Sunday, June 28, 2015

साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ८- हाँ यही रस्ता है तेरा.. तुने अब जाना है.. (अन्तिम)

०. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना 

१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू

२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला

३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह.... 

४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन 

५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा

६. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ६- हेमिस गोंपा 

७. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!! 


लदाख़ से निकलते समय इस यात्रा सी जुड़ी बहुत सी यादें मन में ताजा हो रही हैं| मात्र पन्द्रह दिन की होने के बावजूद इस यात्रा ने बहुत कुछ दिया| बहुत कुछ देखने को मिला| लोगों से मिलना हुआ| स्वयं से भी कुछ हद तक मिलना हुआ| निकलने से वापसी की यात्रा तक लगातार ऐसे अनुभव आते रहे| स्टेशन पर साईकिल पार्सल भेजते समय वहाँ काम करनेवाले लड़कों ने हेलमेट के साथ मुझे देख कर कहा कि तुम तो क्रिश लग रहे हो! वहाँ से ले कर वापस पहुँचने तक कई अनुठे अनुभव आते रहे|  

जब मै लदाख़ जाने के लिए निकल रहा था, तो लोगों की प्रतिक्रियाओं‌ ने मुझे थोड़ा चौंकाया| लोग ऐसी प्रतिक्रिया दे रहे थे जैसे कि मै किसी युद्ध पर निकल रहा हुँ| धीरे धीरे एहसास हुआ कि शायद इसका कारण यह है कि हम लोग हमारे जीवन में कुछ अलग करना भूल सा गए हैं| इसके कारण जब कोई‌ थोड़ा अलग करने का प्रयास करता है तो या तो हम उसे गलत समझते हैं या फिर उससे विपरित दूसरी कोटि की प्रतिक्रिया देते हैं| और हमारे देश के प्रति हमारे अज्ञान के बारे में क्या कहें? ऐसी‌ प्रतिक्रियाएँ मेरी नजर में एक हद तक तो ठीक हैं; पर बाद में जा कर हमारी सँकरी सोच ही दर्शाती‌ है| फिर भी‌ लोगों ने बहुत हौसला बढ़ाया| और ऐसी‌ प्रतिक्रियाएँ‌ अपेक्षाकृत ही थी|
 

इस पूरी यात्रा में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई; जिसमें सामान्यत: न होनेवाले; न दिखनेवाली घटनाएँ घटी| मिलिटरीवालों के साथ रहना; लदाख़ी घर में ठहरना; लोगों से गहराई से मिलना... साईकिल की कुछ चीजें‌ अद्भुत है| एक तो सभी लोगों तक साईकिलिंग पहुँच जाता है| उसकी विजिबिलिटी अच्छी‌ है| यह लोगों को कुछ झकझोर सा भी देता है| इसलिए उनके दिल में एक जगह भी‌ धीरे धीरे बनती है| इसी वजह से सिर्फ लोगों से मिलना और बातचीत करना हुआ; लोगों के जीवन को करीब से देखने का मौका भी मिला| साईकिलिंग से अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण; फिटनेस और देश से जुड़ाव का सन्देश भी जाता रहा| जो भी लदाख़ में साईकिल देखते; उन्हे स्वभावत: मन में प्रश्न आता कि यह कैसे यहाँ साईकिल चला रहा है! इस मामले में साईकिल का हाथ कोई नही पकड़ सकता है| लदाख़ में ही दस किलोमीटर की दूरी में औसतन सौ वाहन साईकिल को देखते होंगे; और उसमें बैठे चारसौ- पाँचसौ यात्रि भी| जरूर उन्हे भी यह सन्देश अप्रत्यक्ष और अपरोक्ष रूप से जाता होगा| इतने सारे मिलिटरीवालों को सॅल्युट और उत्तर में मिले हुए सॅल्युट!

कई अनुभव ऐसे हैं| जम्मू से श्रीनगर पहुँचने के बाद तुरन्त करगिल की जीप ले ली| उस समय श्रीनगर के कुछ ड्रायवरों ने पूछा; एक दिन श्रीनगर रूक कर जाओ; यहाँ भी‌ देखो| करगिल की जीप में करगिल का एक बड़ा पूर्व- अफसर था| करगिलवाले लोग कश्मिरियों से कितने नाराज हैं, यह पता चला| करगिल जिला मुस्लीम बहुल तो है; पर आता लदाख़ क्षेत्र में ही है| कश्मीर के लोग लदाख़ का बहुत शोषण करते हैं| जगह जगह यह देखने को मिला| करगिल से लेह तक सड़क पर मुझे हाथ से; इशारे से या रूक कर हौसला देनेवाले कश्मीर के वाहन बहुत थोड़े थे| कश्मीर प्रॉपर (जम्मू और लदाख़ क्षेत्रों को छोड कर) के लोग दूसरों से स्वयं को थोड़ा अलग ही रखते हैं|
 

लामायुरू में कई‌ लोगों ने मेरे साथ सेल्फी तो खींची; एक सज्जन अनुठे भी मिले| होटल में साथ चाय पीते हुए बात हुई| साईकिल देख कर उन्होने पूछताछ की| बात हुई| उन्होने कहा कि वे हमेशा लामायुरू आते रहते हैं और उन्हे लगता है कि पहले भी कई‌ बार उन्होने लामायुरू देखा है| उन्हे बार बार लगता है कि वे यहाँ पहले भी आए हैं (शायद पूर्व जनम में)| अब वे लामायुरु में‌ ध्यान कर रहे हैं| मैने उनके ध्यान को शुभकामनाएँ दी| ऐसा लदाख़ में कई लोगों को लगता है| प्रोद्युतजी‌ ने भी बाद में बताया था कि कुछ गोंपा देख कर उन्हे लगा कि यह तो जाना- पहचाना है| मुझे भी तो लदाख़ में आने की इतनी‌ अधिक इच्छा क्यों हुई? हिमालय का इतना गहरा सम्मोहन क्यों है?
 

तैयारी करते समय जैसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र में साँस लेने के बारे में सोच रहा था; कुछ बातें स्पष्ट हुई| एक तो उच्च पर्वतीय क्षेत्र में दीर्घ श्वसन ही सामान्य श्वसन है| हवा की कमी के कारण अपनेआप दीर्घ श्वसन ही किया जाता है|‌ इसलिए उंचे पहाड़ पर रहनेवाले सभी लोग दीर्घ श्वसन ही स्वाभाविक रूप से करते हैं| और दीर्घ श्वसन को ध्यान की बुनियाद कहा जा सकता है| दूसरी बात यह पता चली कि, लदाख़ हो; उत्तराखण्ड- हिमाचल के कुछ हिस्से हो या तिब्बत- मानस सरोवर हो; वहाँ हमें जो नजारे दिखते हैं उनमें एक खास बात है| पूरा निला आकाश और निले सरोवर! और बड़ा ही अद्भुत; फैला हुआ नजारा| ध्यान के विशेषज्ञ कहते हैं कि ध्यान में मेन्दू की वेव्ज नीले रंग की‌ होती है| निला रंग एक तरह से ध्यान का सूचक है| इसलिए कहीं ऐसा तो नही कि इन उच्च पर्वतीय स्थानों में प्राकृतिक रूप से ध्यान घटने में सहायता हो? दीर्घ श्वसन तो होता ही है| और तिसरी बात- बड़ा ही फैला हुआ नजारा अहंकार को नीचे गिराता है| चारों तरफ ऊँचे और फैले हुए पहाड़ और एक चिंटी जैसे हम! अहंकार गिर जाता है|‌ इन तीनों बातों को मिला कर लगा कि हो ना हो जरूर उच्च पर्वतीय स्थान में‌ और ध्यान प्रक्रिया में कुछ सम्बन्ध है| और वैसे भी हिमालय अनगिनत योगी और ध्यानियों की भूमी है| एक तरह से ध्यान ऊर्जा का वह एनर्जी फिल्ड है|
 

..इन सब बातों को समझते हुए लगा कि शायद हम उत्तुंग पर्वतों का जो सम्बन्ध पुण्य से जोड़ते हैं; वह पुण्य के बजाय ध्यान से होगा| क्यों कि वहाँ जाने पर अपनेआप ध्यान घटित होने में‌ सहायता मिलती है| शायद इसीलिए तो तिब्बत विश्व का ऐसी एकमेव संस्कृति रही; जिसने मात्र एक ही विषय को स्वयं को अर्पित किया था- ध्यान में कैसे गहरें उतरे? लदाख़ तिब्बत का ही भाई है|‌ पीछली बार की तरह इस बार भी यह अनुभव आया कि, नजारा इतना अद्भुत होता है; कि हम उसमें वाकई 'खो जाते' है| स्वयं की पृथकता कम होती दिखाई पड़ती है| कर्ता गिर जाता है; साक्षी बढ़ता है|‌ जब इतना बड़ा पहाड़ सामने हो; तब 'करने' योग्य कुछ बचता ही नही; बस 'देखने' योग्य बचता है| शायद इसी ही‌ कारण हमारे पास प्रथा है कि जब भी कोई चारधाम जैसी यात्रा कर आता था, तो सारा गाँव उसके दर्शन के लिए आता था| ध्यान ऊर्जा बाँटने के लिए ही यह होता होगा| खैर|
 

..इस यात्रा में सभी सायकलिस्ट मित्रों का बड़ा हाथ हैं| नीरज जाट जी को तो यह अनुभव समर्पित है| उनके बिना लदाख़ में साईकिलिंग सम्भव नही थी| बल्कि उन्हे ही‌ देख कर साईकिल ली थी| उसके अलावा परभणी के साईकिल ग्रूप के मित्र और इंटरनेट पर अनुभव शेअर करनेवाले साईकिलिस्ट की भी बड़ी अहम भुमिका रही| आज की पिढि बहुत किस्मतवाली है| उसे सभी जानकारी उपलब्ध है जो पहले शायद कभी नही हुआ था| आज सभी क्षेत्रों में और सभी विषयों पर इतनी कुछ जानकारी उपलब्ध है कि अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो रुकने का कोई कारण नही है| उसका बहुत लाभ हुआ| यदि यह जानकारी न होती; तो ऐसी यात्रा के बारे में सोच भी नही सकता था| कई विदेशी और भारतीय साईकिलिस्ट भी लदाख़ में सोलो साईकिलिंग कर चुके हैं| सचिन गांवकर जैसे साईकिलिस्ट किसी सामाजिक विषय के लक्ष्य को ले कर पूरी देश की परिक्रमा करते हैं| ऐसे सभी मेरे प्रेरणास्थान से कम नही हैं|
 

साईकिल ने पूरी यात्रा में खूब साथ दिया| ट्रेन में पार्सल में जरूर उसके साथ अन्याय हुआ| जैसे तैसे उसे जाना पड़ा| जम्मू के बाद जीप से जाना पड़ा| पर साईकिल ने सौ प्रतिशत सहयोग दिया| देखा जाए तो हिमालय में साईकिलिंग के कुछ लाभ भी है| एक तो ठण्डे मौसम के कारण टायर गर्म हो कर फटने का खतरा नही होता है| स्पीड कम ही रहती है; सड़क पर नमीं होने से भी पंक्चर का खतरा कुछ कम होता है| और दूसरी मज़े की बात यह है की पूरी यात्रा में हर पल प्राकृतिक एसी लगा हुआ होता है! मैने जो पहाड़ चढे; वे भी एक तरह से आराम से चढ़े| नमिकेला और फोतुला तो मै टहलते गया| अर्थात् आराम से पैदल चढा| बाद में उतराई तो मुफ़्त थी! कुल मिला कर पैदल टहलना; एसी में साईकिलिंग करना और उतरना मुफ़्त में! और लोग जो तारीफ करते वह सोने पे सुहागा! यह भी खूब रही! यह सब सुन्दर सपना खर्दुंगला जैसी सड़कों पर बिखर गया!!
 

१० जून! लेह से सीधे जम्मू कुछ जीपें चलती हैं| लेह से शाम पाँच- छह बजे निकल कर दूसरे दिन सुबह श्रीनगर से जाते हुए रात जम्मू पहुँचा देती हैं| छब्बीस- सत्ताईस घण्टों की यह लगातार यात्रा भी किसी ट्रेक से कम नही‌ है| सिधी जम्मू की जीप मिलने से श्रीनगर में साईकिल उतारने का और बान्धने का सवाल नही रहा| साईकिल ने मुझे पूरा सहयोग दिया; लेकिन साईकिल घर से करगिल तक ले जाने में बहुत ज्यादा कठिनाई हुई| ट्रेन में पार्सल कराना; फिर उसे उतराना; अगर नही उतरता है; तो दूसरे स्टेशन से वापस लेना; बस में रखना आदि बहुत कठिनाईयाँ थी| इसलिए हर जगह पर कुछ ना कुछ जुगाड़ पर 'पहचान' निकालनी पड़ी| काफी जुगाड़ करना पड़ा| तब जा कर साईकिल करगिल ले जा सका| बड़ी चिन्ता उसी की थी| ऐसे में विदेशी साईकिलिस्ट और घूमनेवालों की तारीफ जितनी की जाए कम है| एक तो उन्हे यहाँ अनगिनत कल्चरल शॉक्स झेलने होते हैं| हमारे देश में किसी भी बात की सटिक जानकारी कहीं नही मिलती है|‌ छोटी छोटी बातों के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है| ऐसे में वे लोग कैसे इतनी‌ बड़ी यात्राएँ करते हैं| कैसे दुर्गम इलाकों में लम्बे समय तक घूमते हैं! उनकी करन्सी हमारी करन्सी से साठ गुना बेहतर हैं; मान्य; लेकिन फिर भी हमारी सिस्टम में आ कर इतना कुछ कर पाना नि:सन्देह बड़ा आश्चर्यजनक है|
 

इस यात्रा में कई कठिण पल आए| लेह से निकलते समय बहुत बुरा लगा| बहुत दु:ख हुआ| उतना तो घर से निकलते समय भी नही हुआ था| लेह से विदा लेना यह इस यात्रा का दूसरा सबसे कठिन पल है| सबसे कठिन पल कौनसा होगा?‌ रात में साइकिल चलाना या बारीश में चलाना या चढाई पर घसीटते जाना? नही| सबसे कठिन पल आठ महिने के बेटी से बिछडना था| वाकई...
 

लेह से जम्मू तक की यात्रा अच्छी रही|‌ रात को दो बजे द्रास में रूके| यहाँ सुबह की रोशनी आने पर ही आगे झोजिला के लिए वाहनों को छोडा जाता है| झोजिला पर बड़ी बरफ है| क्या रास्ता है! वहाँ से जाने में असली मज़ा आता! एक बात अच्छी है कि यह जीप श्रीनगर नही रूकती है| श्रीनगर की कोई सवारी नही है| हर कोई श्रीनगर को टालना चाहता है और मजबूरन श्रीनगर होते हुए जाता है| श्रीनगर में पुलिस लेह के वाहनों को तकलीफ देती हैं| जम्मू क्षेत्र के और लदाख़ के वाहनों को नंबर देख कर रोकते हैं और पैसे वसूलते हैं| करगिलवालों की गाडियाँ बख़्शते हैं| श्रीनगर में कोई प्रोटेस्ट/ बन्द नही था; और पुलिस की‌ चंगुल से जल्दी ही जीप आगे निकली|‌ इसका ड्रायवर लदाख़ी है| बड़ी क्षमता है उसकी| अब जम्मू- श्रीनगर रोड़ पर ट्रॅफिक जाम नही होना चाहिए| नही तो कितने ही समय तक रूकना पड़ सकता है|‌ संयोग से बनिहाल के अतिरिक्त कहीं ट्रॅफिक नही मिला| रामबन पर चिनाब नदी मिली! हिमाचल में उगम होने के बाद वह किश्तवाड़ के रास्ते यहाँ आती हैं| यहीं पर भी वह पहाड़ी नदी ही दिखती‌ है| जैसे हम मूल स्रोत की ओर बढ़ते है या उसके पास पहुँचते हैं; अपने आप जीवनधारा शुद्ध होती है| देर सबेर रात जम्मू पहुँचा| एक रात रूक कर कल अमृतसर जाऊँगा| वहाँ से ट्रेन का बूकिंग किया है|
 

बाद में ट्रेन में भी लेह से लौटनेवाले यात्री मिले| फिर तारीफ! वे बुजुर्ग सरदारजी थे| उनसे अच्छी बातें हुई| 'इक ओंकार सत्नाम कर्ता पूरख निर्मोह निर्बैर...' पंक्ति का मतलब उन्होने समझाया| नान्देड़ के वे सरदारजी सन्त नामदेव की वाणि से बहुत प्रभावित लगे| फिर बातचीत जम्मू में कुछ ही दिन पहले हुए प्रोटेस्ट के बारे में हुई| उन्होने कहा कि यह सब शिवसेना ने किया है| जम्मू- कश्मीर में शिवसेना अपनी मौजुदगी दर्शाना चाहती है; इसलिए उन्होने गुरुद्वारे में लगाए गए पोस्टर्स निकाले| और वहीं से प्रोटेस्ट शुरू हुआ| बाद में उन्होने कई अनुभव शेअर किए| उन्होने कहा कि, आज कश्मीर में दो लाख सीख रहते हैं| और वे अपने बलबुते पर वहाँ डटे हैं| छत्तीसिंहपूरा जैसे गाँवों में आतंकियों ने छत्तीस सरदारों के सिर कलम किए थे; फिर भी सरदार वहाँ डटे रहे| आज श्रीनगर शहर में भी पचास हजार सरदार रहते हैं और वे भी बिल्कुल डट के वहाँ रहते हैं| उनका कहना था कि, कश्मिरी हिन्दुओं ने मायग्रेशन करने के बजाय वहीं रहना चाहिए था| आतंक का जवाब वीरता से देना चाहिए था| सरदार यहीं करते रहे हैं| जिसपर यह बिता हो; उसका दर्द तो वहीं जाने|
 

लदाख़ यात्रा में मिला क्या? इस यात्रा का कन्क्लुजन क्या है? व्यावहारिक रूप से देखा जाए, तो कुछ नही मिला| वरन् नौ हजार खर्चा ही आया| लेकिन थोड़ा उपर जा कर देखें तो कई सारी चीजें मिलीं जो अनमोल हैं| सब नजारें; अविस्मरणीय पल; जीवनभर की यादें; लोगों से मिलना और स्वयं से मिलने का प्रयास! अन्त में इतना ही कहूँगा कि एक विश्वास मिला कि हाँ, यही रस्ता तेरा है| इसी रास्ते पर तू आगे बढ़ सकता है| आगामी किसी यात्रा में इसका अगला पड़ाव आएगा| तब तक मध्यान्तर हुआ है| अन्त में लदाख़ यात्रा का सार यह है- “अभी अभी हुआ यकीं... जो आग हैं मुझमें‌ कहीं.. हुई सुबह... मै जल गया... सूरज को मै निगल गया...”
 






Saturday, June 27, 2015

साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!!

०. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना 

१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू

२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला

३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह.... 

४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन 

५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा

६. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ६- हेमिस गोंपा 


७ जून| अच्छी नींद से ऊर्जा वापस तो आ रही है, लेकिन अभी भी थकान है| पड़ोस के लोग बता रहे है कि बहुत से पर्यटक विपरित मौसम के कारण लेह छोडकर वापस जा रहे हैं| आगे की यात्रा के बारे में अभी भी सभी विकल्प खुले हुए हैं| नीरज जाट जी बहुत प्रोत्साहन दे रहे हैं; उन्होने फोन पर बताया, 'खुशखबरी! मनाली- लेह रोड़ लगभग खुल गया है; बस बारालाच्छाला ला बन्द है| वह भी दो- तीन दिनों में खुलेगा| इसलिए मनाली रोड़ पर आगे बढो| पहुंचने तक बारालाच्छाला भी खुल जाएगा|' वे मुझे प्रोत्साहन देने का भरसक प्रयास तो कर रहे हैं; पर कल की थकान के बाद मुझे इस खुशखबरी से खुशी नही हो रही है| कल की यात्रा ठीक ही रही; पर हेमिस गोंपा के लिए सात किलोमीटर में तीनसौ मीटर की चढाई मै नही‌ चढ पाया| खर्दुंगला में तो चालीस किलोमीटर में इक्किससौ मीटर चढाई है| मनाली रोड़ पर भी ऐसे बड़े 'ला' है जहाँ इतनी ही चढाई होगी| अगर हेमिस की छोटी तीनसौ मीटर की ही चढाई नही चढी जा रही है; तो आगे की चढाई पर क्या होगा?

हालाकि कल पूरे दिन भर में मिला कर मैने बहत्तर किलोमीटर में लगभग ग्यारहसौ मीटर चढाई (हाईट गेन) भी‌ पार की है| और खर्दुंगला इसके मुकाबले दोगुना ही होगा और अधिकतर दूरी पैदल ही‌ चढनी होगी|‌ अत: मेरी कल की यात्रा इतनी भी बुरी नही थी| लेकिन इस बात का अहसास नही हुआ और थकान के कारण उसका ठीक मतलब समझ नही पाया| विश्राम के बावजूद थकान ऐसी लग रही है कि बस लेटने को मन कर रहा है| हमारे कुछ किसान भाई कॅश क्रॉप के चक्कर में और अधिक मुनाफे के लिए एक ही साल में माटी से तीन साल की उपज निकाल लेते हैं और बाद में दो साल रोते हैं| मेरा भी हाल कुछ कुछ ऐसा ही है| और शायद डाएट के मामले में भी‌ मै बहुत पीछड़ गया हुँ| काजू- बादाम- ग्लुकोज तो ले रहा हुँ| लदाख़ में‌ आने के बाद हर दिन कम से कम एक अण्डा खाया ही है| लेकिन फिर भी शरीर में उतनी ऊर्जा नही लग रही है|

कल आते समय एक दिक्कत और हुई थी| साईकिल का दूसरा गेअर पड़ ही नही रहा था| अभी तक तो मैने सिर्फ पहले गेअर के काँबीनेशन्स पर ही साईकिल चलायी है (‌सबसे नीचला गेअर १-; फिर १-; -; -४ ऐसे)| कल पहली बार दूसरे गिअर की ज़रूरत पड़ी| लेकिन लेह में सेटिंग करने में कुछ गड़बड होने के कारण दूसरा गिअर नही डाला जा रहा था| इस वजह से जब मै २- ३ इस हायर काँबीनेशन में चला सकता था; मुझे १-५ पर ही साईकिल चलानी पड़ी| उससे लौटने में थोड़ा समय अधिक लगा| लेकिन कहना होगा कल आते समय ज्यादा तर उतराई ही थी| इसी लिए उस गेअर की आवश्यकता हुई| साईकिल में और कुछ मामुली सेटिंग में बदलाव हुए हैं| उन्हे ठीक करना होगा|

आज रविवार है और कल की थकान अब तक नही गई है| आज आराम ही करता हुँ| कल साईकिल की थोड़ी सर्विसिंग कर फिर परसो खर्दुंगला जाऊँगा| क्योंकि कल सर्विसिंग करने के लिए कम से कम दस बजे तक रूकना होगा| उसके बाद खर्दुंगला पर जाने के लिए कम समय रहेगा| आज मौसम ने फिर करवट ली| दिनभर बादल हैं| बीच बीच में हल्की बूँदाबाँदी भी हो रही है| मेरे मित्रों से बात कर मनाली रोड़ के अपडेट ले रहा हुँ| अधिकतर अपडेटस यही हैं कि अभी भी रोड़ खुलने में थोड़ा वक्त लगेगा| बीआरओ ने आधिकारिक रूप से खुलने का दिनांक पन्द्रह जून बताया है| नीरज जी के अनुसार बारालाच्छाला तक दोनों तरफ से रोड़ खुल गया है| हालांकि आधिकारिक रूप से सामान्य वाहनों के लिए उसे बाद में खोलेंगे| बारालाच्छाला में बीआरओ बरफ की चट्टान को दूर कर रही है| शाम के समय में चोगलमसर में ही घूमा| यहाँ से दिखनेवाले नजारे का लुफ्त उठाया|

आठ जून| लेह में जा कर साईकिल का सेटिंग कर लिया| वैसे इसे मै भी कर के देख सकता हुँ| पर मै अभी उसे सीख रहा हुँ| इसीलिए यहाँ दुकान है तो मॅकेनिक के पास जाना ही ठीक है| कुल मिला कर इस यात्रा में यह सिद्ध हो रहा है कि मैने जो भी तैयारी की थी; वह अच्छी थी; ठीक थी; लेकिन पर्याप्त नही थी|‌ वैसे तो यह यात्रा सफलता या असफलता की नही है| लेकिन अगर सफलता की बात करूँ, तो कहना होगा मुझे पचास प्रतिशत अंक मिलेंगे| ऐसी कठिन यात्रा के लिए पचास प्रतिशत भी बहुत है| और निकलने से पहले मुझे अगर इतना पता होता कि मै इतना इतना चला पाऊँगा, तो मै काफी हद तक खुश हो जाता| वैसे अन्दाजा था भी कि जैसा चाहूँगा, वैसी तो साईकिलिंग होनी मुश्किल ही है| दिक्कतें‌ जरूर आएंगी| खैर|

पचास प्रतिशत भी तैयारी करना बहुत कुछ सीखा गया| दस साल के विराम के बाद जुलाई २०१३ में पहली बार साईकिलिंग शुरू की| दस किलोमीटर से आरम्भ कर के धीरे धीरे आगे बढ़ता गया| पच्चीस, चालीस, साठ किलोमीटर चला पाया| बाद में एक दिन में एकसौ बीस किलोमीटर भी हुए| ये सब समतल रास्ते पर होने के बावजूद उस समय के स्टॅमिना से कठिन लगे| लेकिन धीरे धीरे शरीर ढलता गया| शुरुआती दिनों में मै एक गलती यह करता था कि मुझे बड़ी दूरी का बहुत आकर्षण था| छोटी छोटी राईडस में मै मजा नही लेता था| मै हररोज थोड़ी साईकिल चलाने के बजाय दस दिनों में एक ही बड़ी राईड करता था| उससे हानि ही होती| धीरे धीरे एहसास होता गया कि बड़ी राईड तो ठीक है; छोटी छोटी‌ राईड भी करनी आवश्यक है| बल्कि हररोज हो सके तो या हप्ते में कम से कम पाँच बार साईकिलिंग करनी आवश्यक है| दस दिन में एक ही बार साईकिल चला कर सत्तर या अस्सी किलोमीटर जाने के बजाय हररोज या हप्ते में पाँच दिन बीस किलोमीटर जाना भी अधिक उपयोगी है| लेकिन यह सीखने के लिए कुछ समय लगा और कुछ किमत भी देनी पड़ी|

साईकिलिंग के साथ योगासन एवम् प्राणायम करना भी आवश्यक है| पहले लगता था; आज दो घण्टा साईकिल चलायी है; अब और व्यायाम की क्या ज़रूरत? लेकिन अनुभव से पता चला कि साईकिलिंग से पैरों पर जो तनाव होता है; उसे दूर करने के लिए पैरों के आसन करने चाहिए| पेट के भी आसन चाहिए| और साँस बेहतर होने के लिए प्राणायाम| साईकिलिंग हो या कोई भी शारीरिक काम; साँस सबसे अहम चीज़ है| जुलाई २०१४ में‌ टारगेट फायरफॉक्स साईकिल थर्ड हँड खरिदी‌| यह मध्यम श्रेणि की साईकिल है| पहले की‌ साईकिल बहुत प्राथमिक थी|‌ गेअर होनेवाली सबसे सस्ती साईकिल थी|‌ लेकिन वह भी बहुत अच्छी थी| अधिक लम्बी और बड़ी यात्रा करने का इरादा बनता गया तो एडव्हान्स साईकिल की आवश्यकता लगी| मेरे गाँव के ही साईकिलिंग ग्रूप के एक सर से यह साईकिल ली| उस साईकिल को अभ्यस्त होने के लिए एक महिना लगा| क्यों कि उसका वजन अधिक था| धीरे धीरे उसकी आदत हो गई| फिर कुछ और बड़ी यात्राएँ की| अगस्त २०१४ में महाराष्ट्र में तोरणमाल नाम की एक चोटी है; वहाँ जा पाया| वहाँ पचास किलोमीटर में‌ करीब ११०० मीटर चढाई थी| पाँच घण्टे साईकिल चलायी और चौतीस किलोमीटर पार किए| उसके बाद बाकी सोलह किलोमीटर पैदल पार करने पड़े| उतराई में बारीश के बीच वह घाट उतर पाया| यह अनुभव काफी हौसला देनेवाला था| पहली बार दूर की यात्रा साईकिल पर की थी|

जब भी कभी साईकिलिंग छोड दू ऐसा ख़याल आता था- और ऐसा ख़याल कई बार आया और आता ही रहा- तो नीरजजी के ब्लॉग बहुत प्रेरणा देते| साईकिलिंग छोड देने का ख्याल टिक नही पाता था| धीरे धीरे साईकिल रिपेअरिंग सीखने लगा| उसमें बहुत समय लगाया| लेकिन लदाख़ के लिए निकलने से ठीक पहले प्राथमिक अभ्यास हो गया| उसके लिए परभणी के साईकिलिस्ट मित्रों ने बड़ी मदद की| महाराष्ट्र के नान्देड के भी एक साईकिलिस्ट ने कई गुर्र बताए| साईकिलिंग के लिए सही डाएट क्या हैं; शरीर को कैसे फिट रखना है; टूल्स का प्रयोग कैसे करना है आदि बातें‌ समझ में आ गयी| नीरज जी के ब्लॉग तो इस पूरी यात्रा के लिए बाईबल थे| अक्तूबर- नवम्बर २०१४ में शारीरिक इंज्युरी भी हुई|‌ कश्मीर में‌ श्रीनगर के पास शंकराचार्य हिल है| वहाँ ट्रेकिंग करने के बाद उतरते समय घुटने में लिगामेंट इन्ज्युरी हुई|‌ उससे साईकिलिंग थोड़ी‌ रोकनी पड़ी|‌ योगा का महत्त्व वहाँ पता चला|
लदाख़ यात्रा में शारीरिक क्षमता के साथ मानसिक क्षमता की भी कसौटी हुई| उसकी तैयारी भी कुछ हद तक हुई थी|‌ हिमालय में पहले जो थोड़े से ट्रेक किए थे; उनका अनुभव काम आया| ऊँची चढाई पर और दुर्गम सड़क पर जाना मानसिक रूप से भी अक्लमटायजेशन की माँग करता है| पहले किए गए ट्रेक ने यह विश्वास दिया था| जब पहली बार हिमालय में पगडण्डी पर छोटा ट्रेक किया; तो बहुत डर लगा था| लेकिन धीरे धीरे डरावनी लगनेवाली खाई देखने के लिए आँखें अभ्यस्त हुई| अभ्यास से ऐसी राहों का डर कम हुआ| इसी वजह से लदाख़ की सड़कों पर वैसी कोई परेशानी नही आयी| मानसिक रूप से ऐसी स्थिति के लिए तैयार था|‌ अर्थात् इस तैयारी की मर्यादाएँ भी उजागर हुई थी| जैसे जोशीमठ के पास ट्रेक करते हुए मै औली तक नही जा पाया था| उत्तराखण्ड के कुछ कठिण पैदल राहों पर- पगडण्डियों पर बहुत परेशानी भी हुई थी| पर इन सबने मेरे पास एक मापदण्ड दिया था|
साईकिलिंग के लिए शरीर अच्छी तरह तैयार होता गया| पहले छोटी सी भी चढाई पैदल जाने की नौबत आती थी| अभ्यास से वही चढाई पूरी साईकिल पर जा पाया| फिर उसी चढाई को बिना रूक दो बार; चार बार चला पाया| फिर कुछ महिनों बाद उसी चढाई को हायर गेअर में भी चला पाया| यह क्षमता प्रकृति ने हर व्यक्ति को दी है| बस उसे दिशा देने की बात है|

जैसे जैसे लदाख़ यात्रा पास आती गई; एक बात उभरकर आने लगी| वह हैं साँस लेने की‌ क्षमता| मैदानों में और समुद्री ऊँचाई के करीब साईकिलिंग करना उतना कठिन नही है| १२०० मीटर की ऊँचाई पर साईकिलिंग करना सरल ही है|‌ लेकिन लदाख़ में साईकिलिंग करनी थी‌ वह ३५०० मीटर से अधिक ऊँचाई पर जहाँ‌ ऑक्सीजन का अनुपात दो तिहाई ही रह जाता है| ऐसी ऊँचाई पर साईकिल चलाना यह सबसे बड़ी चुनौति थी|‌ और इसके लिए साँस लेने की क्षमता और प्राणायाम पर काफी‌ ध्यान दिया| और कहना होगा; इस मुद्दे पर भी तैयारी पचास प्रतिशत ही हुई| साईकिल चला तो पाया; साँस लेने में भी कुछ खास दिक्कत नही आयी; लेकिन और आगे जाने में‌ दिक्कत आयी| हमारे फेफडों में ४००० छेद होते हैं| हम सामान्य रूप से जितनी साँस लेते हैं, उससे और बड़ी और सघन साँस ले सकते हैं| उसके लिए पेट में जगह होनी चाहिए| आम तौर पर बढ़ते पेट के साईज के कारण यह जगह कम होती‌ है| और हम सामान्य रूप से ध्यानपूर्वक साँस नही लेते हैं| पूरे पेट में; छाति में और गर्दन- कन्धों तक साँस भरने की आदत हमें नही होती है| इसी वजह से हमारी साँस छिछुली होती है| लेकिन जब हम क्षमता के अनुरूप साँस ले सकते हैं; तब साँस की ऊर्जा अलग होती है|‌ दांतों से ट्रक खींचनेवाले या बालों से बैलगाड़ी ढोनेवाले लोग ऐसी ही साँस का प्रयोग करते हैं| देखा जाए तो साँस ऊर्जा का एक स्वरूप है जो जीवनभर हमें चलाती है| इसी किस्म की ऊर्जा से ही तो टायर्स चलते हैं|

तैयारी कुल मिला कर ठीक हुई थी| लेकिन बाकी बचे पचास प्रतिशत? यहाँ काफी कमीयाँ रही| पहली बात तो सातत्य| मैने पीछले दो सालों में छह हजार किलोमीटर साईकिल चलायी| दिखने में यह काफी बड़ी संख्या है; पर ठीक से देखा तो हर रोज दस किलोमीटर भी औसत नही हैं| और संख्या बड़ी हैं; क्यों कि कुछ राईड बड़े हुए हैं| पीछले छह महिनों में करीब ढाई हजार किलोमीटर तक साईकिल चलायी| वह भी औसत पन्द्रह किलोमीटर से अधिक नही| अगर हप्ते में चार दिन भी चालिस किलोमीटर हररोज ऐसी साईकिल चलाता तो और अच्छा स्टॅमिना होता| साथ में हप्ते में कम से कम एक दिन पैदल चलना चाहिए था| स्विमिंग भी‌ बहुत उपयोगी होता; वह किया नही| योगा- प्राणायाम में भी सातत्य का अभाव रहा| प्राणायाम निर्दोष तरिके से नही करता रहा| एक्युरेसी कम थी| आहार- डाएट पर भी सही ध्यान नही दिया| हर रोज सुबह ४ बजे उठना चाहिए था; वह भी नही हुआ| अगर बारिकी से देखा जाए तो, यह पचास प्रतिशत अंक भी योग्यता से अधिक ही है! लेकिन इससे काफी कुछ सीखने के लिए है| आधा रास्ता तो पार कर ही लिया है|

...मनाली रोड़ की सम्भावनाएँ हैं; मगर क्षीण हैं| इसी लिए अब बस खर्दुंगला ही जाऊँगा| वह भी उम्मीद तो ना के बराबर है| क्यों कि हेमिस की छोटी सी चढाई ही टेढी खीर साबित हुई| खर्दुंगला तो उससे बड़ी चढाई‌ है और उसकी ऊँचाई ५००० मीटर से भी अधिक| मै फोतुला के बाद ४१०० मीटर ऊँचाई तक गया नही हुँ| लेह के कुछ लोग कह रहे हैं कि खर्दुंगला में मुझे साँस लेने की तकलीफ नही आनी चाहिए| क्योंकि अगर साँस की परेशानी या एक्युट माउंटेन सिकनेस अगर आती है तो पहले पहले ही आती है| अब मै तो ३५०० मीटर की ऊँचाई से अभ्यस्त हुआ हुँ| अब सम्भवत: परेशानी नही आएगी| लेकिन चढाई का क्या करें? पहले एक विचार था कि, खर्दुंगला सीधा जाने के बजाय दो चरणों में जाऊँ| खर्दुंगला रोड़ पर लेह के पच्चीस किलोमीटर आगे साउथ पुल्लू आता है और वहाँ से पन्द्रह किलोमीटर आगे खर्दुंगला| साउथ पुल्लू तक तो मै कैसे भी‌ पहुँच ही जा सकता हुँ|‌ पहले दिन साउथ पुल्लू जा कर दो- तीन घण्टे रुकूँगा, ऐसा विचार था| साउथ पुल्लू की ऊँचाई करीब ४८०० मीटर होगी| वहाँ‌ कुछ समय बिताने से उस ऊँचाई का शरीर को अभ्यास हो जाता| फिर दूसरे दिन खर्दुंगला|‌ इससे शरीर को आबो हवा के अनुरूप स्वयं‌ को ढालने का अवसर मिलता|‌ लेकिन अब सम्भवत: मौसम खराब ही‌ चल रहा है| तो एक ही‌ दिन में खर्दुंगला जाने का प्रयास करूँगा| खर्दुंगला तक पहुँचने की सम्भावना बहुत क्षीण है|

आज भी मौसम खराब है|‌ यहाँ से शान्ति स्तुप का बिन्दु दिखाई देता है और उसके ठीक उपर खर्दुंगला के बर्फाच्छादित पहाड़| आज लेह में‌ नेट कॅफे में‌ मनाली रोड़ के अपडेटस देखे| कुछ वाहन अब मनाली से लेह के लिए निकल रहे हैं| पर फिर भी‌ दो- तीन दिन और लगेंगे| और सड़क पूरी खुलने के एक- दो दिन बाद होटल और तम्बूवाले लोग आ जाएँगे|‌ या शायद वे बारालाच्छाला के दोनो तरफ पहुँच भी गए होंगे| पहले मिलिटरी सड़क की ट्रायल लेगी‌ और फिर जनता के लिए सड़क खुलेगी|‌ शुरुआत में‌ लँड स्लाईड हो सकते हैं‌|‌ इसलिए आधिकारिक रूप से खुलने का इन्तजार करना ठीक होगा|‌ अर्थात् मनाली से जाना अभी नही होगा| क्यों कि मेरा १९ जून को अम्बाला से टिकट है| दो- तीन दिन बाद रोड़ खुलेगा तो मै समय रहते नही‌ पहुँच पाऊँगा| वैसे नीरज जी बार बार कह रहे हैं कि तुम जा सकते हो; जाओ! लेकिन हिम्मत नही हो रही‌ है| एक तरह से शारीरिक थकान के साथ मानसिक ऊर्जा भी‌ क्षीण हो गयी है| अन्दर से जो आदेश मिलना चाहिए; वह नही‌ मिल रहा है| वैसे तो कौनसी भी चढाई हो; मेरी क्षमता तो बनती‌ है| साईकिल पर नही; पैदल ही सही| वह कहानि याद आती है|

पुराने जमाने में एक बार एक नौजवान पहाड़ी पर स्थित दुर्गम मन्दीर को देखने के लिए निकला| उसके गाँव से वह मन्दिर बहुत दूर था इसलिए सुबह तीन बजे ही वह निकला| उसके हाथ में एक लालटेन था| जैसे ही वह आगे निकला; उसने देखा कि लालटेन की रोशनी चार कदम तक ही पहुँच रही है| उदास हो कर वह बैठ गया| कुछ ही‌ देर में वहाँ से एक फकिर निकला| फकिर के पास तो और भी छोटी मोमबत्ती थी| उसे ले कर ही वह अन्धेरे में जा रहा था| नौजवान ने चौंक कर उसे रोका| फकिर ने बात सुनी और कहा कि, तुम्हारे पास तो मुझसे बड़ी रोशनी है| तुम काहे बैठ गए? चलो, निकलो| नौजवान ने कहा, कैसे आगे जाऊँ? मिलों अन्धेरा है| फकिर बोला, जैसे तुम दो कदम आगे जाओगे; वैसे ही रोशनी भी दो कदम आगे जाएगी| तुम बस चलते रहना; रोशनी तुमसे दो कदम आगे ही रहेगी| कहानि बड़ी सच है और कड़वी भी| यह सभी के मन्जिल की कहानि है| कुल मिला कर सिर्फ एक कदम उठाने की हिम्मत चाहिए| बस्स| लेकिन अब यह कहानि भी मुझे प्रेरित नही कर पायी|

..त्सोमोरिरी और पेंगाँग जीप में‌ शेअरिंग में जाने के लेह में‌ पूछताछ भी की| जीपें‌ तो जा रही हैं, पर एक व्यक्ति को शेअरिंग में जाने के लिए जगह तुरन्त नही उपलब्ध है| इसलिए वह विकल्प भी जाता रहा| वैसे भी मुझे साईकिल के बिना जीप में जाने की इच्छा नही हो रही थी| अब बस खर्दुंगला कर के वापस निकलूँगा| खर्दुंगला... लेकिन मेरी जाने की उतनी ज़िद नही है| चुनौति या प्रतिस्पर्धा मन में नही है| घूमते घूमते सहजता से जाना है| जा सका तो ठीक| नही जा सका तो भी ठीक| जितना लदाख़ देखने को मिलेगा, उतना प्रसाद स्वरूप है| जो देखने को मिला, वही कितना अथाह है!

९ जून को बहुत जल्द उठा| पाँच बजे बाहर आ कर आसमान देखा| साफ मौसम की अपेक्षा है| लेकिन यह क्या? पूरे आसमान में बादलों का डेरा! कुछ देर प्रतीक्षा की| पूरा आसमान बादलों से घिरा है| पहाडों पर बारीश और बरफ गिर रही है| थोड़ी देर रूका| लेकिन जल्द ही बूँदाबाँदी शुरू हुई| खर्दुंगला की योजना भी ऐसे मौसम में व्यर्थ हुई| ऐसे मौसम में निकलता तो ऊँचाई पर भीगना पड़ता और बरफबारी में जाना पड़ता| उतनी हिम्मत नही हुई| वैसे भी ऐसे मौसम में उपर रोड़ की कंडिशन भी बदल सकती हैं| ५००० मीटर ऊँचाई पर मौसम कभी भी बदल सकता है| जाते है; कुछ डेअरडेविल जरूर जाते हैं| नीरज जाट जरूर जाते हैं| लेकिन मै? ना| हिंमत नही हुई| एक तरह से अब लग रहा है चलो; बहुत हो गया| अब कही नही जा सकता हुँ; तो लेह में रूक कर क्या करूँगा? आगामी दिनों के लिए मौसम का अनुमान भी ऐसा ही है| उसमें तुरन्त सुधार होने की सम्भावना कम ही है| अभी हाथ में और बहुत दिन हैं; लेकिन अब रूकने का मन नही हो रहा है| बल्कि कल ही जम्मू के लिए निकल जाऊँगा| वापसी का तिकिट जल्द बनाने का जुगाड़ करूँगा| पीछली बार भी लदाख़ से ऐसे ही वापस जाना पड़ा था| उस समय सियाचेन बेस कँप जाने की इच्छा पूरी नही हो पायी| वापस मनाली रोड़ से आना था; लेकीन वह भी भारी बारीश में बन्द हुआ| इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है| लेकिन नजारे इस बार ज्यादा गहराई से देखने में आए|

जुले लदाख़! लदाख़ से निकलने की घड़ी पास आने पर वाकई बहुत दुख हो रहा है| मौसम और मेरी तैयारी की कमी के कारण और आगे नही जा सका इसका खेद है| पर उतना नही|‌ मेरी साईकिल यात्रा सिर्फ मेरी नही थी| बल्कि सच कहूँ तो मेरी तो थी ही नही| कई लोगों के सहयोग के कारण; कई लोगों ने मेरे लिए जो कुछ किया; जैसे जैसे सब हुआ; उन सब के कारण यह यात्रा सम्भव हुई| मेरी नजर में इसमें 'मेरा' कुछ भी नही है| एक तो किस्मत होती है| घटनाएँ घटित होती है| मै तो इसे एक संयोगवश सत्य हुआ सपना ही कहूँगा| मुझे किस्मत से सभी इनपुटस मिलते गए; सब चीजें होती रहीं| मेरी यात्रा बस एक जोड़ है| सब चीजें‌ इधर उधर से आयी| पहाड़ भी मिट्टी के होते हैं और इन्सान भी मिट्टी का ही बना हुआ होता है| कोई आश्चर्य नही है कि इन्सान भी पहाड़ के पास पहुँच जाए| जो प्रकृति बाहर है; वही भीतर भी है; इसलिए मेल होना सहज सम्भव है| युरोपीय सन्त जॉर्ज गुरजीएफ ने कहा था कि हम जिसे 'वास्तव जीवन' कहते हैं; वह भी वस्तुत: एक सपना (माया) होता है| यहाँ जो नजारे देखने में आए उन्हे याद करते हुए लग रहा है कि, वाकई, वह एक सपना ही है!

नजरों में हो.. गुजरता हुआ.. ख़्वाबों का कोई काफ़ि-"ला".. यह सब सपना ही तो है! 
























































इस यात्रा के फोटोज - पार्ट १ और पार्ट २