छह
दशक
पूर्व
भारत प्रजासत्ताक बना
और उसने धर्म-
निरपेक्ष
समाजवादी संविधान का अंगीकार
किया।
इस संविधान
के मूलभूत ढांचे
में
देश के नागरिकों
को
उनकी
जाति,
धर्म
और लिंग इनका
विचार
न करते
हुए
समान अवसर
दिए
गये है।
फिर भी भारत में जाति
यह
भेदभाव का सबसे
बडा
पारंपारिक प्रतिक है। आधुनिकता,
नागरीकरण
और दलितों
के सशक्तीकरण का
बडा दावा
किया
जाता
है;
फिर
भी दलितों
पर
हिंसाचार
में बढोतरी
हो रही
है।
उनके
जीवन
में
सब
प्रतिकूलता होते
हुए भी
कई
लोग
सामने
आये है
और बडी
संख्या
में
दलित समुदायों
ने
आंबेडकर द्वारा
दिखाए
गए
प्रबुद्ध भारत की संकल्पना
आत्मसात की
है;
फिर
भी इस देश में आज
भी
छुआछूत लक्षणीय
अनुपात में
अस्तित्व
में
है। आंतर-
जातीय
विवाहों
की तरफ
सिर्फ
नकारात्मक दृष्टी
से
देखा
नही जाता है,
बल्कि
पालक और रिश्तेदार
किसी
वेदना और दु:ख
न
होते
हुए
उनके प्रियजनों
की हत्या करने
की हद तक गए देखे जा सकते है।
आत्मसम्मान
और प्रतिष्ठा इनके
लिए
दलित भुमिका सिर्फ
पहचान
की
राजनीती
बतायी
जाती
है
और उनके पहचान
की
राजनीती
भारत की राष्ट्रीय समस्या
बनती
है।
कई
लोग
कहते
है कि साठ साल पहले जैसी थी
वैसी छुआछूत आज
दिखने
में नही आती
और उसके
प्रकार बदल गए है। बाबासाहेब
आंबेडकर,
ज्योतीबा
फुले,
ई.
व्ही.
रामासामी
नैकार इनके
जैसे महान
विभूति
और वर्णाश्रम धर्म के मूलभूत
तत्त्वों
पर
प्रश्न उपस्थित करनेवाले
अन्य
महान सामाजिक सुधारकों
के प्रयासोंद्वारा
यह हुआ
और पीडितों
के संघर्ष तथा
जीने
को नया
मतलब
प्राप्त हुआ।
फिर भी इन
आंदोननों
में कई
विरोधाभास सामने
आए है
और कई
लोगों को
लगता
है,
कि
अब
दलितों
की समस्या सबलीकरण होना
और (विकास
की
प्रक्रिया
में)
सहभाग
लेना,
इतनीही
है और छुआछूत नाही। ऐसा
होने पर भी,
हमारी
संसदीय संरचना
के सब
हिस्सों
में दलितों
के समान और योग्य प्रतिनिधित्व
की
मांग
का समर्थन करते
हुए
हम
इस
वास्तव
परिस्थिती को
शर्म
के मारे नजर अंदाज नही कर सकते;
की
कुछ
दलित समुदाय अत्यंत बिछडे
हुए है
और आज
भी
वे
कई
शतकों
के पूर्व होनेवाले अन्याय
से
पीडित है।
अन्याय
के
विरोध
में
संघर्ष करने
हेतु
नागरी अधिकारों
के
आंदोलनों
की आवश्यकता
है और वह
सिर्फ
दलितों
का
दायित्व
नही।
इन
समुदायों
मे से एक
समुदाय मानवी मैला वहन
करनेवाला
समुदाय है;
जिसको
सामान्य
रूप से
बाल्मिकी या
वाल्मिकी समाज के
नाम से
उत्तर भारत
में
और अन्य
प्रदेशों
मे
हेल,
मेहतर,
चूर,
धनुक
या
स्वच्छकार के
नाम से जाना जाता है।
अभी
भी
वे
समाज
से
बिछड़े
हुए है
और उनके
लिए
सरकार
द्वारा
आरक्षित किया
हुआ
एकमेव कार्य
यानी
सफाई और व्यक्तिगत
घरों
में मानवी मैला वहन
करना,
ये
है। सरकार
दावा कर रही
है;
की
मानवी मैला वहन
करने
की पद्धति समाप्त
हो चुकी है;
फिर
भी वस्तुस्थिती यही
है,
की
यही
लोग कई
महानगरों
के गटर भागों
में मृत्यू को
प्राप्त होते
है
और यह
बात
यही
दर्शाती
है,
की
सिर्फ
इसी
समाज
के
लोगही
उस
गंदे
गड्ढों
में उतरते
है
और मानवी गंदगी
साफ करते
है;
क्यों
कि
दुसरा
कोईभी
वह
करने
के लिए
राजी
नही
होता।
भारतीय
गाँवों
में और शहरों
जैसे
नगरों
में मैला
के मानवी वहन
की पद्धति आज
भी
प्रचलित है और बाल्मिकी समाज
के
लोगों
के लिए
वह
निर्धारित
किया
हुआ
व्यवसाय है। इस प्रकार का
नगरपालिका
का काम उनके
लिए
तय
होता है।
कई
स्थानों
पर
उच्च जाति
दावा करती
है;
की
उनके
कुछ
सदस्य सफाई कामगार बने
है;
लेकिन
जाँच
द्वारा यह साबित हुआ है,
की
वे
बेनामी
सफाई कर्मचारी
है।
इससे
यह
प्रतीत
होता है,
की
उनको
रेल्वे,
नगरपालिका
और अन्य
स्थानों
से
काम प्राप्त
होता
है और उन्होने
इस समाज के लोगों
को
वो
किराये से दिया है।
भारत
सरकार काफी
कुछ
करता
है;
लेकिन
इस समाज के पुनर्वसन
हेतु
विशेष,
ऐसा
अभी
तक
कुछ
भी किया गया नही है।
बडे
पैमाने पर
यह
समाज भूमिविहिन
है। इस समाज की
आवश्यकताएँ
क्या
क्या है,
यह
उनके
लोगों
को
शायद
ही कभी पूछा गया होगा।
स्थलांतर
के कारण नगर
और नगरपालिका में जहाँ
उपलब्ध
होगा,
वहाँ
इस समाज
के पुरुषों
को
बहुत
निम्न
प्रकार
के काम
का
स्वीकार करना पडा
और व्यक्तिगत
शौचालयों
को स्वच्छ
करने
का पारंपारिक काम महिलाओं
द्वारा लिया गया।
सफाई और मानवी मैला सर
के उपर से
ढो
के
ले
जाने
के काम में बढत
होने
का कारण ग्रामीण
बस्तियों
की नियोजन के
बिना होने वाली वृद्धि
और आज
भी
विद्यमान
होनेवाली
सरंजामशाही
है;
जिसमें
कोई
अपना
(जाति
द्वारा
तय)
व्यवसाय
बदल
नही
सकता है।
राजकीय
प्रक्रिया और सामाजिक सुधारणाओं
के कारण
अन्य
कई
दलित समुदायों
को
लाभ मिलने
पर भी;
बाल्मिकी
समाज उनके परंपराओं
में जकडा
हुआ
है। दलित आंदोलनों
में
ही
उनको
बाजू
में
रखा
गया
और उनके पुनर्वसन
और
सामाजिक परिवर्तन
हेतु कोई भी ही
स्पष्ट नीति
नही
बनायी गई।
इस समुदाय के भलाई
हेतु
कार्यरत होने
का दावा करनेवाले
कई
आंदोलनों
से
हम
परिचित है;
किन्तु
उनमेंसे
अधिकांश
आंदोलन
इस समस्या
को ले कर सरकार को सम्बोधित
करते है।
इन
आंदोलनों
को
हम
पहचानते है,
उनका
महत्त्व स्वीकार
करते
है
और उनके
बारे में
आदरभाव रखते
है;
फिर
भी समुदाय के सहभाग
के बिना
और इस तिरस्कृत (त्याज्य)
व्यवसाय
से
संपूर्ण अलग होने
के
उनके
निर्णय
के बिना कुछ भी
साध्य नही
होगा,
ऐसे
हमको
जोर देकर लगता है।
हमेशा
बोलने
में आयी
हुई
‘मानवी मैला वाहक (सफाई
कामगार)’
यह
संकल्पना एक त्याज्य एवम्
अवमानजनक वस्तु
के
जैसी
देखी
जानी चाहिए।
सन्मान
से
वंचित इन
लोगों
को
“शिल्पकार”
के
नाते
पहचाना
जाना चाहिए;
जो
उनके खून
और पसीने
से
श्रम द्वारा शहरों
की व्यवस्था कार्यरत रखने
के लिए निरंतर प्रयास करते
है।
वास्तव भाषा
में
वे
“सच्चे
अभियंता”
है।
१९४६
में मुंबई
में
सफाई कामगारों
के बंद
पर
टीका करते
हुए
गांधीजीं ने
लिखा
है,
“सफाई
कामगारो
के बंद
के बारे में मेरी राय करीब
१८९७ इतनी
पुरानी
है;
जब
मै
डर्बन में था।
वहाँ
एक सर्वसाधारण
बंद
का
विचार किया
जा
रहा था
और सफाई कामगारों
ने उसमें
सहभागी होना
चाहिए क्या,
यह
प्रश्न उपस्थित किया
जा रहा था।
मेरी
राय
इस (बंद
के)
प्रस्ताव
विरुद्ध
थी...
सफाई
कामगारां
के साथ
मेरा
करिबी
रिश्ता
होते
हुए भी
मेरी
राय
है,
की
(इस
प्रकार बंद
कर
के)
वे
दीर्घ काल
में
पराजित
होंगे।
शहर
के
लोग
हमेशा
भयभीत नही
होंगे...
एक
भंगी
ने
एक दिन
के लिए भी
उसका
काम बन्द
नही करना चाहिए।”
(हरिजन,
२१
एप्रिल १९४६)
समर्थकों
द्वारा उनके
सर्वोच्च प्रेम और त्याग इन
सद्गुणों
के
लिए
जिनकी
स्तुती की
जाती
है;
उस
व्यक्ति
का यह
वाक्य है!
उनकी
इस घोषणा
को
उद्धृत करते
हुए
उनके
नौकर
(समर्थक)
कभी
भी
थकते
नही
है:
“मै
शायद
फिर
से
जन्म
नही
लूंगा;
किन्तु
यदि
वैसा
होता
है;
तो
मुझे
सफाई कामगार के कुटुंब
में
जन्म
लेना
अच्छा लगेगा;
जिससे
मुझे
उनको
उनके मानवी मैला वहन
करने
के अमानुष,
रोगकारक
और तिरस्करणीय प्रकार के
पद्धति
से
मुक्त करने
मे सफलता मिलेगी।”
(यंग
इंडिया,
२७
एप्रिल १९२१)।
इस विधान
में होनेवाला
उपहास सामान्यत:
उनके
भक्तों
के समझ
में नही आता है।
सफाई कामगारों
के कुटुंब
में
जन्मे
होते तो
गांधीजी जरूर
उनको
अन्य
लोगों
की की
विष्ठा वहन
करने
के उनके अमानुष,
रोगकारक
और तिरस्करणीय प्रकार के तथा
मानव
को
तुच्छता लानेवाले
पद्धति
से
मुक्त करने
हेतु
संघर्ष करते;
किन्तु
वस्तुस्थिती यह
थी,
की
उनके तत्कालीन जीवन में एक
उच्चवर्णीय हिंदु होते
हुए वे
उनकी
समस्याओं
के बारे में झूठी
आस्था रखने
के अलावा
कुछ
भी
करने
के
इच्छुक
नही
थे।
गांधीवादी विचारधारा
में हरिजन के
कार्य के सन्दर्भ
में
समानार्थी शब्द (समान
संकल्पना)
‘भगवान
के
बच्चे’
ही
है। अर्थात्
उनके कोमल शब्दों
में
कटुता है जो
उनके
‘उच्च जाति
के दया
के अतिरिक्त
अन्य
आधार न
होनेवाली
असहाय्य अवस्था’ दर्शाती
है।
इस
समुदायों
में कोई
भी
मूलगामी
बदल लाने
में
गांधीवादी पद्धति असफल
रही
है।
हम
जानते ही है;
की
जब
तक
हम
मूल
कारण
पर
आघात नही
करते;
तब
तक
हम
वस्तुत:
मानवी
मैला ढो
के
ले
जाने की
पद्धति
और भेदभाव का उच्चाटन नही
कर
सकते है।
अर्थात,
इस
तात्त्विक चर्चा
से
यह
समाज उसका
मानस
बदलेगा
नही
और हमको
इस समाज
के साथ
और उसके
बाहर भी
अधिकार सत्ता
के साथ
कठोर परिश्रम करने
पडेंगे;
जिससे
यह
तिरस्करणीय पद्धति उसके
सभी
प्रकारों
सहित
समाप्त
हो जाएगी।
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