ये विचार केला आहे.

सध्या बलात्काराच्या वाढत्या प्रसंगांमुळे चिंतेचं वातावरण पसरलेलं आहे. शाळेच्या मुलींमध्ये दहशतीचं वातावरण आहे. रोज कोपर्डीसारख्या घटना समोर येत आहेत. ह्या परिस्थितीमध्ये प्रश्न पडतो की, ह्यावर रामबाण उपाय काय आहे? बलात्कार्‍याला किंवा बलात्कार्‍यांना फाशी किंवा गोळ्या घालणे हा उपाय आहे का? किंवा छेडछाडीसारख्या गुन्ह्यांना कडक शिक्षा ठेवून परिस्थिती बदलेल का? ह्या संदर्भात थोडं खोलवर बघितलं तर अनेक बाजू दिसतात. ह्या प्रश्नाच्याही- ह्या समस्येच्याही अनेक बाजू आहेत आणि म्हणून उत्तराच्या- उपाययोजनेच्याही अनेक बाजू आहेत. पहिली गोष्ट म्हणजे बलात्कारी कोणी अज्ञात- माथेफिरू- सराईत गुन्हेगार असा आहे, हे मनातून काढायला पाहिजे. आकडेवारी सांगते की, मोठ्या प्रमाणात बलात्कार व शारीरिक शोषणाच्या घटनांमध्ये कुटुंबातले जवळचे सर्वसामान्य पुरुषच सामील असतात. आणि जरी कोणी अज्ञात माथेफिरू गुन्हेगार जरी असले तरी तेसुद्धा कोणी तरी माणूसच आहेत ना. आपल्यासारखेच माणूस म्हणून जन्माला आलेले आहेत. त्यामुळे ही समस्या जर खर्‍या अर्थाने समजून घ्यायची असेल तर माथेफिरू गुन्हेगार असं का करतो, हा प्रश्न विचारून चालणार नाही. त्याऐवजी असा प्रश्न पडायला हवा की, 'मी बलात्कार का करतो?' कारण आपल्याला जरी दिसताना परका माथेफिरू माणूस दिसत असला; तरी तोसुद्धा एक 'मीच' असतो. आणि कितीही माथेफिरू गुन्हेगार म्हंटले, तरी तेही शेवटी माणूसच असतात आणि म्हणून एका अर्थाने 'मीच' असतात. काही 'मी' जास्त गुन्हेगार असतात; काही 'मी' कमी गुन्हेगार असतात.
 

Sunday, August 11, 2024

Chandu Champion- A saga of persistence, determination and success amid adversities

Story of India's first Paralympics gold medal winner

✪ Despite of 9 bullets and half the body paralyzed, journey towards success
✪ Inspired by Khashaba Jadhav in 1952 and achieves Gold in 1972
✪ Unbelievable feat of Muralikant Petkar from Sangali, Maharashtra
✪ “I want to fight for everyone who wish to become a champion!”
✪ "Even the fishes do not have legs!”
✪ Impeccable story, presentation and characterization
✪ Such a colossal bravery, but people just forgot

Hello. These days, it is Olympics fever everywhere! We are obsessed about performance of Indian and other players! India has just missed its gold medal. Now after concluding of the 2024 Olympics, shortly, Paralympics of the differently abled will start. This is the story of Muralikant Petkar, who had won India's first (and only till now) Paralympics Gold medal in swimming. Just saw the recently released Chandu Champion movie with Kartik Aaryan in the lead role. This is based on the true story. This is a rather astonishing movie without any bombardment of typical Bollywoodsque attributes. A very balanced movie highlighting the saga of determination, persistence, just not losing will, myriads of efforts, support of friends and guidance of a Guru.


Murali- Muralikant Petkar is an 8 year old kid who gets inspired by Khashaba Jadhav- the Indian Bronze medal winner in 1952 Helsinki Olympics for wrestling. Muralikant later on learns wrestling. Later on he joins Secunderabad EME (Electronics and Mechanical Engineering Corps) as a soldier and learns boxing. He reached the final round of 1964 Tokyo Military Games in boxing. During the war of 1965, he is hit by 9 bullets and his body below waist gets paralyzed. For around two years he gets in coma. Later on he recovers in a military hospital. Surviving even after being hit by 9 bullets and it is the miracle, he thinks and continues to live with the disability. He is forced to forget his dream of the Olympics gold medal and is forced to lead a mere survivor's life. In a moment of depression, he attempts to suicide himself by taking pills for sleeping. But the fortune favours the brave, the pills are released through vomiting and he survives. He reboots himself with the motivation to to chase his dreams. His coach becomes his guiding force. "Even the fishes do not have legs," he motivates him and gives new direction. Swimming! He learns to swim even without using his body below the waist. Later on he becomes eligible to participate in Asian Games for swimming.
 


Sunday, July 28, 2024

Bharatanatyam Arangetram- Nritya Yoga ceremony!


✪ Arangetram- Testing of the disciple and the final step towards entering public life
✪ Glorious Shabdam, Varnam, Kirtanam, Tillana and Mangalam
✪ Inspiring journey of years of hard work and persistence
✪ Big dreams and giant leaps of Vaishnavi from Parbhani, Maharashtra
✪ Stout Guru- bitter from outside, butter from inside
✪ Nritya and music- a thought stopping experience
✪ Gathering of veteran teachers and near ones

When a disciple is ready, Guru appears. When the disciple is really ready, the Guru disappears! A few days ago it was Guru Purnima day. Today on 28th July, one could experience the manifestation of Guru- disciple relation, its various expressions and what a Gurukula means. The occasion was the Arangetram Nritya- Yoga ceremony of Ms. Vaishnavi Kapre, the disciple of Guru Swapna Ratnalikar Kurdukar and her Rukhminidevi Kala Kshetra. Arangetram is the final examination of the disciple in Bharatnatyam and the ceremony for his or her entry into the public life and for bestowing her with blessings. My acquaintance with Ms. Vaishnavi is this- She is the daughter of my English teacher of Standard VI, Tanuja Kapare who had made me cry and! And her father Balkrishna Kapre, the P.T. teacher also had made me afraid! But she is significantly more than being their daughter and I came to understand this across the ceremony. In short, Vaishnavi is manifold- she is a meditator of Art of Living programme, she is a Yoga teacher, an architect engineer, a Bharatnatyam dancer and much more! Her dedication from a young age, her toiling and her persistence with her efforts was there to see. My sir and madam also had encouraged her without limits and provided her opportunities. This example of toiling so hard for so long and with such perseverance should be regarded inspirational in these days.

The programme was amazing, but also I could meet many teachers. Teachers who had taught me as a kid and as a college student. I felt gratitude towards all the Gurus. Parbhani in central Maharashtra was a small town of those days. Therefore there were many people whom I knew. This made the ceremony more special. Another unique aspect was that right from the anchor and the photographer- everyone was honoured and respected. Needless to say, even the photographer herself was a Bharatnatyam dancer! Along with the dance, company of Mrudangam, Flute (Bansari) and violin and renowned singers, light arrangements, succinct anchoring, selected short discourses made this ceremony more marvelous. One aspect of the anchoring is worth mentioning- there were many veterans on the stage. They too were given best wishes for their further journey after mentioning their contributions. Persons who supported Vaishnavi in her journey and other seniors from the field of music were present. One person was missed badly and he is none other than a film editor from Parbhani, Saumitra Dharasurkar.

Before talking about Vaishnavi's presentations, it is worth talking about her Guru Swapna Ratnalikar- Kurdukar. She was also known to me, the daughter of my favourite mathematics teacher Ratnalikar sir and she was also Bharatnatyam Guru for my two sisters! Her Rukhminidevi Kala Kshetra is working just like a modern day Guru kula. Her narration revealed hard work done by her disciple Vaishnavi, her struggle while doing Bharatnatyam and also doing Architecture at the same time, her difficulties under the guidance of the strict Guru and her journey towards this stage. A Guru hammers a pot in the making from outside, but also gives the warmth from inside. Then the ceremony unfolded the way in which she had prepared Vaishnavi. Under her Guru, Vaishnavi had made so great efforts that today she looks just effortless in her performance!

Monday, June 3, 2024

Coastal cycle ride!

Hello. These days I happen to stay in a remote place near Devgad in Konkan region of Maharashtra. Konkan is a wonderful place with wonderful coastline. Here road always turns and goes up or down. Lush green nature and serene calmness is what we are enjoying. Staying in the nature calms so much! Being at such a place is nothing short of meditation. I am enjoying my running and cycling here. Today I cycled on a very beautiful coastal road. Wonderful close view of the sea and amazing landscape! Do enjoy my photos here-  These photos can be distracting, so view at your own risk! :) Here you can read my articles about cycling, fitness, meditation, trekking, sky watching etc.

Today is also world cycle day! So happy cycling and happy fitness to all. For finance as well as fitness this is very true- a little bit of discomfort is very comfortable in the long run! So do enjoy your favourite fitness exercises. Thank you.







(Niranjan Welankar 09422108376 Conducts fitness, meditation, sky watching sessions and fun- learn sessions for children.)

Thursday, May 16, 2024

Gay-neck: The story of a pigeon!

Hello. When I was glancing fifth Standard Hindi textbook of my daughter, I came to know about one book. Out of curiousity, I purchased that book and then I read it. It is the only book of an Indian writer which has received the greatest award for children- literature in the U.S.A.! ‘Gay-neck: The story of a pigeon’ written by Dhan Gopal Mukerji! By gay-neck, the author meant a pigeon with a colourful neck. This book is the story of this pigeon. Published in 1925, this book is a glimpse of the golden childhood experienced by the author. Today we have traveled a great distance from those times. But in this book, we can read how were those times of roaming freely in the nature, staying in forests and mountains for days and nights!

This book narrates experiences of the author with his favourite pigeon. The author talks about his experiences during early 1910s. While reading this, I was reminded about my childhood. When I had seen the famous song “Kabutar Ja Ja Ja”, I too had longed for one pigeon for some time! In those days, pigeons were pets brought up in almost all households. They were trained and even their competitions would take place! Knowing about this is surprising. Mother pigeon knows the exact time to open up the egg by pressing her beak, how does she know this, how the pigeons build up their nest by bringing straws, how they can fly hundreds of kilometers- all this is very stunning! For assessing navigation skills of his pigeon, the author and his friends take his pigeon towards Darjeeling and Sikkim region. An eagle- assault, defense of the pigeon and the author’s search to get back his pigeon- all this is just wonderful.


Wednesday, May 8, 2024

नात्यांचं भावस्पर्शी इंद्रधनुष्य- काहे दिया परदेस

✪ दिग्गज व नवोदित कलाकारांची सुरेल मैफल
✪ गौरी अर्थात् सायली संजीव- कमालीच्या गुणी अभिनेत्रीचं पदार्पण
✪ वडील- मुलगी नात्यातले भावतरंग
✪ हँडसम शिवचं डोळ्यांनी फ्लर्ट करणं!
✪ छोटा "अहं" ते "सर्वसमावेशक हम" ही वाटचाल
✪ प्रेमळ आजीची‌ डॅशिंग बॅटींग- मी सांगतंय तुका
✪ सासू- जावयातलं जिव्हाळ्याचं शीतयुद्ध

सर्वांना नमस्कार. सध्याच्या तापलेल्या वातावरणामध्ये थोडा आल्हाददायक थंडावा मिळावा, म्हणून हा वेगळ्याच विषयावर लिहीण्याचा प्रयत्न. गेल्या काही महिन्यांमध्ये काही दिवस आजारी असल्यामुळे व फ्रॅक्चरमुळे आराम करत असताना सहज म्हणून ह्या व्यक्तीरेखा आठवल्या. आणि आठ वर्षांपूर्वी टीव्हीवर प्रचंड लोकप्रिय झालेल्या "काहे दिया परदेस" मालिकेचे काही भाग गंमत म्हणून बघितले. तेव्हाही सलग नाही पण अधून- मधून बघितले होते. त्यामुळे कलाकार ओळखीचे आणि आवडीचे झाले होते. ह्यावेळी बघताना वेगळी मजा आली आणि वेब सिरीज बघावी तसे अनेक भाग सलग बघितले गेले. त्यामध्ये असलेली मजा, खुमारी, त्यात दाखवलेल्या नात्यांच्या नानाविध रंगांविषयी लिहावसं वाटलं.


Friday, May 3, 2024

हिमालय से शुरू हुई मेरी यात्रा. . .


मेरा जन्म हुआ हिमालय के पहाड़ों में| उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में सद्गड़ नाम के रमणीय गाँव के पास| हिमालय के बीचोबीच! सब तरफ पहाड़, पेड़, पशु- पक्षी ऐसे माहौल में मेरा जन्म हुआ| बहुत ठण्डा मौसम था वह| मै और मेरे भाई- बहन पहाड़ में खेलते थे| बहुत आल्हादपूर्ण परिसर और घनी शान्ति थी वहाँ पर| सब तरफ हरियाली, मिट्टी, खेत और ठण्ड| हम जहाँ रहते थे, वहाँ भेड़- बकरियाँ साथ होती थी| मेरे दिन बड़े ख़ुशहाल थे| आस- पास के पर्वत और पेड़ मै पहचानने लग गया था| मेरी माँ और भाई- बहनों के साथ खुशी से रह रहा था| मुझे कोई भी चिन्ता नही थी| लेकीन एक दिन अचानक...

अचानक एक दादा मुझे मिला| मेरे साथ बहुत खेला| हमने बहुत मस्ती की| उसे मै इतना अच्छा लगा कि उसने मेरा फोटो भी खींचा| मै बहुत ख़ुश था| आगे क्या होनेवाला है, इसका मुझे अन्दाज़ा ही नही था| दो- तीन दिनों के बाद वह दादा फिर आया| उसके साथ और एक छोटा दादा भी था| और एक कुछ डरावने से लगनेवाले चाचा भी आए| उन्होने मुझे उठा लिया! क्या हो रहा है मै समझ ही नही सका| मेरी ताकत उनके सामने न के बराबर थी| वे मुझे कहाँ ले जा रहे थे पता ही नही चला| देखते देखते उन्होने मुझे मेरे माँ और भाई- बहनों से दूर किया| एक छोटी बास्केट में मुझे बिठाया और एक पूरा दिन जोर से आवाज करनेवाली गाड़ी में से ले गए| मै बहुत रोया| अक्सर चिल्लाता रहा| बड़ी यात्रा थी वह| मै एक अज़ीब सी जगह पर पहुँचा जहा अविरत बड़ा शोर और लोगों की भीड़ थी| फिर मुझे एक बड़ी ही लम्बी गाड़ी में वे ले गए| मुझे बहुत ज्यादा तकलीफ हो रही थी| अब तो मुझे गर्मी भी लग रही थी| यह पूरी यात्रा मैने रोते हुए और चीखते हुए की... मुझे मेरी माँ और भाई- बहन याद आ रहे थे|


Sunday, April 28, 2024

अत्तराच्या कुपीतून दरवळणारा सुगंध. . .

रोजच्या जगण्याच्या धावपळीमध्ये आपण अनेकदा गोष्टी विसरून जातो. वर्तमानाच्या धामधुमीमध्ये जुन्या सुगंधी आठवणींचा दरवळ विसरून पुढे जातो. आणि मानवी स्वभावच असा आहे की, ज्या गोष्टी चांगल्या वाटतात त्या आपल्याला कमी लक्षात राहतात आणि जे खटकत असतं, जे त्रासदायक असतं तिकडेच जास्त लक्ष जातं. जे चांगलं आणि उत्तम होतं ते आपण लक्षात ठेवत नाही. आणि पुढे जाताना मागची वाटसुद्धा आपल्या नजरेसमोरून दिसेनाशी होती. आपली मुळं आणि आपला आरंभ आपल्या डोळ्यांसमोर नसतो. म्हणून अशाच नितांत सुंदर आठवणींच्या अत्तराच्या कुपीला उघडण्याचा हा प्रयत्न.

जेव्हा आपण जुन्या जगातल्या गोष्टी आठवतो तेव्हा आपल्याला जाणीव होते की जुनं जग किती समृद्ध होतं. आणि आपल्याला जे लाभलं होतं ते किती सुंदर होतं. तेव्हा त्याचं मोल जितकं जाणवलं नसेल त्याहून त्याचं मोल आज कळतं. काळ, परिस्थिती, जीवनशैली बदलली तरी छोट्या गोष्टी किती आनंददायी होत्या ही जाणीव होते. ताजेपणाचा शिडकावा होऊन एक नवीन दृष्टीही मिळते. त्यामुळे अधून मधून जुन्या जगामध्ये फेरफटका मारणं उपयोगाचं असावं.

ह्या आठवणी आहेत माझ्या नांदेडच्या आजीच्या म्हणजे कै. कालिंदी गजानन फाटक ह्यांच्या! मला लहानपणी दोन आजी- आजोबांचा भरपूर सहवास मिळाला. जे परभणीला सोबत राहायचे ते आजी- आजोबा हे नुसते आजी- आजोबा होते तर नांदेडला राहणारे आजी- आजोबा नांदेडचे आजी आजोबा होते! आणि त्या आजी- आजोबांची भेट काही नेहमी होत नसल्यामुळे तिथे होणारे लाड जास्त असायचे. आजोबांच्या आठवणी मागच्या वर्षी ते गेले तेव्हा लिहील्या होत्या. त्याच वेळी जाणवलं होतं की, नांदेडच्या आजीच्या म्हणजे कालिंदी आजीच्या तर त्याहूनही किती जास्त आठवणी आहेत! आजीला जाऊन आज ९ वर्षं होतील. म्हणून ह्या अत्तराच्या कुपीला उघडण्याचा हा प्रयत्न.

लहानपणीच्या सगळ्यांत जवळच्या व्यक्तींमध्ये- लाड आणि कौतुक करणार्‍यांमध्ये आजी अगदी पुढे होती. कोवळ्या वयात मिळालेला स्वीकार आणि प्रेम बहुमोल असतं. वामन मूर्ती, सौम्य आणि हळुवार स्वभाव आणि चेहर्‍यावर हसू. आठवणींचा पेटारा सांगतो की, आजीसोबत आम्ही नातू व नातींनी किती तरी मजा केली आहे. तिच्याकडून ऐकलेल्या गोष्टी, तिने सांगितलेले किस्से आणि विनोद, तिने आवडीने खाऊ घातलेले पदार्थ (ही बाब तर आता हळुहळु नामशेष होण्याइतकी दुर्मिळ होते आहे), तिच्या हातची चव, स्वयंपाकाचा तिचा उत्साह आणि अर्थातच दुपारच्या जेवणानंतरचे पत्त्यांचे असंख्य डाव! "निरू, काय सुरेख पत्ते आहेत तुझे! दोन एक्के, सगळे रथी महारथी तुझ्याकडेच! आणि मला तर अगदी रद्दी, एक हात मुश्किलीने होईल!" हा संवाद तर नेहमीचा होता! त्याशिवाय वेगवेगळ्या पुस्तकांबद्दल ती गोष्टी सांगायची. विनोबांची गीताई तिला विशेष आवडायची. समाजातले महापुरुष, समाज सुधारक, देशभक्त आणि क्रांतीकारक ह्यांच्याबद्दलही ती खूप काही सांगायची, (सांगत असे म्हणायला पाहिजे). हे लिहीताना तेव्हाची भाषाही वेगळी असल्याचं जाणवतंय. तेव्हा "निजायची वेळ झाली, गाडीत फार रेटारेटी होती का, दिवेलागणीची वेळ झाली, चांगलंच गरजतंय, बहुधा सर येणार" अशी वाक्यं ऐकल्याचं आठवतंय. आज हे शब्द आपण फार वापरत नाहीय, हेही जाणवतंय.



Tuesday, April 23, 2024

डॉ. ब्रायन वाईस ह्यांचं पुस्तक!

कोलंबिया युनिव्हर्सिटी आणि येल मेडिकल स्कूलचे पदवीधर आणि मियामीतील मानसशास्त्राच्या संस्थेचे अध्यक्ष असलेले डॉ. ब्रायन वाईस अतिशय तणावात असलेल्या व अस्थिर अशा कॅथरीन ह्या तरुणीवर मानसोपचार करतात. तिला होणार्‍या त्रासाचं मूळ तिच्या जीवनातल्याच काही अनुभवांमध्ये असावं असं मानून ते तिला बोलतं करतात. तिने अधिक बोलतं व्हावं आणि हलकं व्हावं म्हणून ते तिला ट्रान्समध्ये नेतात आणि तिच्या आठवणी सांगायला सांगतात. कॅथरीन तिचे अनुभव- आठवणी सांगत जाते. थेरपीचे काही सेशन्स होऊनही तिची अस्थिरता थांबत नाही. म्हणून डॉ. वाईस तिला आणखी लहानपणीचे अनुभव विचारतात. एका वेळी ती सांगते की, मी तीन वर्षाचे होते तेव्हा माझ्या वडिलांनी माझ्यावर अत्याचार केला. त्यामुळे मी अजूनही त्यांना घाबरते. त्यावेळी तिच्या निरागस मनामध्ये भावना असते की, बाबा माझ्याशी असं वागले म्हणजे मीच काही तरी चुकले असणार! आणि हळु हळु हे पुस्तक वाचताना आपल्याला एकामागोमाग एक धक्के बसण्याची फक्त सुरूवात होते.

डॉ. वाईसचा अनुभव असतो की, आपल्या आयुष्यातल्या अशा असंख्य भल्या- बुर्‍या अनुभवांचं इंप्रिंट आपल्या मनावर असतं आणि केवळ ते अवचेतन (अनकॉन्शस) मनामध्ये  असल्यामुळे आपल्याला जाणवत नाही. अनेक गंभीर तक्रारी असलेल्या मनोरुग्णांवर उपचार करणारे डॉ. वाईस कॅथरीनच्या बाबतीत काही करू शकत नाहीत. तिच्या सगळ्या आठवणी समोर येऊन आणि अनेक आठवडे थेरपी होऊनही तिची अस्थिरता काही संपत नाही. तिच्या वागण्यामध्ये अनियमित ताण असतो. अनेक गोष्टींची भिती तिला वाटत असते. तर कधी विमानाला प्रचंड घाबरणारी असूनही ती इजिप्तला जाते. आणि विलक्षण बाब म्हणजे पहिल्यांदाच इजिप्तला जात असूनही तिथे फिरताना तिथल्या गाईडच्या सांगण्यातल्या चुका ती दाखवून देते! कॅथरीन डॉ. वाईससाठी एक प्रश्नचिन्ह बनते. अखेर ते तिच्यावर हिप्नोसिस थेरपी वापरायचा निर्णय घेतात.


Thursday, April 18, 2024

A banyan tree!

Today is 18th April. It is fourteen years since my grandfather Narayanrao Welnakar- Nana Aajoba had passed. This is a small attempt to recall his memories. Actually such a sharing from his grandson is somewhat like a rookie artist expressing his thoughts about legends of the calibre of Hariprasadji! Because what we grandsons and granddaughters saw was his last years. It was seeing a fast diminishing sun. Compared to this, the relation of a father to his son or daughter is much closer and it witnesses many things for long time. There they get opportunity to understand closely. But also sometimes too harsh blinding the eyes. As our eyes cannot see things which are too far, they also cannot see things which are too close. This is the nature of the relation between the father and his son/ daughter. Compared to this, the relation between the grandfather and his grandchildren is much pleasant. Thanks to the not so harshly burning flame and attachment sustained to the distance!



Despite of this difference in age and the lifetimes, even the grandchildren could experience caring shadow and comforts of this banyan tree. Childhood memories still pop up in the mind. I can clearly see- he is doing his sun- salutations (Surya Namaskar) on the terrace, he is doing his daily tasks with discipline- going to RSS Shakha, meeting people and writing constantly. For others he is a little harsh, but for the grandchildren, very gentle! He is readily available when our health is not good or when we wish to convince our parents!

During the childhood days, I never understood his work as the civil engineer, his social work and the people he had earned. Because, many times we need contrast to understand things. In those days, one would just think maybe this is the case everywhere. Therefore, who he really was, how he was and he was a banyan tree not just for us, but for many more people- all this we clearly understood only when he left us when we saw so many people talking about him. After his demise, prof. Sheshrao Mohite had shared his beautiful memories. Despite of distinct ideology and orientation in life and also huge age difference, my grandfather had became a close friend to him.
His year of birth was 1924 and in that sense, this is the 100th year. In those days, he became an engineer and for expanding RSS work, he left Nagpur and settled in Parbhani, a small town in central Maharashtra in 1960. Along with his profession, he continued working for RSS and other social work related activities. Later on he played a significant role in establishing many organizations. Yoga Mitra Mandal, Parbhani is one of them. Inspired by him, further generation- my father, my uncle and my aunt also contributed in social sector. But his impression is more than that. Today when we see so much of contrast in the society, we realize how deep and tall this tree was. Those days, the epoch- it was altogether different.

In those strange days, in 60s to 70s, many people would regularly come to our house for meals. It was a trend then. The house would welcome many faces every day. My grandparents have helped many needy persons. In those days, one thing was strikingly different than today's world. Everyone whom my grandfather would meet at home or outside- all of them were his friends. Shopkeepers, workers in house or other places, teachers, government officers- they could be anyone, but they were never strangers and rather his friends. In those days my grandparents and later on my father- they never would meet any stranger at all! And all of this was so effortless in that it was so deeply rooted with them. My grandfather would encourage my grandmother for her music penance and he would support his daughters for fulfilling their dreams. This was being much ahead of his times. We never realized how unique it was until we experienced the outside world.

As his grandson, I never even wondered how deep this was. His presence was gentle and not troublesome. He would speak lively. It was a great relief for me that all my school teachers are his friends! He was a passionate cricket fan. And he was also fond of telling stories with signatory phrases! I still remember the movie “Hum Aapke hain koun” which we enjoyed in a theater with our grandparents. In later stages of his life, he would sit for hours and keep writing. He had translated poems of Atalji and he would also write in detail about religious, spiritual and social subjects.

Before this bright sun was set, he was eclipsed by dementia. Maybe due to this, for many persons his memories are about his forgetfulness! Yes, the sun had lost much of its blaze. But its fire was revealed when people shared their loving memories with reverence. It revealed how bright this star was. Today it is fourteen years since he passed, but people who know olden days of Parbhani still recall him. Today sprouts out of this banyan tree have reached far away.

- Niranjan Welankar 09422108376
18 April 2024