Friday, September 27, 2013

चेतावनी प्रकृति की: ८

. . . २ अगस्त की रात हेल्पिया लौटने के बाद थोडा विश्राम हुआ। अब तकनिकी चीजों पर ध्यान देना है। बाकी दो साथी सुबह दवाईयाँ ले कर धारचुला से निकलेंगे। वे जीप बदलते हुए और कठिन पैदल रास्ते से गुजरते हुए तवा घाट और उसके आगे खेला जाएँगे। उनके साथ सामान भी है। और डॉक्टरों की टीम आज खेला से आगे जाएगी और एन.एच.पी.सी. के गेस्ट हाउस पर विश्राम करेगी। तबाही के बाद भी एन.एच.पी.सी. परिसर में गेस्ट हाउस चालू है। हेल्पिया में आने पर कुछ खाँसी और जुक़ाम हो रहा है। सर ने बताया कि यह खाँसी और जुक़ाम ठण्ड से नही, वरन् गर्मी से हो रहा है! इन दिनों यहाँ रात को निरंतर बारीश हो रही है और दिन में भी आर्द्रता काफी है। इस गर्मी से यह हो रहा है। खैर।
 
अगले दिन पहले अस्कोट गए। वहाँ बैंक का खाता अभी तक सर्वर डाऊन होने की वजह से पूरी तरह नही खुल पाया है। और आनेवाले सामग्री और स्टोअर के भाडे़ आदि सब कामों के लिए तो धन की आवश्यकता अत्यंत है। एक बार खाता खुल जाने पर और चेकबूक मिलने पर पैसे चेकबूक से भी दिए जा सकते हैं। पर चेक बूक मिलने में आठ दिन लगेंगे, ऐसा सुनने में आया। फिर और कुछ तरकीब निकालनी पडी़। सर ने एस.बी.आय. के वरिष्ठ अफसरों से सम्पर्क किया और फिर चेकबूक मिल गया। खाता भी खुल गया। और एक बात इसी समय तय हो गई। अब ट्रक रुद्रपूर से सीधे अस्कोट आएगा। उसका इन्तजाम हो गया। अब उसके लिए किसी को जाने की आवश्यकता नही। अब बस जगह देख कर स्टोअर खडा़ करना है।

अस्कोट- जौलजिबी रोड पर ब्याडा़ नाम की जगह पर एक होटल के पास एक कमरा पहले ही ले रखा है। उसी को देख कर स्टोअर के लिए तय कर लिया। यहाँ पहले से कुछ राहत सामान भी रखा हुआ है। बस उसे थोडा़ ठीक करना है। कमरे में टर्पोलिन (तिरपाल) डालना पडेगा; जिससे पानी नही आएगा। होटल में और भी एक कमरा मिल गया; जहाँ कुछ कपडे़ ऑर्गनाईज कर रखने हैं। इसके लिए दो आदमी दिन भर के लिए रखे हैं। पहले के कमरे में से हर तरह के कपडों की बोरीयों को ठीक से पॅक कर दूसरे कमरे में रखना है। इसके साथ अन्य राशन, सब्जियाँ, दवाईयाँ आदि के बारे में भी निरंतर बातचीत चल रही है।

अर्पण में मुख्य रूप से दीदी लोग ही हैं। कुछ भाई भी हैं। अब इनसे ऐसी दोस्ती हो गई है जैसे काफी समय से यहीं रह रहे हैं! अर्पण मुख्य रूप से महिला सशक्तीकरण पर काम करती है। पंचायत राज, महिला अधिकार, महिला आत्मनिर्भरता आदि मुद्दों पर वह कुछ गाँवों में काम करती है। १२ सालों से वह काम कर रही है। यहाँ कुछ पैमाने पर ह्युमन ट्रॅफिकिंग होता है; शादी को ले कर महिलाओं को फंसाया जाता है; अत्याचार होता है। इन मुद्दों पर संस्था कार्य करती है। महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि की समकक्ष संस्थाओं की- ग्रामीण इलाकों में काम करनेवाली संस्थाओं की- तुलना में यह संस्था काफी अच्छी है। इसके कार्यालय से ले कर सदस्यों की सोच में भी इसकी प्रतिति आती है। संस्था के सदस्यों को बाहर के जगत् की अच्छी जानकारी है। काम की समझ अच्छी है। हालाँकि उन्होने कभी आपात्कालीन प्रबन्धन अर्थात डिजास्टर मॅनेजमेंट पर कार्य किया नही है; इसलिए कुछ कमीयाँ भी हैं। पर वे स्वाभाविक हैं। देखा जाए तो इस पूरे राहत कार्य में मेथॉडॉलॉजी की दृष्टी से कुछ कमीयाँ है। गाँवों के सर्व्हेज पूरे नही है। परिवारों की संख्या और उसमें आपदा पीडित परिवारों की संख्या आदि जानकारी वैज्ञानिक ढंग से उपलब्ध नही हुई है। पर आपात्काल में कैसे सब सामान्य रूप से हो सकता है? कुछ बातें कॉमन सेन्स और बुनियादी समझ पर भी तो करनी होती है। और आपात्कालीन कार्य में मैत्री संस्था का अनुभव काफी बडा़ है।

सुनने में आया कि जौलजिबी के पास  सड़क पर एक सरदार जी अपना ट्रक ले कर आए थे और उन्होंने ट्रक पर लादी हुई सब सामग्री सड़क पर ही बाँट दी। जो लोग वहाँ उपस्थित थे; उन्हे ही वह मिल गई। जाहिर है कि सड़क पर जो आ सकते हैं; उनको ही मिली। मैत्री- अर्पण का तरिका इससे निश्चित अलग है। प्रयास यही है कि ज्यादा से ज्यादा अन्दर के गाँवों तक पहुँचा जाए। जहाँ कोई भी सहायता नही पहुँच रही हो; वहाँ पहुँचा जाए। पहले चरण से मैत्री की टीम कंज्योती जैसे सड़क से काफी दूर होनेवाले गाँवों में जाती रही है। सामग्री और अनाज के सम्बन्ध में भी कोशिश की जा रही है कि वाजिब दाम में वह मिले जिससे अधिक मात्रा में उसे खरीद कर लोगों को दिया जा सके। यह भी कोशिश है कि सामग्री सबसे अधिक पीडित लोगों के पास जा कर ही देनी है। खुशहाल सड़क से जुडे स्थानों पर उससे देने से क्या मतलब?

एक बात तो स्पष्ट है कि जितने गाँवों तक मैत्री- अर्पण का सम्पर्क हुआ है; उससे काफी अधिक गाँव प्रभावित है। जैसे मुन्सयारी से कुछ दूरी के बाद मुन्सयारी- जौलजिबी सड़क पूरी तरह क्षतिग्रस्त है। वहाँ के गाँव टूटे हुए है। अब वहा कैसे पहुँचे? सवालों का सिलसिला थमता ही नही है। अन्जाने में सब लोग बरसात का मौसम समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तब जा कर कुछ राहत मिलेगी। गाँव से आना- जाना सम्भव होगा। उसके पहले- अर्थात् सितम्बर के पहले- सब काम अनिश्चित ही है। क्योंकि नई बनायीं जानेवाली सडकें भी जोखिमभरी ही है। बारीश के बाद ही कुछ सुकून मिलेगा। पानी भी कम हो जाएगा। लोग अपने खेत और घरों में कुछ समय के लिए तो जा सकेंगे. . . 

. . . वह दिन स्टोअर को सेट करने में ही बित गया। ट्रक अब रुद्रपूर से निकलेगा। कल यहाँ पहुँचने की सम्भावना है। बाकी सामग्री की भी बात चल रही है। अब तक साथी खेला पहुँच गए होंगे। अब उनसे सम्पर्क करने का माध्यम सॅटेलाईट फोन ही है। वे ही बीच में सम्पर्क करेंगे। एक बात जरूर अच्छी है। आज डॉक्टर और उनके साथ होनेवाले साथीयों को थोडा आराम मिला है। वे निरंतर शिविर लेते चले आए हैं। उनके देखने में अब तक कई चीजें आयी हैं। खास कर पायाभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मुख्य रूप से है। इससे संस्थागत प्रसव के बजाय घर में प्रसव होता है। स्वास्थ्य की उपेक्षा होती है। और यहाँ कुछ हद तक अंधश्रद्धा भी है। उपर के गाँवों में मुख्यत: स्थानीय आदिवासी रहते हैं। उनमें कुछ भेड चरानेवाले और जडीबुटी बनानेवाले भी है। इन लोगों तक आधुनिक स्वास्थ्य की पहुँच कम ही है। और जैसे खेला शिविर में देखा गया कि सरकारी डॉक्टर भी यहाँ अधिक सेवा देना नही चाहते हैं। खैर। आपदाग्रस्त और ऐसे दूरदराज के इलाके में ये सब बातें स्वाभाविक हैं।

ब्याडा में स्टोअर को तैयार करते करते शाम हो गईं। वापस जाते समय एक ग्रामीण दुकानदार से मिलना हुआ। वह एक बहुआयामी तरह का युवक है। ट्रक चलाता है; दुकान चलाता है; सब्जियाँ बेचता है; छोटा मोटा सामान भी बेचता है। वह ट्रक से जौलजिबी जा रहा था। रास्ते पर ही मिलना तय हुआ था। उससे कुछ खरीदने के लिए सर बात कर रहे थे। ट्रक से उतर कर हमारी जीप में मिलने आया। उस समय सर ने उससे जो बात की वह अविस्मरणीय थी।

सब्जी, राशन- जैसे आटा, चावल, शक्कर, दाल, सोयाबीन, तेल आदि सबके दाम सर ने उससे पूछे। और कई टन थोक में लेने में कितना दाम रहेगा यह पूछा। वह एक एक का जवाब देता गया। जैसे की अब तक देखा गया था, यहाँ आपात्काल में दाम कुछ बढे हुए हैं और सामान्य व्यापारी लोग दाम कम नही करना चाहते हैं। वे तो इस आपात्काल की बहती गंगा में हाथ धोना ही चाहते हैं। इस युवक- जिसका नाम कापडी था- का रुख भी कुछ ऐसा ही है। फिर सर ने उसे धीरे से समझाया- कि मैत्री- अर्पण कौन है; क्या कर रहे हैं; क्या करना चाहते है; गाँवों की स्थिति कैसी है; सब लोक किस प्रकार अपना समय दे रहे हैं; कैसे कैसे दूर से मदद इकठ्ठा की जा रही है: अलग अलग जगहों के क्या दाम है; थोक में कितने दाम है; उसको कितने दाम पर कितना प्रॉफिट होता है आदि। हर कोण से सर ने उसे समझाया। सर के पास की जानकारी बडी़ ठोस है। वह इन्कार नही कर पाया। एक तरह सर ने बडी़ कुशलता से उसे पता चले बिना उसके डिफेन्स को ध्वस्त किया। बातों ही बातों में वह अब सर द्वारा दिए गए दाम मानने के लिए राजी बना। और यहीं नही, सब सामान की डिलिव्हरी वह ब्याडा के स्टोअर में करने पर भी राजी हुआ। यह संवाद बहुत उम्दा एवम् अविस्मरणीय रहा।

. . . इस तरह कार्य से सम्बन्धित नए पहलूओं को सामने लाती ३ अगस्त की शाम ढल गईं। अब कल पिथौरागढ़ जाना है। अर्पण संस्था के सचिव से मिलना है। सर के साथ रहने के कारण ऐसे कई तकनिकी पहलू और देखने को मिलेंगे। अब वाकई इस कार्य का परम क्षण पास आता जा रहा है. . .

इस होटल के पास ही स्टोअर है। इन्द्रधनुष।
इन्द्रधनुष और बलखाती गोरी गंगा


  






















































क्रमश:  
  

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