दोस्ती साईकिल से १: पहला अर्धशतक
दोस्ती साईकिल से २: पहला शतक
दोस्ती साईकिल से ३: नदी के साथ साईकिल सफर
दोस्ती साईकिल से ४: दूरियाँ नज़दिकीयाँ बन गईं. . .
सिंहगढ़ राउंड १. . .
एक माह में अच्छी साईकिलिंग होने के बाद अब सिंहगढ़ जाना है| इन दिनों मै जहाँ रहता हूँ- डिएसके विश्व, धायरी, वहाँ से सिंहगढ़ सिर्फ २१ किलोमीटर दूर है| यहाँ से दिखता भी है और बहुत पास लगता है| लेकिन बीच में बहुत बड़ी चढाई है| लगभग नौ किलोमीटर में ६०० मीटर ऊँचाई चढनी है| इसलिए पहले तो जाने की बिल्कुल हिम्मत नही होती थी| वैसे हिम्मत तो अब भी नही हो रही है; लेकिन अब साईकिल के साथ एक दिवानगी सी लग रही है| सिंहगढ़ के पास से जानेवाले रास्तों से कई बार गया| मै सिंहगढ़ को बस देखता रहा| सिंहगढ़ मुझे पुकारता रहा| आज वह दिन आया|
सिंहगढ़! महाराष्ट्र के इतिहास की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण स्थान! सत्रहवी शताब्दि में कितनी वीरता का अविष्कार यहाँ हुआ| छत्रपती शिवाजी द्वारा सिंहगढ़ को मुक्त किया जाना| फिर वह शत्रु के पास जाना और फिर १६७० में शिवाजी महाराज के स्वराज्य में उसका पुनरागमन! उसके लिए किया हुआ वीरतापूर्ण संघर्ष! जितना उसके बारे में सोचता हूँ, हैरान होता हूँ| और सिंहगढ़ की आज की स्थिति का क्या कहें? सिंहगढ़ का इलाका आज गलत कारणों से ही जाना जाता है| होटल, बार और कई अवैध काम वहाँ होते हैं| खैर| लेकिन इन सब के बावजूद आज सिंहगढ़ ट्रेकर्स और इतिहास प्रेमियों का तीर्थ स्थान है और आगे भी रहेगा|
१५ अक्तूबर की सुबह| सुबह सात बजे निकला| सुबह के वीराने में साईकिल चलाना अद्भुत अनुभव है! सुनसान सड़क और सिर्फ साईकिल के पहिए के घर्षण की मधुर आवाज! वाह! पहले ग्यारह किलोमीटर समतल सड़क है| छोटी चढाई और उतराई भी आती है| आधे घण्टे में खडकवासला डॅम के पास पहुँचा| स्वर्णिम नजारा! डॅम के पास धुन्द है! कुछ क्षण यहाँ रूका और आगे बढ़ा| मिलिटरी के एरिया से निकल कर सिंहगढ़ के बेस पर पहुँचा| यहाँ अच्छा नाश्ता किया| साथ में पानी की दो बोतल भी रखी हैं| उसके साथ बिस्कुट आदि भी रखा है| अब शुरू होती है असली चढ़ाई! एक सड़क पगडण्डी की ओर जाती है| कई लोग सिंहगढ़ पर पैदल भी जाते हैं| मै भी गया हूँ कुछ वर्षों पहले| पगडण्डी सीधी चढ़ती है और सड़क थोड़ी मूड मूड के उपर उठती है| दो साल पहले जब बाईक से लदाख़ जाने का सोचा था, तब प्रॅक्टिस इसी घाट में की थी| क्यों कि एक तो यह अच्छी चढाई है; सड़क भी थोड़ी डंवाडौल है| और इसका एलेवेशन इतना अधिक है कि इस पर बड़ी बस या ट्रक भी नही जाते हैं| सिर्फ छोटे वाहन और टेम्पो जाते हैं| इसलिए तब इस पर बाईक पर आया था| अब जैसे लदाख़ और साईकिल ने सम्मोहित किया है, तो उसके अभ्यास के लिए भी यही उचित स्थान है| या युं कहिए कि सिंहगढ़ पर साईकिल चलाना लदाख़ में साईकिल चलाने की कसौटी है| सिंहगढ़ में ९ किलोमीटर में ६३० मीटर चढाई है| जो कि खर्दुंगला के एक चौथाई आती है- खर्दुंगला में ४० किलोमीटर में २१०० मीटर की चढाई है और बाकी भी कई और चुनौतियाँ| लेकिन सिंहगढ़ उस चढाई की चुनौति की थोड़ी झलक जरूर देता है| अब देखते हैं|
कोहरे के बीच खडकवासला डॅम!
जैसे ही चढाई शुरू हुई, एकदम नीचले गेअर में साईकिल चलाने लगा| आधा किलोमीटर गया| फिर एक किलोमीटर गया| लेकिन अब साईकिल चला पाना बहुत कठिन हो रहा है| बड़ी मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर ही साईकिल चला पाया| उसके बाद फिर चलने की नौबत आयी| और वैसे भी साईकिल लगभग पैदल चलने की गति से ही चला पा रहा था| थोड़ी देर बाद फिर कोशिश की, लेकिन पैरों ने नही माना| ज़िद बेकार है| इसलिए चलना शुरू किया| पहले डेढ़ घण्टे तक लगभग बीस मिनट तक ही साईकिल चला पाया| उसके बाद "वहाँ हाथी न घोडा है, बस पैदल ही जाना है!”
बीच बीच में रूक कर विश्राम भी करना पड़ रहा है| थोड़ा थोड़ा पानी पी रहा हूँ| आगे बढ़ते हुए डर भी लग रहा है कि आते समय इतनी अधिक उतराई से साईकिल पर आना है| और चढाई जितनी बड़ी है, उतराई भी उतनी ही बड़ी होगी! अर्थात् साईकिल के दोनो ब्रेक काम में लगाने होगे| उससे भी थोड़ा डर लगा| लेकिन आगे बढ़ता गया| नजारे बेहद सुन्दर हैं| जैसे सड़क उपर उठती गई, खडकवासला डॅम का पानी भी दूर से दिखने लगा| एक ऊँचाई पर आने फिर से हम कहाँ से आते हैं, वह मार्ग दिखने लगता है. . खैर|
सिंहगढ़ पर आनेवाली सड़क और पीछे डॅम का पानी
अब सिंहगढ़ पास आ रहा है| आधी दूरी तय करने के बाद राहत के लिए दो किलोमीटर की हल्की सी ढलान आती है! दो किलोमीटर साईकिल अपनेआप ही चली| अब सिर्फ साढेतीन किलोमीटर दूरी है| लेकिन यही चरण सबसे कठिन लगा| बार बार रूकना पड़ा| पैदल जाना भी बहुत कठिन हुआ| वैसे तो पैदल चलने में चढाई से कोई फर्क नही आता है| पर यहाँ बड़ी ही देर लगी| आखिर कर साढ़े दस बजे गढ़ पर पहुँच गया| चढाई के नौ किलोमीटर को ढाई घण्टे लगे| साईकिल सिर्फ बीस मिनट चलायी थी! उपर पहुँचने के बावजूद मन में अशान्ति रही| अब यहाँ से उतरना जो है! उतरते समय भी साईकिलिंग की कसौटी है! क्यों कि चढाई जितना ही उतराई पर उतरना भी कठिन है|
सिंहगढ़ पर ज्यादा देर नही रूका| चाय पी कर पानी भर लिया और वापस मूड़ा| अभी उतराई का सामना है| दोनों ब्रेक लगा कर उतरने लगा| बीच बीच में जहाँ उतराई अधिक है, वहाँ पैदल उतर रहा हूँ| ब्रेक्स को भी बदल बदल कर विराम दे रहा हूँ ताकि वे गरम ना हो जाए| गति को कभी भी बढ़ने नही दिया| धीरे धीरे उतराई पार होती गई| ब्रेक्स को ब्रेक देते हुए आगे बढ़ा| बीच के दो किलोमीटर की हल्की चढाई सुखद लगी| अब बस दो कदम, थोड़ा और आगे ऐसा करते करते एक घण्टे में नौ किलोमीटर उतर गया| उतरने के बाद काफी सुकून मिला| और एक बड़ा नाश्ता किया और आगे बढ़ा| भोजन नही किया, क्युंकि अभी और ग्यारह किलोमीटर साईकिल चलानी है| आगे की यात्रा बहुत कठिन नही रही| दो घण्टे तक चला था, उससे शायद कुछ फायदा हुआ| चलना साईकिलिंग के लिए पूरक है|
सिंहगढ़ पहुँचती सड़क
सिंहगढ़ का क्लाइंब
अब जब मै दो साल बाद इस यात्रा का विचार करता हूँ, तब कई गलतियाँ दिखती है| सबसे बड़ी गलती यह थी कि मै बिल्कुल रेग्युलर नही था| जैसे ६ और ७ अक्तूबर को दो अर्धशतक किए थे| अच्छा टेम्पो मिला था| लेकिन उसके बाद अगले हप्ते में थोड़ी भी साईकिल नही चलायी| अगर रोज पन्द्रह किलोमीटर भी चलाता, तो सिंहगढ़ की इस राईड में और बेहतर चला पाता| दुसरी गलती यह थी कि साईकिलिंग के साथ पूरक व्यायाम- योगासन- प्राणायाम करने से काफी फर्क पड़ता है| वो मै नही के बराबर करता था| इस वजह से चढाई पर सिर्फ डेढ किलोमीटर ही चला पाया|
और कुछ गलतियाँ ऐसी होती है कि उन्हे सुधारना तो दूर, समझने के लिए भी पहले कई बार गलती करनी पड़ती है| अब जैसे पंक्चर निकालना ही लीजिए| जब तक आप दस बार पंक्चर गलत ढंग से नही निकालते हैं, तब तक उसे सही तरिके से कैसे ठीक करना है, यह पता ही नही चल सकता है| ये भी गलतियाँ कुछ ऐसी ही थी| साईकिलिंग जारी रखने के कारण धीरे धीरे वह समझ बढ़ती गई| और रेग्युलरिटी न होना काफी तकलीफ देता है| यह करीब करीब वैसा ही है जैसे अगर ट्रेन चल रही हो तो उसे चलाए रखने के लिए कम ऊर्जा लगती है| लेकिन प्लॅटफार्म पर खड़ी ट्रेन को चलायमान बनाने के लिए अधिक ऊर्जा लगती है| पूरी ट्रेन विरोध भी करती है जिसकी वजह से ट्रेन शुरू होते समय आवाज भी होता है| या बाईक के पहले और दूसरे गेअर में अधिक ताकत होती है; उसके तीसरे और चौथे गेअर तो सिर्फ गति देने का काम करते हैं| वैसे ही साईकिल का भी है| पहले दिन सुबह पाँच बजे उठ कर साईकिल बाहर निकालने में ही बड़ी दिक्कत होती है| दूसरे दिन यह आसान होता है; तीसरे- चौथे- पाँचवे दिन यह धीरे धीरे एफर्टलेस होता जाता है| मेरी गलती यह रही कि मै सिर्फ बड़ी राईड के बारे में सोचता रहा| छोटी दस- पन्द्रह किलोमीटर की राईड नियमित रूप से नही करता रहा| लेकिन गलती करना भी ठीक है, वह इंगित है कि कुछ सीखा भी जा रहा है| और गलतियों से डरना नही चाहिए| जो तैरने में गलती करने से डरता है, वह कभी तैरना नही सीख पाता है| खैर|
इस राईड में कठिनाईयाँ बहुत आयी, पर उससे मै अभी कहाँ हूँ, यह ख्याल भी आया| अगर मुझे लदाख़ में साईकिल चलानी है, तो अभी बहुत स्टॅमिना बढ़ाना होगा| मेरा इस समय का स्टॅमिना १५% भी नही होगा| यह स्पष्टता मिलना भी बड़ी सीख रही| इस यात्रा में एक बात और भी देखी| साईकिलिंग करने में बड़ा आनन्द आता है; मज़ा आता है| फिर भी साईकिलिंग करते समय मन वहाँ भी नही ठहरता है| जैसे शुरू में लग रहा था कि कब चढना शुरू करूँ, फिर लगा कि अरे पैदल चढ़ तो जाऊँगा, पर उतरते समय क्या हाल होगा| और उतरने के बाद लगा कि कब घर पहूँच जाऊँगा| मन हमेशा अस्वस्थ ही रहता है| पूरी राईड में बामुश्किल कोई क्षण होगा जब मन वाकई ठहरा हो और उस क्षण की सच्चाई में लीन हुआ हो. . .
यह यात्रा मेरे लिए बेसलाईन बनी| अच्छी बुनियाद बनी जिसके आधार पर आगे बढ़ सका और चुनौतियों का सामना कर सका|
अगला भाग ६: ऊँचे नीचे रास्ते और मन्ज़िल तेरी दूर. . .
दोस्ती साईकिल से २: पहला शतक
दोस्ती साईकिल से ३: नदी के साथ साईकिल सफर
दोस्ती साईकिल से ४: दूरियाँ नज़दिकीयाँ बन गईं. . .
सिंहगढ़ राउंड १. . .
एक माह में अच्छी साईकिलिंग होने के बाद अब सिंहगढ़ जाना है| इन दिनों मै जहाँ रहता हूँ- डिएसके विश्व, धायरी, वहाँ से सिंहगढ़ सिर्फ २१ किलोमीटर दूर है| यहाँ से दिखता भी है और बहुत पास लगता है| लेकिन बीच में बहुत बड़ी चढाई है| लगभग नौ किलोमीटर में ६०० मीटर ऊँचाई चढनी है| इसलिए पहले तो जाने की बिल्कुल हिम्मत नही होती थी| वैसे हिम्मत तो अब भी नही हो रही है; लेकिन अब साईकिल के साथ एक दिवानगी सी लग रही है| सिंहगढ़ के पास से जानेवाले रास्तों से कई बार गया| मै सिंहगढ़ को बस देखता रहा| सिंहगढ़ मुझे पुकारता रहा| आज वह दिन आया|
सिंहगढ़! महाराष्ट्र के इतिहास की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण स्थान! सत्रहवी शताब्दि में कितनी वीरता का अविष्कार यहाँ हुआ| छत्रपती शिवाजी द्वारा सिंहगढ़ को मुक्त किया जाना| फिर वह शत्रु के पास जाना और फिर १६७० में शिवाजी महाराज के स्वराज्य में उसका पुनरागमन! उसके लिए किया हुआ वीरतापूर्ण संघर्ष! जितना उसके बारे में सोचता हूँ, हैरान होता हूँ| और सिंहगढ़ की आज की स्थिति का क्या कहें? सिंहगढ़ का इलाका आज गलत कारणों से ही जाना जाता है| होटल, बार और कई अवैध काम वहाँ होते हैं| खैर| लेकिन इन सब के बावजूद आज सिंहगढ़ ट्रेकर्स और इतिहास प्रेमियों का तीर्थ स्थान है और आगे भी रहेगा|
१५ अक्तूबर की सुबह| सुबह सात बजे निकला| सुबह के वीराने में साईकिल चलाना अद्भुत अनुभव है! सुनसान सड़क और सिर्फ साईकिल के पहिए के घर्षण की मधुर आवाज! वाह! पहले ग्यारह किलोमीटर समतल सड़क है| छोटी चढाई और उतराई भी आती है| आधे घण्टे में खडकवासला डॅम के पास पहुँचा| स्वर्णिम नजारा! डॅम के पास धुन्द है! कुछ क्षण यहाँ रूका और आगे बढ़ा| मिलिटरी के एरिया से निकल कर सिंहगढ़ के बेस पर पहुँचा| यहाँ अच्छा नाश्ता किया| साथ में पानी की दो बोतल भी रखी हैं| उसके साथ बिस्कुट आदि भी रखा है| अब शुरू होती है असली चढ़ाई! एक सड़क पगडण्डी की ओर जाती है| कई लोग सिंहगढ़ पर पैदल भी जाते हैं| मै भी गया हूँ कुछ वर्षों पहले| पगडण्डी सीधी चढ़ती है और सड़क थोड़ी मूड मूड के उपर उठती है| दो साल पहले जब बाईक से लदाख़ जाने का सोचा था, तब प्रॅक्टिस इसी घाट में की थी| क्यों कि एक तो यह अच्छी चढाई है; सड़क भी थोड़ी डंवाडौल है| और इसका एलेवेशन इतना अधिक है कि इस पर बड़ी बस या ट्रक भी नही जाते हैं| सिर्फ छोटे वाहन और टेम्पो जाते हैं| इसलिए तब इस पर बाईक पर आया था| अब जैसे लदाख़ और साईकिल ने सम्मोहित किया है, तो उसके अभ्यास के लिए भी यही उचित स्थान है| या युं कहिए कि सिंहगढ़ पर साईकिल चलाना लदाख़ में साईकिल चलाने की कसौटी है| सिंहगढ़ में ९ किलोमीटर में ६३० मीटर चढाई है| जो कि खर्दुंगला के एक चौथाई आती है- खर्दुंगला में ४० किलोमीटर में २१०० मीटर की चढाई है और बाकी भी कई और चुनौतियाँ| लेकिन सिंहगढ़ उस चढाई की चुनौति की थोड़ी झलक जरूर देता है| अब देखते हैं|
कोहरे के बीच खडकवासला डॅम!
जैसे ही चढाई शुरू हुई, एकदम नीचले गेअर में साईकिल चलाने लगा| आधा किलोमीटर गया| फिर एक किलोमीटर गया| लेकिन अब साईकिल चला पाना बहुत कठिन हो रहा है| बड़ी मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर ही साईकिल चला पाया| उसके बाद फिर चलने की नौबत आयी| और वैसे भी साईकिल लगभग पैदल चलने की गति से ही चला पा रहा था| थोड़ी देर बाद फिर कोशिश की, लेकिन पैरों ने नही माना| ज़िद बेकार है| इसलिए चलना शुरू किया| पहले डेढ़ घण्टे तक लगभग बीस मिनट तक ही साईकिल चला पाया| उसके बाद "वहाँ हाथी न घोडा है, बस पैदल ही जाना है!”
बीच बीच में रूक कर विश्राम भी करना पड़ रहा है| थोड़ा थोड़ा पानी पी रहा हूँ| आगे बढ़ते हुए डर भी लग रहा है कि आते समय इतनी अधिक उतराई से साईकिल पर आना है| और चढाई जितनी बड़ी है, उतराई भी उतनी ही बड़ी होगी! अर्थात् साईकिल के दोनो ब्रेक काम में लगाने होगे| उससे भी थोड़ा डर लगा| लेकिन आगे बढ़ता गया| नजारे बेहद सुन्दर हैं| जैसे सड़क उपर उठती गई, खडकवासला डॅम का पानी भी दूर से दिखने लगा| एक ऊँचाई पर आने फिर से हम कहाँ से आते हैं, वह मार्ग दिखने लगता है. . खैर|
सिंहगढ़ पर आनेवाली सड़क और पीछे डॅम का पानी
अब सिंहगढ़ पास आ रहा है| आधी दूरी तय करने के बाद राहत के लिए दो किलोमीटर की हल्की सी ढलान आती है! दो किलोमीटर साईकिल अपनेआप ही चली| अब सिर्फ साढेतीन किलोमीटर दूरी है| लेकिन यही चरण सबसे कठिन लगा| बार बार रूकना पड़ा| पैदल जाना भी बहुत कठिन हुआ| वैसे तो पैदल चलने में चढाई से कोई फर्क नही आता है| पर यहाँ बड़ी ही देर लगी| आखिर कर साढ़े दस बजे गढ़ पर पहुँच गया| चढाई के नौ किलोमीटर को ढाई घण्टे लगे| साईकिल सिर्फ बीस मिनट चलायी थी! उपर पहुँचने के बावजूद मन में अशान्ति रही| अब यहाँ से उतरना जो है! उतरते समय भी साईकिलिंग की कसौटी है! क्यों कि चढाई जितना ही उतराई पर उतरना भी कठिन है|
सिंहगढ़ पर ज्यादा देर नही रूका| चाय पी कर पानी भर लिया और वापस मूड़ा| अभी उतराई का सामना है| दोनों ब्रेक लगा कर उतरने लगा| बीच बीच में जहाँ उतराई अधिक है, वहाँ पैदल उतर रहा हूँ| ब्रेक्स को भी बदल बदल कर विराम दे रहा हूँ ताकि वे गरम ना हो जाए| गति को कभी भी बढ़ने नही दिया| धीरे धीरे उतराई पार होती गई| ब्रेक्स को ब्रेक देते हुए आगे बढ़ा| बीच के दो किलोमीटर की हल्की चढाई सुखद लगी| अब बस दो कदम, थोड़ा और आगे ऐसा करते करते एक घण्टे में नौ किलोमीटर उतर गया| उतरने के बाद काफी सुकून मिला| और एक बड़ा नाश्ता किया और आगे बढ़ा| भोजन नही किया, क्युंकि अभी और ग्यारह किलोमीटर साईकिल चलानी है| आगे की यात्रा बहुत कठिन नही रही| दो घण्टे तक चला था, उससे शायद कुछ फायदा हुआ| चलना साईकिलिंग के लिए पूरक है|
सिंहगढ़ पहुँचती सड़क
सिंहगढ़ का क्लाइंब
अब जब मै दो साल बाद इस यात्रा का विचार करता हूँ, तब कई गलतियाँ दिखती है| सबसे बड़ी गलती यह थी कि मै बिल्कुल रेग्युलर नही था| जैसे ६ और ७ अक्तूबर को दो अर्धशतक किए थे| अच्छा टेम्पो मिला था| लेकिन उसके बाद अगले हप्ते में थोड़ी भी साईकिल नही चलायी| अगर रोज पन्द्रह किलोमीटर भी चलाता, तो सिंहगढ़ की इस राईड में और बेहतर चला पाता| दुसरी गलती यह थी कि साईकिलिंग के साथ पूरक व्यायाम- योगासन- प्राणायाम करने से काफी फर्क पड़ता है| वो मै नही के बराबर करता था| इस वजह से चढाई पर सिर्फ डेढ किलोमीटर ही चला पाया|
और कुछ गलतियाँ ऐसी होती है कि उन्हे सुधारना तो दूर, समझने के लिए भी पहले कई बार गलती करनी पड़ती है| अब जैसे पंक्चर निकालना ही लीजिए| जब तक आप दस बार पंक्चर गलत ढंग से नही निकालते हैं, तब तक उसे सही तरिके से कैसे ठीक करना है, यह पता ही नही चल सकता है| ये भी गलतियाँ कुछ ऐसी ही थी| साईकिलिंग जारी रखने के कारण धीरे धीरे वह समझ बढ़ती गई| और रेग्युलरिटी न होना काफी तकलीफ देता है| यह करीब करीब वैसा ही है जैसे अगर ट्रेन चल रही हो तो उसे चलाए रखने के लिए कम ऊर्जा लगती है| लेकिन प्लॅटफार्म पर खड़ी ट्रेन को चलायमान बनाने के लिए अधिक ऊर्जा लगती है| पूरी ट्रेन विरोध भी करती है जिसकी वजह से ट्रेन शुरू होते समय आवाज भी होता है| या बाईक के पहले और दूसरे गेअर में अधिक ताकत होती है; उसके तीसरे और चौथे गेअर तो सिर्फ गति देने का काम करते हैं| वैसे ही साईकिल का भी है| पहले दिन सुबह पाँच बजे उठ कर साईकिल बाहर निकालने में ही बड़ी दिक्कत होती है| दूसरे दिन यह आसान होता है; तीसरे- चौथे- पाँचवे दिन यह धीरे धीरे एफर्टलेस होता जाता है| मेरी गलती यह रही कि मै सिर्फ बड़ी राईड के बारे में सोचता रहा| छोटी दस- पन्द्रह किलोमीटर की राईड नियमित रूप से नही करता रहा| लेकिन गलती करना भी ठीक है, वह इंगित है कि कुछ सीखा भी जा रहा है| और गलतियों से डरना नही चाहिए| जो तैरने में गलती करने से डरता है, वह कभी तैरना नही सीख पाता है| खैर|
इस राईड में कठिनाईयाँ बहुत आयी, पर उससे मै अभी कहाँ हूँ, यह ख्याल भी आया| अगर मुझे लदाख़ में साईकिल चलानी है, तो अभी बहुत स्टॅमिना बढ़ाना होगा| मेरा इस समय का स्टॅमिना १५% भी नही होगा| यह स्पष्टता मिलना भी बड़ी सीख रही| इस यात्रा में एक बात और भी देखी| साईकिलिंग करने में बड़ा आनन्द आता है; मज़ा आता है| फिर भी साईकिलिंग करते समय मन वहाँ भी नही ठहरता है| जैसे शुरू में लग रहा था कि कब चढना शुरू करूँ, फिर लगा कि अरे पैदल चढ़ तो जाऊँगा, पर उतरते समय क्या हाल होगा| और उतरने के बाद लगा कि कब घर पहूँच जाऊँगा| मन हमेशा अस्वस्थ ही रहता है| पूरी राईड में बामुश्किल कोई क्षण होगा जब मन वाकई ठहरा हो और उस क्षण की सच्चाई में लीन हुआ हो. . .
यह यात्रा मेरे लिए बेसलाईन बनी| अच्छी बुनियाद बनी जिसके आधार पर आगे बढ़ सका और चुनौतियों का सामना कर सका|
अगला भाग ६: ऊँचे नीचे रास्ते और मन्ज़िल तेरी दूर. . .
Nice Post Niranjan.. love to see many more..
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-11-2015) को "अपने घर भी रोटी है, बे-शक रूखी-सूखी है" (चर्चा-अंक 2171) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
कार्तिक पूर्णिमा, गंगास्नान, गुरू नानर जयन्ती की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
सिंहगढ़ का सुन्दर नज़ारा।
ReplyDeleteBeginners feeling....usefull to me
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