०. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना
१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू
२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला
३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह....
४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन
५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा
६ जून! आज लेह आए हुए पाँच दिन होंगे| लेह में इतने दिन रूकने का विचार नही था| फिर भी रूकना पड़ा| हिमालय में ऐसी यात्राओं में हमारी योजना धरी की धरी रह जाती है और जो जमिनी सच्चाई होती है, उसके ही आधार पर आगे बढ़ना होता है| जैसे यह करीब करीब स्पष्ट हुआ है कि मै मनाली रोड़ पर भी नही जा सकूँगा और त्सो मोरिरी की तरफ भी नही बढ़ पाऊँगा तो अब एक ही चुनौति बची है| खर्दुंगला! उसे दुनिया की सबसे ऊँची मोटरेबल सड़क कहा जाता है| लेकिन यह वास्तव में सबसे ऊँची मोटरेबल सड़क नही है| क्योंकि लदाख़ में ही और इससे ऊँचा ऐसा एक 'ला' है जो जीपेबल है| और तिब्बत में भी इससे अधिक ऊँचाई की सड़के हैं| खर्दुंगला लेह से मात्र ४० किलोमीटर की दूरी पर है| लेकिन लेह से खर्दुंगला तक चढाई करीब २१०० मीटर है क्योंकि खर्दुंगला ५६०५ मीटर ऊँचाई पर है| लेह में आने के तुरन्त बाद खर्दुंगला जाने की इच्छा थी; पर इस मौसम से शरीर का अच्छा तालमेल होने के लिए रूका| अब अगर मनाली और त्सोमोरिरी की तरफ नही जा सकता हुँ तो खर्दुंगला तो जाना ही चाहिए|
कहना होगा शायद मै कुछ भय के कारण भी मनाली और त्सोमोरिरी रोड़ पर नही जा पा रहा हुँ| मनाली रोड़ तो खैर अभी ६ जून तक खुला भी नही है; पर त्सोमोरिरी रोड़ पर जाने के लिए ठण्ड और मौसम के अलावा बाधा कुछ भी नही है| हाँ, एक दिक्कत ज़रूर है कि बीच में गाँव बहुत थोड़े ही है और वे भी सुदूर हैं| यानी एक दिन में कम से कम साठ- सत्तर किलोमीटर साईकिल चलानी पड़ेगी| और तपमान दिन का भी सम्भवत: शून्य के करीब होगा| इतनी विषम परिस्थिति के लिए तैयार न होने के कारण मै जा तो नही पाया| लेकिन इसका मलाल रहेगा| शायद मैने इसके पहले हिमालय में एक भी ४५०० मीटर ऊँचाई का ट्रेक किया होता या कभी ऐसी ऊँचाई पर तम्बू में रहा होता; तो मै नि:सन्देह यहाँ भी आगे जा पाता| अभी उसकी हिम्मत नही हो रही है| एक तरह से सिढी के मै नीचले पायदान पर हुँ| इस वजह से इतनी बड़ी छलाँग नही लगा पा रहा हुँ| अगर दो पायदान और उपर होता; तो आगे बढ़ पाता| खैर|
अगला भाग: साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!!
१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू
२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला
३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह....
४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन
५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा
६ जून! आज लेह आए हुए पाँच दिन होंगे| लेह में इतने दिन रूकने का विचार नही था| फिर भी रूकना पड़ा| हिमालय में ऐसी यात्राओं में हमारी योजना धरी की धरी रह जाती है और जो जमिनी सच्चाई होती है, उसके ही आधार पर आगे बढ़ना होता है| जैसे यह करीब करीब स्पष्ट हुआ है कि मै मनाली रोड़ पर भी नही जा सकूँगा और त्सो मोरिरी की तरफ भी नही बढ़ पाऊँगा तो अब एक ही चुनौति बची है| खर्दुंगला! उसे दुनिया की सबसे ऊँची मोटरेबल सड़क कहा जाता है| लेकिन यह वास्तव में सबसे ऊँची मोटरेबल सड़क नही है| क्योंकि लदाख़ में ही और इससे ऊँचा ऐसा एक 'ला' है जो जीपेबल है| और तिब्बत में भी इससे अधिक ऊँचाई की सड़के हैं| खर्दुंगला लेह से मात्र ४० किलोमीटर की दूरी पर है| लेकिन लेह से खर्दुंगला तक चढाई करीब २१०० मीटर है क्योंकि खर्दुंगला ५६०५ मीटर ऊँचाई पर है| लेह में आने के तुरन्त बाद खर्दुंगला जाने की इच्छा थी; पर इस मौसम से शरीर का अच्छा तालमेल होने के लिए रूका| अब अगर मनाली और त्सोमोरिरी की तरफ नही जा सकता हुँ तो खर्दुंगला तो जाना ही चाहिए|
कहना होगा शायद मै कुछ भय के कारण भी मनाली और त्सोमोरिरी रोड़ पर नही जा पा रहा हुँ| मनाली रोड़ तो खैर अभी ६ जून तक खुला भी नही है; पर त्सोमोरिरी रोड़ पर जाने के लिए ठण्ड और मौसम के अलावा बाधा कुछ भी नही है| हाँ, एक दिक्कत ज़रूर है कि बीच में गाँव बहुत थोड़े ही है और वे भी सुदूर हैं| यानी एक दिन में कम से कम साठ- सत्तर किलोमीटर साईकिल चलानी पड़ेगी| और तपमान दिन का भी सम्भवत: शून्य के करीब होगा| इतनी विषम परिस्थिति के लिए तैयार न होने के कारण मै जा तो नही पाया| लेकिन इसका मलाल रहेगा| शायद मैने इसके पहले हिमालय में एक भी ४५०० मीटर ऊँचाई का ट्रेक किया होता या कभी ऐसी ऊँचाई पर तम्बू में रहा होता; तो मै नि:सन्देह यहाँ भी आगे जा पाता| अभी उसकी हिम्मत नही हो रही है| एक तरह से सिढी के मै नीचले पायदान पर हुँ| इस वजह से इतनी बड़ी छलाँग नही लगा पा रहा हुँ| अगर दो पायदान और उपर होता; तो आगे बढ़ पाता| खैर|
लेह में कुछ दिन रूकने से एक आलस भी आ गया है| और मन भी मना कर रहा है| जैसे ही तीन दिन की साईकिलिंग के बाद मन को टिकने के लिए एक जगह मिल गई; रजाई मिल गयी; रहने का इन्तजाम हो गया; मन आलसी हो गया है| इस कमरे से आसक्त हो गया है| यहीं से निकलने के लिए भी राजी नही हो रहा है! लेकिन नही| आगे जाना है|
६ जून की सुबह भी कुछ भी अलग नही थी| कल शाम बारीश हुई थी और सुबह भी बारीश के आसार थे| कुछ पलों के लिए बादलों में गड़गडाहट भी हुई| जब भी लदाख़ के लोग गड़गडाहट सुनते हैं वे कुछ डरते हैं| क्यों कि पहले अर्थात् क्लायमेट चेंज/ ग्लोबल वॉर्मिंग के पहले यहाँ बरसात बहुत विरली थी| लदाख़ में जल का मुख्य स्रोत पहाड़ी नदियों का पानी और बरफ गिरने के बाद आनेवाला पानी ही है| अर्थात् पहाड़ का बरफ ही पानी का स्रोत है| गर्मियों में बरफ पीघलती हैं और जल धाराएँ निकलती हैं| सिन्धू, जांस्कर, श्योक आदि नदियाँ गर्मियों में बहती है और जाड़े में अधिकतर रूप से जमीं रहती है| बारीश और मान्सून यहाँ बहुत ही कम आता है|
लेकिन पीछले कुछ सालों से हिमालय की ऊँची चोटियाँ लाँघ कर मान्सून भी यहाँ आ रहा है और उससे नुकसान ही हो रहा है| १० अगस्त २०१० को लेह के पास क्लाउडबर्स्ट हुआ| बादल गरजने पर लोगों को उसीकी याद आती है| उस समय बहुत तबाही हुई थी| उसके बाद लदाख़ में भी बारीश बार बार होने लगी| यह लिखने के समय में भी पहाड़ी राज्यों में बारीश का कहर शुरू हो गया है| जम्मू- श्रीनगर रास्ता बन्द हुआ है| चार धाम यात्रा स्थगित की गई है| वैसे तो लदाख़ को हिमालय पार की धरती (ट्रान्स हिमालयन रिजन) कहा जाता है| भौगोलिक रूप से यह तिब्बत के प्लेटू से जुड़ा है| लेकिन वहाँ भी अब मैदानों जैसी बरसात होने लगी है| इससे सवाल उठता है कि फिर लदाख़ जाने का सबसे अच्छा मौसम कौनसा है? जून से अक्तूबर तक ही अधिकतर लदाख़ी सड़के खुली रहती हैं और मौसम भी थोड़ा गर्म होता है| लेकिन अब इन चार महिनों में भी बारीश की वजह से रुकावट आती है| पीछली बार २०११ में अगस्त में आए थे; तब भी मनाली रोड़ बन्द हुआ था| जैसे जून महिना समाप्त हो रहा है; मान्सून ने लदाख़ जानेवाली हिमाचल और कश्मीर की सड़कों पर दस्तक दी है| इसलिए लदाख़ की कनेक्टिव्हिटी सिकुड़ सी गयी है| इस बार अगस्त के बजाय जून की योजना बनायी; क्यों कि मान्सून शुरू होने से पहले यात्रा पूरी करना चाहता था| लेकिन इसका खामियाजा यह रहा की मनाली लेह रास्ता ही बन्द मिला| अगर जुलाई- अगस्त में आता तो तकनिकी रूप से सड़कें खुली मिलती| लेकिन फिर मान्सून का कहर; वेस्टर्न डिस्टर्बन्स से क्लाउड बर्स्ट और लँड स्लाईड की सम्भावना| फिर जैसे लदाख़ी गर्मी का सीजन आगे बढ़ता है; पहाड़ से बरफ पीघल कर नीचे आता है| उससे सड़कों पर बड़े खतरनाक नाले बहने शुरू होते हैं| संक्षेप में कहना होगा कि लदाख़ आने की विंडो छोटी हो रही है| और उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा किस्मत भी है| आप जिस रोड़ पर और जिस क्षेत्र में जा रहें हो, वहाँ सड़कें तो खुली होनी ही चाहिए; लेकिन लँड स्लाईड नही होना चाहिए; भीषण बरफ नही गिरनी चाहिए| और क्लायमेट चेंज तथा ग्लोबल वॉर्मिंग के बाद मौसम और भी बदल गया है| खैर|
... सुबह अचानक दस बजे मौसम बदल गया| देखते देखते धूप खिली और आधा आसमान साफ हुआ| आज जरूर दूर साईकिल पर जा सकता हुँ| खर्दुंगला के अलावा एक जगह जाना बाकी है| जैसे खर्दुंगला सबसे ऊँचे स्थानों में से एक है; वैसे ही यह जगह भी अनुठी है| लदाख़ का सबसे बड़ा गोंपा- हेमिस! उससे खर्दुंगला जाने के पहले थोड़ा वार्म अप भी हो जाएगा| हेमिस गोंपा मनाली रोड़ पर स्थित कारू से सांत किलोमीटर दूर है और चोगलमसर से करीब छत्तीस किलोमीटर है| वहाँ कुछ चढाई भी है| अभी साढे दस बजे है| अभी निकला तो शाम तक वापस आ सकता हुँ| एक पल के लिए लगा कि यह भी गँबल तो नही! लेकिन अन्दर से आवाज आयी मौसम इतना बदल गया है तो यह मौका मत चूँकना| थोड़ी ही देर में मै बाहर था|
यहाँ से शे, ठिकसे, स्टॅक्ना और कारू के रास्ते हेमिस गोंपा! यह सड़क सिन्धू नदी के साथ साथ ही जाती है| वाकई इस लदाख़ यात्रा को सिन्धू यात्रा भी कहा जा सकता है| रास्ते में शे और ठिकसे के पॅलेस पीछले बार भी देखे थे और उतने आकर्षक नही लगे थे| इसलिए बाहर से ही उन्हे जुले जुले किया और आगे बढ़ता गया| इस सड़क की खास बात यह है कि बस्ती करीब करीब चलती ही रहती है| जैसे हम केरला के गाँवों में देखते हैं कि गाँव कहीं भी खत्म ही नही होते हैं| एक गाँव खत्म होने से पहले ही दूसरा शुरू! यहाँ भी वैसा ही है| स्टॅक्ना के बाद कुछ विराना मिला| नजारे तो अनुठे हैं ही| वैसे तो लदाख़ का अनुभव अनकहा और अनसुना है| फोटो, व्हिडिओ या शब्द बहुत ही थोथे हैं| कहाँ सूरज और कहाँ उसका प्रतिबिम्ब! खैर|
कारू के पहले एक विशेष स्थान है| यहाँ शिन्दे मोड़ नाम का एक फलक है| पीछली बार हम लोग जब आए थे; तब हमारे ड्रायव्हर ने उसकी कहानि बतायी थी| वह अब भी जेहन में ताजा है! हमारे तब के ड्रायव्हर हैदरभाई ने बताया था कि, एक मिलिटरी का अफसर था शिन्दे| सड़क के इसी स्थान पर एक दुर्घटना में वह चल बसा| उसके बाद मध्य रात्रि को जो गाडियाँ यहाँ से जाती हैं; उनमें से कुछ लोगों ने उसे देखा है! जब गाड़ी में अकेला ड्रायव्हर हो; तो वह 'शिन्दे मोड़' के पास गाड़ी में पहुँच जाता है और ड्रायव्हर की बगलवाली सीट पर बैठ कर सिर्फ सिगारेट माँगता है| करता कुछ भी नही| लेकिन मिलता जरूर है| हैदरभाई ने कहा था कि एक ड्रायव्हर को विश्वास न हुआ और वह देर रात लेह से इस कहानि की तह तक पहुँचने के लिए निकला! और उसे अफसर शिन्दे मिला! तबसे सभी ड्रायव्हर्स इसे मानते हैं| तब सड़क पर स्पष्ट लिखा भी था- शिन्दे मोड| और मज़े की बात यह है कि तब जब हम त्सोमोरिरी से लौट रहे थे; तो कारू पहुँचने के लिए ही साढे आठ बज चुके थे| हम लोग अकेले तो नही थे; लेकिन संयोग से मैं ही हैदरभाई के पास बैठा था| और हो न हो, हमें शिन्दे मोड़ के पास सड़क पर मिलिटरी का एक अफसर मिला! और वह भी अप्रत्याशित रूप से सड़क पर पालथी मार कर बैठा था| जैसा भोजन के लिए बैठा हो| और वह भी सड़क के बीचोबीच| हैदरभाई ने बड़ी चतुराई से गाड़ी घुमाई थी| उस समय गाड़ी के भीतर का माहौल अब भी भूला नही हुँ!!! और दूसरी मज़े की बात यह है कि जब देर रात मैं चोगलमसर पहुँच रहा था; तब प्रोद्युतजी मुझे और आगे आने के लिए कह रहे थे! उस समय भी एक पल के लिए लगा, कि वे अब कितना आगे बुलाएँगे! शिन्दे मोड़ आ गया तो? उस रात सड़क पर जागते हुए भी मुझे शिन्दे की प्रतीक्षा थी! लेकिन वह नही आया!
तो अब कारू के पहले इस शिन्दे मोड़ से जाना है| यहाँ सिन्धू नदी के साथ जानेवाली सड़क के कुछ घुमाव हैं| देखता रहा, देखता रहा, करीब शिन्दे मोड़ का स्थान आया, कारू करीब आ गया फिर भी शिन्दे मोड़ नही दिखा| शायद बीआरओ ने अब वह बोर्ड हटा दिया होगा| खैर| कारू पहुँचने के लिए ही तीन घण्टे लगे| यहाँ से एक सड़क चांगला के रास्ते पेंगाँग त्सो की ओर जाती है| एक सड़क उपशी के रास्ते मनाली जाती है| यहाँ आलू पराठा अच्छा मिला| अब यहाँ से हेमिस| सिन्धू नदी का और सुन्दर नजारा! यहाँ एक विदेशी साईकिलबाज भी मिला| वह बिना रूके आगे चला गया| वह भी हेमिस जा रहा है| लेकिन कारू के बाद के सांत किलोमीटर चढना लोहे के चने चबाने जैसा लगा| पहले दो किलोमीटर तक तो सड़क ठीक है; लेकिन उसके बाद तेज़ चढाई शुरू होती है| थोड़ी ही देर में पैदल यात्रा शुरू हुई| “सजन रे झूठ मत बोलो; खुदा के पास जाना है| हाथी न घोड़ा है बस पैदल ही जाना है!”
कारू से हेमिस जाने के लिए डेढ घण्टा लगा| और ऊर्जा स्तर बिल्कुल ही कम होता गया| बीच में खेतों में लदाख़ी किसान मिले| उन्होने हौसला दिया| बैलों के साथ खेती कर रहे किसान लदाख़ी गीत गा रहे हैं| जून से अक्तूबर के चार महिने ही लदाख़ में सबसे अधिक गतिविधि होती है| यहाँ ऊँचाई ३५०० मीटर के करीब है| इसलिए थोड़ी खेती हो सकती है| दूर विदेशी साईकिलबाज आगे जाता दिखाई दे रहा है| जरूर वह पैदल नही जा रहा| हेमिस आने के ठीक पहले वह वापस जाता भी दिखा| हाथ और मुस्कुराहट से अभिवादन हुआ|
हेमिस गोंपा! ख्रिश्चन मान्यता में जीसस क्राईस्ट आयु १८ से ३० के बीच कहाँ था, इसका कोई प्रमाण नही है| उनके जीवन के इस समय के बारे में ख्रिश्चन शास्त्र मौन है| परमहंस योगानन्द और ओशो जैसे ज्ञानीयों ने कहा है कि जीसस इस समय में पूरब में आए थे और भारत तथा तिब्बत में उन्होने ज्ञान प्राप्त किया| इसी कारण से उनकी देशना परंपरागत यहुदी विचारधारा से अलग हुई और अन्तत: उन परंपरागत यहुदियों ने ही उन्हे सूली चढाया| परमहंस योगानन्द और ओशो कहते हैं कि जीसस १८ से ३० साल के बीच भारत में कश्मीर और तिब्बत में आए थे| इतना ही नही, जीसस को सूली चढाने के बाद उनकी मृत्यु नही हुई थी और वे बाद में भी भारत आए थे| कहा जाता है कि गौतम बुद्ध, झरतुष्ट्र, मोझेस, लाओत्से, बोधिधर्मा इन परमज्ञानियों के तरह जीसस ने भी अपनी जीवन यात्रा हिमालय में ही समाप्त की| इसका प्रमाण कश्मीर के पहलगाम में है जहाँ यहुदियों का एक प्राचीन कबीला अब भी बंसा है| पहलगाम में जीसस के कुछ निशान भी है ऐसा कहा जाता है| उल्लेखनीय है कि परमहंस योगानन्द और ओशो के अनुसार जहाँ जीसस ने ज्ञान प्राप्त किया, उन स्थानों में एक स्थान हेमिस गोंपा भी है| उसके बारे में स्वामी अभेदानन्द ने रिसर्च भी किया था और उसकी कुछ जानकारी इंटरनेट पर देखी जा सकती है| हो ना हो; कई ज्ञानी मानते हैं कि जीसस को ज्ञान पूरब से मिला था| इस बात को मानना जरूरी नही है; बस ऐसा कई लोग कहते हैं, इतना समझना पर्याप्त है| खैर|
हेमिस पहुँचने पर ऊर्जा स्तर इतना कम हुआ है कि लग रहा है लिफ्ट ले कर ही वापस जाऊँ| कई व्हॅन्स वापस जा रही है| लेह में हेमिस जाने के पहले कुछ लोगों ने बताया था कि हेमिस गोंपा इतनी सम्पन्न है कि यदि जम्मू- कश्मीर सरकार के पास धन ना हो; तो पूरे राज्य का कारोबार यह अकेली गोंपा एक साल तो सम्भल ही सकती है| हेमिस गोंपा अब तक के गोंपाओं से अलग लगी| विशाल बुद्धमूर्ति और पहाड़ के बीचोबीच! अन्दर म्युजिअम भी है| दोपहर के साढेतीन हुए है इसलिए अधिक समय नही है| जैसे निकला तो लगा कि चलो कारू तक ढलान ही है| साईकिल पर ही चलते हैं| कारू में फिर खाना खाने के बाद ऊर्जा आयी| अभी साढेचार हुए हैं| तीन घण्टों में पहुँच जाऊंगा| रोशनी रहते चोगलमसर पहुँच जाऊँगा| आगे बढ़ा| शिन्दे मोड़ के पास जाते समय एक बोर्ड मिला| कॅप्टेन आर. शिन्दे का एक स्मरण चिह्न| शायद 'शिन्दे मोड़' बोर्ड को निकाल दिया है| खैर|
वापस जाते समय भी बारीश बिल्कुल नही हुई| मात्र एक चाय विश्राम ले कर यात्रा पूरी हुई| जहाँ चाय ली, वहाँ दो बच्चों ने भी साईकिल चलायी| ठिकसे के पास अद्भुत इन्द्रधनुष दिखा| अन्धेरा तो दूर; सूरज ढलने के पहले ही सांत बजे चोगलमसर पहुँच गया| कहने की आवश्यकता नही है कि चोगलमसर की छोटी सी चढाई ने भी परेशान कर दिया| प्रोद्युत जी की रूम तक तो ऊर्जा रही| उसके बाद जो थकान लगी वह अगले दिन उठने तक जारी रही| कुछ बुखार जैसा भी लग रहा है| साईकिलिंग के शुरुआती दिनों में बड़ी यात्रा के बाद थोड़े समय बुखार जैसा लगता था| खैर| रात में मन के विरुद्ध थोड़ा खाना खाया| इतनी थकान के बाद कल की यात्रा के बारे में कुछ भी सोचना सम्भव न हुआ| आज करीब बहत्तर किलोमीटर साईकिल चलायी| और कारू जा कर आया; तो कहने के लिए कह सकता हुँ कि मैने भी 'मनाली- लेह रोड़' पर साईकिल चलायी है! हा हा!
जैसे... बरसों में कोई... सिन्धू नहाए... धूल सा गया है ये मन खुल सा गया हर बन्धन... जीवन अब लगता है पावन मुझको. . . . |
आज कुल लगभग ११०० मीटर चढाई| जाते समय अधिक चढाई; आते समय अधिक उतराई| |
अगला भाग: साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!!
वाह !
ReplyDeleteबहुत सुंदर ।
Amazing ... जितने सुंदर चित्र उतना ही सुंदर और जीवंत वर्णन ... आगे बढ़ते रहो। हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteSimply amazing...Salute man!
ReplyDeleteNice.. It takes quite something to talk about our hesitations... Eager to read the next part....
ReplyDeleteखूप छान व न विसरता येणारा सायकल प्रवास
ReplyDeleteखूप छान व न विसरता येणारा सायकल प्रवास
ReplyDeleteसुंदर और जीवंत वर्णन .
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