प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका
प्रकृति, पर्यावरण और हम ३: आर्थिक विकास का अनर्थ
शाश्वत विकास के कुछ कदम
जैसा हमने पहले देखा, आज बड़े पैमाने पर प्रकृति में असन्तुलन बढ़ रहा है| ह्युमन चेंज के कारण पर्यावरण बदल रहा है| मानव के अस्तित्व मात्र से पर्यावरण में बहुत बदलाव हो रहे हैं| ग्लेशियर्स पीघल रहे हैं, समुद्र के स्तर बढ़ रहे हैं, बेमौसम बरसात हो रही है और भी बहुत कुछ हो रहा है| ऐसे में प्रश्न उठता है कि अगर यह संकट इतना बड़ा है और पूरी मानवता इसके लिए जिम्मेदार है, तो इसमें से रास्ता कैसे निकाले? जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पूरी पृथ्वी के इन्सानों से जुड़े हैं| अगर उसे रोकना होगा, तो सबको बदलना होगा| यह सम्भव नही दिखता| शहर के लिए जितने पेड़ काटे जा चुके हैं, वे फिर से लगाना और बढ़ाना सम्भव नही लगता है| एक तरफ तो वह राह है जो तनाव की ओर आगे जा रही है| और दूसरी राह है सन्तुलन की| लेकिन वह सम्भव ही नही दिखती है| क्यों कि अगर नदी की पूरी जल धारा एक दिशा में जा रही हो, तो भला कोई कितनी देर उससे संघर्ष कर पाएगा?
लेकिन हताश होने की आवश्यकता नही है| प्रकृति में इतना भी असन्तुलन नही है कि हम कुछ भी नही कर सकते हैं| माना की बहुत सी चीजें प्रभावित हुई हैं, बहुत सी चीजें हमारे व्यक्तिगत नियंत्रण में नही हैं| लेकिन ऐसी भी बहुत चीजें है जो हम कर सकते हैं| उदाहरण लेते हैं ओला वृष्टी का या बेमौसम बरसात का| जब भी कभी ओला वृष्टी होती है या बेमौसम बरसात होती है, तो किसानों की बहुत हानि होती है| और यह होता ही रहेगा| अब बदले हुए पर्यावरण में सूखा, बाढ़, बेमौसम बरसात आदि सब चीजें होती ही जाएगी| इसके बारे में सजग होना पड़ेगा| इन चीजों के लिए तो हम कुछ नही कर सकते हैं| लेकिन हम हमारे खेत के लिए तो बहुत कुछ कर सकते हैं| खेत में सही तकनिकों के प्रयोग द्वारा मिट्टी की क्षमता सन्तुलित रख सकते हैं, फसलों को इस प्रकार स्वस्थ तरीके से ले सकते हैं जिससे अगर एक या दो फसलें जाती भी हैं, तो भी कम नुकसान होगा| हम कम गिरनेवाली या न गिरनेवाली बारीश के लिए कुछ नही कर सकते हैं; लेकिन हम यह तो कर सकते हैं कि जो बारीश गिरेगी, उसका पानी बचा सकते हैं| और इतनी क्षमता प्रकृति ने अब भी हमें दी हुई है| ऐसे ही कामों का एक उदाहरण यहाँ देखेंगे|
बारीपाडा गाँव के पंच महाभूत- जल, जंगल, जमीन, जानवर और जन!
महाराष्ट्र के धुळे जिले के साक्री तहसील का बारीपाडा में प्रवेश करते समय ऊँचे पहाड़ और हरियाली आपका ध्यान खींच लेती हैं| बारीपाडा आज शाश्वत विकास का एक तीर्थक्षेत्र है! प्रचलित धारा के विपरित जा कर पच्चीस सालों से यह विकास पथ पर चल रहा है| आज उस अर्थ में यह गाँव 'गाँव' या विकास का प्रयोग नही रहा है| उस दृष्टीकोण से उसे नही देखा जा सकता है| आज कई संस्थाएँ प्रकल्प पद्धति से कार्य करती है; उस नजरिए से भी बारीपाडा नही देखा जा सकता है| एक प्राचीन कथा है- जब कुछ अन्धों ने पहली बार हाथी का अनुभव किया तो हर एक को वह अलग अलग दिखा| किसी को लगा वह डोर जैसा लम्बा है, किसे लगा वह फैला हुआ है तो किसे लगा की वह तो खम्बे जैसा है आदि|
बारीपाडा की भी कुछ वैसा ही है| कुछ लोगों को ऐसा लग सकता है कि बारीपाडा मतलब वन सब्जी स्पर्धा; बारीपाडा मतलब चतु:सूत्री राईस की खेती; बारीपाडा मतलब श्रमदान; बारीपाडा मतलब प्रकृति का वरदानप्राप्त गाँव होगा| ऐसा गलत तो नही कहा जा सकता है, लेकिन पर यह एक बड़ी ही व्यापक प्रक्रिया के टुकडों को समझना है| बारीपाडा के पहलू कई है| उस अर्थ में बारीपाडा और चैतराम पवार अनुठे और अष्टपैलू हैं!
कई लोग मानते हैं कि बारीपाडा गाँव सामुहिक वन प्रबन्धन और फॉरेस्ट कन्जर्वेशन के कारण सामने आया है| शासन के स्तर पर ये पहलें लक्षणीय तरीके से शुरू होने पहले बारीपाडा ने वह किए हैं, यह सच है| पर बारीपाडा का यही एकमेव मंत्र नही है| किंबहुना सिर्फ वन प्रबन्धन से प्रगति की राह मिलेगी, ऐसा विचार उस गाँव ने नही किया है| वन प्रबन्धन यह उसका एक अंग था| उसके लिए 'वन प्रबन्धन' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन बारीपाडा जिस वनवासी संस्कृति से आता है, वहाँ प्रकृति को भगवान माना जाता है, कुदरत को पवित्र माना जाता है| इसलिए इसे फॉरेस्ट मॅनेजमेंट कहने के बजाय उसे इस गाँव की प्रकृति के प्रति सहज कृति कहना अधिक उचित होगा| प्रकृति के हर अंग के प्रति बारीपाडा की यही सोच है; यही सम्मान है| उन्होने पुराने पेड़ बचाए, नए तो लगाए हैं ही; साथ में उन पेड़ों के आश्रय में आनेवाले पशु और पंछीयों का ख्याल रखा| कई साल पहले अन्य गाँवों सरिखा यहाँ का भी जंगल नष्ट होने के कगार पर था| पर चैतराम दादा के नेतृत्व में गाँव ने समय से आगे छलाँग ली|
बहते पानी को रोकने का एक सरल उपाय
वन संवर्धन से गाँव ने शुरुआत की| प्रकृति की कृपा तो हमेशा होती है| जो उसका लाभ देने के लिए तैयार होते हैं, जिनके पास खाली पात्र हैं, उन्हे प्रकृति हमेशा से ही भर देती हैं| लेकिन अगर यही पात्र स्वार्थ से या अज्ञान से भरा हो तो. . . खैर| एक बार जंगल में पेड़ फिरसे खड़े होते हैं तो पानी रूकता है| जल संधारण होता है| कुँए बारह महिने भरने लगते हैं| दुर्लभ होनेवाली विभिन्न वनस्पती और सब्जियाँ फिरसे दिखने लगती है| यह सब यहाँ हुआ है| ऐसी वनस्पती और सब्जियों के संवर्धन का और एक जरिया वन सब्जी की स्पर्धा है| इतना होने के बाद जंगल में पशु- पक्षी लौटे| जीवजन्तु आने लगे| जैसे बारीपाडा का पात्र बड़ा होता गया, प्रकृति जो दे रही थी, वह मिलने लगा|
खेती में भी उन्होने पुरानी प्रजातियों को बचाया| उसे आधुनिक तकनिक से जोड़ा| नए नए प्रयोग किए| गन्ने से गूड़ बनाने का यंत्र लगाया| उसके साथ सेन्द्रिय खेती शुरू की| आम के बगिए आए| स्ट्रॉबेरी भी सफल हुई| यह सब होने के साथ पर्यावरण के सभी पहलूओं को विकास की प्रक्रिया में सहभागी किया गया| जल और जंगल के साथ जानवर भी आए| उनका ख्याल रखा गया| घर घर मुर्गी और बकरी दिखने लगी| मिट्टी तो साथ थी ही| जब जल- जंगल- जानवर प्रसन्न हुआ तो जमीन भी नाराज़ कैसे होती? खेती में उत्पादन बढ़ा| यह सब होते समय 'जन' भी पीछे नही रहे| स्त्री और पुरुष इन दोनो चाकों के साथ बारीपाडा आगे बढ़ता गया| समय के आगे जा कर महिलाओं के स्वयं सहायता समूह आए और जारी रहे; महिलाओं का गाँव में सहभाग बढ़ा|
जब चैतरामदादा को हम पूछते हैं कि बारीपाडा ने हासिल की हुई सबसे बड़ी उपलब्धी कौनसी है, तो वे बताते है कि हमने एक ही किया- जो कुछ मिल रहा था वह सब बचाया- उसे गँवाने के बजाय पास रोका| जंगल बचाया, पानी को गाँव के बाहर भागने नही जाने दिया| मिट्टी का ख्याल रखा| जानवर संभाले| जन जागरूक हुए| इन पंचमहाभूतों ने बारीपाडा को रुपान्तरित किया| आज यहाँ हर एक चीज बचायी जाती है| और इसीलिए आज प्रकृति इस गाँव पर कृपालु हुई है| बारीपाडा की इन उपलब्धियों का और एक गौरव हाल ही में हुआ- युएनडीपी के पर्यावरण ग्राम पुरस्कार मिला|
पर इस प्रगति पर यह गाँव सन्तुष्ट नही है| प्रकृति का आदर करनेवाले इस गाँव में भी प्रकृति समान ही अविरत आगे जाने की वृत्ति है| गोबर से विद्युत निर्मिति, कम जगह में अधिक पैदावार, गाँव में ही रोजगार निर्मिति के द्वारा जल सरिखे लोगों को भी गाँव में रोकना ऐसे कई प्रयास निरंतर किए जा रहे हैं| अब वस्तुत: यह गाँव तो गाँव की मर्यादा में समाता नही है| वह अब पर्यावरण केन्द्रित विकास का दीपगृह बना है|
ऐसे और कुछ प्रयासों की चर्चा अगले भागों में भी करेंगे| यह लेख बारीपाडा के अध्ययन पर आधारित है| बारीपाडा, तहसील साक्री, जि. धुले, महाराष्ट्र के बरे में और जानने के लिए बस गूगल कीजिए|
अगला भाग: प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (20-05-2016) को "राजशाही से लोकतंत्र तक" (चर्चा अंक-2348) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद सर!
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