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२८ अक्तूबर की सुबह बुंगाछीना- अग्न्या परिसर में अच्छा ट्रेक हुआ| यह गाँव ठीक पहाड़ के बीचोबीच है| बस बैठ कर नजारों को आँखों में संजोना है! सबके साथ बातें हो रही हैं| बातों बातों में बाघ के बारे में बहुत कुछ सुनने में आया| यहाँ उत्तराखण्ड और कुमाऊँ में शेर अक्सर दिखाई देते हैं| शेर यहाँ बिल्कुल भी अपरिचित नही है| बल्की तो नरभक्षक शेरों की कहानियाँ और उनकी शिकार करनेवाला विख्यात शिकारी जिम कॉर्बेट की कर्म भूमि कुमाऊँ ही है| हाल ही के वर्षों में शेर की दहशत फिर से बढ़ रही है| एक समय तो शेर थोड़े कम हो गए थे| जंगल जैसे टूटता गया, वैसे वन्य प्राणियों पर मुश्कील समय आया| उसमें शेर भी थे| लेकीन अब फिर से उनकी दहशत बढ़ गई है| सत्गड़ और इस अग्न्या जैसे गाँवों में भी शेर आता है और दिन में जो गाँव सुहावना और रमणीय लगता है, वह रात में सुनसान हो जाता है! रात में कोई आँगन के बाहर तक नही जाता है!
यहाँ अक्सर शेर आता है, लोग जब इकठ्ठे हो कर शोरगुल करते हैं, तब निकल जाता है| कभी कभी जानवरों को पकड़ता है| कोई अकेला आदमी मिल गया, तो उसे भी पकड़ता है| हमारे आने के कुछ ही दिन पहले एक वाकया हुआ था! इसी गाँव के एक घर में मुर्गियाँ हैं| एक बार उस घर में मुर्गियों को कौन बेच रहा है, इसको लेकर पति- पत्नी के बीच लड़ाई हुई| दोनों कह रहे थे कि मैने नही बेची हैं! मुर्गियाँ गाय के कमरे में थी और वहाँ गाय का दुध निकालने के लिए महिलाएँ रोज जाती थी| एक बार उसी कमरे में रखी घास में कुछ आवाज आया तो एक व्यक्ति देखने के लिए गया| उसने किसी चीज़ से घास हटाई तो एकदम से घास में से शेर दहाड़ा! और बिना कुछ किए निकल भी गया! तीन दिनों तक वह वहाँ छिपा था और रोज मुर्गियाँ खा रहा था! वहाँ दुध निकालने के लिए आई हुई महिलाओं को उसने कुछ भी नही किया! पहले तो सब डर गए और बाद में उन्हे लगा कि वह शेर तो सन्त जैसे मन का होना चाहिए! इतने दिन रूकने के बाद भी उसने कुछ भी तकलीफ नही दी! सिर्फ मुर्गियाँ मारता रहा! इस बार शेर ने कुछ न किया हो, लेकीन यहाँ शेर ने घर- आँगन से आदमी या बच्चे को उठाने का वाकया कई बार हुआ है| इसलिए लोग रात में बहुत सावधानी बरतते हैं| कुत्तों को भी घर में ही रख लेते हैं| यहाँ रात में घर के कुत्ते को एक नुकिला पट्टा भी लगाते हैं| मज़े की बात तो यह कि हमारी ये बातें जब हो रही थी, तभी आँगन में बन्दरों की एक टोली आई| और इस कुत्ते ने उन पर हमला किया और बन्दर के एक बच्चे को मार गिराया| ऐसा यह क्षेत्र है!
कुछ देर बाद खेत पर गए| रमणीय पगडण्डी और माहौल! इस खेत का अदू ने बहुत लुत्फ उठाया| बल्की यहाँ की हर चीज़ उसे पसन्द आ रही है, क्यों कि यहाँ पर सब बिल्कुल नया और पसन्द आने जैसा ही है| यहाँ आने के कारण वह थोड़ी कुमाऊनी भी सीख कर आई है| यहाँ की भाषा में लेकीन एक मज़ेदार मामला हो रहा है! अदू मुझे इन दिनों "निन्नू" के नाम से पुकारती है| और यहाँ की भाषा में निन्नू का अर्थ छोटे बच्चों को सुलाने का शब्द (नीन्दिया आजा रे जैसे) है! इसलिए जब अदू मुझे निन्नू कह कर पुकारती है, तब यहाँ की महिलाओं को बहुत ही अटपटा लगता होगा! खैर!
बाद
में साथ आए मित्रों के साथ
बातें हुई|
उनसे
भी बहुत कुछ सुनने को मिला|
वे
एक एनजीओ सेक्टर में काम
करनेवाले सर हैं और उन्होने
उनके करिअर के कुछ किस्से कहे|
उन्होने
कहा हुआ एक प्रसंग यहाँ कहने
योग्य है|
उनके
करिअर के शुरुआती दिनों में
उन्होने एक इंटरव्ह्यू के
बाद एक प्रेझेंटेशन किया|
अंग्रेज़ी
अच्छा आना चाहिए,
इसलिए
उसे अंग्रेज़ी में ही किया|
उस
समय उनका अंग्रेज़ी उतना अच्छा
नही था,
फिर
भी उन्होने हिंमत की और अंग्रेज़ी
में ही प्रेझेंटेशन किया|
उसे
करते समय गलतियाँ हुईं और कुच
इंटरव्ह्यूअर्स तो हंसे भी|
लेकीन
वे डटे रहे और उन्होने सभी
अंग्रेज़ी में ही कहा|
बाद
में एक इंटरव्ह्यूअर ने उनकी
तारीफ की और कहा कि मै शान्ति
से आपका पूरा कहना सुनता रहा|
आपके
अंग्रेज़ी में गलतियाँ थी,
लेकीन
मेरा उस तरफ ध्यान नही थ|
और
मुझे इस जॉब के लिए अंग्रेजी
की आवश्यकता भी नही थी|
मेर
तो ध्यान सिर्फ मेरी जरूरत
पर था कि प्रेंझेंटेशन में
वह सब चीज़ें हैं,
जो
मै चाहता हूँ!
और
आपने वे सारी बातें कवर की|
इसलिए
मुझे आपका प्रेझेंटेशन अच्छा
लगा|
और
फिर वे वहाँ सिलेक्ट हुए|
छोटी
चीज़ों से भी आगे कैसे बढ़ते
हैं,
यह
उन्होने उनके अनुभव में अच्छे
से बताया|
दोपहर में अग्न्या से सत्गड जाने के लिए निकले| साथ में आई हुई अदू यहीं रूकनेवाली है| आगे हमें जहाँ जाना हैं, वह जगह और वह यात्रा उसके लिए कठिन होगी| इसलिए उसे यहीं रख कर निकले| हम जाने तक खुश मूड से हमें बार बार बाय करनेवाली अदू हमारे निकलने के तुरन्त बाद रोने लगी! उसे रहा न गया| एक सेकैंड के लिए मन को बड़ा दर्द हुआ| दो मामा और उसकी नानी वहाँ उसके साथ होने के कारण उतनी चिन्ता नही है| हम जीप से निकले और पिथौरागढ़ हो कर सत्गड पहुँचे| अन्धेरा होने के थोड़ा ही पहले सत्गड पहुँच गए| वैसे तो सिर्फ ढाई घण्टे की यात्रा, लेकीन बहुत थकानेवाली होती है| निरंतर मोड़ लेती और चढ़ती- उतरती सड़कें! शरीर थक ही जाता है| जीप तो तेज़ी से चलती है, इसलिए जीप की यात्रा ज्यादा थकाती है| लेकीन उसके बाद सत्गड की पगडण्डी चढ़ते समय अच्छा लगा! लेकीन रात होने के बाद भी अदू का रोना रूका नही है| वह लेने के लिए तुरन्त बुला रही है| और यहाँ हमारा कल गूंजी जाने का प्रोग्राम बन रहा है| लेकीन सुबह होने तक अदू शान्त हो गई, उसका मन फिर खुश हुआ| और उसने कहा कि लेने के लिए मत आओ| इसलिए हम आगे जाने के लिए फ्री हुए! वैसे भी हमारे यहाँ से जाने के बाद महिना- दो महिनों तक अदू मौसी के पास ही रहनेवाली है| इसके लिए भी उसकी थोड़ी तैयारी हो जाएगी, यह सोच कर हम गूंजी की ओर जाने के लिए निकले!
गूंजी! अप्रत्याशित रूप से यह यात्रा हुई! इसका भी एक योग ही होता है| और किस्मत भी! गूंजी के अनुभव के बारे में लिखना बहुत पीड़ादायक है| जबान रूक जाती है और वे सुन्दर नजारे फिर से याद करने में बड़ा कष्ट होता है! शायद अगर हम बहुत योजना से चलते तो जा भी नही पाते| अप्रत्याशित रूप से वह हुआ| तब तक मुझे इतना ही पता था कि गूंजी कैलास- मानस सरोवर परिक्रमा के मार्ग पर- अर्थात् पैदल मार्ग पर एक पड़ाव भर है| वहाँ जीप जाती है या जा सकती है, इस पर मुझे विश्वास नही था| और निकलते समय भी मुझे लग रहा था कि मुश्कील से तवा घाट के कुछ आगे तक जा सकेंगे और वहीं से घूम आएंगे! लेकीन जो हुआ वो बहुत अलग था! और कल्पना के भी परे! पहले लेख में जैसे कहा था, वैसे यह सर्वायवल मिशन होते होते रहा!! और वहाँ जो नजारे- कुदरती दृश्य अनुभव किए, वे सब तो अविस्मरणीय हैं| ज़िन्दगी के कभी भी न भूल पाए ऐसे दिनों में से एक दिन रहा यह...!
सुबह गूंजी के लिए निकलने के कुछ पहले नीचे उतर कर वॉक किया| यहाँ सब कुछ इतना देखने जैसा है कि बैठा ही नही जाता है| और थोड़े ही दिन हाथ में हैं| इसलिए अधिक से अधिक घूमता हूँ| छोटा वॉक किया और रोड़ पर ही सबके साथ जीप में बैठ गया| गूंजी की ओर निकले! इस क्षेत्र में पहले कई बार घूमा हूँ| २०१३ की उत्तराखण्ड आपदा के समय राहत करनेवाली एक टीम में यहाँ के कई गाँवों में घूमा हूँ| इसलिए धारचुला- तवाघाट तक क्षेत्र परिचित है| कुछ दिनों पहले हुई वर्षा के निशान और टूटा हुआ रास्ता कई जगहों पर दिखाई दे रहा है| धीरे धीरे दूर के शिखर पास आ रहे हैं| जौलजिबी के पहले गोरी- गंगा और काली गंगा का संगम देखा| काली गंगा की उस तरफ नेपाल! बिल्कुल ऐसे ही- मोहब्बत के दुश्मनों ने धरती पर खिंची हुई लकीर! दिखने में दोनों तरफ का परिसर एक जैसा ही है! लेकीन देश अलग! धारचुला के आगे मोबाईल नेटवर्क ठप हुआ और बिल्कुल अलग किस्म की जगह जाने की यात्रा शुरू हुई! वहीं पर एक घण्टे तक मिलिटरी के वाहनों के काफिले जाने के कारण यातायात रूकी थी| कई मिलिटरी ट्रकों में घोडे दिखाई दिए| साथ में होनेवाले एक व्यक्ति ने कहा कि वहाँ अब जो ठण्ड होगी, वे घोडे उसे सह नही पाएंगे, इसलिए उन्हे नीचे ले जा रहे हैं| धीरे धीरे सड़क की गुणवत्ता का क्षय होता गया और तवा घाट के आगे तो वह जीप की पगडण्डी में बदलता गया! यहाँ हमारे सामने जो है, उसका ज़रा सा भी अन्दाज़ किसी को भी नही था! उसके बारे में अगले भाग में बात करता हूँ|
अगला भाग: हिमालय की गोद में... (कुमाऊँ में रोमांचक भ्रमण) ५: है ये जमीं गूंजी गूंजी!
मेरे हिमालय भ्रमंती, साईकिलिंग, ट्रेकिंग, रनिंग और अन्य विषयों के लेख यहाँ उपलब्ध: www.niranjan-vichar.blogspot.com
रोचक रही यह यात्रा आपकी। कुमाऊँ ही नहीं गढ़वाल में भी बाघों या अगर सटीकता से कहूँ तो गुलदारों का बड़ा आतंक रहता है। हाँ, वो लोग अक्सर इंसानों पर तब तक वार नहीं करते जब तक कि उन्हें खतरा महसूस न हो या फिर वह नरभक्षी न हो गए हों। अगली यात्रा का इंतजार रहेगा।
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