Tuesday, July 19, 2016

गुरू पूर्णिमा

गुरू पूर्णिमा! आज इस दिन का महत्त्व लुप्त सा हो गया है! लेकिन यह आज भी यथार्थ है| 

विवेकानंद कहा करते थे, एक सिंहनी गर्भवती थी। वह छलांग लगाती थी एक टीले पर से। छलांग के झटके में उसका बच्चा गर्भ से गिर गया, गर्भपात हो गया। वह तो छलांग लगा कर चली भी गई, लेकिन नीचे से भेड़ों का एक झुंड निकलता था, वह बच्चा भेड़ों में गिर गया। वह बच्चा बच गया। वह भेड़ों में बड़ा हुआ। वह भेड़ों जैसा ही रिरियाता, मिमियाता। वह भेड़ों के बीच ही सरक—सरक कर, घिसट—घिसट कर चलता। उसने भेड़—चाल सीख ली। और कोई उपाय भी न था, क्योंकि बच्चे तो अनुकरण से सीखते हैं। जिनको उसने अपने आस—पास देखा, उन्हीं से उसने अपने जीवन का अर्थ भी समझा, यही मैं हूं। और तो और, आदमी भी कुछ नहीं करता, वह तो सिंह—शावक था, वह तो क्या करता? उसने यही जाना कि मैं भेड़ हूं। अपने को तो सीधा देखने का कोई उपाय नहीं था; दूसरों को देखता था अपने चारों तरफ वैसी ही उसकी मान्यता बन गई, कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों जैसा डरता। और भेड़ें भी उससे राजी हो गईं; उन्हीं में बड़ा हुआ, तो भेड़ों ने कभी उसकी चिंता नहीं ली। भेड़ें भी उसे भेड़ ही मानतीं।

ऐसे वर्षों बीत गये। वह सिंह बहुत बड़ा हो गया, वह भेड़ों से बहुत ऊपर उठ गया। उसका बड़ा विराट शरीर, लेकिन फिर भी वह चलता भेड़ों के झुंड में। और जरा—सी घबड़ाहट की हालत होती, तो भेड़ें भागती, वह भी भागता। उसने कभी जाना ही नहीं कि वह सिंह है। था तो सिंह, लेकिन भूल गया। सिंह से ‘न होने’ का तो कोई उपाय न था, लेकिन विस्मृति हो गई।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि एक बूढ़े सिंह ने हमला किया भेड़ों के उस झुंड पर। वह बूढ़ा सिंह तो चौंक गया, वह तो विश्वास ही न कर सका कि एक जवान सिंह, सुंदर, बलशाली, भेड़ों के बीच घसर—पसर भागा जा रहा है, और भेड़ें उससे घबड़ा नहीं रहीं। और इस के सिंह को देखकर सब भागे, बेतहाशा भागे, रोते—चिल्लाते भागे। इस बूढ़े सिंह को भूख लगी थी, लेकिन भूख भूल गई। इसे तो यह चमत्कार समझ में न आया कि यह हो क्या रहा है? ऐसा तो कभी न सुना, न आंखों देखा। न कानों सुना, न आंखों देखा; यह हुआ क्या?

वह भागा। उसने भेड़ों की तो फिक्र छोड़ दी, वह सिंह को पकड़ने भागा। बामुश्किल पकड़ पाया : क्योंकि था तो वह भी सिंह; भागता तो सिंह की चाल से था, समझा अपने को भेड़ था। और यह बूढ़ा सिंह था, वह जवान सिंह था। बामुश्किल से पकड़ पाया। जब पकड़ लिया, तो वह रिरियाने लगा, मिमियाने लगा। सिंह ने कहा, अबे चुप! एक सीमा होती है किसी बात की। यह तू कर क्या रहा है? यह तू धोखा किसको दे रहा है?

वह तो घिसट कर भागने लगा। वह तो कहने लगा, क्षमा करो महाराज, मुझे जाने दो! लेकिन वह बूढ़ा सिंह माना नहीं, उसे घसीट कर ले गया नदी के किनारे। नदी के शांत जल में, उसने कहा जरा झांक कर देख। दोनों ने झांका। उस युवा सिंह ने देखा कि मेरा चेहरा और इस बूढ़े सिंह का चेहरा तो बिलकुल एक जैसा है। बस एक क्षण में क्रांति घट गई। ‘कोई औषधि नहीं!’ हुंकार निकाल गया गर्जना निकल गई, पहाड़ कंप गये आसपास के! कुछ कहने की जरूरत न रही। कुछ उसे बूढ़े सिंह ने कहा भी नहीं—सदगुरु रहा होगा! दिखा दिया, दर्शन करा दिया। जैसे ही पानी में झलक देखी—हम तो दोनों एक जैसे हैं—बात भूल गई। वह जो वर्षों तक भेड़ की धारणा थी, वह एक क्षण में टूट गई। उदघोषणा करनी न पड़ी, उदघोषणा हो गई। हुंकार निकल गया। क्रांति घट गई।...

सदगुरु के सत्संग का इतना ही अर्थ होता है कि वह तुम्हें घसीट कर वहां ले जाये, जहा तुम उसके चेहरे और अपने चेहरे को मिला कर देख पाओ, जहां तुम उसके भीतर के अंतरतम को, अपने अंतरतम के साथ मिला कर देख पाओ। गर्जना हो जाती है, एक क्षण में हो जाती है।

अष्टावक्र महागीता, भाग-१, प्रवचन#११, ओशो

"गुरू शिक्षक नही होता| गुरू वह देता है जो तुम्हारे पास पहले से ही था और गुरू वह छीनता है जो तुम्हारे पास कभी था ही नही|" 



Tuesday, July 12, 2016

छुआछूत और शोषण के खिलाफ संघर्ष

छह दशक पूर्व भारत प्रजासत्ताक बना और उसने धर्म- निरपेक्ष समाजवादी संविधान का अंगीकार किया। इस संविधा के मूलभूत ढांचे में देश के नागरिकों को उनकी जाति, धर्म और लिंग इनका विचार न करते हुए समान अवसर दिए गये है। फिर भी भारत में जाति यह भेदभाव का सबसे बडा पारंपारिक प्रतिक है। आधुनिकता, नागरीकरण और दलितों के सशक्तीकरण का बडा दावा किया जाता है; फिर भी दलितों पर हिंसाचार में बढोतरी हो रही है।

उनके जीवन में सब प्रतिकूलता होते हुए भी कई लोग सामने आये है और बडी संख्या में दलित समुदायों ने आंबेडकर द्वारा दिखाए गए प्रबुद्ध भारत की संकल्पना आत्मसात की है; फिर भी इस देश में आज भी छुआछूत लक्षणीय अनुपात में अस्तित्व में है। आंतर- जातीय विवाहों की तरफ सिर्फ नकारात्मक दृष्टी से देखा नही जाता है, बल्कि पालक और रिश्तेदार किसी वेदना और दु: होते हुए उनके प्रियजनों की हत्या करने की हद तक गए देखे जा सकते है। आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा इनके लिए दलित भुमिका सिर्फ पहचान की राजनीती बतायी जाती है और उनके पहचान की राजनीती भारत की राष्ट्रीय समस्या बनती है

कई लो कहते है कि साठ साल पहले जैसी थी वैसी छुआछूत आज दिखने में नही आती और उसके प्रकार बदल गए है। बाबासाहेब आंबेडकर, ज्योतीबा फुले, . व्ही. रामासामी नैकार इनके जैसे महान विभूति और वर्णाश्रम धर्म के मूलभूत तत्त्वों पर प्रश्न उपस्थित करनेवाले अन्य महान सामाजिक सुधारकों के प्रयासोंद्वारा यह हुआ और पीडितों के संघर्ष तथा जीने को नया मतलब प्राप्त हुआ। फिर भी इ आंदोननों में कई विरोधाभास सामने आए है और कई लोगों को लगता है, कि अब दलितों की समस्या सबलीकरण होना और (विकास की प्रक्रिया में) सहभाग लेना, इतनीही है और छुआछूत नाही। ऐसा होने पर भी, हमारी संसदीय संरचना के स हिस्सों में दलितों के समान और योग्य प्रतिनिधित्व की मांग का समर्थन करते हुए हम इस वास्तव परिस्थिती को शर्म के मारे नजर अंदाज नही कर सकते; की कुछ दलित समुदाय अत्यंत बिछडे हुए है और आज भी वे कई शतकों के पूर्व होनेवाले अन्याय से पीडित हैअन्याय के विरोध में संघर्ष करने हेतु नागरी अधिकारों के आंदोलनों की आवश्यकता है और वह सिर्फ दलितों का दायित्व नही

Sunday, July 10, 2016

आध्यात्मिक फिल्मी गाने

नमस्ते!

मेरी पसन्द के दो हिन्दी फिल्मी गाने जिनमें गहरा आध्यात्मिक अर्थ हैं| या यूँ कहे तो उनमें धर्म का सार हैं-

मै पल दो पल का शायर हूँ
पल दो पल मेरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी जवानी है ...

मुझसे पहले कितने शायर
आए और आकर चले गए...
कुछ आहें भर कर लौट गए
कुछ नग़मे गाकर चले गए...

वो भी एक पल का किस्सा थे
मैं भी एक पल का किस्सा हूँ
कल तुमसे जुदा हो जाऊँगा
जो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ
मैं पल दो पल का शायर हूँ ...

कल और आएंगे नगमों की
खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले

कल कोई मुझको याद करे
क्यूँ कोई मुझको याद करे
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिये
क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे
मैं पल दो पल का शायर हूँ …


(चित्रपट कभी कभी) 

और यह दूसरा गीत- 

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुवें में उडाता चला गया

बरबादियों का शौक मनाना फिजुल था, मनाना फिजुल था, मनाना फिजुल था,
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया....

जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया, मुक़द्दर समझ लिया, मुक़द्दर समझ लिया
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
मैं जिंदगी का साथ निभाता चलाता गया...

गम और ख़ुशी में फर्क ना महसूस हो जहाँ, ना महसूस हो जहाँ, ना महसूस हो जहाँ
मैं दिल हो उस मुक़ाम में लाता चला गया...
मैं जिंदगी का साथ निभाता चलाता गया…

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुवें में उडाता चला गया...


(चित्रपट हम दोनों)

इन दो गीतों में धर्म का सार है; विपश्यना का सार हैं. . . 

Thursday, July 7, 2016

बारीश में साईकिल राईड का मज़ा


नमस्ते! २०१६ की बरसात शुरू हो चुकी है| बरसात के आने से मौसम का मिज़ाज बदल जाता है! एक ताज़गी आती है| ऐसे में साईकिल राईड करने का भी अलग मज़ा आता है| बरसात और किचड से थोडी परेशानी जरूर होती है, लेकिन सुन्दर दृश्य इसकी भरपाई करते हैं| प्रस्तुत हैं कुछ फोटोज ऐसी ही एक बरसाती राईड के| पुणे जिले के भण्डारा हिल नाम के छोटे हिल पर की गई यह साईकिल राईड|

















राईड छोटी हो या बड़ी हो, मज़ा तो आता है!

Monday, July 4, 2016

प्रकृति, पर्यावरण और हम ११: इन्सान ही प्रश्न और इन्सान ही उत्तर


प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा

प्रकृति, पर्यावरण और हम ६: फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग

प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!

प्रकृति, पर्यावरण और हम ८: इस्राएल का जल- संवर्धन

प्रकृति, पर्यावरण और हम ९: दुनिया के प्रमुख देशों में पर्यावरण की स्थिति

प्रकृति, पर्यावरण और हम १०: कुछ कड़वे प्रश्न और कुछ कड़वे उत्तर


इन्सान ही प्रश्न और इन्सान ही उत्तर

उत्तराखण्ड में हो रही‌ तबाही २०१३ के प्रलय की याद दिला रही है| एक तरह से वही विपदा फिर आयी है| देखा जाए तो इसमें अप्रत्याशित कुछ भी नही है| जो हो रहा है, वह बिल्कुल साधारण नही है, लेकिन पीछले छह- सात सालों में निरंतर होता जा रहा है| हर बरसात के सीजन में लैंड स्लाईडस, बादल फटना, नदियों को बाढ और जान- माल का नुकसान ये बातें अब आम हो गई‌ हैं| फर्क तो सिर्फ इतना है कि इन बदलावों का अनुपात तेज़ी से बढ रहा है| उनकी फ्रिक्वेन्सी बढ गई‌ है| नुकसान भी बहुत बढ रहा है| पर्यावरण पर हो रहे इन परिणामों को रोकने के क्या उपाय है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर क्या है? उसका एक ही उत्तर है और वह है हम| हम ही‌ इसे रोक सकते हैं क्यों कि यह सब हमने ही किया है| चाहिए बरसात तबाही‌ ला रही हो, उस बरसात के कारण हम ही है और हम ही इसे चाहे तो रोक भी सकते हैं|

जैसे हमने पीछले लेखों‌ में चर्चा की, पर्यावरण और मानव के बीच काफी‌ तनाव है| मानव का पर्यावरण पर बर्डन बढ रहा है| अगर इन सभी बातों में परिवर्तन करना हो तो पर्यावरण के साथ तो काम करना ही होगा- जैसे पेड़ लगाने होंगे, जल संवर्धन के प्रयास करने होंगे, जंगल बचाने होंगे; लेकिन उसके साथ इन्सान की समझ और इन्सान की दृष्टी बढाने के भी प्रयास करने होंगे| तब जा कर धीरे धीरे इन्सान प्रकृति पर कर रहा है उस आक्रमण को समझ पाएगा और उससे यु- टर्न ले सकेगा| पर्यावरण की रक्षा का यह लाँग टर्म फोकस हो सकता है| शॉर्ट टर्म फोकस अर्थात् पर्यावरण के साथ काम करना होगा| इस लेख में इन्सान की दृष्टी और सजगता बढाने के प्रयासों पर एक नजर डालेंगे|