ओशो.
. . .
जुलाई
२०१२ में ओशो मिले.
. संयोग
से पहले ही कुछ प्रवचनों में
ध्यान सूत्र प्रवचन माला मिली|
वहाँ
से फिर 'एस
धम्मो सनन्तनो',
'सम्भोग
से समाधी तक',
'ताओ
उपनिषद',
'अष्टावक्र
महागीता',
'मै
कहता आखं देखी'
और
अन्य बहुतसी मालाएँ सुनी.
. . अब
भी रोज सुनता हूँ|
उसमें
से इतना कुछ मिलता गया और मिल
रहा है कि जुलाई २०१२ से एक
नया ही जीवन शुरू हुआ है.
. . जैसे
जीवन के दो हिस्से हैं-
जुलाई
२०१२ के पहले और जुलाई २०१२
के बाद.
. .
उस
समय उनसे मिलना होने के पहले
उनके बारे में थोड़ा थोड़ा सुना
था,
पढा
था|
पर
कहते हैं ना कि सही समय के
पहले कुछ भी नही होता है|
इसलिए
पहले कई बार उनका नाम सुनने
के बाद भी परिचय नही हुआ था|
लेकिन
तब परिचय हुआ;
मिलना
हुआ;
जीवन
में एक नई मिति प्रवेश कर गई|
. .
उस
ज़िन्दगी से कैसे गिला करे जिस
ज़िन्दगी ने मिलवा दिया आपसे.
.
ओशो
कैसे थे,
उन्होने
क्या किया था,
क्या
वे
वाकई महान थे,
ऐसे
तर्क मै नही करना चाहता हूँ|
मै
मेरे करीब के लोगों को इतना
ही कहता हूँ कि ओशो सुनिए,
पढिए,
अनुभव
लीजिए!
थोड़ा
स्वाद तो लीजिए!
और
फिर तय किजीए कैसे लगता है!
पीछले
चार सालों में इतना कुछ मिला
है कि कहा नही जा सकता है|
वे
जो बताते है वे जीवन से कितना
करीब है,
यह
बार बार महसूस होता गया|
वे
जो बताते हैं,
जो
कहते हैं,
उसकी
प्रतिति बाहर किसी शास्त्र
में नही,
वरन्
अपने जीवन के अनुभव में चप्पे
चप्पे पर मिलती है,
इसका
अनुभव लिया.
. .
फिर
धीरे धीरे सब प्रेम गीतों का
अर्थ ही बदल गया|
प्रेमियों
के गाने ठीक
गुरू-
शिष्य
नाते के लिए भी लागू होने लगे|
जैसे-
गुरू
शिष्य को कई जन्मों से पुकार
रहे हैं-
जाईए आप कहाँ
जाएंगे
ये
नज़र लौट के आएगी
दूर तक आपके
पीछे पीछे
मेरी आवाज
चली जाएगी
या यह भी
तेरा मुझसे
है पहले का नाता कोई
युंही नही
दिल लुभाता कोई
जाने तू या
जाने ना माने तू या माने ना
ओशो
के विचार कहना बहुत कठिन है|
क्यों
की वे सिर्फ विचार ही नही हैं,
उनमें
'निर्विचारता'
भी
है|
उनकी
एक बात याद आती है|
शुरू
के दिनों में वे उनके प्रवचन
का आरम्भ 'मेरे
प्रिय आत्मन्'
द्वारा
करते थे और प्रवचन समाप्त होते
समय कहते थे,
"आपके
भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम
करता हूँ,
मेरा
प्रणाम स्वीकार करें|”
लोग
अपनी भगवत्ता पहचाने,
यह
उनकी अपेक्षा थी|
और
फिर १९७३
के बाद उन्होने स्वयं को भगवान
कहना शुरू किया|
उसका
भी हेतु यही था कि सभी लोग
भगवानस्वरूप
ही हैं|
सिर्फ
वह देखने के लिए हिम्मत चाहिए|
मै
स्वयं को भगवान कहता हूँ और
आपको भी स्वयं के बीच का ईश्वर
देखने के लिए प्रेरित करता
हूँ,
ऐसा
वे कहते हैं|
उस
समय उन्हे बहुतसे पत्र आए कि
कि आप कैसे स्वयंघोषित भगवान
हैं,
स्वयं
को कैसे भगवान कहते है आदि
आदि|
उस
पर ओशो ने कहा,
'जब
मै आपको प्रणाम करता था,
आपमें
भीतर बैठे परमात्मा को नमन
करता था,
तब
एक ने भी मुझे 'क्यों'
नही
पूछा|
क्योंकि
वह आपके अहंकार के अनुकूल था|
पर
जब मैने मेरा उल्लेख भगवान
ऐसा किया,
तभी
फिर आपने मुझे क्यों पूछा?
तब
तो एक ने भी नही पूछा था और इतने
सारे पूछ रहे हैं|'
उसके
बाद उन्होने कहा कि भगवान न
होने का विकल्प है ही नही|
जो
भी है,
सब
भगवानस्वरूप ही है|
सिर्फ
वह खुले आँखों से देखना या न
देखना,
इतना
ही फर्क है|
ओशो
को सुनते समय इतना कुछ मिलता
गया कि जीवन के प्रति दृष्टि
बदली|
जीवन
में हमें पसन्द न आने वाले,
अनचाहे
कई पहलू होते हैं|
उनका
स्वीकार करने की दृष्टि धीरे
धीरे आई|
जीवन
के तनाव-
संघर्ष
तीव्रता से चले जा रहे हैं.
. .
ओशो
के प्रवचन में कुछ शिष्यों
ने प्रश्न पूछते समय ऐसे गाने
भी पूछे हैं-
कुछ
दिल ने कहा,
कुछ
भी नहीं
कुछ
दिल ने सुना,
कुछ
भी नहीं
ऐसी
भी बातें होती हैं
उस
पर ओशो कहते हैं
कि असली संवाद मौन से ही होता
है|
शब्द
तो सिर्फ माध्यम होते हैं|
एक
ने उन्हे प्रश्न के तौर पर यह
गाना ही पूछा-
कोरा कागज़
था मन मेरा
लिख
दिया नाम इसपे तेरा.
. .
सुना
आँगन था जीवन मेरा.
. .
बस
गया प्यार जिसपे तेरा.
. .
और
तुम अबसे
पहले सितारों में बस रहे थे
कहीं
तुम्हे
बुलाया गया है जमीं पर मेरे
लिए. . .
उस
पर ओशो कहते हैं
कि मै भी आप जैसा ही हूँ,
पर
मुझमें ऐसा कुछ है जो सितारों
में से है और वह आपमें भी हो
सकता है|
ओशो
ने जो कहा है,
वह
बहुत विलक्षण है;
युनिक
है|
सिर्फ
विभन्न धर्मपंथ और साधना मार्ग
के बारे में ही नही,
उन्होने
प्रचलित समाज;
प्रोजेक्टेड
ट्रूथ;
देश-काल
इसके बारे में जो भाष्य किया
है;
वह
अ द् भु त और अ वा क करनेवाला
है.
. . उसे
यहाँ कहने के बजाय जिन्हे
इच्छा हो,
उन्होने
उसे ओरिजिनल सुनना/
पढना
चाहिए (उसकी
थोड़ी और चर्चा करनेवाला मेरा यह ब्लॉग)|
ओशो
ने एक जगह कहा है कि आप मुझे
गुरू भी मत मानिए और मित्र भी
मत मानिए|
सड़क
पर जाते समय आपको मिलनेवाला
कोई अन्जान राहगीर समझिए|
मित्र
भी मानेंगे तो मेरे प्रति
आसक्त होंगे|
मुझे
एक अन्जान राहगीर समझ कर मुझमें
आसक्त हुए बिना मै जो मार्ग
दिखा रहा हूँ,
सिर्फ
उस पर आगे बढ़िए.
. .
कहने
जैसा बहुत कुछ है|
वह
भाव व्यक्त करनेवाले ये कुछ
गाने|
गुरू-
शिष्य;
अध्यात्म
का सार इसका अर्थ दर्शानेवाले
कुछ गाने और खास कर ६०-
७०
के दशक के कुछ गानों में उस
समय प्रवचन देनेवाले ओशो की
उपस्थिति स्पष्ट महसूस होती
है.
. .
यहीं
वो जगह है.
. . यही
वो फिज़ाएँ हैं.
. .
यहीं
पर कभी आप हमसे मिले थे.
. .
इन्हे
हम भला किस तरह भूल जाएं .
.
यहीं
पर कभी आप हमसे मिले थे.
. .
खामोश
है ज़माना,
चुपचाप
हैं
सितारें
आराम
से है
दुनिया,
बेक़ल
हैं
दिल के मारे
ऐसे
में कोई आहट,
इस
तरह आ रही है
जैसे
की चल रहा हो,
मन
में कोई हमारे
या
दिल धड़क रहा है,
एक
आस के सहारे.
. .
आएगा,
आएगा,
आएगा.
. आएगा
आनेवाला
तुम
पुकार लो.
. .
तुम्हांरा
इन्तज़ार है.
. .
इन
गानों में भी ठीक यही अर्थ
महसूस होता है
अजनबी मुझको
इतना बता दे
दिल मेरा
क्यों परेशान है
देख के तुझको
ऐसा लगे
जैसे
बरसों की पहचान है .
. .
मन अपने को
कुछ ऐसे हल्का पाए
जैसे कन्धों
पे रखा बोझ हट जाए
जैसे भोला
सा बचपन फिरसे आये
जैसे
बरसों में कोई गंगा नहाए.
. .
धुल सा गया
है ये मन
खुल सा गया
हर बंधन
जीवन
अब लगता है पावन मुझको.
. .
जीवन
में प्रीत है,
होठों
पे गीत है
बस ये ही जीत
है सुन ले राही
तू
जिस दिशा भी जा,
तू
प्यार ही लूटा
तू
दीप ही जला,
सुन
ले राही.
. .
यूं ही चला
चल राही यूं ही चला चल
कौन ये मुझको
पुकारे
नदियां
पहाड़ झील और झरने,
जंगल
और वादी
इनमें
है किसके इशारे .
. .
.
. . जिन्हे
रस होगा,
उन्हे
ओशो को समझने का एक अच्छा मार्ग
उनके प्रवचनों में बताई
गई यादों का संग्रह कर बनाया
उनका एक चरित्र|
यह
१३०५ पृष्ठ का पीडीएफ किताब यहाँ उपलब्ध
है|
जिन्हे
रस होगा,
वे
उसे डाउनलोड कर शुरू के कम से
कम १०० पृष्ठ पढ़ सकते हैं|
ओशो
के बारे में कई लोगों ने बहुत
कुछ कहा है|
पर
मेरा अनुभव है कि ओशो के बारे
में अन्य क्या कह रहे हैं,
इसे
थोड़ा साईड में रख कर ओशो खुद
क्या कह रहे हैं,
यह
सुनना आरम्भ किया की धीरे धीरे
शंकाएँ रहती ही नही है.
. . . इसलिए
जिन्हे कुछ आक्षेप हो या कुछ
प्रश्न हो,
उन्होने
इस किताब के कम से कम पहले १००
पृष्ठ पढ कर अपनी राय बनानी
चाहिए|
धन्यवाद!
:)
अन्त
में भी एक गाना ही याद आता है-
उसके
सिवा कोई याद नही.
. . उसके
सिवा कोई बात नही.
. .
उन
ज़ुल्फों की छाँव में.
. . . उन
कातिल अदाओं में,
इन
गहरी निगाहों में.
.
हुआ
हुआ मै मस्त.
. .
वो
दौड़े है रग रग में,
वो
दौड़े है नस नस में
अब
कुछ न रहा मेरे बस में हुआ हुआ
मै मस्त.
. .
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