Monday, August 12, 2013

चेतावनी प्रकृति की: १



१.      बादल तो केदारनाथ में फटें थे, फिर पिथौरागढ़ जाकर क्या करोगे?
२.      अब तो सभी लोग निकाले गए हैं, रिलिफ कार्य समाप्त हुआ है, अब वहाँ जाकर करोगे क्या?
३.      बाढ़ तो उत्तरांचल में आयी थी, उत्तराखण्ड क्यों जा रहे हो?

ये सवाल हमारे देश के प्रति हमारा घोर अज्ञान दर्शाते हैं। हमारे देश मे घट रही घटनाओं के प्रति हमारी सोच दर्शाते हैं। जब ये सवाल पूछें गए, तो अज्ञान का जो एहसास हुआ, करीब करीब वैसा ही एहसास धरातल स्थिति का अनुभव करने पर हुआ.........

पहाड़ के रखवाले पेड़


























.... कई संस्थाएँ और माध्यमों से प्रयास करने के पश्चात्‌ पुणे की मैत्री संस्था द्वारा उत्तराखण्ड सहायता कार्य में सम्मीलित होने का अवसर मिला। यह लेखन करते समय सर्वप्रथम मैत्री संस्था और सभी सदस्यों को मन:पूर्वक धन्यवाद। मैत्री वह माध्यम था, जिसके द्वारा पीडित लोगों तक पहुँचा जा सका और उनका थोडा साथ दिया जा सका। मैत्री यह कार्य आपदा होने के तुरन्त बाद से अब तक कर रही है और अगले कुछ महिनों तक करेगी। भुज भूकम्प २००१, त्सुनामी २००४, लेह फ्लॅश फ्लड २००९ आदि कई आपदाओं में मैत्री संस्था ने राहत और निर्माण कार्य में पहल की थी।

.... २६ जुलाई को पुणे से पाँच सदस्य निकलें। और एक सदस्य तथा टीम के लीडर दूसरे दिन दिल्ली में जुड़नेवाले थे। जब ऐसे किसी काम के लिए लोग साथ आते है, तो कितने भी अनजान होते हुए भी दोस्ती हो ही जाती है। अलग अलग व्यवसाय और सामाजिक पृष्ठभूमि से आए हुए वे पाँच लोग- जिनमें दो डॉक्टर थे- अगले दिन दिल्ली पहुँचने तक अच्छे दोस्त बन गए। एक दूसरे के अनुभव बताए गए। सामान साथ मिल कर उठाया। दिल्ली में और दो लोग जुड़ गए और कारवाँ निकल पडा काठगोदाम की ओर। 

दिल्ली से काठगोदाम की यात्रा में एक सहयात्री मिले जो हल्द्वानी के निवासी थे। वे मर्चंट नेव्ही में थे और चार महिनों बाद स्वदेस लौट कर घर जा रहे थे। उन्हे आपदा के बारे में अधिक सूचना नही थी, फिर भी चिंतित हो कर घर जा रहे थे। महाराष्ट्र से सहायता हेतु आए समूह को देख कर उन्हे अचरज हुआ। सहायता करने की तत्परता उन्होने दर्शायी। करीब यही अनुभव बार बार आता रहा। यात्रा आरम्भ करने से पहले भी जब तैयारी के लिए कुछ सामान खरीदा जा रहा था, तब कई मौकों पर नि:शुल्क मिला। जैसे ही दुकानदार को पता चलता की यह उत्तराखण्ड सहायता सामग्री के लिए जा रहा है, तो वह पैसे नही लेता था..... यात्रा में पता चल गया की पिथौरागढ़ जनपद के अस्कोट तथा धारचुला गाँवों के परिसर में सहायता कार्य करना है। छब्बीस जुलाई को देर रात काठगोदाम पहुँच गए। वहीं तुरन्त आगे जाने की योजना बनी। काठगोदाम में आसमान बिलकुल साफ था। बादलों की अनुपस्थिति में आकाश तारों से जगमगा रहा था। 
 
काठगोदाम रेल्वे का अंतिम स्टेशन है। इसके बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। झुलाघाट के पास रहनेवाले हमारे चालक आए। जीप तैयार खडी थी। सभी होटल बन्द होने के कारण भोजन के लिए हल्द्वानी जाना पडा। जैसे तैसे खाना खा लिया। तुरन्त आगे जाने के लिए चल पडें। पिथौरागढ़ जल्दी पहुँचने का प्रयास था जिससे कार्य जल्दी शुरू किया जा सकता था। वैसे तो पहाड़ के रास्तों पर रात में यातायात नही होती हैं, पर कुछ लोग चल पडते हैं। करीब रात को बारा बजे काठगोदाम से निकल पडें। सात जन और काफी सामान था। डॉक्टरों के शिविरों के लिए काफी दवाईयाँ भी थी। हमारे चालक महोदय भट्ट जी काफी साहसी चालक थे। उन्होंने पूरी रफ्तार के साथ गाडी दौडाना शुरू किया। काठगोदाम के बाद तुरन्त पहाड़ शुरू होता है और फिर निरंतर मोड और चढाई- ढलानों का सिलसिला चलता रहता है। दो कदम भी गाडी सीधी नही चलती। थोडा आगे गए की बाएँ या दाएँ नही तो उपर या नीचे जाना पडता ही है। और महाशय काफी गति से भी चला रहे थे। अंधेरा और थकान के बावजूद समझ में आ रहा था, कि कितनी तेजी से गाडी जा रही है। वाहनों की आवाजाही लगभग न के बराबर थी। एक घण्टे बाद कुछ ट्रक रूके मिले। एक सज्जन ट्रक को रास्ते में ही लगा करा बैठ गए थे। फिर उन्होनें उसे हटाया।

निकलते ही जीप के अंदर और फिर पेट में भी बहुत उथल पुथल होने लगी। यदि सफर कम गति से होता हो, तो शरीर अनुकूल होता जाता है। पर एकदम से उथल पुथल होने के कारण धीरे धीरे शरीर में प्रतिक्रिया आने लगी। उल्टी की भावना होने लगी। कुछ नियंत्रण तो कर लिया, पर फिर शरीर ने निर्णय किया। एक के बाद एक लोग उल्टी करने लगे। उल्टी ऐसी चीज है, जो दबायी नही जानी चाहिए। क्यों कि यह समस्या नही, अपितु समाधान है। शरीर उस स्थिति में संतुलन बनाता है। इसलिए यदि शरीर संकेत देता है, तो उसे टालना नही चाहिए। और यह भी एक अभ्यस्त होने का चरण है। शरीर ऐसे रास्ते और ऐसे सफर के लिए खुदको अभ्यस्त कर रहा है। खैर, सभी खाना उल्टी में चला गया। सात में से केवल तीन जन इससे बच गए! शरीर के सामने चुनौती आ चुकी थी। हर एक के फिटनेस लेवल की आजमाईश शुरू होने जा रही थी।

रात में जीप जिस रास्ते से जा रही थी- काठगोदाम- भीमताल- शहर फाटक- दन्या- घाट- गुरना- पिथौरागढ़- उस रास्ते पर जाडे के दिनों में दिन में साफ रूप से हिमालय की बर्फिली चोटियों का दूरदर्शन होता है। रात में भी वे स्थान दिखाई दिए, जहाँ से बर्फिली चोटियाँ दिखती हैं.... सफर वाकई में हिन्दी के साथ अंग्रेजी सफर भी था। नींद लेने का तो सवाल ही नही था। क्यों कि बिलकुल भी स्थिरता नही थी। हिन्दी और अंग्रेजी सफर चलता रहा। आखिर कर शरीर को कुछ राहत मिली और नीन्द नही पर कम से कम झपकी का लाभ मिला। जैसे ही ब्रेक दबाया जाता, एक झटके से शरीर जाग जाता। सामने रास्ते पर बादल दिखाईं दे रहे थे। और चालक महाशय तेजी से चलाए जा रहे थे। रास्ता बीच बीच में कच्चा था और उसकी कुछ टूट-फूट भी हुई थी। बरसात के मौसम के अलावा भी यह रास्ता वैसे सुनसान ही रहता है। इस पर कोई भी बडा शहर नही है। अल्मोडा शहर के कुछ दूरी से जानेवाला रास्ता सुनसान ही रहता है। फिर आगे घाट में यह रास्ता टनकपूर- पिथौरागढ़ मार्ग से जुड़ता है।

सुबह के चार होने तक दन्या आ गया। यहाँ कुछ होटलवाले जागते मिलें और चाय भी मिली। सोचा था कि शरीर अब उल्टी से बाहर आ गया होगा, इसलिए चाय पिने का साहस किया। जैसे ही आगे निकले, पूरी की पूरी चाय उलट गई। बिलकुल भी नसीब नही हुईं। अब तक उलटियों की बौछारों से जीप की बाहरी दिवारों का रंग भी बदल गया था। लेकिन चालक महोदय बिल्कुल खफा नही थे। बडी सरलता से वह कह रहे थे, कोई बात नही, गाडी वैसे भी धोनी ही है। पहाडी सरलता का यह मात्र पहला प्रसंग था। जैसे पूरब प्रकाशित होने लगी, नजारा दिखाई पडने लगा। चारो तरफ ऊँचाईयाँ और पहाड़ के तल में से बहनेवाली रामगंगा! यहाँ कई बार पहले आने के कारण परिसर परिचित था। घाट, गूरना और फिर पिथौरागढ़ आ ही गया। यहाँ थोडी देर रूके। जीप यहीं तक थी। दूसरी जीप का इंतजाम होने पर अस्कोट के लिए चल दिए। यहाँ से जाडों में बर्फाच्छादित पहाड़ अच्छी तरफ दिखते है। पर बादलों की मोटी पर्त ने निराश किया। पिथौरागढ़ में खाने का ही नही, कुछ पिने का भी साहस नही हो पाया।

लेकिन आगे टीम लीडर सर ने बताया की चाहे, उल्टी आती रहें, कुछ तो खाना चाहिए। आगे अस्कोट बेस कँप में कुछ मिलेगा या नही भी मिलेगा। इसलिए रास्ते पर एक जगह पराठे का नाश्ता कर लिया। पिथौरागढ़ से अस्कोट वैसे लगभग पचास किलोमीटर दूर है। पर बरसात में रास्तों का काफी नुकसान होने से दो घण्टों से अधिक समय लगता है। रास्ते में आयटीबीपी अर्थात्‌ इंडो तिबेटन बॉर्डर पोलिस के कई केन्द्र आते हैं। रास्ते बुरी तरह धराशायी हुए थे। पिथौरागढ़ से बीआरओ अर्थात्‌ बॉर्डर रोडस ऑर्गनायजेशन की हिरक परियोजना का आगाज़ होता है। यहाँ से आगे की यात्रा बीआरओ एवम्‌ अन्य सेना के दलों के साथ ही होती है....... 



प्रकृति की गोद में.....






































अस्कोट से लगभग पाँच किलोमीटर पहले दायी तरफ एक पट्ट दिखाई दिया- अर्पण संस्था (Association for Rural Planning and Action)। यह हेल्पिया गिरीग्राम में बंसी एक जमिनी स्तर पर कार्यरत संस्था है। इसीके कँपस में बेस कँप था। यही मुख्य केंद्र था। यहीं से आगे का काम शुरू करना था। नितांत रमणीय कँपस पर जाते ही थकान कम हो गयी। पहाडों की शांती और सुकून! यहाँ कुछ मित्रों के मोबाईल नेटवर्क पर नेपाल दिखाई दिया! जी हाँ, यह परिसर नेपाल से सटा हुआ ही तो है!

हेल्पिया की अर्पण संस्था के परिसर से दिखनेवाला नजारा

























बेस कँप में कुछ विश्राम के बाद शाम को थोडी देर पैरों को वॉर्म अप करने के लिए एक मंदीर तक गए। चढाई बहुत हल्की थी। यहाँ पर टीम लीडर सर ने सभी को सूचनाएँ दी। जानकारी दी। योजना बतायी। आते समय बरसात शुरू हुई। एक समूह होना कितना सार्थक होता है, यह पता चला। जिसके पास रेनकोट या छाता नही था, उसे छाता मिल गया। जिसकी बॅग भिगनेवाली थी, उसे एक मित्र के पोंचू का संरक्षण मिल गया। किसी को बॅटरी मिल गई। समूह की अपनी ताकत होती है। इसकी प्रचिति अब बार बार आनेवाली थी। अगले दिन यानी २९ जुलाई को कार्य आरम्भ करने के विचार के साथ और अर्पण के साथीयों से परिचय करने के साथ वह शाम बीत गईं। मन में विचार थे तो बस शुरू होनेवाले कार्य के। 



  

1 comment:

  1. आपने उत्तराखंड जाकर कार्य किया यह निश्चित ही प्रशंसनीय है. ब्लॉग अच्छा है. लेकीन अनावश्यक घटनांको विस्तृतीकरण टालना चाहिये. वो सब घटना आपके लिये महत्त्वपूर्ण होगी लेकीन उसे सामान्य वाचको रुची नही लगती. और वो ब्लॉग आधें मे ही छोड देता है.

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आपने ब्लॉग पढा, इसके लिए बहुत धन्यवाद! अब इसे अपने तक ही सीमित मत रखिए! आपकी टिप्पणि मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है!