हेल्पिया से पिथौरागढ़ का फासला
मात्र पचास किलोमीटर का है। पर पहाडी रास्ता होने के कारण और खास कर बरसाती मौसम
के कारण समय अधिक लगा। सड़क की हालत तकलीफ़देह है। बीच बीच में लैंड स्लाईडिंग के
कारण कच्चे रास्ते से जाना होता है और बारीश तथा किचड से वह रास्ता भी कष्ट देता
है। इस रास्ते पर कनाली छीना तहसील मुख्यालय आता है और वही इस रास्ते का सबसे ऊँचा
बिन्दु है।
यात्रा में अर्पण के सदस्य भी
है। बातचीत काफी चल रही है। सर ने काफी बाते बतायी। वे १९७८ से पहाड़ में आ रहे हैं।
पहाड़ का चप्पा चप्पा घूम चुके हैं। कई स्थानों पर ट्रेकिंग के लिए तो आते ही है;
उसके अलावा भी बहुत घूमे हैं। उन्होने कहा कि 16 जून की बाढ आने के कुछ ही दिन
पहले ३० मई को वे हरिद्वार में थे। उस समय वहाँ का तपमान ४६ अंश से. था; जो कि
अत्यंत अविश्वसनीय और बिलकुल अप्रत्याशित था। उन्होने कहा के इसी से संकेत मिल रहा
था कि पर्यावरण में बडी उथल पुथल हो रही है। गिरीप्रेमी संस्था के एव्हरेस्ट मुहिम
पूरी करनेवाले उनके एक मित्र है। उनसे हाल ही में उनकी बात हुईं। गिरीप्रेमी
संस्था भी मैत्री के साथ काफी अहम भुमिका इस राहत कार्य में निभा रही है। सर के
मित्र ने कहा था कि हिमालय में ६००० मीटर की ऊँचाई पर वे गए थे और वहाँ बर्फ की
बजाय बारीश हो रही थी। जब की इतनी अधिक ऊँचाई पर कभी भी बारीश नही होती है। यह पर्यावरण
में आए बदलाव की एक झलक मात्र है। सर मौसम शास्त्र के विशेषज्ञ भी हैं। उन्होने इन
सब बातों पर और प्रकाश डालते हुए एक संकल्पना का जिक्र किया। जिसे अंग्रेज़ी में
वेस्टर्न डिस्टर्बन्स कहा जाता है। यह एक मौसमी घटना है; और हर साल इसके होने की
सम्भावना बनती है। उन्होने बताया कि केदारनाथ में जो बादल फटें; उसके पीछे कई
बातें थी। एक तो बहुत बडी परिधि का कम दबाव का क्षेत्र बन गया था। अर्थात् जून
महिने की गर्मी के कारण। उस समय वहाँ काफी दूर के इलाकों से नमीं खींची गईं। जैसे
भारत के पूर्व तट पर आए किसी समुद्री तुफान का घेरा कई हजार किलोमीटर तक का हो
सकता है और उससे कई हजार किलोमीटर दूर होनेवाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे
इलाकों में भी बारीश होती है; उसी प्रकार इस कम दबाव के क्षेत्र में हजारो
किलोमीटर दूर से नमीं खीचीं गई। कॅस्पियन समुद्र तक के दूर के इलाकों से नमी खींची
गईं और फिर वह कम दबाव का बिन्दु फटा। मौसम शास्त्र के अनुसार यह आज कल सम्भव है। चार
वर्ष पूर्व लेह में बादल फटे थे। हर बरसात में किसी ना किसी पहाडी़ क्षेत्र में
बादल फटते ही हैं। तो ऐसा ही हुआ; पर नमीं की घनता अत्याधिक थी और उससे केदारनाथ
से जुडे़ सैकडों किलोमीटर के घेरे में अप्रत्याशित और असाधारण बरसात हुईं। इससे सब
आपदा टूट पडी़।
मौसम में यह बदलाव होने के कई
कारण है। जैसे पहले भी बात की जा चुकी है- पहाडों पर पेडों को नष्ट किया जाना;
वहाँ मानव क्रिया से तनाव पैदा होना; वैश्विक तपमान में वृद्धि; प्राकृतिक जल
मार्गों में अतिक्रमण आदि। देखा जाए तो यह पूरी विपदा बिलकुल भी अनपेक्षित नही है।
सर के शब्दों में दैवी तो बिलकुल भी नही है; वरन् पूर्णत: मानवी है। और जितना मानव
ने बनाया था; उतना ही प्रभावित हुआ। प्राकृतिक घटकों को हानि न पहुँची। उत्तराखण्ड
में लोग बता रहे हैं कि कई बार नए झरने पैदा होने से भी गाँव बहे हैं। जैसे पहाड़
पर बस्ती बनायी और जल प्रपात के मार्ग अवरूद्ध हो गए; तो वे दूसरे मार्ग तो
ढूंढेंगे ही। नदीयाँ भी ऐसा ही कुछ कर रही हैं। उनकी क्षमता से काफी अधिक पानी
उनमें आने पर वे अब प्रवाह बदल रही हैं। पानी के तेज बहाव के बल से अब यह प्रवाह
सीधा हो रहा है। इन सब बातों का मतलब साफ है। असल प्रश्न यह है कि क्या हम इससे
कुछ सबक़ लेंगे और अपनी विकास की अवधारणा में परिवर्तन करेंगे या नही???
सर का फिटनेस भी अद्भुत है। ५६
की आयु होने के बावजूद वे टीम के सबसे फिट व्यक्ति है। और उन्होने ही बताया कि
उनका वर्तमान फिटनेस कुछ भी नही है। वास्तव में कुछ साल पहले एक दुर्घटना में उनका
पैर काफी क्षतिग्रस्त हुआ था। वे महिनों तक बिस्तर में थे। फिर धीरे धीरे चलने
लगे। कमजोर घुटना होते हुए भी उन्होने ट्रेकिंग शुरू किया और आज कौनसी भी राह पर
बेझिझक चलते है। वरन् अन्य युवाओं से आगे जाते है। मन में सवाल आता है कि यदि उनका
यह फिटनेस ‘कुछ भी ‘ नही है; तो पहले का फिटनेस कैसा रहा होगा! अर्थात् पहाड़ का
आदि होना तथा फिटनेस बेहतर होना यह बात जीवनशैली से भी जुडी है। जो भी ऐसी
जीवनशैली का चयन करेगा; उसे उसका फल मिलेगा। पहाड़ में भी दिखाई दे रहा है कि सब लोग
फिट नही है। जिनकी जीवनशैली आरामदेह है; जैसे कोई दुकानदार हो; कोई ड्रायव्हर हो;
तो उन्हे भी पहाडी राहों पर तकलीफ होती है। खैर।
पिथौरागढ़ के पन्द्रह किलोमीटर
पहले पलेटा नाम का एक कस्बा आता है। वहाँ एक दुकान में पन्नियों (प्लास्टिक की
थैलियाँ) के बारे में बात हुई। स्टोअर में राशन पैक करने के लिए काफी पन्नियाँ
चाहिए। फिर एक बार देखने में आया कि पहाड़ में हर कोई हर किसी को पहचान रहा है। कम
से कम दो- तीन तरह से पहले से ही एक दूसरे को जानता है। यह बात उनकी जीवनशैली की
तरफ भी इशारा करती है। वे अब तक टी.व्ही, इंटरनेट, शॉपिंग, क्रिकेट के इतने दिवाने
नही हुए हैं!
पिथौरागढ़ में आयटीबीपी का एटीएम
बन्द है। आगे भी एटीएम से कॅश नही मिली। बडी दिक्कत है। फिर कई घण्टों तक मीटिंग
चली। दो संस्थाओं की भागीदारी से सम्बन्धित विषय चर्चा में आए। अब स्थिति यह है कि
आपात्काल पुनर्वसन के मुद्दे को ले कर कई संस्थाएँ- कई बडी संस्थाएँ- और कंपनीज
यहाँ आनेवाली है। इसलिए हर कोई अपने लिए स्थानीय भागीदार ढूँढ रहा है। बडी डोनर
एजन्सीज अब कदम रखने जा रही हैं या आ चुकी हैं। इस वजह से अब स्थानीय संस्थाओं पर
भी कुछ दबाव है; अगर उन्हे भी आपात्काल पुनर्वसन की बहती गंगा में कुछ मिले हो
उसके लिए उनका लालयित होना आश्चर्यकारक नही कहा जा सकता है। इससे जुडे कई डायनॅमिक्स
है। ऐसे बडी संस्थाओं के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से धर्म प्रसार करनेवाले भी आते है
और कई बार देखा गया है कि फिर बाद में स्थानीय संस्कृति में बडे हस्तक्षेप होते
है; फंड ड्रिवन एप्रोच से काम चलता है। धरातल की आवश्यकता और प्राथमिकता भूलायी दी
जाती है। इन सबके बीच मैत्री को उसका फोकस बरकरार रखना है; अपना काम जारी रखना है;
फिर साथ में कोई हो या न हो। और सर इसी बात को सुनिश्चित कर रहे हैं। मैत्री का
कार्य अब तक सबको पता चल गया है। यदि कुछ बदलाव हुआ तो भी कार्य न रूकेगा। और अब
उत्तराखण्ड के अन्य क्षेत्रों से भी मैत्री को असेसमेंट के लिए बुलाया जा रहा है।
पिथौरागढ़ मीटिंग में सर का यह भी प्रयास है कि कोई स्थानीय जिओलॉजिस्ट मैत्री से
जुड़ जाए। इससे नदी के प्रवाह का मार्ग, सुरक्षित इलाकें आदि का विस्तार से अध्ययन
किया जा सकेगा। इसके लिए सम्पर्क बनाए जा रहे है।
कई घण्टों की मीटिंग के बाद अन्य
कुछ व्यक्तियों से मिलना हुआ। ये पिथौरागढ़ के वाणिज्य क्षेत्र के कुछ लोग है; जो
राहत कार्य में कुछ योगदान दे रहे हैं। जैसे धारचुला के आपदाग्रस्त शिविर के लोगों
के लिए चारपायी देना आदि। अपने अपने तरिके से और अपने स्तर पर कार्यरत है। उनसे
मिलने के बाद फिर हेल्पिया के लिए निकल गए। निकलते ही रात हुई थी; पहुँचने में
काफी देर हुई। आज हमारे जीप के चालक मित्र घर न जा सकेंगे; वे भी हमारे साथ ही
रहेंगे। उनसे भी अच्छी दोस्ती हुई है। वे भी मात्र चालक न रह कर टीम के एक सक्रिय
सदस्य बने है। सभी तरह के कामों में हिस्सा ले रहे हैं।
रह रह कर तवाघाट के आगे के
गाँवों में कार्यरत दोस्तों की याद आती है। वे अब शायद नारायण आश्रम के पास होंगे।
हर शिविर में बहोत से रुग्ण मिलते होंगे। और चढाई. . . दिक्कत तो होनी ही थी; फिर
भी उन्होने रास्ता पार कर लिया होगा। और शायद उन्हे नारायण आश्रम से बर्फ भी
दिखेगी।
***
. . . अगले दिन ५ अगस्त को पुणे से भेजा गया सामग्री
का ट्रक पहुँचने वाला है। अब उसे उतार कर सब सामान को लगाने का बडा काम है। उसके
लिए मीटिंग हुई। अर्पण के साथीयों से चर्चा कर किस प्रकार सामान की गठरियाँ बनानी
है, यह तय हुआ। उसके लिए कुछ लोग भी आज के लिए बुलाए गए है। वे सामान उठा कर रखने
और पॅक करने का काम करेंगे। सुबह ही ब्याडा के स्टोअर में जा कर तैयारी कर दी।
लेकिन ट्रक आने में अब भी देर है। सब लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। आज कुछ साथियों के
साथ सर छोरीबगड़ ग्राम जाएँगे। मेरे जाने के बारे में पूछने पर कहा कि मुझे स्टोअर
में रूकना जरूरी है। क्यों कि सर न होने पर सब लोग कैसे काम कर रहे हैं; यह भी
देखना आवश्यक है। अब धीरे धीरे इस टीम के वापस जाने का समय भी पास आ रहा है। ऐसे
में अर्पण के साथियों को भी एक तरह से काम हँड ओव्हर करना होगा। उसके लिए उन्हे
स्वतंत्र रूप से भी काम करने का अवसर देना होगा। इस वजह से ब्याडा़ के स्टोअर में
न रूकते हुए छोरीबगड़ चले गए। वहाँ भी वे असेसमेंट करेंगे। छोरीबगड़ ग्राम लुमती
के आगे आता है। सड़क अब मुश्किल से लुमती तक बनी है। इसलिए शायद उन्हे वहाँ भी
काफी चलना पडेगा। ये जौलजिबी मुन्स्यारी रोड पर आनेवाला गाँव है। वहाँ भी स्टोअर
ढूँढना है।
आखिर कर दोपहर के बाद ट्रक आया। सामग्री
के थैलियों की गिनती की। सब सामान वैसा का वैसा है। बस सफर में कुछ कुछ गठरियाँ
थोडी़ हिल गई है। अब उसे ठीक कर रखना है। सामान उठाने में अपनी क्षमता के अनुसार
सहभाग लिया। बडा़ वजन उठाना तो अभ्यास से आता है। जिसको पहले से अनुभव होगा, वह
अच्छे से उठाएगा। जिसको उतना अनुभव नही होगा, नही उठा पाएगा। इसमें अच्छा और बुरा
कुछ भी नही है। बस क्षमता के अनुसार काम करना है। और मैत्री की टीम में यह बात बडी
महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। व्यक्तिगत क्षमता और टीम की आवश्यकता का मेल अच्छा बिठाया गया है।
और सभी साथी भी अलग अलग तरिके से सहयोग ले रहे हैं। अब जैसे सामान को गाँवों में
ले जाने के लिए किस प्रकार गठरियाँ बनानी चाहिए; हर परिवार को कौनसी चीजें एक पॅक
में मिलनी चाहिए आदि चीजें अर्पण के दीदी लोग तय कर रहे हैं। हर गाँव में क्या
राशन उपलब्ध है, इसकी भी खबर उन्हे हैं। फिर हर परिवार को दिया जानेवाला पॅक कितना
हो; उसका वजन कितना हो; यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि दुर्गम राहों से
वे अपने घर सामग्री ले जाएंगे। इसलिए इसका भी ख्याल रखना जरूरी है। चामी- लुमती की
सड़कों पर अभी बडे ट्रक नही जा पा रहे हैं। इसलिए छोटे ट्रक और टेम्पो ही जाएंगे।
अब इन वाहनों के चालकों को वहाँ की सड़क पर इतना सामान ले जाने में शक हो रहा है।
तो उन्हे कौन समझाएगा? अपने आप हमारे नारायण जी उन्हे समझाते हैं; मनाते हैं। यह
टीम वर्क बिलकुल ऑरगॅनिक लग रहा है। बिलकुल एक फोकस के साथ काम हो रहा है।
ट्रक से सामान निकाल कर उसे
लगाने में रात हो गईं। स्टोअर में मैत्री, गिरीप्रेमी और सहयोगी कंपनी- मॅग्ना स्टिअर के बैनर भी
लगाए हैं। अब कल तक पूरा सामान गाँवों में वितरण के लिए तैयार होगा। कल तक तवा घाट
के आगे गए साथी भी वापस आ जाएंगे। अब इस राहत कार्य के इस चरण का महत्त्वपूर्ण
क्षण पास आ रहा है। इस लिए अब सबको थोडा ज्यादा प्रयास करना होगा। आज देर रात तक
मीटिंग है। इसमें हर गाँव की आवश्यकता पर चर्चा होगी। सामान गाँवों में पहुँचाने
के पहले चरण में लुमती, चामी, घरूडी, हुडकी, मनकोट आदि गाँवों के आपदाग्रस्त
परिवारों को सामान देना है। इसके लिए अब बडी सूक्ष्म प्लैनिंग हो रही है। परिवारों
की संख्या और पीडित परिवारों की संख्या देखी जा रही है। शाम मीटिंग में ही चल गई।
अब कल सब दोस्त फिर मिलेंगे!
पलेटा के दुकान की सब्जियाँ |
स्टोअ लगाते समय का दृश्य मैत्री, मॅग्ना स्टिअर और गिरीप्रेमी संस्था के बैनर |
क्रमश: