मेरा जन्म हुआ हिमालय के पहाड़ों में| उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में सद्गड़ नाम के रमणीय गाँव के पास| हिमालय के बीचोबीच! सब तरफ पहाड़, पेड़, पशु- पक्षी ऐसे माहौल में मेरा जन्म हुआ| बहुत ठण्डा मौसम था वह| मै और मेरे भाई- बहन पहाड़ में खेलते थे| बहुत आल्हादपूर्ण परिसर और घनी शान्ति थी वहाँ पर| सब तरफ हरियाली, मिट्टी, खेत और ठण्ड| हम जहाँ रहते थे, वहाँ भेड़- बकरियाँ साथ होती थी| मेरे दिन बड़े ख़ुशहाल थे| आस- पास के पर्वत और पेड़ मै पहचानने लग गया था| मेरी माँ और भाई- बहनों के साथ खुशी से रह रहा था| मुझे कोई भी चिन्ता नही थी| लेकीन एक दिन अचानक...
अचानक एक दादा मुझे मिला| मेरे साथ बहुत खेला| हमने बहुत मस्ती की| उसे मै इतना अच्छा लगा कि उसने मेरा फोटो भी खींचा| मै बहुत ख़ुश था| आगे क्या होनेवाला है, इसका मुझे अन्दाज़ा ही नही था| दो- तीन दिनों के बाद वह दादा फिर आया| उसके साथ और एक छोटा दादा भी था| और एक कुछ डरावने से लगनेवाले चाचा भी आए| उन्होने मुझे उठा लिया! क्या हो रहा है मै समझ ही नही सका| मेरी ताकत उनके सामने न के बराबर थी| वे मुझे कहाँ ले जा रहे थे पता ही नही चला| देखते देखते उन्होने मुझे मेरे माँ और भाई- बहनों से दूर किया| एक छोटी बास्केट में मुझे बिठाया और एक पूरा दिन जोर से आवाज करनेवाली गाड़ी में से ले गए| मै बहुत रोया| अक्सर चिल्लाता रहा| बड़ी यात्रा थी वह| मै एक अज़ीब सी जगह पर पहुँचा जहा अविरत बड़ा शोर और लोगों की भीड़ थी| फिर मुझे एक बड़ी ही लम्बी गाड़ी में वे ले गए| मुझे बहुत ज्यादा तकलीफ हो रही थी| अब तो मुझे गर्मी भी लग रही थी| यह पूरी यात्रा मैने रोते हुए और चीखते हुए की... मुझे मेरी माँ और भाई- बहन याद आ रहे थे|
आखिर कर मै एक घर के पास पहुँचा| एक छोटी दिदी मेरी राह देख रही थी| उसने मुझे देखा और ख़ुशी से वह झूम उठी! उसने मुझे आसानी से गोद में उठाया! मैने धीरे से उसे चांटा| बहुत नए लोग मुझे मिलने लगे| एक नानीजी मुझसे मिली, उस दिदी की माँ मुझे मिली| उस दिदी के मामा- मामी भी मिले| दो दिनों बाद उस दिदी का बाबा भी मुझे मिला| दोन- तीन दिनों के बाद मुझे उस घर की कुछ आदत हुई| मुझे अलग अलग आवाजें आती थी| हमेशा डर लगता था| लेकीन धीरे धीरे मै चैन से रहने लगा| मुझे वे दोनों दादा और नानीजी नहलाती थी| मैने घर में फर्श गिला कर दिया तो मुझे सब चिल्लाते थे| मै भी सीखता गया| सब मुझसे खेलते और मस्ती करते थे| मुझे भी अच्छा लगने लगा|
दिदी मेरे साथ बहुत खेलने लगी| मै इधर- उधर दौड़ने लगा| धीरे धीरे सिढियाँ चढ़ने लगा| खेलते समय मै सबको काटता था| मै नन्हा होने के बावजूद मेरे दांत नुकीले थे| इसलिए उनका खून भी निकलता था| सब फिर मुझे चिल्लाते थे| मुझे मेरी माँ और भाई- बहनों की भी बहुत याद आती थी| लेकीन कुछ महिनों में मै मेरे नए घर में ख़ुशी से रहने लगा| मेरी दिदी ही मेरी माँ बनी| उसका नाम अदू है, यह भी मै जान गया| और वो मुझे ॲलेक्स- आलू बुबू कह कर पुकारती है, यह भी समझ गया| अदू दिदी की नानीजी मेरा ख्याल रखती है, यह भी समझ गया|
मेरी मस्ती और खेलना देख कर सबको ख़ुशी होती थी| मुझे हड्डी के बिस्कीट और गोल्डीज मिलने लगे| दिदी के बाबा ने लाया हुआ बेल्ट मैने तोड़ दिया| मुझे वह पसन्द ही नही आ रहा था| दूसरा बेल्ट लाया, वह भी तोड़ दिया| लेकीन सभी मेरा लाड़- प्यार करते थे| धीरे धीरे मै समझने लगा कि दिदी सुबह स्कूल जाती है| कोई बाहर जाता हो, तो मुझे बहुत दुख होता था| और सिढ़ियों पर या लिफ्ट पर किसी के आने की आहट सुन कर मेरे कान चौकन्ने हो जाते थे| दोपहर में दिदी आने के बाद मै पूँछ हिला कर उसे लाड़- प्यार करता था| वह भी मेरे गले लगती थी| धीरे धीरे सबको मेरी और मुझे सबकी आदत हुई| मै भी मेरी मस्ती से सबको हंसाने लगा| कभी मुझे बहुत डाँट भी पड़ती थी|
यहाँ मुझे गर्मी से बहुत तकलीफ होती है| चूँकी मै हिमालय का हूँ, मै हमेशा दो स्वेटर- मफलर- दस्ताने पहने जैसा होता हूँ| लेकीन अब मै अभ्यस्त हुआ हूँ| सब मेरा ख्याल रखते हैं| जब कोई घर में आता है तो मुझे बहुत ख़ुशी होती है| मुझे उन सबको मिलना होता है| मै मिलने के लिए उनके पास जाता हूँ, मेरे पैर उनपर रखता हूँ, ख़ुशी से झूमता हूँ| लेकीन मेरी भाषा ही वे नही समझते हैं| वे बहुत डरते हैं और चीखते भी हैं! लेकीन कुछ लोग मुझे बहुत प्यार करते हैं| दिदी की एक चाची मेरे साथ बहुत प्यार से खेली थी| जिनको आदत होती है, वे मुझे बहुत प्यार देते हैं| मुझे भी अच्छा लगता है|
मेरी मस्ती बढती गई| पास- पड़ौस के कुत्तों से भी मै बात करने लगा| यहाँ का मौसम मेरे लिए कठिन है| लेकीन मै ख़ुश हूँ| माँ साथ नही है, लेकीन अदू दिदी मेरे साथ होती है| दिदी की नानीजी होती है| अब तो दिदी के बजाय मुझे ही अधिक प्यार मिलता है| उसके पुराने खिलौनों के साथ अब मै ही खेलता हूँ| बाद में मैने समझा कि उस दादा ने मेरा फोटो खींचा था और उसे देख कर ही अदू दिदी एकदम से रोने लगी थी| मुझे ले आओ, कह कर उसने ज़िद की| वह बहुत रोयी| उसके रोने के कारण ही वे दादा और चाचा- चाची मुझे सीधा हिमालय से अदू दिदी के पास ले आए थे! इस वर्ष में मै बहुत शरारती बन गया हूँ| बहुत मज़े करता हूँ| और आगे भी मेरा वही इरादा रहेगा| और हाँ, अब मै नारियल का छिलका भी निकाल देता हूँ! अब मै बहुत बड़ा दिखता हूँ| अदू दिदी से मै छोटा हूँ, लेकीन उससे अधिक शक्तिवान हुआ हूँ|
- पहले जन्मदिन के अवसर पर चि. ॲलेक्स का मनोगत
(अदू की अथक ज़िद से आए हुए और उसके छोटे भाई बने ॲलेक्स की कहानी| श्वानप्रेमी हो तो जन्मदिन के लिए जरूर पधारिए!)
- निरंजन वेलणकर 09422108376
जन्मदिन की शुभकामनाएं ॲलेक्स के लिए |
ReplyDeleteअलेक्स को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं. कितना सरल और सहेज लिखा है, जैसे पहाड़ों से कोई झरने का संगीत हो. अदू और अलेक्स, दोनों बहुत प्यारे है.
ReplyDeleteअलेक्स के विचार जानकर अच्छा लगा। हाँ, पहाड़ियों के लिए शहर की गर्मी बर्दाश्त करना मुश्किल होता है। फिर वह श्वान हो या लोग। समय के साथ खुद को रहने लायक तो बना देते हैं लेकिन पूरी तरह से शहर के शायद कई नहीं हो पाते हैं।
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