21 मार्च 1953 सद्गुरू ओशो का संबोधि दिन है...
"संबोधि दिवस पर आपका संदेश क्या है?"
आनंदित
होओ। आनंद बांटो। और जो आनंदित है वही आनंद बांट सकता है, स्मरण रखो। दुखी
दुख ही बांट सकता है। हम वही बांट सकते हैं जो हम हैं। जो हम नहीं हैं,
उसे हम चाहें तो भी नहीं बांट सकते। इसलिए तो इस दुनिया में लोग ऐसा नहीं
है कि दूसरों को सुख नहीं देना चाहते। कौन मां-बाप अपने बच्चों को दुख देना
चाहता है! कौन पति अपनी पत्नी को दुख देना चाहता है! कौन पत्नी अपने पति
को दुख देना चाहती है! कौन बच्चे अपने मां-बाप को दुख देना चाहते हैं!*
*नहीं; लेकिन तुम्हारी चाह का सवाल नहीं है। दुख ही फलित होता है। नीम लाख
चाहे कि उसमें मीठे आम लगें और कांटे लाख चाहें कि गुलाब के फूल हो जाएं,
चाहने से क्या होगा? मात्र चाहने से कुछ भी न होगा। तो तुम चाहते हो कि
लोगों को आनंदित करो, लेकिन कर तुम पाते हो केवल दुखी। चाहते तो हो कि
पृथ्वी स्वर्ग बन जाए, लेकिन बनती जाती है रोज-रोज नरक।
इसलिए
मैं तुमसे कहना चाहता हूं, यह मेरा संदेश है: इसके पहले कि तुम किसी और को
आनंद देने जाओ, तुम्हें अपने भीतर आनंद की बांसुरी बजानी पड़ेगी, आनंद का
झरना तुम्हारे भीतर पहले फूटना चाहिए। मैं तुम्हें स्वार्थी बनाना चाहता
हूं।
यह स्वार्थ शब्द
बड़ा प्यारा है। गंदा हो गया। गलत अर्थ लोगों ने दे दिए। स्वार्थ का अर्थ
होता है: स्वयं का अर्थ। अपने भीतर के अर्थ को जो जान ले, स्व के बोध को जो
जान ले, वही स्वार्थी है। मैं तुमसे कहता हूं: स्वार्थी बनो, क्योंकि
तुम्हारे स्वार्थी बनने में ही परार्थ की संभावना है। तुम अगर स्वार्थी हो
जाओ पूरे-पूरे और तुम्हारे भीतर अर्थ के फूल खिलें, आनंद की ज्योति जले, रस
का सागर उमड़े, तो तुमसे परार्थ होगा ही होगा।
इसलिए
मैं सेवा नहीं सिखाता, स्वार्थ सिखाता हूं। मैं नहीं कहता कि किसी और की
सेवा करो। तुम कर भी न सकोगे। तुम करोगे तो भी गलती हो जाएगी। तुम करने
जाओगे सेवा और कुछ हानि करके लौट आओगे। तुम करना चाहोगे सृजन और तुमसे
विध्वंस होगा। तुम ही गलत हो तो तुम जो करोगे वह गलत होगा।
इसलिए
मैं तुम्हारे कृत्यों पर बहुत जोर नहीं देता। मेरा जोर है तुम पर। तुम
क्या करते हो, यह गौण है; तुम क्या हो, यही महत्वपूर्ण है।
बधाई हो आपको।
ReplyDelete