Saturday, June 27, 2015

साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!!

०. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना 

१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू

२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला

३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह.... 

४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन 

५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा

६. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ६- हेमिस गोंपा 


७ जून| अच्छी नींद से ऊर्जा वापस तो आ रही है, लेकिन अभी भी थकान है| पड़ोस के लोग बता रहे है कि बहुत से पर्यटक विपरित मौसम के कारण लेह छोडकर वापस जा रहे हैं| आगे की यात्रा के बारे में अभी भी सभी विकल्प खुले हुए हैं| नीरज जाट जी बहुत प्रोत्साहन दे रहे हैं; उन्होने फोन पर बताया, 'खुशखबरी! मनाली- लेह रोड़ लगभग खुल गया है; बस बारालाच्छाला ला बन्द है| वह भी दो- तीन दिनों में खुलेगा| इसलिए मनाली रोड़ पर आगे बढो| पहुंचने तक बारालाच्छाला भी खुल जाएगा|' वे मुझे प्रोत्साहन देने का भरसक प्रयास तो कर रहे हैं; पर कल की थकान के बाद मुझे इस खुशखबरी से खुशी नही हो रही है| कल की यात्रा ठीक ही रही; पर हेमिस गोंपा के लिए सात किलोमीटर में तीनसौ मीटर की चढाई मै नही‌ चढ पाया| खर्दुंगला में तो चालीस किलोमीटर में इक्किससौ मीटर चढाई है| मनाली रोड़ पर भी ऐसे बड़े 'ला' है जहाँ इतनी ही चढाई होगी| अगर हेमिस की छोटी तीनसौ मीटर की ही चढाई नही चढी जा रही है; तो आगे की चढाई पर क्या होगा?

हालाकि कल पूरे दिन भर में मिला कर मैने बहत्तर किलोमीटर में लगभग ग्यारहसौ मीटर चढाई (हाईट गेन) भी‌ पार की है| और खर्दुंगला इसके मुकाबले दोगुना ही होगा और अधिकतर दूरी पैदल ही‌ चढनी होगी|‌ अत: मेरी कल की यात्रा इतनी भी बुरी नही थी| लेकिन इस बात का अहसास नही हुआ और थकान के कारण उसका ठीक मतलब समझ नही पाया| विश्राम के बावजूद थकान ऐसी लग रही है कि बस लेटने को मन कर रहा है| हमारे कुछ किसान भाई कॅश क्रॉप के चक्कर में और अधिक मुनाफे के लिए एक ही साल में माटी से तीन साल की उपज निकाल लेते हैं और बाद में दो साल रोते हैं| मेरा भी हाल कुछ कुछ ऐसा ही है| और शायद डाएट के मामले में भी‌ मै बहुत पीछड़ गया हुँ| काजू- बादाम- ग्लुकोज तो ले रहा हुँ| लदाख़ में‌ आने के बाद हर दिन कम से कम एक अण्डा खाया ही है| लेकिन फिर भी शरीर में उतनी ऊर्जा नही लग रही है|

कल आते समय एक दिक्कत और हुई थी| साईकिल का दूसरा गेअर पड़ ही नही रहा था| अभी तक तो मैने सिर्फ पहले गेअर के काँबीनेशन्स पर ही साईकिल चलायी है (‌सबसे नीचला गेअर १-; फिर १-; -; -४ ऐसे)| कल पहली बार दूसरे गिअर की ज़रूरत पड़ी| लेकिन लेह में सेटिंग करने में कुछ गड़बड होने के कारण दूसरा गिअर नही डाला जा रहा था| इस वजह से जब मै २- ३ इस हायर काँबीनेशन में चला सकता था; मुझे १-५ पर ही साईकिल चलानी पड़ी| उससे लौटने में थोड़ा समय अधिक लगा| लेकिन कहना होगा कल आते समय ज्यादा तर उतराई ही थी| इसी लिए उस गेअर की आवश्यकता हुई| साईकिल में और कुछ मामुली सेटिंग में बदलाव हुए हैं| उन्हे ठीक करना होगा|

आज रविवार है और कल की थकान अब तक नही गई है| आज आराम ही करता हुँ| कल साईकिल की थोड़ी सर्विसिंग कर फिर परसो खर्दुंगला जाऊँगा| क्योंकि कल सर्विसिंग करने के लिए कम से कम दस बजे तक रूकना होगा| उसके बाद खर्दुंगला पर जाने के लिए कम समय रहेगा| आज मौसम ने फिर करवट ली| दिनभर बादल हैं| बीच बीच में हल्की बूँदाबाँदी भी हो रही है| मेरे मित्रों से बात कर मनाली रोड़ के अपडेट ले रहा हुँ| अधिकतर अपडेटस यही हैं कि अभी भी रोड़ खुलने में थोड़ा वक्त लगेगा| बीआरओ ने आधिकारिक रूप से खुलने का दिनांक पन्द्रह जून बताया है| नीरज जी के अनुसार बारालाच्छाला तक दोनों तरफ से रोड़ खुल गया है| हालांकि आधिकारिक रूप से सामान्य वाहनों के लिए उसे बाद में खोलेंगे| बारालाच्छाला में बीआरओ बरफ की चट्टान को दूर कर रही है| शाम के समय में चोगलमसर में ही घूमा| यहाँ से दिखनेवाले नजारे का लुफ्त उठाया|

आठ जून| लेह में जा कर साईकिल का सेटिंग कर लिया| वैसे इसे मै भी कर के देख सकता हुँ| पर मै अभी उसे सीख रहा हुँ| इसीलिए यहाँ दुकान है तो मॅकेनिक के पास जाना ही ठीक है| कुल मिला कर इस यात्रा में यह सिद्ध हो रहा है कि मैने जो भी तैयारी की थी; वह अच्छी थी; ठीक थी; लेकिन पर्याप्त नही थी|‌ वैसे तो यह यात्रा सफलता या असफलता की नही है| लेकिन अगर सफलता की बात करूँ, तो कहना होगा मुझे पचास प्रतिशत अंक मिलेंगे| ऐसी कठिन यात्रा के लिए पचास प्रतिशत भी बहुत है| और निकलने से पहले मुझे अगर इतना पता होता कि मै इतना इतना चला पाऊँगा, तो मै काफी हद तक खुश हो जाता| वैसे अन्दाजा था भी कि जैसा चाहूँगा, वैसी तो साईकिलिंग होनी मुश्किल ही है| दिक्कतें‌ जरूर आएंगी| खैर|

पचास प्रतिशत भी तैयारी करना बहुत कुछ सीखा गया| दस साल के विराम के बाद जुलाई २०१३ में पहली बार साईकिलिंग शुरू की| दस किलोमीटर से आरम्भ कर के धीरे धीरे आगे बढ़ता गया| पच्चीस, चालीस, साठ किलोमीटर चला पाया| बाद में एक दिन में एकसौ बीस किलोमीटर भी हुए| ये सब समतल रास्ते पर होने के बावजूद उस समय के स्टॅमिना से कठिन लगे| लेकिन धीरे धीरे शरीर ढलता गया| शुरुआती दिनों में मै एक गलती यह करता था कि मुझे बड़ी दूरी का बहुत आकर्षण था| छोटी छोटी राईडस में मै मजा नही लेता था| मै हररोज थोड़ी साईकिल चलाने के बजाय दस दिनों में एक ही बड़ी राईड करता था| उससे हानि ही होती| धीरे धीरे एहसास होता गया कि बड़ी राईड तो ठीक है; छोटी छोटी‌ राईड भी करनी आवश्यक है| बल्कि हररोज हो सके तो या हप्ते में कम से कम पाँच बार साईकिलिंग करनी आवश्यक है| दस दिन में एक ही बार साईकिल चला कर सत्तर या अस्सी किलोमीटर जाने के बजाय हररोज या हप्ते में पाँच दिन बीस किलोमीटर जाना भी अधिक उपयोगी है| लेकिन यह सीखने के लिए कुछ समय लगा और कुछ किमत भी देनी पड़ी|

साईकिलिंग के साथ योगासन एवम् प्राणायम करना भी आवश्यक है| पहले लगता था; आज दो घण्टा साईकिल चलायी है; अब और व्यायाम की क्या ज़रूरत? लेकिन अनुभव से पता चला कि साईकिलिंग से पैरों पर जो तनाव होता है; उसे दूर करने के लिए पैरों के आसन करने चाहिए| पेट के भी आसन चाहिए| और साँस बेहतर होने के लिए प्राणायाम| साईकिलिंग हो या कोई भी शारीरिक काम; साँस सबसे अहम चीज़ है| जुलाई २०१४ में‌ टारगेट फायरफॉक्स साईकिल थर्ड हँड खरिदी‌| यह मध्यम श्रेणि की साईकिल है| पहले की‌ साईकिल बहुत प्राथमिक थी|‌ गेअर होनेवाली सबसे सस्ती साईकिल थी|‌ लेकिन वह भी बहुत अच्छी थी| अधिक लम्बी और बड़ी यात्रा करने का इरादा बनता गया तो एडव्हान्स साईकिल की आवश्यकता लगी| मेरे गाँव के ही साईकिलिंग ग्रूप के एक सर से यह साईकिल ली| उस साईकिल को अभ्यस्त होने के लिए एक महिना लगा| क्यों कि उसका वजन अधिक था| धीरे धीरे उसकी आदत हो गई| फिर कुछ और बड़ी यात्राएँ की| अगस्त २०१४ में महाराष्ट्र में तोरणमाल नाम की एक चोटी है; वहाँ जा पाया| वहाँ पचास किलोमीटर में‌ करीब ११०० मीटर चढाई थी| पाँच घण्टे साईकिल चलायी और चौतीस किलोमीटर पार किए| उसके बाद बाकी सोलह किलोमीटर पैदल पार करने पड़े| उतराई में बारीश के बीच वह घाट उतर पाया| यह अनुभव काफी हौसला देनेवाला था| पहली बार दूर की यात्रा साईकिल पर की थी|

जब भी कभी साईकिलिंग छोड दू ऐसा ख़याल आता था- और ऐसा ख़याल कई बार आया और आता ही रहा- तो नीरजजी के ब्लॉग बहुत प्रेरणा देते| साईकिलिंग छोड देने का ख्याल टिक नही पाता था| धीरे धीरे साईकिल रिपेअरिंग सीखने लगा| उसमें बहुत समय लगाया| लेकिन लदाख़ के लिए निकलने से ठीक पहले प्राथमिक अभ्यास हो गया| उसके लिए परभणी के साईकिलिस्ट मित्रों ने बड़ी मदद की| महाराष्ट्र के नान्देड के भी एक साईकिलिस्ट ने कई गुर्र बताए| साईकिलिंग के लिए सही डाएट क्या हैं; शरीर को कैसे फिट रखना है; टूल्स का प्रयोग कैसे करना है आदि बातें‌ समझ में आ गयी| नीरज जी के ब्लॉग तो इस पूरी यात्रा के लिए बाईबल थे| अक्तूबर- नवम्बर २०१४ में शारीरिक इंज्युरी भी हुई|‌ कश्मीर में‌ श्रीनगर के पास शंकराचार्य हिल है| वहाँ ट्रेकिंग करने के बाद उतरते समय घुटने में लिगामेंट इन्ज्युरी हुई|‌ उससे साईकिलिंग थोड़ी‌ रोकनी पड़ी|‌ योगा का महत्त्व वहाँ पता चला|
लदाख़ यात्रा में शारीरिक क्षमता के साथ मानसिक क्षमता की भी कसौटी हुई| उसकी तैयारी भी कुछ हद तक हुई थी|‌ हिमालय में पहले जो थोड़े से ट्रेक किए थे; उनका अनुभव काम आया| ऊँची चढाई पर और दुर्गम सड़क पर जाना मानसिक रूप से भी अक्लमटायजेशन की माँग करता है| पहले किए गए ट्रेक ने यह विश्वास दिया था| जब पहली बार हिमालय में पगडण्डी पर छोटा ट्रेक किया; तो बहुत डर लगा था| लेकिन धीरे धीरे डरावनी लगनेवाली खाई देखने के लिए आँखें अभ्यस्त हुई| अभ्यास से ऐसी राहों का डर कम हुआ| इसी वजह से लदाख़ की सड़कों पर वैसी कोई परेशानी नही आयी| मानसिक रूप से ऐसी स्थिति के लिए तैयार था|‌ अर्थात् इस तैयारी की मर्यादाएँ भी उजागर हुई थी| जैसे जोशीमठ के पास ट्रेक करते हुए मै औली तक नही जा पाया था| उत्तराखण्ड के कुछ कठिण पैदल राहों पर- पगडण्डियों पर बहुत परेशानी भी हुई थी| पर इन सबने मेरे पास एक मापदण्ड दिया था|
साईकिलिंग के लिए शरीर अच्छी तरह तैयार होता गया| पहले छोटी सी भी चढाई पैदल जाने की नौबत आती थी| अभ्यास से वही चढाई पूरी साईकिल पर जा पाया| फिर उसी चढाई को बिना रूक दो बार; चार बार चला पाया| फिर कुछ महिनों बाद उसी चढाई को हायर गेअर में भी चला पाया| यह क्षमता प्रकृति ने हर व्यक्ति को दी है| बस उसे दिशा देने की बात है|

जैसे जैसे लदाख़ यात्रा पास आती गई; एक बात उभरकर आने लगी| वह हैं साँस लेने की‌ क्षमता| मैदानों में और समुद्री ऊँचाई के करीब साईकिलिंग करना उतना कठिन नही है| १२०० मीटर की ऊँचाई पर साईकिलिंग करना सरल ही है|‌ लेकिन लदाख़ में साईकिलिंग करनी थी‌ वह ३५०० मीटर से अधिक ऊँचाई पर जहाँ‌ ऑक्सीजन का अनुपात दो तिहाई ही रह जाता है| ऐसी ऊँचाई पर साईकिल चलाना यह सबसे बड़ी चुनौति थी|‌ और इसके लिए साँस लेने की क्षमता और प्राणायाम पर काफी‌ ध्यान दिया| और कहना होगा; इस मुद्दे पर भी तैयारी पचास प्रतिशत ही हुई| साईकिल चला तो पाया; साँस लेने में भी कुछ खास दिक्कत नही आयी; लेकिन और आगे जाने में‌ दिक्कत आयी| हमारे फेफडों में ४००० छेद होते हैं| हम सामान्य रूप से जितनी साँस लेते हैं, उससे और बड़ी और सघन साँस ले सकते हैं| उसके लिए पेट में जगह होनी चाहिए| आम तौर पर बढ़ते पेट के साईज के कारण यह जगह कम होती‌ है| और हम सामान्य रूप से ध्यानपूर्वक साँस नही लेते हैं| पूरे पेट में; छाति में और गर्दन- कन्धों तक साँस भरने की आदत हमें नही होती है| इसी वजह से हमारी साँस छिछुली होती है| लेकिन जब हम क्षमता के अनुरूप साँस ले सकते हैं; तब साँस की ऊर्जा अलग होती है|‌ दांतों से ट्रक खींचनेवाले या बालों से बैलगाड़ी ढोनेवाले लोग ऐसी ही साँस का प्रयोग करते हैं| देखा जाए तो साँस ऊर्जा का एक स्वरूप है जो जीवनभर हमें चलाती है| इसी किस्म की ऊर्जा से ही तो टायर्स चलते हैं|

तैयारी कुल मिला कर ठीक हुई थी| लेकिन बाकी बचे पचास प्रतिशत? यहाँ काफी कमीयाँ रही| पहली बात तो सातत्य| मैने पीछले दो सालों में छह हजार किलोमीटर साईकिल चलायी| दिखने में यह काफी बड़ी संख्या है; पर ठीक से देखा तो हर रोज दस किलोमीटर भी औसत नही हैं| और संख्या बड़ी हैं; क्यों कि कुछ राईड बड़े हुए हैं| पीछले छह महिनों में करीब ढाई हजार किलोमीटर तक साईकिल चलायी| वह भी औसत पन्द्रह किलोमीटर से अधिक नही| अगर हप्ते में चार दिन भी चालिस किलोमीटर हररोज ऐसी साईकिल चलाता तो और अच्छा स्टॅमिना होता| साथ में हप्ते में कम से कम एक दिन पैदल चलना चाहिए था| स्विमिंग भी‌ बहुत उपयोगी होता; वह किया नही| योगा- प्राणायाम में भी सातत्य का अभाव रहा| प्राणायाम निर्दोष तरिके से नही करता रहा| एक्युरेसी कम थी| आहार- डाएट पर भी सही ध्यान नही दिया| हर रोज सुबह ४ बजे उठना चाहिए था; वह भी नही हुआ| अगर बारिकी से देखा जाए तो, यह पचास प्रतिशत अंक भी योग्यता से अधिक ही है! लेकिन इससे काफी कुछ सीखने के लिए है| आधा रास्ता तो पार कर ही लिया है|

...मनाली रोड़ की सम्भावनाएँ हैं; मगर क्षीण हैं| इसी लिए अब बस खर्दुंगला ही जाऊँगा| वह भी उम्मीद तो ना के बराबर है| क्यों कि हेमिस की छोटी सी चढाई ही टेढी खीर साबित हुई| खर्दुंगला तो उससे बड़ी चढाई‌ है और उसकी ऊँचाई ५००० मीटर से भी अधिक| मै फोतुला के बाद ४१०० मीटर ऊँचाई तक गया नही हुँ| लेह के कुछ लोग कह रहे हैं कि खर्दुंगला में मुझे साँस लेने की तकलीफ नही आनी चाहिए| क्योंकि अगर साँस की परेशानी या एक्युट माउंटेन सिकनेस अगर आती है तो पहले पहले ही आती है| अब मै तो ३५०० मीटर की ऊँचाई से अभ्यस्त हुआ हुँ| अब सम्भवत: परेशानी नही आएगी| लेकिन चढाई का क्या करें? पहले एक विचार था कि, खर्दुंगला सीधा जाने के बजाय दो चरणों में जाऊँ| खर्दुंगला रोड़ पर लेह के पच्चीस किलोमीटर आगे साउथ पुल्लू आता है और वहाँ से पन्द्रह किलोमीटर आगे खर्दुंगला| साउथ पुल्लू तक तो मै कैसे भी‌ पहुँच ही जा सकता हुँ|‌ पहले दिन साउथ पुल्लू जा कर दो- तीन घण्टे रुकूँगा, ऐसा विचार था| साउथ पुल्लू की ऊँचाई करीब ४८०० मीटर होगी| वहाँ‌ कुछ समय बिताने से उस ऊँचाई का शरीर को अभ्यास हो जाता| फिर दूसरे दिन खर्दुंगला|‌ इससे शरीर को आबो हवा के अनुरूप स्वयं‌ को ढालने का अवसर मिलता|‌ लेकिन अब सम्भवत: मौसम खराब ही‌ चल रहा है| तो एक ही‌ दिन में खर्दुंगला जाने का प्रयास करूँगा| खर्दुंगला तक पहुँचने की सम्भावना बहुत क्षीण है|

आज भी मौसम खराब है|‌ यहाँ से शान्ति स्तुप का बिन्दु दिखाई देता है और उसके ठीक उपर खर्दुंगला के बर्फाच्छादित पहाड़| आज लेह में‌ नेट कॅफे में‌ मनाली रोड़ के अपडेटस देखे| कुछ वाहन अब मनाली से लेह के लिए निकल रहे हैं| पर फिर भी‌ दो- तीन दिन और लगेंगे| और सड़क पूरी खुलने के एक- दो दिन बाद होटल और तम्बूवाले लोग आ जाएँगे|‌ या शायद वे बारालाच्छाला के दोनो तरफ पहुँच भी गए होंगे| पहले मिलिटरी सड़क की ट्रायल लेगी‌ और फिर जनता के लिए सड़क खुलेगी|‌ शुरुआत में‌ लँड स्लाईड हो सकते हैं‌|‌ इसलिए आधिकारिक रूप से खुलने का इन्तजार करना ठीक होगा|‌ अर्थात् मनाली से जाना अभी नही होगा| क्यों कि मेरा १९ जून को अम्बाला से टिकट है| दो- तीन दिन बाद रोड़ खुलेगा तो मै समय रहते नही‌ पहुँच पाऊँगा| वैसे नीरज जी बार बार कह रहे हैं कि तुम जा सकते हो; जाओ! लेकिन हिम्मत नही हो रही‌ है| एक तरह से शारीरिक थकान के साथ मानसिक ऊर्जा भी‌ क्षीण हो गयी है| अन्दर से जो आदेश मिलना चाहिए; वह नही‌ मिल रहा है| वैसे तो कौनसी भी चढाई हो; मेरी क्षमता तो बनती‌ है| साईकिल पर नही; पैदल ही सही| वह कहानि याद आती है|

पुराने जमाने में एक बार एक नौजवान पहाड़ी पर स्थित दुर्गम मन्दीर को देखने के लिए निकला| उसके गाँव से वह मन्दिर बहुत दूर था इसलिए सुबह तीन बजे ही वह निकला| उसके हाथ में एक लालटेन था| जैसे ही वह आगे निकला; उसने देखा कि लालटेन की रोशनी चार कदम तक ही पहुँच रही है| उदास हो कर वह बैठ गया| कुछ ही‌ देर में वहाँ से एक फकिर निकला| फकिर के पास तो और भी छोटी मोमबत्ती थी| उसे ले कर ही वह अन्धेरे में जा रहा था| नौजवान ने चौंक कर उसे रोका| फकिर ने बात सुनी और कहा कि, तुम्हारे पास तो मुझसे बड़ी रोशनी है| तुम काहे बैठ गए? चलो, निकलो| नौजवान ने कहा, कैसे आगे जाऊँ? मिलों अन्धेरा है| फकिर बोला, जैसे तुम दो कदम आगे जाओगे; वैसे ही रोशनी भी दो कदम आगे जाएगी| तुम बस चलते रहना; रोशनी तुमसे दो कदम आगे ही रहेगी| कहानि बड़ी सच है और कड़वी भी| यह सभी के मन्जिल की कहानि है| कुल मिला कर सिर्फ एक कदम उठाने की हिम्मत चाहिए| बस्स| लेकिन अब यह कहानि भी मुझे प्रेरित नही कर पायी|

..त्सोमोरिरी और पेंगाँग जीप में‌ शेअरिंग में जाने के लेह में‌ पूछताछ भी की| जीपें‌ तो जा रही हैं, पर एक व्यक्ति को शेअरिंग में जाने के लिए जगह तुरन्त नही उपलब्ध है| इसलिए वह विकल्प भी जाता रहा| वैसे भी मुझे साईकिल के बिना जीप में जाने की इच्छा नही हो रही थी| अब बस खर्दुंगला कर के वापस निकलूँगा| खर्दुंगला... लेकिन मेरी जाने की उतनी ज़िद नही है| चुनौति या प्रतिस्पर्धा मन में नही है| घूमते घूमते सहजता से जाना है| जा सका तो ठीक| नही जा सका तो भी ठीक| जितना लदाख़ देखने को मिलेगा, उतना प्रसाद स्वरूप है| जो देखने को मिला, वही कितना अथाह है!

९ जून को बहुत जल्द उठा| पाँच बजे बाहर आ कर आसमान देखा| साफ मौसम की अपेक्षा है| लेकिन यह क्या? पूरे आसमान में बादलों का डेरा! कुछ देर प्रतीक्षा की| पूरा आसमान बादलों से घिरा है| पहाडों पर बारीश और बरफ गिर रही है| थोड़ी देर रूका| लेकिन जल्द ही बूँदाबाँदी शुरू हुई| खर्दुंगला की योजना भी ऐसे मौसम में व्यर्थ हुई| ऐसे मौसम में निकलता तो ऊँचाई पर भीगना पड़ता और बरफबारी में जाना पड़ता| उतनी हिम्मत नही हुई| वैसे भी ऐसे मौसम में उपर रोड़ की कंडिशन भी बदल सकती हैं| ५००० मीटर ऊँचाई पर मौसम कभी भी बदल सकता है| जाते है; कुछ डेअरडेविल जरूर जाते हैं| नीरज जाट जरूर जाते हैं| लेकिन मै? ना| हिंमत नही हुई| एक तरह से अब लग रहा है चलो; बहुत हो गया| अब कही नही जा सकता हुँ; तो लेह में रूक कर क्या करूँगा? आगामी दिनों के लिए मौसम का अनुमान भी ऐसा ही है| उसमें तुरन्त सुधार होने की सम्भावना कम ही है| अभी हाथ में और बहुत दिन हैं; लेकिन अब रूकने का मन नही हो रहा है| बल्कि कल ही जम्मू के लिए निकल जाऊँगा| वापसी का तिकिट जल्द बनाने का जुगाड़ करूँगा| पीछली बार भी लदाख़ से ऐसे ही वापस जाना पड़ा था| उस समय सियाचेन बेस कँप जाने की इच्छा पूरी नही हो पायी| वापस मनाली रोड़ से आना था; लेकीन वह भी भारी बारीश में बन्द हुआ| इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है| लेकिन नजारे इस बार ज्यादा गहराई से देखने में आए|

जुले लदाख़! लदाख़ से निकलने की घड़ी पास आने पर वाकई बहुत दुख हो रहा है| मौसम और मेरी तैयारी की कमी के कारण और आगे नही जा सका इसका खेद है| पर उतना नही|‌ मेरी साईकिल यात्रा सिर्फ मेरी नही थी| बल्कि सच कहूँ तो मेरी तो थी ही नही| कई लोगों के सहयोग के कारण; कई लोगों ने मेरे लिए जो कुछ किया; जैसे जैसे सब हुआ; उन सब के कारण यह यात्रा सम्भव हुई| मेरी नजर में इसमें 'मेरा' कुछ भी नही है| एक तो किस्मत होती है| घटनाएँ घटित होती है| मै तो इसे एक संयोगवश सत्य हुआ सपना ही कहूँगा| मुझे किस्मत से सभी इनपुटस मिलते गए; सब चीजें होती रहीं| मेरी यात्रा बस एक जोड़ है| सब चीजें‌ इधर उधर से आयी| पहाड़ भी मिट्टी के होते हैं और इन्सान भी मिट्टी का ही बना हुआ होता है| कोई आश्चर्य नही है कि इन्सान भी पहाड़ के पास पहुँच जाए| जो प्रकृति बाहर है; वही भीतर भी है; इसलिए मेल होना सहज सम्भव है| युरोपीय सन्त जॉर्ज गुरजीएफ ने कहा था कि हम जिसे 'वास्तव जीवन' कहते हैं; वह भी वस्तुत: एक सपना (माया) होता है| यहाँ जो नजारे देखने में आए उन्हे याद करते हुए लग रहा है कि, वाकई, वह एक सपना ही है!

नजरों में हो.. गुजरता हुआ.. ख़्वाबों का कोई काफ़ि-"ला".. यह सब सपना ही तो है! 
























































इस यात्रा के फोटोज - पार्ट १ और पार्ट २  

3 comments:

  1. Get the brain out of life as much as possible.. Percentages are all originating from there... Can you describe the joy you've had in percentages? 'On June 1 I had 70 pc happiness, on June 5, it increased to 90 pc and on June 8, it dipped to 50 pc.' Can you say so? No way. It's there or it's not there. So just bask in the glory of the moment.. It's been a wonderful and enriching journey for you.. Please don't mar it by finding successes and shortcomings therein... Again, when in your own eyes, nothing was 'yours' so chill.. Long and short is, let the heart sing its favourite song and let the brain play a second fiddle....

    ReplyDelete

आपने ब्लॉग पढा, इसके लिए बहुत धन्यवाद! अब इसे अपने तक ही सीमित मत रखिए! आपकी टिप्पणि मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है!