प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका
प्रकृति, पर्यावरण और हम ३: आर्थिक विकास का अनर्थ
प्रकृति, पर्यावरण और हम ४: शाश्वत विकास के कुछ कदम
प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा
प्रकृति, पर्यावरण और हम ६: फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग
प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!
प्रकृति, पर्यावरण और हम ८: इस्राएल का जल- संवर्धन
दुनिया के प्रमुख देशों में पर्यावरण की स्थिति
इस्राएल की बात हमने पीछले लेख में की| इस्राएल जल संवर्धन का रोल मॉडेल हो चुका है| दुनिया में अन्य ऐसे कुछ देश है| जो देश पर्यावरण के सम्बन्ध में दुनिया के मुख्य देश हैं, उनके बारे में बात करते हैं| एनवायरनमेंटल परफार्मंस इंडेक्स ने दुनिया के १८० देशों में पर्यावरण की स्थिति की रैंकिंग की है| देशों में पर्यावरण का कार्य कैसे चल रहा हैं, इसका यह एक मापदण्ड कहा जा सकता है| इस रैंकिंग में सबसे उपर के पाँच देश ये हैं- फिनलैंड, आईसलैंड, स्वीडन, डेन्मार्क और स्लोवेनिया| और जो सबसे नीचले देश हैं वे ऐसे हैं- अफघनिस्तान, नायजर, मादागास्कर, एर्ट्रिया और सोमालिया| विशेष बात यह है कि जो देश सबसे उपरी हैं उनमें पाँच देश उत्तर युरोप के प्रगत देश हैं और सिर्फ स्लोवेनिया उनकी तुलना में थोड़ा कम प्रगत देश है| और सबसे नीचे होनेवाले देश मुख्य रूप से राजनीतिक अस्थिरता होनेवाले देश हैं| सौभाग्य की बात है कि इस देश में सबसे नीचले देशों की सूचि में भारत नही हैं| इस रैंकिंग के कई निकष हैं- जैसे सरकार पर्यावरण के लिए कितनी प्रतिबद्ध हैं, प्रदूषण का स्तर कैसा हैं, कार्बन इमिशन्स कितने अनुपात में हैं, प्रजातियों के संवर्धन की क्या स्थिति है, पानी की एवलिबिलिटी कैसी हैं आदि|
इस सूचि को देख कर लगता है कि जो देश इसमें अग्रेसर हैं, उनमें ऐसे ही देश हैं जहाँ प्रकृति की सम्पदा पहले से अपार है, जनसंख्या कम है और राजनीतिक संकट भी नही है| और साथ में शिक्षा, साफ- सुथरी सोच, प्रगतीशिल समझ ये भी पहलू दिखाई देते हैं| आईसलैंड जैसा देश अपनी पूरी बिजली रिसायकलेबल स्रोतों से पैदा करता हैं| लेकिन आईसलैंड जनसंख्या के लिहाज़ से छोटा सा ही देश है और प्राकृतिक सम्पदा उस तुलना में अपार है| इन देशों का और एक पहलू बड़े उद्यमों का अभाव भी है| इसी के कारण शायद इस अग्रणि पाँच देशों में अमरिका, इंग्लैंड या जर्मनी नही है| बल्की वे देश हैं जो ज्यादा प्राकृतिक और कम मानवीय हैं| और भारत का नाम नीचले देशों में न होने का कारण भी यही होगा कि भारत में प्राकृतिक सम्पदा अपार है| उसका रखरखाव ठीक न होने पर भी प्रकृति की देन ही अत्यधिक है| अग्रेसर पाँच देश बहुत खास हैं| प्राकृतिक सम्पदा के साथ ये सभी देश ४५ अंश उत्तर से भी अधिक उत्तर में हैं| जबकी सबसे नीचले देश सब के सब अधिक जनसंख्या के, कम शिक्षा के और राजनीतिक अस्थिरता के हैं और इक्वेटर के ज्यादा पास भी है|
इन अनुकूलता और प्रतिकूलताओं के साथ इन देशों में किया जा रहा कार्य भी बहुत मायने रखता है| जिन लोगों ने इन देशों को देखा होगा, वे इस बात को बता सकते हैं| स्लोवेनिया जैसे देश में तो पर्यावरण के कानून पन्द्रहवी शताब्दि से चले आ रहे हैं| और दूसरी बात इन देशों के पास समझ तो हैं, प्राकृतिक सम्पदा भी हैं, मानवीय बर्डन कम हैं| इसलिए यहाँ इन्सान भी चैन से रहते हैं और प्रकृति का प्रबन्धन भी अच्छा करते हैं| यह करना सरल भी हैं| अगर बड़े पैमाने पर कुछ परिवर्तन करना हो, तो उसे थोड़े से ही व्यक्तियों द्वारा करने से बात बनती नही है| लेकिन जब पूरा का पूरा समाज शिक्षित हो; सजग हो; समझदार हो; सम्पन्न भी हो; तो यह बात बड़ी आसानी से बनती हैं| फिर उसके लिए कोई बहुत बड़ा श्रम नही करना होता है| उसका रास्ता बन जाता है|
हालाकि पर्यावरण के सम्बन्ध में पीछडे देशों में ठीक इसके विपरित स्थिति हैं| और यही सबसे बड़ी चुनौति हैं| क्यों कि ज्यादा तर देश ऐसी ही स्थितियों में हैं| जो देश स्वयं सम्पन्नता से दूर हैं, वह प्रकृति के बारे में सोच भी नही सकते हैं| और ऐसे देशों में भी अगर कुछ लोग सक्रिय हो, तो भी उनके प्रयास बहुत छोटे पड़ जाते हैं| व्यक्तिगत तौर पर प्रयास तो महत्त्वपूर्ण होते हैं, लेकिन व्यापक पैमाने पर उतने परिणाम नही ला सकते हैं| क्यों कि कोई दस- पन्द्रह या एकसौ पचास गाँवों में जल संवर्धन होने से कुछ फर्क नही पड़ता है| अगर परिवर्तन लाना है, तो उसके लिए हजारो या लाखो गाँवों में यह काम हो जाना चाहिए| और सिर्फ गाँवों में नही, शहरों में भी| सिर्फ पहाडों में नही, सभी जगहों पर| नदी का प्रबन्धन सिर्फ उसके उगम के पास के लोगों का दायित्व नही है बल्की जो लोग उस नदी से लाभ लेते हैं, उन सबका वह दायित्व है| तब जा कर सन्तुलन हो सकता है| लेकिन यह राह बिल्कुल आसान नही है| और काफी हद तक तो सम्भव भी नही है| क्यों कि जब पेड़ तोडने की व्हॅल्यू (रिएल इस्टेट बिल्डिंग) पेड लगाने से बहुत ज्यादा होगी, तब तक पेड़ कटने का पैमाना ज्यादा ही रहेगा| सिर्फ कुछ लोगों के प्रयासों से मौलिक परिवर्तन नही होगा|
इस पूरे विषय में अगर भारत की बात करते हैं, तो दिखाई देता है कि भारत में भी प्राकृतिक संवर्धन का मुख्य कार्य पहाडी इलाकों में और प्रकृति से जुड़े समूहों द्वारा ही किया जाता है| लेकिन समाज की मुख्य धारा उससे दूर ही है| जो समाज सम्पन्न नही हुआ है, उससे यह आशा भी नही की जा सकती है| इसलिए पहले सम्पन्नता अर्जित करना भी महत्त्वपूर्ण है| लेकिन फिर उसी से पर्यावरण पर और चोट भी पड़ती है| इसलिए सन्तुलिन विकास की धारणा अपनानी चाहिए| अगर इस दिशा में ठोस परिवर्तन लाना हो और आनेवाली पिढियों तक यह धरोहर आंशिक रूप से भी पहुँचानी हो, तो उसके लिए बहुत बुनियादी प्रयास करने होंगे| और वे भी सामुहिक स्तर पर| जीवनशैलि को बदलना होगा| बहुत कुछ बदलना होगा| और उसके लिए हमें कुछ अप्रिय प्रश्नों का सामना करना होगा और कुछ कटु उत्तर भी समझने होंगे| उसकी चर्चा अगले लेख में करते हैं|
सन्दर्भ: सायंटिफिक अमेरिकन
अगला भाग: प्रकृति, पर्यावरण और हम १०: कुछ कड़वे प्रश्न और कुछ कड़वे उत्तर
पढने के लिए और कमेंट के लिए धन्यवाद!
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