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Friday, October 4, 2019

साईकिल पर जुले किन्नौर- स्पीति ९: काज़ा से लोसर. . .

९: काज़ा से लोसर. . .
 

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५ अगस्त की सुबह! काज़ा में अच्छा विश्राम हुआ| अब तय हो गया है कि मै लदाख़ की तरफ नही जा पाऊँगा, क्यों कि जम्मू- कश्मीर बन्द अभूतपूर्व रूप से शट डाउन हुआ है| इस कारण अब मन में दो विचार हैं| मन का एक हिस्सा कह रहा है केलाँग तक तो जाओ कम से कम| केलाँग हिमाचल में ही है| और मेरी योजना के अनुसार वहाँ पहुँचने में और चार दिन लगेंगे| लेकीन उसमें दिक्कत यह है कि तबियत उतनी विश्वासभरी नही लग रही है|‌ और केलाँग तक पहुँचने के पहले मुझे लोसर- बातल- ग्राम्फू इस क्षेत्र से गुजरना होगा और इस क्षेत्र में सड़क है ही नही| या यूं कहे की बीच में सिर्फ कुछ जगह है जो ग्लेशियर्स, झरने, नदी, पहाड़, खाई इन के बीच से बची हुई है! और कहने के वास्ते "इधर" से वाहन निकलते हैं और कैसे तो भी "उधर" पहुँच जाते हैं| इस ट्रैक का डर बहुत लगने लगा है| वैसे तो मै दुनिया के तथा कथित सबसे दुर्गम सड़क पर साईकिल चला कर ही आ रहा हूँ, लेकीन यहाँ आगे तो सड़क भी नही होगी| और दूसरी बात यह भी लग रही है कि जब लदाख़ जाना ही नही होगा, तो सिर्फ केलाँग तक जाने से भी कुछ खास फर्क नही होगा और सिर्फ केलाँग तक जाने के लिए उस ट्रैक से जाने का मतलब नही लग रहा है| यह निर्णय या इस सोच में एक बड़ा आधार अन्त:प्रेरणा का भी होता है| हम सब परिस्थिति पर गौर करते हैं, जैसे सड़क की स्थिति, मौसम, शरीर का मैसेज और इन सब पर निर्णय लेने का काम भीतर  की आवाज़ का होता है| और वह आवाज़ मुझे अब रूकने के लिए कह रही है| भीतर की आवाज़ का बहुत महत्त्व होता है| क्यों कि मै यहाँ तक आया भी तो उसी आवाज के कहने पर! सब तैयारी की, सब जुगाड़ किए, उसी आवाज़ के कहने पर! अब वही आवाज़ मुझे और आगे जाने से रोक रही है तो रुकना होगा... आखिर कर काज़ा से निकलते समय यही सोच कर निकला कि काज़ा से लोसर तक जाऊँगा और लोसर से कुंजुमला टॉप तक जाकर वहीं से वापस लौटूंगा| मेरी कुल योजना २०- २१ दिनों की थी, तो और तीन दिन साईकिल चलाने पर कम से कम आधी योजना पूरी हो जाएगी अर्थात् १० साईकिल चलाना हो जाएगा और आँकडों के लिए ६०० किलोमीटर भी पूरे हो जाएंगे| अर्थात् अब सिर्फ तीन दिनों का साईकिलिंग बाकी है|