प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका
प्रकृति, पर्यावरण और हम ३: आर्थिक विकास का अनर्थ
प्रकृति, पर्यावरण और हम ४: शाश्वत विकास के कुछ कदम
प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा
फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग
कई बार हम कहते हैं कि अकेला इन्सान क्या कर सकता है? जो कुछ भी परिवर्तन करना हो, वह 'अकेला' कर ही नही सकता है, यह काम तो सरकार का है; यह हमारी बहुत गहरी धारणा है| लेकिन जिन लोगों को उनकी क्षमता का एहसास होता है, वे अकेले ही बहुत कुछ कर सकते हैं| उनकी पहल शुरू तो अकेले होती है, लेकिन धीरे धीरे बड़ा क़ाफिला जुड़ता जाता है| और एक अकेले इन्सान से शुरू हुआ कार्य विराट हो जाता है और उसमें दूसरे इन्सान ही नही, वरन् पशु- पक्षी भी अपना सहभाग देने चले आते हैं| पीछले लेख में हमने भारत के वॉटरमॅन के बारे में चर्चा की| इस लेख में हम भारत के एक ऐसे इन्सान की चर्चा करेंगे जिसे फॉरेस्ट मॅन कहा जाता है|
फिशिंग जनजातीय समुदाय से आनेवाले असम राज्य के जादव पायेंग! उन्होने अपने बचपन में पर्यावरण को क्षति पहुँचते हुए देखी| जीव जन्तुओं की मृत्यु होते देखी| उन्हे चिन्ता हुई और उन्होने साथियों से पूछ भी कि आगे जा कर क्या होगा? तब उनके साथियों ने उन्हे कहा कि कुछ नही होगा, सब ठीक होगा| लेकिन जादेवजी सन्तुष्ट नही हुए| उन्होने स्वयं से पूछा कि मै इसके लिए क्या कर सकता हूँ? और जो राह उन्हे दिखाई दी, उस राह पर आगे बढते गए- अकेले| कई दिन, महिने और साल आगे बढ़ते रहे| बाम्बू का एक पौधा लगाने से जो यात्रा शुरू हुई थी, उसी में आगे जा कर १३६० एकड़ का जंगल बन गया और उस जंगल में बंगाल के शेर और भारतीय गेण्डे जैसे ठेठ जंगली प्राणी भी रहने आ गए!
असम में बाढ एक आम बात है| ऐसी ही एक बाढ़ के बाद जब जादवजी १६ साल के थे, तब उन्होने देखा कि पेड़ों पर पंछी पहले जैसे नही आ रहे हैं और सर्प भी मृत्यु को उपलब्ध हो रहे हैं| स्थिति को पहले जैसे करने का एक ही तरीका था- इन जीव जन्तुओं के घर को पुनरुज्जीवित करना| इसके लिए वे फारेस्ट डिपार्टमेंट के पास गए| उन लोगों ने उनसे कहा कि आपही लगाईए| और इसी को सूत्र मानते हुए उन्होने अपना जीवन इसे दे दिया| उन्होने ब्रह्मपुत्र नद के पास एक जगह देखी| वहाँ पौधे लगाना शुरू किया| वह हर रोज वहाँ जा कर पौधे लगाने लगे| और यह सिलसिला तीस सालों तक चला| लेकिन शुरुआत के तुरन्त बाद जैसे पौधों की संख्या बड़ी हुई; तब उन्हे पानी देने की समस्या आयी| अपने स्थानीय हुनर के साथ उन्होने इसका सोल्युशन ढूँढा| पौधों के उपर एक लकड़ी का प्लैटफॉर्म बनाया और उसमें मिट्टी के मटके रखे और हर मटके में ऐसा छोटा छेद किया जिससे कई दिनों तक पानी टपकता रहे| वह वर्ष था १९७९|
अगले साल उन्होने असम के सोशल फॉरेस्टरी डिपार्टमेंट की योजना में काम करना शुरू किया| एक मजदूर के तौर पर पाँच साल वे काम करते रहे और दूसरों से अधिक पौधे लगाते रहे| जब योजना खतम हुई, तब भी उन्होने वह काम जारी रखा| वे वहीं बस गए| यही काम आगे भी जारी रहा| रोजी- रोटी के लिए उन्होने गाय- भैंस पालना शुरू किया| उनका संसार पेडों के बीच ही आगे बढ़ता गया| कई सालों तक उनके इस कार्य की सुध लेने कोई नही आया| एक बार जंगली हाथियों को पकड़ने के लिए असम सरकार के फारेस्ट गार्ड हाथियों के पीछे गए| और जब उन्होने उन हाथियों को एक बड़े सघन जंगल में जाते हुए देखा, तो उनके होश उड़ गए! तब जा कर जादेवजी का कार्य कितना बड़ा हुआ था, इसका अन्दाजा बाहरी दुनिया को हुआ| धीरे धीरे देश और दुनिया को उनके कार्य का पता चला|
देखा जाए तो काम साधारण सा है- पेड़ लगाना और उनका ख्याल रखना| इसके लिए कोई बड़ा हुनर भी नही चाहिए| हर आदिवासी यह कला जानता ही है| लेकिन साधारण सा दिखनेवाला यह काम बड़ा विराट हुआ| एक कदम चलने से आगे बढ़ा नही जाता है| लेकिन जब एक के सौ, सौ के हजार और हजार के लाख कदम होते हैं तो यह होता है-
हिम्मत से जो कोई चले
धरती हिले कदमों तले
क्या दूरियाँ क्या फासले
मन्जिल लगे आ के गले . . .
और तब कोई भी लक्ष्य प्राप्त होता है| लेकिन यह यात्रा सरल बिल्कुल नही होती है| कई तरह से संघर्ष करना होता है| सरकार से और समाज से भी| यहाँ तक कि जादेवजी को उनके समुदाय के लोगों के विरोध का भी सामना करना हुआ| जिन हाथियों के झुण्ड से सरकार को इस जंगल का पता चला, वह झुण्ड लम्बे अरसे के बाद ऐसे घने जंगल में आया था और झुण्ड ने वहाँ उथल पुथल मचायी थी| इसके लिए स्थानीय आदिवासियों को जिम्मेदार ठहराया गया और वे लोग जादव जी पर भड़क उठे| लेकिन धीरे धीरे सब साफ हुआ|
An illustration of Jadav Payeng, from the biographical children's book Jadav and the Tree-Place by Vinayak Varma
हम जब भी कभी ऐसी कोई बात देखते हैं, तब हमारे मन में कई प्रश्न उठते हैं| क्यों कि जब हम स्वयं को ऐसे इन्सान के सन्दर्भ में देखते हैं, तो हमारा मन कहता है कि हम तो ऐसा कर ही नही सकते हैं| जरूर इस इन्सान ने कोई बहुत बड़ा त्याग किया होगा, होगा कोई महात्मा या महापुरुष| हम तो सादे सीदे है| लेकिन ऐसा इन्सान भी हमारे जैसा ही होता है| बस फर्क इतना होता है कि वह एक ही दिशा में आगे बढ़ता जाता है| और वह समस्याओं से रूकता नही है| रूकने के सौ कारण होने पर भी उसे उनकी तुलना में आगे बढ़ने का एक कारण काफी होता है| जादेवजी को भी समस्याएँ आयी| लेकिन उनकी जीवनशैलि ऐसी थी कि वे कुदरत के बीचोबीच ही रहे| तथा कथित विकसित या शहरी जीवनशैलि से वे अब भी दूर ही है| और कुदरत का तोहफा यह होता है कि जो भी उसके पास जाता है, वह बहुत कुछ पाता है| वहाँ इन्सान प्रकृति का एक सदस्य बनता है; इसलिए उसका संसार भी प्रकृति ही चलाती है| उसे अपने लिए अधिक संघर्ष नही करना पड़ता है| इसलिए अपना घर चलाने के साथ जादेवजी एक जंगल के भी पालक हो सके| और अब वे अन्य कई जंगलों का संवर्धन भी कर रहे हैं|
आज यह इन्सान प्रसिद्धि मिलने के बाद भी सरकारी सहायता नही लेना चाहता है| कैसे ले सकता है? क्यों कि कुदरत के पास रहने के कारण इतना मिलता है कि माँगने की आदत नही रहती है| वरन् देने की आदत हो जाती है| चाहे पेड़ हो, चाहे पशु हो, चाहे इन्सान हो, चाहे पानी हो, हम जिस भी जरिए से प्रकृति को देते हैं, वह उतने ही त्वरा से हमें अलग अलग तरीकों से मिलता भी है| और तब वह बिना माँगे मिलता है| और जो बिना माँगे दिया जाता है, उसकी गुणवत्ता और होती है| ऐसे ही कुछ और पर्यावरण प्रेमियों की चर्चा अगले भाग में करेंगे|
जादव पायेंगजी के बारे में अधिक जानकारी के लिए बस गूगल कीजिए|
अगला भाग: प्रकृति, पर्यावरण और हम ७: कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!
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