Wednesday, August 21, 2013

चेतावनी प्रकृति की: ३

चेतावनी प्रकृति की: ३


अस्कोट में अर्पण संस्था का रमणीय परिसर


बरसात में पहाडी़ सड़क

















































२९ जुलाई को सुबह हेल्पिया से निकले। अस्कोट होते हुए जौलजिबी के पूल पर पहुँचे। रास्ते में बरसात से सड़क का हाल बुरा है। कई स्थानों पर पत्थर और पहाड़ का हिस्सा गिरने से मुख्य सड़क कट गई है और बी.आर.ओ. द्वारा कच्चा रास्ता बनाया गया है। जौलजिबी के ब्रिज पर कुछ देर रुके। यहाँ काली गंगा एवम् धौली गंगा (जिसे गोरी गंगा कहा जाता है) का संगम है। जौलजिबी शहर में भी बाढ़ से कुछ तबाही हुई है, ऐसी सूचना मिली। आज का हमारा कार्य जौलजिबी- मुन्सयारी रोड के पास के कटे हुए गाँवों में तबाही का अन्वेषण करना है। डॉक्टरों की टीम भी ऐसे ही एक गाँव में जाने की लिए तैयार है।

जौलजिबी का  गोरी गंगा का पूल






अंग्रेजी ग्रीफ (दर्द) को दूर करनेवाली ग्रीफ









इस संकट की घडी में रक्षण करनेवाले महारथी



































जैसे जौलजिबी से आगे बढे, गोरी गंगा का रौद्र रूप सामने आया। नदी पूरे उफान पर है। नदी के तट से जुडी़ जमीन टूटी हुई साफ दिखाई दे रही है। आसपास के सटे हुए इलाके को नदी ने बुरी तरह ध्वस्त किया है। सड़क भी इससे बची नहीं। सड़क भी अत्यधिक क्षतिग्रस्त है। जगह जगह बी.आर.ओ. के समूह कार्यरत हैं। रास्ते में घट्टाबगड़ नाम का एक पूरा गाँव ध्वस्त हुआ देखा। उस गाँव के लगभग सभी परिवार अब टेंट में रह रहे हैं या रिश्तेदारों के पास गए हैं। उस गाँव में कुछ देर रूके। अर्पण संस्था के सदस्य साथ में हैं, उनके परिचय के कुछ व्यक्तियों से बातचीत हुईं। टेंट में रहने के बाद भी लोग निष्क्रिय नही होंगे, इसका संकेत अन्दर रखे सिलाई मशीन से मिल रहा है। लोगों ने अपने साथ पशुओं को भी रखा है। इस आपदा में पशुधन की भी बडी क्षति हुई है। लोग उन्हे अपने परिवार का ही हिस्सा मान कर अपने पास रख रहे हैं। लोग दिन में जोखिम ले कर नदी के करीब बचे हुए उनके घरों के खण्डहरों में भी जाते हैं और जरूरी चीजें ढूँढ कर लाते है, ऐसा सुनने में आया. . .


बी.आर.ओ. को प्रणाम!


नदी ने काटा हुआ क्षेत्र



आगे जाने पर रास्ता और भी बिगड़ गया है। अब तो मुश्किल से पक्की सड़क मिलती हैं। सड़क पर बीच बीच में पहाड़ से तीव्र गति से आता हुआ पानी भी है। कई स्थानों पर ऐसे पानी का बहाव तेज भी है। बरम नामक गाँव में मिलिटरी का एक पडाव है। वहाँ से सड़क कुछ किलोमीटर तक पूरी ही टूटी है और इसलिए पहाड़ तोड कर अलग ही सड़क बनायी गयी है। जगह जगह रुकना भी पड़ रहा है। क्यों कि निरंतर गिरनेवाले पत्थर हटाने का काम जो बी.आर.ओ. कर रही है। बरम में एक मोटी रस्सी लेनी है, पर कहीं मिली नहीं। बिना रस्सी लिए ही जाना होगा। रास्ते में रस्सी की जरूरत पड़ सकती है।

बरम से कुछ दूरी पर आगे काफी समय रुकना पडा। बी.आर.ओ. सड़क साफ कर रही है। बडे जे.सी.बी. और अन्य उपकरण सड़क पर गिरे मलबे को हटा रहे हैं। उनका काम होने के बाद ही यातायात शुरू हो गयी। चामी गाँव के पहले हम कालिका नाम के स्थान पर रूक गए। यहाँ से हमारी दो टीमें बनी। एक डॉक्टरों की टीम है। उसमें दो डॉक्टर और दो अन्य सदस्य जीप से आगे चले गए। वे आगे के गाँवों में शिविर लेंगे। उनके साथ अर्पण के भी दो सदस्य हैं। हम बाकी लोग टीम लीडर सर के साथ नदी के पार जाने के लिए निकले। इस टीम में भी अर्पण के सदस्य एवम् स्थानीय लोग भी हैं। चामी गाँव से पहले कालिका नाम के स्थान पर गोरी गंगा में एक लोहे का पूल है। और वह अब भी सुरक्षित है! उसमें से जाने के लिए निकले। अब पक्की सड़क का साथ छोडा। अब गोरी गंगा की गर्जना के साथ पैदल ही चलना है। इस पूल के पहले धारचुला तहसील थी और अब पूल के पार जाने के बाद डीडीहाट तहसील शुरू हुईं। और अगले गाँव के पश्चात् मुन्सियारी तहसील भी शुरू होनेवाली है। तीन तहसीलों के किनारे के इन गाँवों में सरकारी कार्य में तकनिकी बाधाएँ आना आम बात होगी। पैदल रास्ता रेत में से जा रहा है। नदी का पानी बिल्कुल पास में। जब जल स्तर चरम सीमा पर होगा, तब निश्चित ही यह पैदल रास्ता पानी के काफी अन्दर होगा। नदी की लहरों के पास से चलते गए।

पहला गाँव आया- हुड़की। इसमें भी कई मकान तबाह हो गए। बहुत से लोगों के खेती गईं। कुछ लोगों के घर उपर हैं, वे बच गए। नदी के तट के पास होनेवाले मकानों के अब अवशेष ही बचे है। एक ऐसे ही खण्डहरनुमा घर में एक वृद्ध बाबाजी बैठे हुए अपने जीविका को जारी रखने की कोशिश कर रहे हैं। उनका व्यवसाय बजरी बेचना था और वह ठेकेदारी में जाते है। पास ही घर में छत टूट गया है। मकान के लिए तिरपाल (टर्पोलिन) की आवश्यकता है। उनके पास पैदल रास्ता होने से कुछ राशन भी है। उन्होने दर्दभरी वाणि से नदी की बाढ़ की आँखों- देखी सुनाई। नदी ने उन्हे बिलकुल विवश बना दिया है। उनसे कुछ देर बात कर के निकल पडे। जाते समय हमारे टीम लीडर सर ने कैमरे से बाबाजी का फोटो खींचा और उन्हे दिखाया। उनके चेहरे पर अपना फोटो देख के सरल मुस्कान आयी। दु:ख के समय में भी कुछ ना कुछ तरिके से और किसी ना किसी रूप में पॉजिटिव स्ट्रोक देना जरूरी होता है।

विरान मकान



























गाँव छोटा ही था। अगले गाँव जानेवाली एक महिला भी हमारे साथ चलने लगी। अर्पण के तीन महिला सदस्य- तीन दीदीयाँ हमारे साथ हैं। रास्ता गाँव में से जा कर फिर नदी के पास आ गया। जैसे ही हुड़की गाँव समाप्त हुआ, रास्ता नदी के बिलकुल करीब से जाने लगा। गोरी गंगा का रौद्र ताण्डव सामने ही हो रहा था। धीरे धीरे सामान्य रास्ता एक कठिन चढा़ई में रुपांतरित हो गया। अब तो पैर रखना भी कठिन हुआ। स्थानीय महिला मार्गदर्शिका बन गईं। उनके पीछे पीछे जाने लगे। रास्ता धीरे धीरे अंगडाई लेते हुए नदी के ठीक उपर स्थित चढाई से जाने लगा। गाँव की दीदी ने सामने एक तेज बहता झरना दिखाया और बताया की, हमें उसे पार करना है! पर यह भी बताया की, उस पर अब पूलिया बन गईं है।

आसमान में बादल है। मौसम बिल्कुल गरम है। ठण्ड का नामोनिशान तक नही। इससे थकान महसूस होने लगी। रास्ता निरंतर बिकट होता चला गया। तेज चढान के बाद थोडा रूक कर चलने लगे। अब पैदल रास्ते का जैसे घाट शुरू हुआ। वहाँ रास्ता एक ईंट की पगडण्डी में रुपांतरित हुआ और यह ईंट का मार्ग ठीक नदी के उपर से और पहाड़ के बीच से गुजर रहा है! यहाँ पर काफी डर लगने लगा। साथी हौसला बढा रहे थे। थकान भी हो रही थी। कुछ देर सामान भी एक दीदी ने ले लिया। स्थानीय लोग बडी सरलता से जा रहे थे। मैत्री टीम के लीडर सर तो १९७८ से निरंतर पहाड में घूम रहे है। उनके लिए भी कोई समस्या नही है वरन् यह तो सरलतम ट्रैक है। टीम के अन्य सदस्य मित्र को भी समस्या नही है। समस्या है तो सिर्फ एक ही व्यक्ति को. . . पैदल घाट के ‘टॉप’ के स्थान पर बैठ कर गुजरना है। जैसे तैसे मित्र का हाथ पकड़ते हुए उसमें से गुजर गए। नीचे देखने पर इतना डर लग रहा है कि वहाँ झाँकने की हिम्मत ही नही बन रही है।

बीच में रास्ता कुछ ठीक लगा। अब वह झरना बिल्कुल सामने दिखाई पड़ रहा है। कुछ पत्थरों से रास्ता जाता है। जहाँ जहाँ रुकने के लिए ‘सुरक्षित’ जमीं मिली, वहाँ कदम रूकते ही जा रहे है। अब थकान वाकई अधिक हो रही है। नदी की गर्जना अब थोडी कम हुई है- नदी से थोडा अन्दर की तरफ जो आए है। पर अब सामने डरावना झरना या युँ कहिए- पहाडी़ प्रपात है। अब इसे पार करना है। जैसा स्थानीय महिला ने बताया था, उस पर एक पुलिया भी है। हाँ, है तो जरूर। पर वह मात्र दो लकडियोँ की ही बनी है। उस पर और कुछ भी नही है। लेकिन सभी लोग जा रहे है, डर मात्र एक व्यक्ति को ही है. . .

कुछ देर विश्राम किया और आगे बढे। थकान देख कर अर्पण की दीदी ने बॅग उठा ली। मन तो मना कर रहा था, पर शरीर ने एक न सुनी। पर्वत से आ रहे ठण्डे पानी की धारा से ताज़गी प्राप्त करने की कोशिश की और चलें। अब वह लकडी़ की पुलिया. . . स्थानीय लोग और अर्पण की के दीदी- लोग भी चले गए। मैत्री के सदस्य मित्र को भी कोई दिक्कत नही आईं। उन्हे डर नही लगा, हालाँकि वे बैठ कर उसे पार कर गए। अब इस थके शरीर और डरे मन की बारी है। लकडी की बेचारी पूलिया के पास आ कर पैर थम गए। चलना मुश्किल लग रहा था। पानी के उपर से मुश्किल से पाँच कदम चलने थे। लेकिन पानी का बहाव और रौद्र रूप ऐसा था कि कदम उठ ही नही रहे थे। और बैठ कर जाना भी मुश्किल लगा। अर्पण संस्था की एक दीदी सहायता के लिए वापिस इस तरफ आयी और उन्होने हाथ का सहारा दिया। उनके हाथ के सहारे से मन ने डर को मात दी। आँखों ने अपना देखने का काम रोक दिया। फिर पैर पाँच कदम चल ही गए। जैसे ही लकडी़ की पुलिया पार हुईं, काफी राहत मिली। ऐसे ही स्थानों पर धरती मैया की कृपा का अनुभव होता है. . .

"कोई दिक्कत नही, अब तो पूल भी है!"



























जैसे ही यह पानी का बहाव पार किया, मुन्सियारी तहसील शुरू हुई। पर इस समय उस बात का बिल्कुल बोध नही है। और किसी बात का भी बोध नही है। फोटो खींचने तक की फुर्सत नही है। आगे रास्ता चढाई वाला ही है। पर इतना ‘खतरनाक’ नही है। वैसे, यह ‘सुरक्षित’ तथा ‘खतरनाक’ अवधारणाएँ काफी व्यक्ति सापेक्ष है। जो किसी के लिए अति सरल हो, वह किसी के लिए ‘खतरनाक’ है. . .

स्थानीय महिला रास्ता बताती गईं और आगे चलते गए। थकान बहुत ज्यादा हो रही है। वह महिला बता रही है कि उनकी सांत बेटियाँ हैं। बेटा एक भी नही है, इसका उन्हे दुख था। अर्पण के दीदी लोग उन्हे समझा रहे थे की, बेटी भी बेटे जैसे ही तो होती है। पैर थकते भी गए और चलते भी गए। वह महिला नदी को अर्थात् पानी को कोस रही थी। पानी ही सब मुसीबत की जड़ है, ऐसा उनका कहना था। बातचीत से यह भी पता चला कि, जहाँ खाली हाथ चलना अति कठिन लग रहा है, वहाँ घरूडी़ और आगे के गाँवों के लोग पच्चीस किलो- तीस किलो सामान पीठ पर लाद कर ले जाते हैं.....

आखिर कर करीब दोपहर के एक बजे घरूडी़ ग्राम आ गया। गाँव में बीस के करीब घर है। बीच बीच में खेती भी है। लोगभाग भी आ- जा रहे है। नदी समीप ही है। उसकी गर्जना निरंतर जारी है। गोरी गंगा नाम की इस नदी के कारण मन बार बार कह रहा है ‘गोरी तेरा गाँव बडा प्यारा, मै तो गया मारा, आ के यहाँ रे. . .’

मार्गदर्शक महिला के घर में पानी पी कर आगे निकल पडें। घरूडी में अर्पण के दीदी लोगों ने बात करी है। वहीं मीटिंग करनी है। ग्रामीण आ भी गए हैं। अर्थात् पहुँचने पर पहले थोडा विश्राम और भोजन हुआ। यहीं गाँव के लोगों के साथ बातचीत हुई। गाँव में पहले लोहे की पूलिया थी। वह गाँव के करीब से होते हुए सीधा जौलजिबी- मुन्सियारी सड़क से जुडी थी। लेकिन अब वह रास्ता बन्द होने से यहाँ हुड़की के मुकाबले दिक्कत ज्यादा है।

लोग नदी के उपर रस्सी से सामान की आवाजाही करने की चेष्टा भी कर रहे हैं। पर अभी तक सफल नही हुए है। और जाहीर है, पानी से नुकसान भी बडा हुआ है। नदी के तट के पास होनेवाले मकान टूट गए हैं। खेती को भारी क्षति पहुँची है। गाँव पर हम लोगों के खाने का बोझ न हो इसलिए हमने साथ में मैगी रखी थी। यहाँ पर राशन की कमीं तो है, पर कुछ दिनों का राशन है। गाँव में ही अनाज और चांवल होता हैं। कुछ इकठ्ठा कर के भी रखते हैं। बीच बीच में लोग जान पर खेल कर राशन ला भी रहे है। यहीं से कुछ किलोमीटर दूर बंगापानी में हेलिकॉप्टर के जरिए राशन दिया जा रहा है, ऐसा सुनायी दिया। रस्सी से सामग्री लाने के विकल्प पर भी काफी चर्चा हुईं। ग्रामीणों ने उनके द्वारा किए गए प्रयासों की जानकारी दी। नदी के पात्र का विस्तार करीब १४० मीटर है। पार जाने के लिए लोहे की रस्सी चाहिए, पर वह सामग्री के घर्षण से गर्म हो जाएगी। अभी इसका कोई समाधान नही निकलता दिखाई दे रहा हैं।

लोगों से बातचीत खतम होने के बाद अगले गाँव में जाने के लिए टीम लीडर और अन्य लोग निकले। मन कितना भी करें, शरीर थक गया है। सर ने भी कहा, की थकान के कारण एक व्यक्ति की वजह से सभी लोगों को धीरे जाना होगा, इसलिए आराम ही करो। मन विरोध कर रहा है, पर शरीर में थकान काफी है। और भोजन करने के बाद भी चलने की स्थिति महसूस नही हो रही है। उत्तराखण्ड आने के पहले कुछ सायकलिंग के द्वारा थोडा अभ्यास किया है, पर वह पर्याप्त साबित नही हो रहा है। और इस तरह के पहाडी़ ट्रैकिंग के लिए थोडा़ अभ्यास बिलकुल भी मददगार नही है। हिमालय में शायद पहली बार आनेवाले मेरे मित्र भी इतनी तकलीफ महसूस नही कर रहे हैं, क्यों कि उन्हे ट्रैकिंग का काफी अच्छा अनुभव है, चाहे महाराष्ट्र का भी क्यों न हो। इसलिए उनका शरीर और मन भी उसके लिए अभ्यस्त है। शरीर के साथ मन का भी अभ्यास जरूरी है। और मात्र श्रम नही, खतरे को भी अभ्यस्त होना जरूरी है। यदि कभी भी आपने जोखिम ले कर यात्रा न की हो, कभी किसी खाई के किनारे से न चले हो, तो आपकी आँखें और आपका अपना मन भी दिक्कतें खडी कर देगा. . .

थकान इतनी अधिक है कि, ठीक से आराम भी न हो पा रहा है। बुद्धि ने समझाने पर भी मन स्वयं को कोस रहा है। पीडितों की सेवा करने के लिए आने पर भी हालत यह बनी। लोगों को सामान उठा कर मदद करनी पड रही है। घरूडी गाँव के बिलकुल सामने पक्की सड़क दिखाई दे रही हैं। वाहन भी दिख रहे हैं। पर बीच में १४० मीटर चौडी प्रलंयकारी गोरी गंगा भी है. . . मन खुद को कोसता ही गया। साथ ही मीडिया से प्राप्त सूचनाएँ और धरातल की दास्ताँ के बीच की दूरी भी स्पष्ट होती गईं। यहाँ सब कुछ अलग हैं। लोग भी बडे अलग हैं। इतनी बडी आपदा के बाद भी माहौल सामान्य सा ही था। कहीं कोई निराशा नही, रोना- धोना नही। लोग मुसीबत में तो हैं, पर खाली बैठे बिल्कुल नही हैं। स्वयं कडी मेहनत कर रहें है। वह लकडी की पुलिया- वह पुलिया घरूडी़ के ग्रामीणों ने ही तो बनायीं है और वे ही उसका रखरखाव कर रहे हैं। पूरे पैदल रास्ते की निगरानी कर रहे हैं। उनका हौसला बुलन्द हैं। बच्चे स्कूल में जा रहे हैं, अध्यापक भी आ रहे हैं।

हरे भरे इस खेत में बडी़ पीडा छिपी है. . . 



























विश्राम के पश्चात् जिनके घर रुकना हुआ है उनसे बातचीत की। एक बार गाँव का चक्कर लगाया। गाँव में काफी क्षेत्र प्रभावित हैं। खास कर नदी के तट के पास रहनेवाले लोग। और ऐसे लोग हमेशा तथाकथित निम्न जाति के होते हैं। यहीं भी वही हाल है। जो खा- पी कर ठीक निर्वाह करनेवाले लोग हैं, उनकी बात तो ठीक है। पर जिनका घर या खेत नही हैं, उनका हाल बुरा हैं। ऐसे ही परिवारों की पहचान करने के लिए गाँवों में यह असेसमेंट की जा रही थी। यहीं पर कल दो डॉक्टर स्वास्थ्य शिविर लेंगे। आगे गए साथी मनकोट ग्राम में भी असेसमेंट करेंगे और डॉक्टरों के आने की खबर करेंगे।

जिनके घर रुका था, उन्होने- पुष्करजी ने- गाँव के बारे में काफी जानकारी दी। यहाँ का समाज मूल रूप से रजपूत है। और ये वो लोग है, जो जोहार के पश्चात् राजस्थान से पलायन कर देश के दूसरे हिस्सों में बसें थे। बाद में पता चला कि, ये ठीक रजपूत तो नही है, पर उनसे जुडे समाज है जो जोहार के पश्चात् रजपूत परिवारों के साथ सुरक्षित स्थान की खोज में दूर दूर तक बिखर गए हैं। एकदम दूरदराज हो कर भी हुड़की, घरूडी़ जैसे गाँव उतने पीछडे़ नही लग रहे हैं। गाँव में लगभग हर घर में शौचालय और स्नानगृह हैं। खाना खाने के पहले भी लोग साबुन से हाथ धोते हैं। लोगों को बाहरी और शहरी दुनिया की अच्छी जानकारी है। अपने भूगोल की भी अच्छी जानकारी है। पुष्करजी ने काफी कुछ पढा है। तिब्बत के बारे में भी उनकी जानकारी अच्छी है। उनके बोलने में चीन का प्रभाव भी महसूस हुआ। चीन का डर कुछ स्तर तक लोगों के बोलने में आ रहा है। बातचीत में यह भी पता करने की कोशिश की की, यहाँ से जाने के लिए क्या दूसरा रास्ता भी है? पता चला की रास्ता है। एक रास्ता यहाँ से सीधा डीडीहाट निकलता है। पर उसके लिए मात्र दो दिन सीधे पहाड़ और जंगल के बीच चलना पडेगा। रास्ता बिलकुल सुनसान है और रास्ते में मात्र एक वन विभाग का कार्यालय है। और कोई भी समस्या नही है. . .

. . . ग्रामीण बार बार यहीं कह रहे है, कि एक बार पार रास्ता बन जाए, हम अपनी व्यवस्था स्वयं कर लेंगे। नदी पर रास्ता बन पाना, यही बडी दिक्कत है। यहाँ के टूटी पुलिया का मूल्यांकन किया गया है और प्रशासन ने नई पुलिया बनाने के लिए सहमती भी दी है, पर जाहिर है; उसे काफी समय लगेगा। तब तक ग्रामीणों को जान पर खेल दुर्गम राह से राशन ढोना पडेगा। तब तक यातायात बुरी तरह प्रभावित रहेगा। और वाहन तो वैसे भी यहाँ पर आता ही नही है। क्यों कि वह लोहे की पुलिया पैदल ही थी। और लोगों को भी वाहन की कमीं बिलकुल खलती नहीं है। बस यातायात जारी रहें, यही उनकी इच्छा है। और जहाँ से भी मदद मिले, राहत मिले, मिलती रहें। यहाँ राशन बाँटने में भी बहुत दिक्कत आनेवाली है। क्यों कि पचास किलो के पैकेट यहाँ पर लाना बिल्कुल भी आसान नही रहेगा. . .

धीरे धीरे शाम हुईं। आगे गए सदस्य लौटे नहीं। पहाड़ के बीचोबीच दिए लग गए। पर उन्हे देर हो रही है। रात होने पर भी वे रास्ते में ही हैं। तब लालटेन ले कर दो जन निकले- उन्हे रास्ता दिखाने के लिए। फिर लगभग साडे आठ बजे अन्धेरे में सब लौटे। रास्ता आगे भी कठिन था और उन्हे भी बहुत थकान हुईं। मित्र मिलने पर कुछ सुकून मिला। उन्होने मनकोट की स्थिति बतायीं। वह भी ऐसे ही कटा है। रास्ता और दिक्कत का है। वहाँ भी क्षति हुईं है। उन्हे कुछ रुग्ण भी मिले। वहाँ की राशन की आवश्यकताओं का आंकलन किया। नदी पर रस्सी द्वारा राशन लाने का विकल्प भी जाँचा। मेरे मित्र ने बताया कि, वहाँ एक जगह रस्सी लग भी गईं है और उसमें से एक आदमी भी पार गया।

गाँव के संयुक्त परिवार में खाने का आनन्द और ही था। पर एक तरफ मन भी स्वयं को कोस रहा था- तू मदद करने के लिए आया है, तुझे ही मदद करनी पडे, यह दुर्दशा है। खैर, वह दिन बित गया। मेरे एक मित्र नीरज जी ने उनके ब्लॉग पर उत्तराखण्ड के बारे में कहा है, कि जब कोई बीमार होता है, तो उसे मदद तो की जानी चाहिए ही, पर उसको देखने भी जाना चाहिए। दवा के साथ दुआं भी आवश्यक होती है। शायद यही हमारा काम है। त्रासदी इतनी बडी है, आपदा इतनी व्यापक है, कि उसमें लोगों को सहायता करना शायद ही किसी के बस में होगा। हम एक ही काम कर सकते है- लोगों के पास जा कर उनका थोडा सा साथ दे सकते हैं। बस प्रतिक के तौर पर कुछ सहायता कर सकते हैं. . .

मन में इतनी भीषण स्थिति देखने के बावजूद स्वार्थ नही जा रहा है- कल इसी रास्ते (?) से वापस भी लौटना है। स्वार्थी मन यहीं कह रहा था कि कहाँ फंस गए। मुश्किल से उसे समझाना पड रहा था कि, तू अकेला नही है। तेरे साथ इतने दृढविश्वासवाले लोग हैं, मित्र हैं। ग्रामीण भी नैय्या ‘पार कराने का’ भरोसा दिला रहे हैं।



क्रमश:

Wednesday, August 14, 2013

चेतावनी प्रकृति की: २

उत्तराखण्ड कार्य में सहभाग से संबंधित यह एक अंग्रेजी  नोट-

DO WE WANT TO LEARN FROM MEMORANDA OF THE NATURE?

Backdrop

This brief note highlights lessons that we should learn from situation in Uttarakhand and perhaps other parts of our country. When we talk about calamity in Uttarakhand, influence of media make us to believe that it is limited only to Kedarnath and Chardham Yatra and it is just a matter of relief and rescue of stranded pilgrims. But actual field experience unfolds before us the fact that this is of significantly vast dimension than it is generally perceived. Around 20 lakh Ha agricultural land is destroyed and a large scale terrain has become endangered. In fact it is an urgent and severe memorandum of the nature to us. The nature is trying hard to tell us that we have taken a wrong course and we should change its direction and if we do not, then we should be ready to bear with the disastrous consequences.

Definition of the Problem

While going for reconstruction work in Uttarakhand through an NGO called Maitri; it was thought that the team would have to distribute ration and other supplies; would have to treat the patients and extend their help, true, this did happen. Maitri group worked in around 20 villages near Jauljibi and Dharchula region in Pithauragarh district and health camps were conducted in almost all villages. People from these villages were given ration, food, clothes and other supplies. Maitri is working in collaboration with local government and NGOs such as Arpan in Askot. But what was seen was not limited to this. Distribution of food, ration, medicines, clothes, books, necessary supplies; conducting health camps; monitoring with governmental agencies and local partners can be seen as a very noble initiative; but it is rather primary kind of work. No doubt, it is needed at initial stages and as a short term strategy; but the situation is so grave that one should do much more than this kind of surface work.

We need to reconsider what the problem is. Mere floods and damage due to floods is a very superficial problem. Primary cause of the floods was concentration of clouds near Kedarnath and it was due to an event called Western Disturbance. Similar to Eastern coast storms and US tornados, a dense cloud pocket was formed near Kedarnath and adjacent glaciers and after its limit, it broke off and it resulted in very heavy rains in surrounding parts. When we have an East Coast storm, say in Machhalipattinam or Vishakhapattinam, we have cloudy and rainy environment in areas which are as distant as Madhya Pradesh and Maharashtra. That is the impact of such a climatic process. The same can be said about flash floods. Although, its epicenter was near Kedarnath, it had huge impacts in all nearby high mountain regions. This is the high altitude Himalayan range where many rivers originate. When it rains in huge proportions within short time, all these rivers and their tributaries and connecting water streams are bound to overflow and ultimately cause huge destruction. This destruction and ways to mitigate it; ways to reconstruct losses is what we can do at this level. But, this calamity, the real calamity is manmade and we need to go into the roots. We need to have a holistic understanding about the scenario. Ground experience reveals the following alarming facts.

Alarming Facts
  •           Himalayan region is a special class of topography and it needs to be maintained well with a well defined framework of development. If we can manage with restricted vehicles in Matheran and in Lavasa, why we cannot manage with low level of burden on this region?
  •  ·   After flash floods, it is seen that all recent settlements are endangered and unstable. Roads, lands and farms near river and slide- prone region are more or less unstable. Even villagers are afraid to live in their original places; but they are also equally hesitant to leave it for uncertain future.
  •       It came to know that climate in Himalayan region is changing sharply. Now even at high altitude such as 6000 meters instead of snowfall, it rains there. Actually there should be only snowfall at such high altitudes. It is a symbol that climate is changing significantly.
  •  ·    There have been large scale encroachment of man over nature and it  resulted in the form of small- scale destruction by newly formed mountain water streams. There are many examples where newly formed streams have displaced entire villages.
  •     Tree cutting and physical encroachment has led to large scale changes in patterns of water flow and soil erosion. Trees have been cut significantly and therefore, there is not much scope to retain water and soil in the mountains. Lack of trees has given way to more streams and soil erosion. Also, it is resulting in increase of landslides and rock falling.
  •      It is observed that rivers are trying to flow in a straight way and this is likely to destruct whatever comes into their ways. Flows of rivers such as Kaliganga, Dhauliganga are changing sharply and they are likely to displace more settlements. It is seen that there was unusually high temperature in mountains before this flashflood (It was 46 degrees Celsius in Haridwar in May, for example). It suggests that equilibrium of nature is disturbed.
  •       BRO (Border Roads Organization), army and other paramilitary forces are constructing roads, bridges and path- ways in a brilliant way. That is a great relief to villagers whose roads are destroyed and who need to be courageous enough to climb 5 or 10 kilometers in mountains and carry their ration on this improbable path. But these newly created roads are far from permanent. Conditions are such that all these settlements are likely to be hampered in next flood or landslide. When a road is created, some part of a mountain has to be destroyed and therefore its hold becomes loose inviting future trouble. Although Himalaya is highest mountain in the world, it is so unfastened that it can easily collapse in scarcity of trees and soil.
  •      Check dams were useful to control excess water from rivers and they have prevented some losses.
  •      It is seen that newly constructed iron bridges were destroyed by the rivers; but old foot ways were largely intact and in fact they have been the only access link to remote mountainous villages.
  •       Cattle, agriculture, horticulture and vegetation are also components that are adversely damaged and thereby huge gap is being created.


Conclusion

It can be said that now there are three key concerns- alternative livelihood, framework of sustainable development and rehabilitation. These things are extremely tricky that if Himalayan habitation continues to undergo changes like this, then we may not be far from situation where we would have to declare this entire region inhabitable.

And this message is not just for Himalayan region. It is for us also. Repeated floods in cities, collapse of highway and damage to life and property due to streams and rivers which are buried in their own beds, uneven rains, human burden over resources etc. are memoranda at a primary level. It is high time that we learn from this and reframe our framework of development. But do we really want to learn from this lesson?  What we can do is extend our small help to affected people of Uttarakhand. We can also rethink about our own environment and assess it for better alternatives.

For direct help, one can contact Maitri team: www.maitripune.net; maitri1997@gmail.com, 02025450882.

पिछला भाग: चेतावनी प्रकृति की: १
क्रमश: 

Monday, August 12, 2013

चेतावनी प्रकृति की: १



१.      बादल तो केदारनाथ में फटें थे, फिर पिथौरागढ़ जाकर क्या करोगे?
२.      अब तो सभी लोग निकाले गए हैं, रिलिफ कार्य समाप्त हुआ है, अब वहाँ जाकर करोगे क्या?
३.      बाढ़ तो उत्तरांचल में आयी थी, उत्तराखण्ड क्यों जा रहे हो?

ये सवाल हमारे देश के प्रति हमारा घोर अज्ञान दर्शाते हैं। हमारे देश मे घट रही घटनाओं के प्रति हमारी सोच दर्शाते हैं। जब ये सवाल पूछें गए, तो अज्ञान का जो एहसास हुआ, करीब करीब वैसा ही एहसास धरातल स्थिति का अनुभव करने पर हुआ.........

पहाड़ के रखवाले पेड़


























.... कई संस्थाएँ और माध्यमों से प्रयास करने के पश्चात्‌ पुणे की मैत्री संस्था द्वारा उत्तराखण्ड सहायता कार्य में सम्मीलित होने का अवसर मिला। यह लेखन करते समय सर्वप्रथम मैत्री संस्था और सभी सदस्यों को मन:पूर्वक धन्यवाद। मैत्री वह माध्यम था, जिसके द्वारा पीडित लोगों तक पहुँचा जा सका और उनका थोडा साथ दिया जा सका। मैत्री यह कार्य आपदा होने के तुरन्त बाद से अब तक कर रही है और अगले कुछ महिनों तक करेगी। भुज भूकम्प २००१, त्सुनामी २००४, लेह फ्लॅश फ्लड २००९ आदि कई आपदाओं में मैत्री संस्था ने राहत और निर्माण कार्य में पहल की थी।

.... २६ जुलाई को पुणे से पाँच सदस्य निकलें। और एक सदस्य तथा टीम के लीडर दूसरे दिन दिल्ली में जुड़नेवाले थे। जब ऐसे किसी काम के लिए लोग साथ आते है, तो कितने भी अनजान होते हुए भी दोस्ती हो ही जाती है। अलग अलग व्यवसाय और सामाजिक पृष्ठभूमि से आए हुए वे पाँच लोग- जिनमें दो डॉक्टर थे- अगले दिन दिल्ली पहुँचने तक अच्छे दोस्त बन गए। एक दूसरे के अनुभव बताए गए। सामान साथ मिल कर उठाया। दिल्ली में और दो लोग जुड़ गए और कारवाँ निकल पडा काठगोदाम की ओर। 

दिल्ली से काठगोदाम की यात्रा में एक सहयात्री मिले जो हल्द्वानी के निवासी थे। वे मर्चंट नेव्ही में थे और चार महिनों बाद स्वदेस लौट कर घर जा रहे थे। उन्हे आपदा के बारे में अधिक सूचना नही थी, फिर भी चिंतित हो कर घर जा रहे थे। महाराष्ट्र से सहायता हेतु आए समूह को देख कर उन्हे अचरज हुआ। सहायता करने की तत्परता उन्होने दर्शायी। करीब यही अनुभव बार बार आता रहा। यात्रा आरम्भ करने से पहले भी जब तैयारी के लिए कुछ सामान खरीदा जा रहा था, तब कई मौकों पर नि:शुल्क मिला। जैसे ही दुकानदार को पता चलता की यह उत्तराखण्ड सहायता सामग्री के लिए जा रहा है, तो वह पैसे नही लेता था..... यात्रा में पता चल गया की पिथौरागढ़ जनपद के अस्कोट तथा धारचुला गाँवों के परिसर में सहायता कार्य करना है। छब्बीस जुलाई को देर रात काठगोदाम पहुँच गए। वहीं तुरन्त आगे जाने की योजना बनी। काठगोदाम में आसमान बिलकुल साफ था। बादलों की अनुपस्थिति में आकाश तारों से जगमगा रहा था। 
 
काठगोदाम रेल्वे का अंतिम स्टेशन है। इसके बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। झुलाघाट के पास रहनेवाले हमारे चालक आए। जीप तैयार खडी थी। सभी होटल बन्द होने के कारण भोजन के लिए हल्द्वानी जाना पडा। जैसे तैसे खाना खा लिया। तुरन्त आगे जाने के लिए चल पडें। पिथौरागढ़ जल्दी पहुँचने का प्रयास था जिससे कार्य जल्दी शुरू किया जा सकता था। वैसे तो पहाड़ के रास्तों पर रात में यातायात नही होती हैं, पर कुछ लोग चल पडते हैं। करीब रात को बारा बजे काठगोदाम से निकल पडें। सात जन और काफी सामान था। डॉक्टरों के शिविरों के लिए काफी दवाईयाँ भी थी। हमारे चालक महोदय भट्ट जी काफी साहसी चालक थे। उन्होंने पूरी रफ्तार के साथ गाडी दौडाना शुरू किया। काठगोदाम के बाद तुरन्त पहाड़ शुरू होता है और फिर निरंतर मोड और चढाई- ढलानों का सिलसिला चलता रहता है। दो कदम भी गाडी सीधी नही चलती। थोडा आगे गए की बाएँ या दाएँ नही तो उपर या नीचे जाना पडता ही है। और महाशय काफी गति से भी चला रहे थे। अंधेरा और थकान के बावजूद समझ में आ रहा था, कि कितनी तेजी से गाडी जा रही है। वाहनों की आवाजाही लगभग न के बराबर थी। एक घण्टे बाद कुछ ट्रक रूके मिले। एक सज्जन ट्रक को रास्ते में ही लगा करा बैठ गए थे। फिर उन्होनें उसे हटाया।

निकलते ही जीप के अंदर और फिर पेट में भी बहुत उथल पुथल होने लगी। यदि सफर कम गति से होता हो, तो शरीर अनुकूल होता जाता है। पर एकदम से उथल पुथल होने के कारण धीरे धीरे शरीर में प्रतिक्रिया आने लगी। उल्टी की भावना होने लगी। कुछ नियंत्रण तो कर लिया, पर फिर शरीर ने निर्णय किया। एक के बाद एक लोग उल्टी करने लगे। उल्टी ऐसी चीज है, जो दबायी नही जानी चाहिए। क्यों कि यह समस्या नही, अपितु समाधान है। शरीर उस स्थिति में संतुलन बनाता है। इसलिए यदि शरीर संकेत देता है, तो उसे टालना नही चाहिए। और यह भी एक अभ्यस्त होने का चरण है। शरीर ऐसे रास्ते और ऐसे सफर के लिए खुदको अभ्यस्त कर रहा है। खैर, सभी खाना उल्टी में चला गया। सात में से केवल तीन जन इससे बच गए! शरीर के सामने चुनौती आ चुकी थी। हर एक के फिटनेस लेवल की आजमाईश शुरू होने जा रही थी।

रात में जीप जिस रास्ते से जा रही थी- काठगोदाम- भीमताल- शहर फाटक- दन्या- घाट- गुरना- पिथौरागढ़- उस रास्ते पर जाडे के दिनों में दिन में साफ रूप से हिमालय की बर्फिली चोटियों का दूरदर्शन होता है। रात में भी वे स्थान दिखाई दिए, जहाँ से बर्फिली चोटियाँ दिखती हैं.... सफर वाकई में हिन्दी के साथ अंग्रेजी सफर भी था। नींद लेने का तो सवाल ही नही था। क्यों कि बिलकुल भी स्थिरता नही थी। हिन्दी और अंग्रेजी सफर चलता रहा। आखिर कर शरीर को कुछ राहत मिली और नीन्द नही पर कम से कम झपकी का लाभ मिला। जैसे ही ब्रेक दबाया जाता, एक झटके से शरीर जाग जाता। सामने रास्ते पर बादल दिखाईं दे रहे थे। और चालक महाशय तेजी से चलाए जा रहे थे। रास्ता बीच बीच में कच्चा था और उसकी कुछ टूट-फूट भी हुई थी। बरसात के मौसम के अलावा भी यह रास्ता वैसे सुनसान ही रहता है। इस पर कोई भी बडा शहर नही है। अल्मोडा शहर के कुछ दूरी से जानेवाला रास्ता सुनसान ही रहता है। फिर आगे घाट में यह रास्ता टनकपूर- पिथौरागढ़ मार्ग से जुड़ता है।

सुबह के चार होने तक दन्या आ गया। यहाँ कुछ होटलवाले जागते मिलें और चाय भी मिली। सोचा था कि शरीर अब उल्टी से बाहर आ गया होगा, इसलिए चाय पिने का साहस किया। जैसे ही आगे निकले, पूरी की पूरी चाय उलट गई। बिलकुल भी नसीब नही हुईं। अब तक उलटियों की बौछारों से जीप की बाहरी दिवारों का रंग भी बदल गया था। लेकिन चालक महोदय बिल्कुल खफा नही थे। बडी सरलता से वह कह रहे थे, कोई बात नही, गाडी वैसे भी धोनी ही है। पहाडी सरलता का यह मात्र पहला प्रसंग था। जैसे पूरब प्रकाशित होने लगी, नजारा दिखाई पडने लगा। चारो तरफ ऊँचाईयाँ और पहाड़ के तल में से बहनेवाली रामगंगा! यहाँ कई बार पहले आने के कारण परिसर परिचित था। घाट, गूरना और फिर पिथौरागढ़ आ ही गया। यहाँ थोडी देर रूके। जीप यहीं तक थी। दूसरी जीप का इंतजाम होने पर अस्कोट के लिए चल दिए। यहाँ से जाडों में बर्फाच्छादित पहाड़ अच्छी तरफ दिखते है। पर बादलों की मोटी पर्त ने निराश किया। पिथौरागढ़ में खाने का ही नही, कुछ पिने का भी साहस नही हो पाया।

लेकिन आगे टीम लीडर सर ने बताया की चाहे, उल्टी आती रहें, कुछ तो खाना चाहिए। आगे अस्कोट बेस कँप में कुछ मिलेगा या नही भी मिलेगा। इसलिए रास्ते पर एक जगह पराठे का नाश्ता कर लिया। पिथौरागढ़ से अस्कोट वैसे लगभग पचास किलोमीटर दूर है। पर बरसात में रास्तों का काफी नुकसान होने से दो घण्टों से अधिक समय लगता है। रास्ते में आयटीबीपी अर्थात्‌ इंडो तिबेटन बॉर्डर पोलिस के कई केन्द्र आते हैं। रास्ते बुरी तरह धराशायी हुए थे। पिथौरागढ़ से बीआरओ अर्थात्‌ बॉर्डर रोडस ऑर्गनायजेशन की हिरक परियोजना का आगाज़ होता है। यहाँ से आगे की यात्रा बीआरओ एवम्‌ अन्य सेना के दलों के साथ ही होती है....... 



प्रकृति की गोद में.....






































अस्कोट से लगभग पाँच किलोमीटर पहले दायी तरफ एक पट्ट दिखाई दिया- अर्पण संस्था (Association for Rural Planning and Action)। यह हेल्पिया गिरीग्राम में बंसी एक जमिनी स्तर पर कार्यरत संस्था है। इसीके कँपस में बेस कँप था। यही मुख्य केंद्र था। यहीं से आगे का काम शुरू करना था। नितांत रमणीय कँपस पर जाते ही थकान कम हो गयी। पहाडों की शांती और सुकून! यहाँ कुछ मित्रों के मोबाईल नेटवर्क पर नेपाल दिखाई दिया! जी हाँ, यह परिसर नेपाल से सटा हुआ ही तो है!

हेल्पिया की अर्पण संस्था के परिसर से दिखनेवाला नजारा

























बेस कँप में कुछ विश्राम के बाद शाम को थोडी देर पैरों को वॉर्म अप करने के लिए एक मंदीर तक गए। चढाई बहुत हल्की थी। यहाँ पर टीम लीडर सर ने सभी को सूचनाएँ दी। जानकारी दी। योजना बतायी। आते समय बरसात शुरू हुई। एक समूह होना कितना सार्थक होता है, यह पता चला। जिसके पास रेनकोट या छाता नही था, उसे छाता मिल गया। जिसकी बॅग भिगनेवाली थी, उसे एक मित्र के पोंचू का संरक्षण मिल गया। किसी को बॅटरी मिल गई। समूह की अपनी ताकत होती है। इसकी प्रचिति अब बार बार आनेवाली थी। अगले दिन यानी २९ जुलाई को कार्य आरम्भ करने के विचार के साथ और अर्पण के साथीयों से परिचय करने के साथ वह शाम बीत गईं। मन में विचार थे तो बस शुरू होनेवाले कार्य के।