Friday, July 19, 2013

Tour de Godavari!

कहते है जीवन यह एक निरंतर चलनेवाली यात्रा है। पडाव कई हो; यात्रा निरंतर चलती है। कई बार हम पडावों को मंजिल भी समझ लेते है। परन्तु सच्चाई यही है कि जीवन की यात्रा हमेशा निरंतर चलती है।

जीवन में हम कई तरह के रास्तों से गुजरते हैं। रास्ते में कुछ यात्रीयों से मुलाकात होती है। ऐसे ही एक अपूर्व यात्री है श्री. नीरज जी जाट। खुद को ‘घूमक्कड’ कहलाने वाले नीरज जी वास्तव में ‘मॅन वर्सेस वाईल्ड’ की भारतीय आवृत्ति हैं! उन्होंने अब तक देश के लगभर हर राज्य में अनगिनत बार घूमक्कडी की है। हिमालय (उत्तराखण्ड, हिमाचल तथा जम्मु- कश्मीर- लदाख) में सैकडों बार दुर्गम क्षेत्रों में घूमक्कडी की है। वे है ही मुसाफीर। लेकिन मुसाफिर कितनी अद्भूत ऊँचाई के! हाल ही में उन्होने साईकिल से मनाली- लेह और लेह- श्रीनगर महायात्रा की। उनकी अद्भुत तथा अविश्वसनीय दास्तां यहाँ पढी़ जा सकती है। उनसे कुछ अलग तरिके से जीने की प्रेरणा मिलती है। वे हर संवेदनशील इन्सान को आवाहन करते हैं और आह्वान भी देते हैं।



  
                                                                                                                                                         
उनकी साईकिल यात्रा देख रहा नही गया और एक दिन साईकिल ले आया। पहाड का शौक तो है हि। पहाड जा कर आया हुँ और जाने की इच्छा है हि। पेट्रोल के दाम तो पहाड से भी अधिक ऊँचाईयों को छू रहे है। इस स्थिति में साईकिल एक सशक्त विकल्प के रूप में सामने आती है। साईकिल कई मायनों में उपयोगी है। एक तो इन्धन खर्चे की बचत। यह एक अच्छा व्यायाम भी है। तथा इससे हमारे जीवन का नियंत्रण करनेवाली तथाकथित आधुनिक जीवनशैली की बेहुदा रफ्तार को भी नियंत्रण में लाया जा सकता है। मंजिल से अधिक रोमांच सफर में आता है। तो फिर काहे को भेडचाल की तरह किसी छोटे मोटे लाभ की ओर दौडना? चलिए, एक साईकिल उठाते है और शुरू करते है यात्रा।

दस साल से साईकिल जीवन से बाहर हुईं थी। अर्थात् फिर से एक नयी पहल करनी पडी। धीरे धीरे शरीर साईकिल से जुडता गया। थोडे अभ्यास के पश्चात् एक दिन में पच्चीस किलोमीटर चलाई। हौसला बढा। फिर एक दिन चालिस किमी दूरी पूरी की। आते समय पैर भारी जरूर हो गए थे। पर हौसला और बढा।

अब बारी है टूर द गोदावरी की! अर्थात् घर से करीब ३२.५ किमी दूर गोदावरी के तट की सैर- परभणी (मध्य महाराष्ट्र) से गंगाखेड इस तहसील से आठ किलोमीटर पहले तक। जाने और आने के बाद कुल दूरी है ६५ किमी। साईकिलयात्रियों के लिए चुनौतिपूर्ण बिल्कुल भी नही है। पर नौसिखिए के लिए निश्चित एक हौसला देनेवाली यात्रा है। तो शुरू हुआ यह सफर।

हमारे लोगों की सोच अभी भी काफी स्थितिशील है। कितना भी कुछ कहिए, अभी कुछ भी उतना बदला नही है। सब कुछ वैसा ही है। रास्ते पर साईकिल और वह भी गिअर की साईकिल देख कर बच्चे चिल्लाते है, ‘वो देखो, गिअर वाली साईकिल!’ कुछ बच्चे तो साईकिल उठाते है और चक्कर लगाते है। शहर से जितने दूर जाओ, लोगों का अचरज बढता है। उन्हे कुछ अटपटा सा लगता है। इतनी दूर (हालांकि दूरी मात्र दस- बीस किलोमीटर ही हो) साईकिल पर? और उनके कौतूहल का जवाब भी उन्हें मिल जाता है- जरूर गिअर वाली होने के कारण यह खूब दौडती होगी। कुछ लोग तो नई चीज दिखने से कुछ ज्यादा ही उत्साहित होते हैं। एक ग्रामीण ने तो कहा, यह तो मोटरसाईकिल जैसी दौडती होगी। नई चीज दिखाई देने पर ऐसी प्रतिक्रिया! शायद वे अपनी सारी निराशाएँ, अपने सारे तनाव जैसे उसके सहारे व्यक्त करते है। उनको बडी बेसब्री से ऐसी चीज की तलाश है जो उन्हे सहारा देगी। इसलिए एक छोटी सी; पर नई चीज दिखाई पडने पर उनकी प्रतिक्रियाएँ उस चीज के बारे में कम और उनकी सोच के बारे में ज्यादा बताती है। खैर।

यात्रा सुबह साढेसात बजे शुरू की। पहले पाँच किलोमीटर काफी संघर्षपूर्ण थे। ऐसा लगा की आगे जाया ही नही जा सकेगा। एक धाबे पर रूक कर कॉफी पी। धाबा भी ऐसा जिसमें सिर्फ कॉफी थी। कुछ देर विश्राम किया। फिर निकला। धीरे धीरे चलता गया। और अब चलना आसान भी लगने लगा। शायद सुबह नीन्द से उठा और निकला; तो शरीर इतना ढिला नही था। जाहिर है, रात भर की नीन्द में शरीर थोडा सख्त हो जाता है। इसलिए शुरू में शरीर ने विरोध जताया। लेकिन अब पाँच किलोमीटर के बाद शरीर भी ढल गया है। अब वह मना नही कर रहा। बस चलना है। और आगे जाना है। जीपीएस से गति देखी; तो करीब पन्द्रह- सोलह किमी प्रति घण्टा थी। ठीक थी।

रास्ता तो सीधा है। कोई बडी चढाई या पहाड़ नही हैं। पर बीच बीच में आनेवाली छोटी चढाई भी दिक्कत खडी करती है। वहाँ जाना कठिन लगता है। पर यह भी जेहन में होता है कि इस चढाई के बाद ढलान आनेवाली है। उसके बारे में सोचते हुए और इधर उधर देखते हुए चढाई निकल जाती है और फिर ढलान! इस तरह से एक बार शरीर साईकलिंग के टेम्पो में आ जाता है। फिर क्या कठिनाई? बस चलते रहो। चढाई के बाद ढलान भी आएगी ही! लोगों की मुस्कान ऊर्जा से भर देती है।

  
थोडी देर में नाश्ते के लिए रूका। नाश्ते में कुछ वक्त था। और अधिक विश्राम हो गया। पैरों को आरामदायक स्थिति में छोड दिया। होटल छोटा सा ही था। और जाहिर है वहां थोडा कूडा था, गन्दगी भी थी। ऐसे समय होटल में आए दूसरे एक ग्राहक की रिंगटोन पर म्युझिक और फिर गाना बजा, ‘होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है....’ और जगजीत जी के इन स्वरों से उस स्थिति में भी एक अद्भुत माहौल बन गया! एकदम से स्थानांतरण ही हो गया। रिंग टोन तो आरम्भिक संगीत के साथ ही बन्द हुईं, पर स्मृति के आधार पर पूरे गाने का लुफ्त उठाया। और फिर दूसरे गाने मन ही मन सुने।

सूखे के बाद वर्षा से आई हुई कुदरती ताज़गी.....


वर्षा से पूरे खेत में पानी भर गया है..... उपरवाला भी देता है तो छप्पर फाड के!



































                    

 




                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                              
...अब करीब करीब आधी दूरी पार हो गई थी। हालांकि रफ्तार बहुत ज्यादा नही थी, फिर भी कोई दिक्कत की बात नही थी। एक गॅरेज पर साईकिल हवा से रिचार्ज की। देखा तो साईकिल के टायर का नॉब बिलकुल मोटरसाईकिल जैसा है। बच्चों को और उत्तेजना का कारण बन गया! गॅरेजवाले ने हवा भरने के पैसे भी नही माँगे और न ही देने का ख्याल मुझे रहा। अरसा हो गया था साईकिल में हवा भर कर।

धीरे धीरे चढाई- उतराई करते करते गोदावरी नदी का तट सामने आ ही गया। खुशी की लहर दौडी। करीब बत्तीस किलोमीटर पूरे किए। वहाँ फिर कुछ देर विश्राम। नदी में राख से सोना निकालनेवाले लोगों से बातचीत की। वे भी दंग रह गए बत्तीस किलोमीटर साईकिल से आए हुए को देख कर। नदी के कुछ फोटो लिए। पैर फैला कर उन्हे नियंत्रण से मुक्त किया। 



बारीश के पानी से ब्ढा हुआ जलस्तर



























साईकिल बाईक से कम नही है!





                                                                                                                                                     
वापस जाते समय कुछ खास दिक्कत नही हुईं। थकान के कारण गति जरूर कम हुईं थी। पर पीछली बार लौटते समय आखरी दस किलोमीटर का पडाव टेढी खीर था। उस वक्त पैरों ने और शरीर ने बिलकुल असहकार आन्दोलन किया था। इस बार शायद पैर भी थोडे आदि हो गए थे। थोडे अभ्यस्त हो गए थे। इसलिए वे चलते रहें। अब चला ही नही जा रहा, ऐसी स्थिति नही आईं। छोटे छोटे विश्राम करने जरूर पडें। पर रास्ता गुजरता गया। कुदरत ने बेहतर साथ निभाया। एक बूँद भी वर्षा नही हुईं। धीरे धीरे घर तक का रास्ता पार किया गया। कुल दूरी ६५ किलोमीट की लगभग सवा पाँच घण्टों में पार हो गई। उत्साह और बढा। 

....यह साईकिल चलाने का अनुभव टेस्ट क्रिकेट के बल्लेबाजी के जैसे था। टेस्ट क्रिकेट में बल्लेबाजी करते समय आपको नयी गेन्द का सामना करना पडता है। करीब एक घण्टे तक नयी गेन्द से बचना पडता है। उस समय हालात बल्लेबाजों को अनुकूल नही होते हैं। लेकिन अगर यह वक्त सुरक्षित बिता ले, तो फिर धीरे धीरे हालात अनुकूल हो जाते है। आपका शरीर भी लय में आ जाता है। ऐसा ही अनुभव यहाँ आया। अर्थात् बाद में थकान के और फिर नयी ऊर्जा के पडाव भी आते हैं। गति भी कम होती है। पर आप यात्रा पूर्ण कर सकते हैं। एक दूसरी यात्रा पर निकलने के लिए...... 



पानी पानी रे.....

























 













 


                                                                                                                     
इस साईकिल अभ्यास का एक उद्देश्य भी था। जल्द ही उत्तराखण्ड त्रासदी के पुनर्निर्माण कार्य में जुटी एक संस्था के साथ जाना है। वहाँ पहाड में कई गावों में चलना पडेगा। सामान पहुँचाना पडेगा। इसलिए शरीर के स्टॅमिना को थोडा तैयार करना पडेगा। उसे वॉर्म अप करना पडेगा। और शरीर पर एक सुखद सा तनाव जरूर महसूस हुआ। शरीर को कुछ अभ्यास मिल गया है। अब जाना है अगली यात्रा पर। उत्तराखण्ड के धारचुला परिसर में..........