मुझे
तुमसे बहुत कुछ बोलना है!
तुमको
यह लिखते समय बहुत खुशी का
एहसास हो रहा है|
शब्द
ही नही सामने आ रहे हैं|
क्या
लिखूँ,
कितना
लिखूँ और कैसे लिखूँ,
ऐसी
स्थिति है|
भावनाओं
की बाढ़ आ रही है|
तुम!
तुम्हारे
बारे में क्या लिखूँ?
जो
कुछ लिख कर और बोल कर कहा जा
सकता है,
वह
बहुत थोड़ा है|
इतना
सा है|
पर
तुम,
तुम्हारा
मेरा नाता,
तुम
मेरे जीवन में आयी वह समय और
वहाँ से बदली हुई जीवनधारा...
क्या
क्या और कैसे कहूँ?
तुम्हारे
साथ बिताए सारे पल मन में बसे
है!
ठीक
पहले दिन से|
तुम्हे
मिलने से पहले जीवन में कई बार
सुन्दरता देखी थी;
कई
सुन्दर चेहरे देखे थे;
पर
तुम उन सबसे बिल्कुल अलग हो!
नितान्त
सुन्दर!
जीवन
में अब तक मुझे कई चीजें दिवाना
करनेवाली मिली|
अनेकों
ने दिवाना किया|
पर
उन सब को तुमने एक ही क्षण में
पीछे छोड दिया!
तुम्हारे
साथ अब पुराने पसन्द किए गए
चेहरे और दिवाना करनेवाले
लोग याद आते हैं और हसीं आती
है!
जीवन
इतना खूबसूरत और असीम आल्हाददायक
भी हो सकता है,
यह
एहसास तुम्हारे साथ होने के
बाद ही आया|
असीम
आनन्द ठीक कैसा होता है,
यह
पहली बार स्पष्ट हुआ|
तुम
जीवन में आयी और सब जीवन
रुपान्तरित हुआ,
तुम्हारी
रोशनी से जीवन में उजाला हुआ|
सच
कहता हूँ तुम से शब्दों द्वारा
बोलना मेरे लिए सम्भव ही नही
है|
और
तुम्हे भी शब्दों की भाषा कहाँ
चाहिए|
मेरे
मन की भावना तुम तक पहुँचाने
के लिए शब्दों की जरूरत भी
नही|
वे
तो सीधे इस हृदय से उस हृदय तक
पहुँचती ही है|
वाकई,
कैसे
लिखूँ यह पत्र?
******
मै
तुम्हे नाम से नही पहचानता
हूँ|
क्यों
कि नाम तो बस एक लेबल होता है|
एक
औपचारिकता|
तुम्हे
मै उससे गहन तल पर जा कर देखता
हूँ|
मेरे
लिए तुम पहले से ही अनाम हो|
शुद्ध
प्रसन्नता!
यह
तुम्हारा नाम होना चाहिए!
आज
तुम्हारी सभी यादों को दोबारा
जीने का प्रयास करता हूँ|
पर
शुरू कहाँ से करू,
यही
समझ नही आ रहा है|
अथाह
महासागर!
और
हम मात्र एक तट से उसके एक सीरे
को देखते हैं,
ऐसी
स्थिति है|
मै
तुम्हे नाम से भी नही पुकार
सकता हूँ|
क्यों
कि नाम भी तो एक व्यावहारिक
लेबल तो होता है|
एक
प्रतिक मात्र|
समाज
द्वारा दिया गया|
बहुत
उथला प्रतिक तो होता है वो|
तुम्हारा
अस्तित्व उससे कितना गहन!
नाम
तो उपरी सतह की पहचान!
मै
फलां फलां व्यक्ति|
मै
कौन?
तो
मै फलां व्यक्ति|
क्ष
गाँव में रहनेवाला;
य
परिवार का|
अ
और ब का बेटा|
वास्तव
में समाज द्वारा दी गई यह पहचान
अनामिक अस्तित्व पर डाली हुई
सुविधा की चद्दर तो है|
वास्तविक
पहचान कितनी गहन होती है!
जीवन
में तुम आयी और तुम्हारे साथ
अपनी असली पहचान जानने की-
स्वयं
की खोज करने की प्रेरणा और
बढ़ी...
तुम्हारे
आगमन से जीवन की दिशा बदल सी
जा रही है|
एक
गाना याद आता है-
“उस
ज़िंदगी से कैसे गिला करे जिस
ज़िंदगी ने मिलवा दिया आपसे…"
वास्तव
में तुम्हारा हमारे पास आना
यह हमें मिली हुई बहुत बड़ी देन
है|
अगेन,
मै
इसे शब्दों में नही कह सकता
हूं|
पर
हर्जा नही,
तुम
उसे भीतर से जानती ही हो|
जीवन
में पुण्य या सत्कृत्य होता
होगा तो जरूर हमने किया होगा|
इसलिए
ही तो हम पर इतनी सुन्दर और
अनमोल कृपा बरस पड़ी है|
शब्द
मात्र इंगित हैं|
******
स्वरा
और अद्विका!
ये
तुम्हे दिए गए दो नाम!
सिर्फ
प्रतिक के तौर पर|
एक
सामाजिक उपयोगिता|
पर
मैने कभी भी उसे तुम्हारी असली
पहचान नही माना!
स्वरा,
जिस
दिन तुम हमारे जीवन में आयी,
वह
दिन अब भी सामने है|
शुद्ध
प्रसन्नता!
जन्म
से ही तुम शुद्ध और अखण्ड
प्रसन्न ही हो!
जन्म
के समय तुम इतनी सी थी!
उस
समय भी तुम्हारे होंठ मुलायम
और प्यारे थे!
जीवन
और मृत्यु ये एक ही सिक्के के
दो पहलू-
एक
ही नदी के दो तट!
इसलिए
तुम्हारे जन्म के समय तुम्हारी
माँ को मरणप्राय यातनाओं से
गुजरना पड़ा|
पर
उसमें उसका नया जन्म भी हुआ|
और
वाकई स्वरा,
तुम्हारे
साथ हम सब को ही नया जीवन मिला
है|
जब
तुम सिर्फ तीन दिनों की थी,
तभी
तुमने मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा
दिया!
और
मैने तुम्हारे तरफ देख कर
मुस्कुराने के पहले तुम ही
मुझे देख मुस्कुरायी!
एक
अर्थ में तुमने आगामी जीवन
की दिशा ही बताई|
जब
तुम्हे पहली बार गोद में लिया
वह अनुभव...
तरह
तरह के आवाज करने के बाद तुम्हारे
चेहरे पर आयी मुस्कान!
एक
महिने की थी तब हम जीभ की बायनरी
भाषा से बोलने लगे!
वह
हमारी एक मुख्य भाषा थी!
अब
भी हम क्या खा रहे हैं,
यह
तुम जीभ से ही तो पूछती हो!
अद्विका,
तुम्हारे
साथ जीवन की कई बातें नए सीरे
से समझ आ रही हैं!
तुम
बहुत कुछ सीखा रही हो|
छोटे
बच्चे यह प्रकृति द्वारा दी
गई बहुत बड़ी देन है|
प्रकृति
का प्रसाद ही है|
इन्सान
समाज में जीते हुए धीरे धीरे
प्राकृतिक रूप से मिला हुआ
शुद्ध स्वरूप गंवाता है|
पर्वतीय
बहती जलधारा की भाँति प्रकृति
हमें उत्स्फूर्त और शुद्ध
स्वरूप में भेजती है|
पर...
हम
इस शुद्ध स्वरूप को तो गंवाते
है हि,
उस
पर बड़ी कालिख लग जाती है|
कुदरत
द्वारा हमे दिया गया शुद्ध
स्वरूप प्रसन्नता यही तो है|
पर
आज समाज में जीते हुए हम उसे
गंवाते है|
तुम्हारे
जैसे छोटे बच्चे यह तो प्रकृति
का वरदान ही है|
जीवन
फिर एक बार निर्मल-
शुद्ध-
अखण्ड
प्रसन्न करने हेतु मिली हुई
यह सेकैंड इनिंग है;
दूसरा
अवसर है!
यह
सब तुमने ही तो बताया अद्विका|
तुम्हे
देखते हुए हम तुम्हारे निर्माता
या नियंता है,
यह
मुझे कभी भी लगा ही नही स्वरा|
माता-
पिता
बच्चे के निर्माता या नियंता
हो ही नही सकते हैं|
देखो
जरा,
जो
स्वयं को दो औपचारिक लेबल के
आगे नही जान सकते हैं;
जिन्हे
स्वयं का शरीर अज्ञात है;
जिन्होने
पहले स्वयं का ही निर्माण नही
किया है,
वे
नयी चेतना को निर्माण कर नही
सकते हैं|
नही|
हम
सिर्फ माध्यम है|
एक
जरिया|
निर्माता-
नियंता
तो प्रकृति है|
हमारा
इतना सा सुकृत या भाग्य था कि
उसने तुम्हे हमें प्रसाद
स्वरूप दिया|
हम
धन्यभागी है!
और
तुमने भी हमें चुना|
स्वरा,
बालक
और माँ बाप का सम्बन्ध और नाता
मुझे तो बिल्कुल उल्टा लगता
है|
समाज
कहता है कि माँ बाप बच्चे के
पालक होते हैं;
उन्होने
बच्चे को सीखाना चाहिए;
उसे
लाड़-
प्यार
देना चाहिए...
मुझे
तर तुम्हारे साथ यह उल्टा ही
लगता है|
हम
तुम्हे सीखाएं?
हम
तुम्हे भला क्या सीखा सकते
हैं?
कैसे
वर्तन करना यह?
हमारी
संकुचित धारणाएँ?
हमारी
शुद्धता को हमने कैसे मलिन
किया यह?
शुद्ध
नदी का गन्दे पानी के नाले में
कैसे रुपान्तरण करें,
यह?
नही,
बिल्कुल
नही|
मै
तो कहता हूँ कि वस्तुस्थिति
इसके ठीक विपरित है|
तुम
हमारी पालक हो!
वास्तव
में|
क्यों
कि सदा आनन्द में कैसे रहें,
अखण्ड
प्रसन्न कैसे रहें,
छोटी
छोटी चीजों का आनन्द कैसे लेना
चाहिए,
जीवन
में चारो ओर फैली हुई चेतना
को कैसे पहचाने,
यह
सब तुम ही तो हमे बता रही हो|
सच
स्वरा|
कैसे
कहूँ?
और
हम भला तुम्हारा लाड़-
प्यार
कैसे करें?
उल्टा
तुम हमारे पास आयी,
यह
अस्तित्वा द्वारा हमारा ही
किया गया लाड़-
प्यार
है!!
...तुम्हे
देखते हुए बहुत कुछ सीख रहा
हूँ|
तुम्हारा
हमेशा खुश रहना|
सामने
आनेवाले हर एक के तरफ देख कर
आनन्दित होना!
तुम
जब इतनी सी थी,
तबसे
बहुत मिठी हो!
इतनी
मिठी,
कि
तुम्हारे हाथ भी तुम्हे मिठे
लगने लगे|
तुम्हारे
पैर भी मिठे हो जाते और तुम
उन्हे चांटने लगती!
और
तुम्हारे पास हो कर तुम्हारा
स्वेटर भी मिठा हो जाता और तुम
उसे भी चांट कर देखती!
इतना
ही नही,
हमारे
हाथ भी तुम्हे उतने ही मिठे
लगते!
इतनी
तुम्हारी निर्मल दृष्टि!
हम
तुम्हे जितना प्यार देते हैं,
उससे
अनन्त गुणा प्यार तुम हमे देती
हो...
तुम्हारे
आस-
पास
होनेवाली छोटी छोटी चीजें
तुम्हारे लिए बड़े आनन्द का
कारण होती थी और अब भी हैं…
कोई छोटासा पत्थर,
कोई
खिलौना या कागज़ का टुकड़ा!
या
शर्ट का बटन|
तुम्हारे
पास ऐसी दृष्टि है जो इन सबमें
छिपी चेतना देख सकती है;
उस
चेतना को प्रतिसाद दे सकती
है|
मुझे
याद है,
एक
शाम मै तुम्हे ले कर बाहर खड़ा
था!
अहा
हा,
तुम्हे
पहले बार उठाया वह क्षण...
स्वरा,
मुझे
ऐसे कई बार रूकते हुए ही यह
पत्र लिखना होगा|
खैर|
तो
जब तुम्हे कन्धे पर लिया था,
तब
अचानक आकाश की तरफ देख कर तुम
एकदम मुस्कुरायी!
मैने
देखा तो वहाँ से एक पंछी उड़
गया था!
तुमने
उस पंछी की चेतना को प्रतिसाद
दिया-
अभिवादन
किया!
स्वरा,
बिल्कुल
छोटी थी,
तब
से तुम्हारी सारी यादें!
तुम्हारा
वह सुरेल रोना!
नन्हे
नन्हे हाथ पैर तानना!
मुझे
उठाओ,
ऐसा
मधुर स्वर में कहना!
तुम
इतनी सुन्दर और शुद्ध हो,
कि
तुम्हारा रोना भी एक अद्भुत
दृश्य होता है-
देखता
ही रहूँ ऐसा!
मुझे
तुम्हारी दृष्टि मोहित करती
है|
निरागस
भाव!
आज
हम जिन्हे वास्तविक सद्गुण
कहते हैं (उथले
सामाजिक तथा कथित गुण नही)-
आनन्द
भाव,
निर्मल
होना,
शुद्ध
होना;
हर
चीज में चेतना देखना यह सब तुम
में हैं|
प्रकृति
में मानव समेत पशु-
पक्षी,
पेड़,
हवा,
अन्धेरा
ऐसे सब में तुम्हे चेतना दिखाई
पड़ती है!
सिर्फ
आनन्द का ही अनुभव होता है!
यह
दृष्टि रह रह कर मुझे प्रेरणा
देती है|
मार्गदर्शन
करती है|
किसी
समय में मुझ में भी यही 'शुद्ध
प्रसन्नता'
होती
थी|
पर
मैने वह गंवायी|
तुम्हारे
कारण अब मुझे यह प्रसन्नता
पुन:
प्राप्त
करने की सेकैंड इनिंग मिली
है|
और
तुम्हे देखते हुए लगता है कि
यह इतना कठिण या असम्भव नही
है|
निसर्ग
देते समय हमे शुद्ध स्वरूप
ही देता है|
वह
हम है जो उसे मलिन करते है|
सन्त
कबीर ने कहा है,
"ज्यों
कि त्यों धर दिनी चदरिया"
प्रकृति
ने दी हुई शुद्ध चद्दर उन्होने
उसे वैसे ही निर्मल लौटायी|
मेरे
बचपन की धुंदली यादें!
उस
जमाने में मुझे भी गुड़िया
जीवन्त दिखती थी|
एक
समय मुझे भी हर चीज में जीवन
दिखाई देता था|
किसी
किडे को मारते हुए भी पीडा
होती थी|
उस
समय मेरा मन भी अन्दर से तुम्हारे
जैसा ही प्रसन्न था|
आज
तुम्हारे साथ यह दृष्टि पुन:
प्राप्त
करने का विश्वास मुझे है....
स्वरा!
तुम
में सतत जीवन का अविष्कार होते
हुए मै देखता हूँ|
तुम्हारा
बढ़ना!
वास्त्व
में हर दिन तुम्हारे लिए वर्धापन
दिन जैसा है!
वह
हमारा भी वर्धापन करें,
यह
इच्छा है!
जिस
दिन तुमने करवट ली,
फिर
सरकते हुए आगे बढ़ना और फिर
रेंगना,
तुम्हारे
बोल,
धीरे
धीरे शब्दों की भाषा में
तुम्हारा बोलना!
और
यह सब करते हुए तुम्हारे चेहरे
को रोशन करनेवाली मिठी सी
हसीं!
तुम्हारे
पास वह दृष्टि है जिससे तुम्हे
किसी का भी डर नही लगता है या
किसी बात की तकलीफ भी नही होती
है|
सिर
टकराया तो भी दूसरे मिनट तुम
आनन्द में होती हो|
पानी
या कुत्ते का तुम्हे बिलकुल
भी डर नही है!
क्यों
कि डर तो समाज द्वारा सीखायी
जाती है!
पर
स्वरा,
जन्म
से तुम्हे मिला हुआ अखण्ड
प्रसन्न स्वरूप समाज में बढते
समय धीरे धीरे दूषित होते हुए
मै देख रहा हूँ|
कुछ
हद तक यह अपरिहार्य है|
फिर
भी मुझे तकलीफ होती है|
समाज
में बढ़ते समय अब तुम्हे भी 'यह
खिलौना चाहिए,
यह
मत दो'
ऐसा
भाव आते हुए मै देख रहा हूँ जो
मुझे अस्वस्थ करता है|
पर
जीवन का प्रवाह ऐसे ही आगे
जाता है|
फिर
भी,
तुम्हे
अधिक से अधिक निर्मल रखने का
प्रयास करने का निर्धार करता
हूँ|
जहाँ
तक सम्भव हो,
यह
प्रसन्नता ऐसे ही खिलती रहे,
यही
प्रयास रहेगा|
अद्विका
मुझे खबर है कि यह बहुत कठिन
है|
पर
असम्भव नही|
क्यों
कि उसकी दिशा तो तुमने ही दिखाई
है|
इसके
साथ शुद्ध प्रसन्नता की विटम्बना
कैसे होती है,
यह
बार बार दिखानेवाला मेरा गत
जीवन है ही|
अंग्रेजी
में कहते है,
Everybody deserves a second chance. इसलिए
मै यह फिर से मिला हुआ स्वर्णिम
अवसर नही गंवाना चाहता हूँ|
तुम्हारी
प्रसन्नता समाज के दबाव के
सामने थोड़ी मुर्झाएगी जरूर;
पर
मै उसे सुरक्षित रखूँगा|
मै
उसे मिटने नही दूँगा|
और
वह करते करते तुम्हारी जीवन
ज्योति से मेरी ज्योत भी फिरसे
प्रदीप्त करूँगा|
स्वरा!
कठिन
है पर मेरे सामने का दृश्य
स्पष्ट है|
मै
तुम्हे कोई भी विचारधारा;
कोई
भी मान्यता नही दूँगा|
उस
अर्थ में मै तुम्हारा मार्गदर्शक
ही नही बनूँगा|
हम
सिर्फ तुम्हारे देखभाल करनेवाले
और तुम्हारी सहायता करनेवाले
होंगे|
मन
के तले मै प्रतीक्षा कर रहा
हूँ कि कब तुम दस साल की हो
जाओगी|
तब
मै तुम्हे ऐसा ही एक पत्र लिख
कर हमेशा के लिए बता सकूँगा-
स्वरा,
अब
तुम काफी बड़ी हो गयी हो|
अब
यहाँ से आगे हम सिर्फ दोस्त
हैं!
चलो,
हाथ
मिलाओ!
पर
उसे अभी बहुत समय है और बीच
में बड़ी यात्रा है...
अब
धीरे धीरे शब्दों के जगत् में
तुम्हारा प्रवेश हुआ है|
पहले
तुम अबोध-
अमन
अवस्था में थी|
अब
तुम्हे भी मन मिला है जो कहता
है कि मुझे यह यह चाहिए|
अब
लोग तुम्हे कहने लगे है,
भगवान
को जय करो;
गाना
गाओ|
मै
तुम्हे इस प्रकारे कभी भी कुछ
भी नही कहूँगा,
ऐसा
हमेशा सोचता हूँ|
पर
समाज के संस्कार इतने प्रबल
होते हैं,
कि
किसी अनकॉन्शस क्षण में मै
भी वैसा ही कर जाता हूँ|
तुम्हे
कहता हूँ कि ऐसा करो|
पर
मुझे ये बन्द करना है|
एक
स्वतन्त्र व्यक्ति के तौर पर
ही तुम्हारा साथ निभाना है|
(तुम्हे
बड़ा करना आदि बिल्कुल नही;
वह
तो प्रकृति ही करती है!)
व्यक्ति
शब्द बड़ा सुन्दर है|
हर
व्यक्ति प्रकृति की अद्वितीय
अभिव्यक्ति ही होती है|
उस
अभिव्यक्ति में मै हस्तक्षेप
नही करना चाहता हुँ|
जितना
आवश्यक होगा,
उतना
ही हम तुम्हे कहेंगे|
कई
माँ-
बाप
उनका अहंकार बच्चों पर थोपते
हैं|
ऐसा
गाना गाओ,
अंग्रेजी
में पाढे कहो आदि आदि|
पर
मै वैसा कभी भी नही करूँगा|
उल्टा
यदि कोई तुम्हे ऐसा आदेश देता
हो,
तो
मै स्पष्ट कहूँगा कि यदि तुम्हे
इच्छा नही हो,
तो
तुम ऐसा मत करो|
मुझे
कल्पना है कि यह कठिन है|
पर
मैने मेरे अनुभव से सीखा है
कि बाहर से थोपे गए मूल्य और
संस्कार अधिक भीतर नही जाते
हैं|
बड़ों
का आदर करो,
उन्हे
नमस्कार करो,
ऐसा
कहना आसान है|
पर
बाहर से थोपी गई चीजों के कारण
भीतर की उत्स्फूर्त प्रेरणा
मरती है|
औपचारिकता
बढ़ती है|
और
बाहर से किया हुआ आदर सिर्फ
उपरी होता है|
उसके
बजाय यदि स्वतन्त्रता दी जाती
है,
तो
अपने आप आदर देने योग्य व्यक्ति
को आदर दिया ही जाता है और वह
अधिक सच्चा होता है|
वही
बात नमस्कार की|
जीवन
चेतना दोनों में है|
फिर
छोटे ने ही बड़े को नमस्कार
क्यों करना चाहिए?
वैसे
भी बच्चा जिस जीवन चेतना को
देखता है और उसे प्रतिसाद देता
है,
वह
औपचारिक नमस्कार से कितना
अधिक जीवन्त होता है!
और
शरीर से बड़े है,
इसलिए
नमस्कार और सम्मान की अपेक्षा
माने शुद्ध हिंसा है!
लेकिन
खैर...
अद्विका,
मै
जानता हूँ कि ऐसी स्थिति में
से हमे गुजरना है|
समाज
का बल बहुत बड़ा होता है|
पर
मै तुम्हारे शुद्ध स्वरूप की
रक्षा करूँगा|
कुछ
संस्कार/
कुछ
बातें अपरिहार्य होती है|
छत
के किनारे तुम जाओगी तब मुझे
तुम्हे रोकना होगा|
पर
वह करते हुए भी तुम्हारी
स्वतन्त्रता का सम्मान रखा
जा सकता है|
और
जो बोध बाहर के निर्देशों से
मिलता है,
वह
उपरी होता है|
उसके
बजाय यदि स्वभाव को व्यक्त
होने का मौका दिया जाए,
तो
उस अनुभव से जो बोध मिलता है
और इन्सान जो सीखता है,
वह
अधिक गहरा होता है|
इसलिए
मै तुम्हे नही कहूँगा कि गुस्सा
मत करना|
मै
तो तुम्हे यही कहूँगा कि यदि
तुम्हे क्रोध आता है,
तो
उसे व्यक्त करना|
उसे
दबाना मत|
उसी
से एक दिन तुम्हे उसके व्यर्थ
होने की खबर भी होगी...
मै
कोई भी विचार तुम पर नही थोपूँगा|
कोई
भी अपेक्षा भी नही रखूँगा|
आज
नही और कभी नही|
क्यों
कि प्रकृति के जगत् में कर्तव्य
जैसा कुछ भी नही होता है|
पर
उससे अधिक गहन और प्रबल सहज
स्फुरणा होती है|
और
सबसे महत्त्व की बात यह कि
प्रकृति का प्रवाह निरन्तर
आगे ही जाता है|
हिमालय
में नदी का उद्गम होता है;
हिमालय
के झरनों का पानी उसे मिलता
है;
पर
वह पानी वहाँ नही देती है;
वह
पानी आगे बढ़ता जाता है|
किंबहुना
सन्तति शब्द का अर्थ वही होता
है|
सन्तति
मतलब जीवन का सतत प्रवाह (सन्तत
धार सरिखा)|
वह
आगे आगे ही जाता है|
माँ
बच्चे को लाड़-
प्यार
देती है;
प्रेम
देती है;
वह
प्रेम बच्चा भविष्य में सम्भवत:
नही
देता है|
प्रकृति
की ऐसी रचना ही नही है|
यदि
उस बच्चे को सचमुच प्रेम मिला
हो,
तो
वह उसे कई तरह से बाँटेगा|
तो
स्वरा,
हम
तुम्हारे सिर्फ माध्यम है|
और
तुमने हमें पालक के तौर पर
चुना,
तुम्हारा
माध्यम होने का अवसर दिया,
इसलिए
हमें तुम्हे धन्यवाद देने
चाहिए|
उपर
से देखने पर हम तुम्हारे पालक
दिखाई पड़ते होंगे,
पर
मुझे एहसास है कि स्थिति ठीक
विपरित है|
जीवन
की ऊर्जा तुम्हारे द्वारा
हमें फिर से मिल रही है|
हम
सब कुछ तुमसे सीख रहे हैं|
हमारा
एक ही दायित्व है-
तुम्हारी
सहायता करना|
यदि
तुम्हे चित्र निकालना हो,
तो
रंग सामग्री ला कर देना,
बस
इतना ही हमें करना है|
अन्य
कोई अवधारणाएँ,
विचारधारा,
दिशा
तुम्हे देने की कोई आवश्यकता
नही है|
बाहर
से थोपी गई चीजें टिकती भी नही
हैं|
और
वे भीतर की स्फुरणा में बाधा
मात्र बनती है|
इसलिए
वह बिल्कुल नही|
Man proposes and God disposes; but If you do not propose, he never
disposes यह
अधिक सच है|
खैर|
स्वरा!
यह
पत्र बहुत जटिल और तार्किक
हुआ|
पर
हम ऐसे ही जटिल हैं|
तुम
सहज आनन्द में लीन हो,
पर
हम वादविवाद करते हैं|
छिछुली
चीजों पर समय बरबाद करते हैं|
आनन्द
बाहर से नही मिलता है;
वह
स्वयं में ही होता है,
यह
तुम हमें बार बार दिखलाती हो;
समझाती
हो|
पर
हमें तो आनन्द या सुख बाहर की
ही किसी चीज़ में मिलता है|
तुम
हमारे पास आयी,
उसे
अब एक साल हो रहा है,
पर
अभी तक हम तुमसे इतनी सी बात
नही सीख सके हैं....
जल्द
ही तुम्हारा पहला जन्मदिन
आएगा|
पर
मुझे चिन्ता है हमारा जन्मदिन
बढने का दिन कब आएगा...
तुम्हारी
शुद्ध दृष्टि हमें कैसे
मिलेगी....
******
(बेटी
के पहले जन्मदिन के पूर्व लिखा
हुआ पत्र)
जीवन
के अंकुर
तुम्हारे
बच्चे तुम्हारी संतान नहीं
हैं
वे
तो जीवन की स्वयं के प्रति
जिजीविषा के फलस्वरूप उपजे
हैं
वे
तुम्हारे भीतर से आये हैं
लेकिन तुम्हारे लिए नहीं आये
हैं
वे
तुम्हारे साथ ज़रूर हैं लेकिन
तुम्हारे नहीं हैं.
तुम
उन्हें अपना प्रेम दे सकते
हो,
अपने
विचार नहीं
क्योंकि
उनके विचार उनके अपने हैं.
तुमने
उनके शरीर का निर्माण किया
है,
आत्मा
का नहीं
क्योंकि
उनकी आत्मा भविष्य के घर में
रहती है,
जहाँ
तुम जा नहीं सकते,
सपने
में भी नहीं
उनके
जैसे बनने की कोशिश करो,
उन्हें
अपने जैसा हरगिज़ न बनाओ,
क्योंकि
ज़िन्दगी पीछे नहीं जाती,
न
ही अतीत से लड़ती है
तुम
वे धनुष हो जिनसे वे तीर की
भांति निकले हैं
ऊपर
बैठा धनुर्धर मार्ग में कहीं
भी अनदेखा निशाना लगाता है
वह
प्रत्यंचा को जोर से खींचता
है ताकि तीर चपलता से दूर तक
जाए.
उसके
हाथों में थामा हुआ तुम्हारा
तीर शुभदायक हो,
क्योंकि
उसे दूर तक जाने वाले तीर भाते
हैं,
और
मज़बूत धनुष ही उसे प्रिय लगते
हैं.
-
खलील
जिब्रान
Profound
ReplyDeleteबहुत सुंदर ! शुभकामनाऐं !
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-11-2015) को "अब भगवान भी दौरे पर" (चर्चा अंक 2152) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ati sundar... shubhkaamnayen
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी....
ReplyDeleteआप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 06/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
वल्लाह ...बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर
ReplyDeleteपढने के लिए और प्रतिक्रिया के लिए सभी को बहुत बहुत धन्यवाद!!
ReplyDeleteबढ़िया विचार प्रस्तुति ...
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