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Monday, June 6, 2016

प्रकृति, पर्यावरण और हम ८: इस्राएल का जल- संवर्धन


प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा

प्रकृति, पर्यावरण और हम ६: फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग

प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!


इस्राएल का जल- संवर्धन

इस्राएल! एक छोटासा लेकिन बहुत विशिष्ट देश! दुनिया के सबसे खास देशों में से एक! इस्राएल के जल संवर्धन की चर्चा करने के पहले इस्राएल देश को समझना होगा| पूरी दुनिया में फैले यहुदियों का यह देश है| एक जमाने में अमरिका से ले कर युरोप- एशिया तक यहुदी फैले थे और स्थानिय लोग उन्हे अक्सर 'बिना देश का समाज' कहते थे| यहाँ तक कि युरोप और रूस में यहुदियों को दुश्मन समझ कर उन्हे देश से निकाला गया| खास कर द्वितीय विश्व युद्ध में यहुदियों पर ढाए गए जुल्म! साठ लाख से अधिक यहुदियों को तो नाझी जर्मनी ने मार दिया| जिस समाज का अपना देश नही था- जो अलग अलग देशों में बिखरे थे; जिनकी अपनी पहचान नही थी उस समाज १९४८ में एक नया देश बन गया!

अक्सर कहा जाता है कि कोई बात अगर एक छोर तक जाती है, तो उसमें बिल्कुल विपरित छोर के गुणधर्म आ जाते हैं| जैसे सैकडों वर्षों तक यहुदियों ने मुसीबत, संघर्ष और चुनौतियों का सामना किया और इसीके कारण उनका देश खड़ा हुआ जो उस समाज के स्थिति के ठीक विपरित है- सशक्त, समर्थ और बड़ी पहचानवाला! जैसे अगर कोई अंगुलीमाल जैसा क्रूर और खूंखार हो जाता है, तो उस छोर से- उस एक्स्ट्रीम से उसका सन्त बनना दूर नही होता है| बस एक ही बात चाहिए कि उस इन्सान या उस चीज़ को उस छोर के अन्त पर पहुँचना चाहिए| जो लोग वाकई धनवान होते हैं; सम्पत्ति अर्जित करते हैं, वे ही एक दिन उस धन- दौलत के मोह से छूट भी सकते हैं| जैसे पानी अगर १०० डिग्री तक गरम हो, तो ही भांप बनता है; कुनकुने पानी में वह बात नही होती है| उसी तरह जिस समाज को बुरी तरह सैकडों सालों तक लताडा गया, जीसस को सूली देने की सजा दिन्हे दो हजार सालों तक मिलती रही; आखिर कर उनकी किस्मत ने करवट ले ली| १९४८ में इस्राएल का जन्म हुआ|



Tuesday, May 31, 2016

प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!


प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा

प्रकृति, पर्यावरण और हम ६: फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग


कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!

एक बार एक सज्जन पहाडों में चढाई कर रहे थे| उनके पास उनका भारी थैला था| थके माँदे बड़ी मुश्किल से एक एक कदम चढ रहे थे| तभी उनके पास से एक छोटी लड़की गुजरी| उसने अपने छोटे भाई को कन्धे पर उठाया था और बड़ी सरलता से आगे बढ़ रही थी| इन सज्जन को बहुत आश्चर्य हुआ| कैसे यह लड़की भाई का बोझ ले कर चल रही है जब कि मुझे तो एक थैला ले जाना दुभर हो रहा है? उन्होने लड़की से पूछा तो उसने बताया कि यह मेरे लिए बोझ नही है, मेरा भाई है| उसका भला कैसे बोझ होगा? तब उनके समझ में आया| यह कहानि बिल्कुल अर्थपूर्ण है| जब तक हम किसी बात को पराया समझते हैं, तब तक वह हमारे लिए बोझ होता है, कर्तव्य होता है| लेकिन जब उसी बात को हम अपनाते हैं; अपना मानते हैं, तो वह सरल और सहज होता है|

ठीक यही बात पर्यावरण के सम्बन्ध में भी हैं| आज हम कितना समझते हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना बड़ा कठिन हैं; बहुत मुश्किल काम हैं; लेकिन हमारे बहुत नजदीक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिससे विश्वास मिलता है कि पर्यावरण की रक्षा करना उतनी भी कठिन बात नही है| जैसे कई लोग आज मानते हैं- कई किसानों की यह धारणा है कि गाय को संभलना; गाय का पालन करना आज बहुत कठिन हो गया है| आज गौपालन 'viable' नही हैं| आज वह एक 'asset' नही, बल्की एक 'liability' है| लेकिन थोड़ी आँखें खुली रखी तो हमे दिखाई देता है कि यह अपरिहार्य नही है| आज भी ऐसे घूमन्तू समुदाय (nomadic tribes) हैं जो स्वयं बुरी स्थिति में होने के बावजूद गायों को पालते हैं| उनके लिए गाय कोई वस्तु नही; उनका स्वयं का ही एक अंग है| कुदरत से ताल्लुक रखनेवाले समुदायों में यह भी देखा जाता हैं कि चाहे उनके खाने के लिए कुछ हो ना हो, जो भी अतिथि उनके पास जाएगा, भूखा नही जाएगा| इन्सान तो दूर, वे कुत्ते को भी भूखा नही रखेंगे| अपनी सम्पदा उसके साथ भी शेअर करेंगे|