. . . आज
गुजरात के कुछ इलाकों में बाढ द्वारा काफी नुकसान की आशंका है और पाकिस्तान में
बडे भूकम्प से तबाही हुई है। प्रकृति निरंतर चेतावनी दे रही है। इसी बीच जुलाई-
अगस्त के कुछ दिनों के बारे में बात करते करते सितम्बर महिना आ कर समाप्त हो रहा
है। ऐसे में मन में प्रश्न उठता है कि क्या यह बात इतनी विस्तार से की जानी चाहिए?
प्रश्न सार्थक भी है। वैसे तो बात विस्तार से नही भी कही जा सकती है। विस्तार से
कहने का एक ही उद्देश है और वह यह है कि वहाँ उस परिस्थिति में देखे गए सभी पहलू
सामने रखे जाए। विस्तारपूर्वक बताने से शायद कभी किसी को कुछ जानकारी मिल सके।
आज २४ सितम्बर है और आज भी
मैत्री की अगली टीम वहाँ कार्यरत है। कुछ पुराने ही साथी है और कुछ लोग नए भी गए हैं। स्थान भी बदले हैं। कुछ सहायता
पिण्डर व्हॅली में भी की जा रही है। हमारे टीम लीडर सर ने उत्तराखण्ड के कई इलाकों
में जा कर असेसमेंट की है। और ऐसा भी नही की यह काम अभी समाप्त होगा। काम और कुछ
समय तक चलता ही रहेगा। लोग जरूर बदलेंगे; पर कार्य जारी रहेगा। इसी कार्य के
आरम्भिक चरण के दिनों की बात पूरी करते है।
. . . ३१ जुलाई की रात काली गंगा की गर्जना में बीत
गई। उसी दिन डॉक्टरों की टीम मनकोट, घरूडी आदि गाँवों से लौटी थी। आज १ अगस्त की
सुबह वे हमें मिलेंगे और फिर सब लोग साथ तवाघाट और उसके आगे जाएंगे। मन में थोडा
हो पर डर निश्चित रूप से है। क्यों कि घरूडी
की यात्रा में काफी संघर्ष करना पडा। वैसा आगे भी होनेवाला है। और इसलिए डर
के साथ मन में एक कौतुहल भी है। और आज का रास्ता मानस सरोवर मार्ग पर है।
सवेरे साथीयों को आने में थोडी
देरी थी। इसलिए हमें नेपाल जाने का अवसर मिला। नेपाल जाना कोई बडी बात थी ही नही।
बस सामने से गर्जना करनेवाली काली गंगा नदी पर एक लोहे की पुलिया पार करनी है। दो
मिनट का रास्ता और शुरू हुई पहली विदेश यात्रा! तकनिकी रूप से जरूर यह विदेश है,
एक अलग देश है। पर लग रहा है कि यह भी अपना ही है। और अंतर्राष्ट्रीय सीमा एक
छोटीसी लकीर मात्र है। नेपाल में गए तो पाँच मिनट के लिए ही। पर वहाँ अर्पण की
दीदीयों दारचुला दिखाया। सुबह है। दुकान खुले हुए हैं। कई लोग विदेश से आ रहे हैं
और विदेश जा रहे हैं। हाँ भाषा जरूर अलग दिखाई दे रही है। एक जगह पे लिखा है-
म्हारो अस्तित्व खतरामां छ। उस पर एक शेर का चित्र भी है। वन्य संरक्षण प्रकल्प
है। लेकिन मन डर रहा है और कह रहा है कि तवाघाट जाते समय नदी या टूटी सड़क की वजह
से ‘मेरो अस्तित्व खतरामा छ’ जैसी स्थिति तो न बन जाए! नेपाली चाय और आतिथ्य का
आनन्द ले कर स्वदेस लौटे। प्रथम विदेश यात्रा समाप्त हो गई!
. . . तवा घाट! नक्शे में दिखाई
देनेवाला छोटा सा शहर। धारचुला से तवा घाट महज १९ किलोमीटर की दूरी पर है। पर अब
सड़क कई स्थानों पर खण्डित है। इसलिए बार बार रूक के चलना पड रहा है। और गज़ब की
बात यह है कि जीप चलाने वाले लोग हर एक खण्ड में सेवा प्रदान कर रहे हैं! धारचुला
से कुछ ही आगे जीप से उतारना पडा। रास्ते पर बी.आर.ओ. का कुछ काम चल रहा है। बडी
बडी मशीने रास्ता साफ कर रही हैं। उन वीरों को मनोमन प्रणाम कर आगे पैदल चल दिए।
रास्ता ठीक ही है। एक दो जगह पर थोडी सी कठिनाई हुई। अगले मोड़ पर दूसरी जीपें खडी
हैं। ये अब दोबाट तक ले जाएंगे। अब हमारी कुल संख्या ग्यारह है। अर्पण के तीन लोग
और ग्राम गरगुवा की प्रधान दीदी भी साथ हैं। सब जीप में तुरन्त बैठ गए। सब लोग साथ
में हो और साथी जोशिले हो तो एक जोशभरा वातावरण होता है। नदी भी नीचे से पुकार रही
है। और ऐसे में यदि कोई अच्छा गाना भी बजता है तो फिर सोने पर सुहागा होता है।
गाना साधारण ही है; पर उसके बोल बडे अर्थपूर्ण है।
खुलती फ़िजाएँ .. खुलती घटाएँ ..
सर पे नया है आसमाँ...
चारो दिशाएँ .. हस के बुलाएँ ..
वो सब हुए हैं मेहेरबाँ..
और जैसे ही यह गाना समाप्त हुआ,
जीप भी रूक गई। यहाँ भी अब पैदल चलना पडेगा। और अब यहाँ का नजारा थोडा अलग है! एक
छोटी सी नदी के उपर का रास्ता पूरा टूटा है। इसलिए एक जगह पर उस नदी को पैदल पार
करना पडेगा। यहाँ काफी कठिनाई है। लेकिन कई लोग पार कर रहे है। कई लोग तो पीठ पर
बडा भार भी ले जा रहे हैं। सेना के साथी भी मदद के लिए है। छोटी नदी की धारा एक
जगह थोडी सीमित है। वहाँ उसके उपर लोहे की एक छोटी सी पुलिया नजर आ रही है। उसी से
जाना है। पीछले अनुभव से सीखते हुए इस बार न सोचने का प्रयास किया। जो है, बस है!
सोचने जैसा, विचार करने जैसा कुछ नही है। बस चलना है। पर कैसे चलें, जब सडक से
उतरते समय पाँव रखने के लिए जगह नही है... लेकिन साथीयों की सहायता से कदम चलते
गए। अर्पण के एक भाई से मदद मांगी और फिर वह पुलिया भी पार हो गईं। यहाँ पार करते
समय हाथ से पकडने का रेलिंग भी था। और पुलिया घरूडी की पुलिया के मुकाबले और
सुरक्षित थी। पुलिया पार करने पर सीधी चढाई थी। वह भी पार हो गई। और अब वापस सड़क
आ गई है। अब फिर जीप से जाना है। तभी किसी ने बताया कि कल धारचुला में मैत्री और
गिरीप्रेमी संस्था द्वारा बनाए गए पूल की जो बात हुईं थी, वह यही पुलिया है। और
स्थानीय ग्रामीण भी इस पुलिया से काफी सुविधा पा रहे हैं।
जीप चलानेवाले जरूर किस प्रकार
तेल का जुगाड कर रहे है। और किराया भी परिस्थिति देखते हुए उतना अधिक नही है। फिर
से जीप यात्रा शुरू हुईं। लेकिन अब यह अंतिम बार थी। जहाँ जीप रूकी, वहाँ से अब
पैदल ही जाना है। अब तवाघाट भी करीब दो किलोमीटर ही है। टूटी सडक पर पैदल चल कर
जैसे तैसे आगे निकलते गए। पैदल रास्ता मात्र चलने के लिए है; सुविधा के लिए नही!
बीच बीच में पत्थरों से राह गुजरती है। अब तवा घाट आने को है। बी.आर.ओ. के तवाघाट
के केंद्र में हुई तबाही साफ देखी जा सकती है। और यह तवा घाट का बोर्ड। बोर्ड तो
टूटा है फिर भी दिख रहा है। लेकिन तवा घाट? वह तो दिखाई ही नही दे रहा है! नक्शे
में यहाँ पर तो अच्छा खासा गाँव है। और आगे गए। वहाँ भी एक धौली गंगा है। और
तवाघाट में धौली गंगा और काली गंगा का संगम है। लेकिन अब मात्र तबाही का मन्जर है।
कुछ भी बचा नही है। एक हिम्मतवाले चाचा खतरनाक जगह पर एक धाबा जरूर चला रहा हैं। पास
में और एक दृश्य है। थोडा आगे जाने पर सेना के जवान एक ट्रॉली चला रहे हैं। यह
संगम के पार जाने के लिए है। एक ट्रॉली में दो लोग एक समय पर जा रहे हैं और उसे
रस्सीयों द्वारा खींचा जा रहा हैं। इसे देखते ही उसमें बैठने की इच्छा हुई। लेकिन
अभी टीम लीडर और अर्पण के सदस्य पीछे से आ रहे हैं।
तवा घाट के ग्राउंड झिरो पर उसी
धाबे के पास सब साथी इकठ्ठा हुए। अब यहीं तवा घाट का चिकित्सा शिविर शुरू होगा।
धाबे में ही दो डॉक्टर बैठ गए हैं। रुग्ण भी आना शुरू हो गए। देखते देखते करीब
पच्चीस रुग्णों को दवाईयाँ बतायी गयी। तब तक वहाँ के और लोगों से बातचीत हुई।
अर्पण की दीदीयाँ महिलाओं और डॉक्टरों के बीच बातचीत में सहायता कर रही हैं। वैसे
यहाँ की महिलाएँ डॉक्टरों से बहुत शर्माती नही हैं। एकाध को छोड दिया जाए तो
महिलाएँ खुल कर बात करती है, ऐसा डॉक्टरों ने कहा। फिर भी, यहाँ महिला डॉक्टरों की
आवश्यकता अत्यंत अधिक है। अगली टीम में महिला डॉक्टर हो, ऐसा प्रयास किया जा रहा है।
करीब डेढ घण्टा वहीं शिविर चला।
अब यहाँ से हमें ग्राम खेला जाना
है। रास्ता पूछते पूछते जाना पडेगा। अब हमें ट्रॉली पार करने का अवसर नही मिलेगा।
नदी के उस पार एक सडक आगे जाती दिखाई दे रही है। वह नारायण आश्रम जाती है। लेकिन
हम अब खेला जा रहे हैं। पैदल राह पहाड पर चढने लगी। नदी की गर्जना है पर अब नदी
दूर जा रही हैं। मन में थोडा सुकून जरूर मिला! लेकिन यह रास्ता भी कम कठिनाई वाला
नही है। इसकी भी टूट फूट हुई है। कुछ समय बाद एक पगडण्डी मिली जो सीधे उपर जा रही
थी। इसी में चलना है। इसमें सिवाय चढा़ई के और दिक्कत नही है। बीच बीच में इक्का
दुक्का लोग मिल रहे है। अब धूप भी तेज हो गई है...
और वह चढाई निरंतर आगे जा रही
है। बीच बीच में थोडी ढलान मिलती है। थोडी देर विश्राम कर आगे निकलते हैं। ऐसे दो
घण्टे चलते रहने पर खेला गाँव समीप आया। पर उसका यह तल्ला वाला याने नीचला हिस्सा
था। मल्ला खेला तो और आगे है। लेकिन अब वहाँ नही जाना है। खेला गाँव के एक इंटर
कॉलेज में चिकित्सा शिविर लगाया। छोटा और दुर्गम गाँव होने के बावजूद भी इस गाँव
में इंटर कॉलेज है! ग्रामीणों को चलते चलते शिविर के आयोजन की सूचना दी। सब साथी
चल के थके है- एक दो को छोड के। लेकिन अब थोडे विश्राम के बाद शिविर शुरू हुआ और
लोग भी आने लगे। यहाँ हिन्दी सब को अच्छी आती है। इसलिए भाषा या संवाद में कोई
कठिनाईं नही आयी। दोनों डॉक्टर रुग्णों की जाँच करते गए। बाकी लोग उनकी सहायता में
हैं। लोग बडी़ संख्या में आए। पचास से उपर ही होंगे। वहीं एक घर में मॅगी का खाना
खाया। मॅगी साथ में रखी ही थी।
शिविर समाप्त होने के पूर्व कुछ
साथी आगे बढे। वहाँ एक ग्रामीण के घर पर काफी बातचीत हुईं। राशन की स्थिति पर
चर्चा हुईं। तवा घाट से और अन्य जगह से राशन कैसे लाया जा सकता है, इस पर बात
हुईं। यहाँ खेला में मुख्य रूप से रास्ता खण्डित होने से दिक्कत हैं। यह पानी से
काफी उपर हैं। आगे के कुछ गाँवों में लैंड स्लाईड से जरूर कुछ नुकसान हुआ है। यहाँ
सरकारी डॉक्टर कम ही आते हैं। हमारे डॉक्टरों ने बाद में बताया कि एक डॉक्टर आया
भी था और वह शिविर बीच में ही छोड कर चला भी गया। खैर। खेला गाँव में रूकने का
प्रबन्ध नही हैं। और गाँव पर अधिक भार न हो, इसलिए कुछ लोग आगे गरगुवा जाएंगे।
गरगुवा की प्रधान हमें रास्ता दिखाएगी। यह भी पता चला कि अब यहाँ से रास्ता तिरछा
है; चढाई वाला नही हैं।
शाम ढलते समय खेला से निकले। तवा
घाट करीब ९०० मीटर की ऊँचाई पर है। वहाँ से हम दो- ढाई घण्टे सीधी चढाई चलते आए हैं। निश्चित ही खेला की ऊँचाई २२०० मीटर से अधिक होगी। बाद में इसकी पुष्टी भी
हुईं। यहा जाडे़ में बरफ गिरती है। वैसे तो यहाँ से ४००० मीटर ऊँची बर्फिली चोटियाँ
दूर नही है। लेकिन बादलों का घूंघट उन्हे अब भी छिपाए हुए है। खेला से आगे रास्ता
तिरछा ही था। बीच बीच में थोडी सी चढाई और फिर ढलान। आगे जा कर नदी का रौरव फिर से
सुनाई पडने लगा। यह अब धौली गंगा है। नीचे बना एनएचपीसी का केंद्र और बाँध भी दूर
से दिखाई देने लगा। रास्ता कठिनाई का नही है। रास्ते में थोडे से ही लोग- कुछ
छात्र- मिलते हैं। छोटे छोटे गाँव आते हैं। रात्रि शुरू होते होते गरगुवा में
पहुँच गए। यहाँ एक प्रपात को पार किया। उस पर लकडी की पुलिया है। अब इसका बिलकुल
भी डर नही लगा। अब शरीर, आँखें एवम् मन को भी कुछ अभ्यास हो गया है। अब इतनी
दिक्कत शायद नही आएगी। जैसे ही गाँव पहुँचे, बारीश शुरू हुईं। बारीश एक तरह से
पूरा साथ दे रही थी। दिन शुरू होते ही बन्द और रात में तेज वर्षा!
गरगुवा की प्रधान जी के घर पर
थोडा विश्राम किया। इस गाँव की स्थिति के बारे में पता किया। लोगों ने आँखो देखी
सुनायी। १६ जून की वह काली रात... भारी तबाही के बीच इस बाँध का ढाँचा सुरक्षित रह
गया है। सर ने कहा कि यदि यहा ढाँचा भी टूट गया होता, तो जौलजिबी भी नही बचता।
राशन पर चर्चा हुईं। हेलिकॉप्टर से भी राशन लाया जा सकता है। मनकोट के पास
बंगापानी में हेलिकॉप्टर से जैसे राशन डाला जा रहा है, वैसे यहाँ के भी कुछ गाँवों
में डाला जा रहा हैं। हेलिकॉप्टर के लिए कोशिश करनी पडेगी। प्रधान जी की एक
वीरांगना संस्था है। शायद वह यह काम कर सकें। सभी विकल्प देखे गए। इसमें गाँव की
राजनीति की भी झलक देखने को मिली। लोग सब कुछ चाहते है; पर खुद पहल करने को राजी
नही है। कुछ लोग तो संस्था के काम पर भी वहम कर रहे है। यह अक्सर दिखाई पडता है कि
कितना भी कुछ करो; लोग अपनी ही सोच ले कर चलते है। उस समय सर ने पहली टीम द्वारा
किए काम बताए। गरगुवा गाँव के कुछ घरों में मैत्री की पहली टीम के डॉक्टर आ गए थे।
अर्पण की दीदीयों ने भी काम का स्पष्टीकरण दिया। वह शाम गरगुवा में बीत गईं। तेज
बरसात चल रही थी। यहाँ और खेला में भी किसी भी फोन को नेटवर्क नही है। कुछ लोगों
के पास नेपाली सिम चलते हैं। और यहाँ से दूर नारायण आश्रम जानेवाला रास्ता भी
दिखाई देता है। यहाँ अगर बादल न होते, तो दृश्य और भी अद्भुत होता। डॉक्टर और अन्य
साथी खेला में ही रूक गए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय सीमा: पुलिया से दिखनेवाली काली गंगा एवम् नेपाल का दारचुला |
मैत्री- गिरीप्रेमी द्वारा निर्मित पुलिया |
ध्वस्त तवा घाट- मात्र बोर्ड बचा है। |
ट्रॉली |
विनाश |
चिकित्सा शिविर! |
खेला जानेवाला पैदल रास्ता |
खेला में शिविर |
प्रकृति अपनी ही धुन में |
No comments:
Post a Comment
आपने ब्लॉग पढा, इसके लिए बहुत धन्यवाद! अब इसे अपने तक ही सीमित मत रखिए! आपकी टिप्पणि मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है!