Saturday, May 14, 2016

प्रकृति, पर्यावरण और हम ३: आर्थिक विकास का अनर्थ


प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना

प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका

आर्थिक विकास का अनर्थ

आज हम जिसे विकास कहते हैं वह वास्तव में क्या है? आज हम कहते हैं कई देश विकसित हैं और कई देश विकासशील हैं| या ऐसा कहते हैं कि इस सरकार के पाँच सालों में राज्य का कुछ भी विकास नही हुआ| विकास का 'अर्थ' क्या है? विकास की प्रचलित धारणा पश्चिमी सभ्यता से आयी है और वह मूलत: आर्थिक विकास पर आधारित है| विकास माने आर्थिक विकास- आर्थिक क्षमता का विकास; अर्थव्यवस्था का विस्तार| शहर, उद्योग, उत्पाद और कन्ज्युमिंग से होनेवाला विकास| इस दिशा के रुपान्तरण को विकास कहा जाता है| जैसे पहले किसी के पास पाँच हजार तनख्वाह की जॉब थी और अब उसके पास दस हजार की जॉब है तो उसे इस धारणा में विकास माना जाएगा| लेकिन इस धारणा की सबसे बड़ी खामी यही है कि उसमें कई सारे अन्य पहलूओं पर गौर नही किया जाता है| कई अण्डरकरंटस ध्यान में नही लिए जाते हैं|



सामाजिक शास्त्र की बात करें तो विकास को क्षमताओं की पूर्ति होना कहा जाता है| जैसे अगर एक खेत में फलां उत्पाद निकालने की क्षमता हो, तो उतनी क्षमता पूरी होने पर उसे विकसित खेत कहा जाएगा| या मनोवैज्ञानिक भाषा में सम्भावना फलित होना विकास कहलाता है| जैसे बच्चे की क्षमता विकसित होती है; धीरे धीरे उसकी समझ विकसित होती है आदि| लेकिन अगर हम विकास की परिभाषा में वैकल्पिक धारा पर गौर करते हैं तो हमे और भी अलग धारणा दिखाई देती है| महात्मा गाँधी, मार्टिन ल्युथर जैसे लोगों ने एक अलग तरह के विकास की बात की है| इस विकास की धारणा में पूरे पर्यावरण का ख्याल रखा जाता है| सिर्फ मनुष्य का विकास नही, पर्यावरण तथा सभी जीवजन्तुओं का विकास- उनकी सम्भावनाओं का विकास| और आज इस धारणा को शाश्वत विकास की धारणा कहा जाता है|

अगर विकास सिर्फ अन्य सभी संसाधनों से ऊर्जा इकठ्ठा कर एक ही जगह खड़ी करना होगा, तो वह कभी भी नही टिक पाएगा| जैसे कुछ किसान ऐसे होते हैं जो मिट्टी की सभी क्षमता का प्रयोग एक ही साल में करते हैं| गन्ने जैसा बड़ा उत्पाद- कैश क्रॉप लेते हैं जो मिट्टी से सब कुछ चूस लेता है| मिट्टी में देता कुछ नही है| अगर ऐसा ही हाल रहा तो जल्द ही मिट्टी खोखली बनेगी| उसके पोषक तत्त्व समाप्त हो जाएंगे| और अक्सर ऐसे किसान अगले सालों में दिक्कतों का सामना करते हैं| मिट्टी से सिर्फ लेनेवाली फसल बोने के बजाय अगर बीच बीच में ऐसी भी फसल लगाते हैं जो मिट्टी को उससे लिए गए पोषक तत्त्व लौटाती है, तो मिट्टी की क्षमता बनी रहेगी| इसे अल्टरनेट क्रॉपिंग पॅटर्न कहा जाता है| अगर इस तरिके से मिट्टी का सन्तुलन बनाए रख कर फसलें लेते हैं, तो मिट्टी का पोषण जारी रहेगा और कभी उसकी क्षमता में कमी नही आएगी| ठीक ऐसा ही हम विकास के बारे में कर रहे हैं| विकास के नाम पर हम सब कुछ छीन रहे हैं और वापस कुछ भी नही दे रहे हैं| इस कारण कोई आश्चर्य नही कि प्रकृति के संसाधन संकट में आ रहे हैं| और साथ में इन्सान की ज़िन्दगी भी तनाव से भरती जा रही है|

महात्मा गाँधी ने जो विकास की धारणा कही थी, वह ऐसी थी कि प्रकृति में हर किसी की आवश्यकता के लिए सब कुछ है, लेकिन किसी के भी लोभ को पूरा करने के लिए कुछ भी नही है - The world has enough for everyone's need, but not enough for anyone's greed. इन्सान को छोड कर बाकी प्रकृति की‌ बात की जाए, तो पूरी प्रकृति में हर किसी की आवश्यकता का ख्याल रखा जाता है और उससे सन्तुलन भी बरकरार रहता है| लेकिन इस सन्तुलन को बिगाड़ता है इन्सान| हम| हम जिसे विकास मान कर चल रहे हैं, उसमें असन्तुलन और तनाव हमसे दूर नही है| शायद कुछ देर तक हम भ्रम में रह सकते हैं| लेकिन पर्यावरण को समझनेवाले लोग यही कहते हैं कि हर दिन पर्यावरण और संकट की ओर जा रहा है| हाल ही भारत और कनाडा में पहाड़ों पर हुआ अग्नि का कहर इसी बात का इंगित है|



एक उदाहरण लेते हैं| अबसे बीस या पच्चीस साल पहले तक हम पिने के पानी के लिए २४ घण्टे के नल या मोटर के बजाय हँड पंप का प्रयोग करते थे| उस तरीके में बड़ी दिक्कत थी|‌ बहुत देर तक खींचने के बाद थोड़ा ही पानी हाथ लगता था| जिस दिन हमारे पास नल या मोटर शुरू हुई, उस दिन हमें कितनी खुशी हुई थी| लेकिन अब बीस- पच्चीस सालों के बाद देखते हैं तो लगता है कि वह हँड पंप ही ज्यादा बेहतर था| एक तो बड़े कष्ट से पानी निकालने के कारण उसका मूल्य था| उसका प्रयोग करने में व्यवस्था थी| और उसकी मात्रा भी कम थी| उससे भूमिगत जल स्रोत (एक्विफर) में कोई कमी नही आती थी| लेकिन जैसे मोटर आयी, जैसे कई सारे नल लगे, तब पानी मिलना बहुत आसान हुआ| पानी जैसे बहने लगा| जहाँ एक मोहल्ले में एक हैंड पंप होता था, वहाँ हर घर में तीन- चार नल लगे| खूब पानी बहने लगा| लेकिन आज फिर क्या हालात है? आज वे नल दस दिन में मुश्किल से एक बार आ रहे हैं| और पानी भी इतना थोड़ा| ऐसे में स्पष्ट लगता है कि पुराना हैंड पैंप ज्यादा सन्तुलित था| उसके कारण जमीन में पानी बना रहता| और लम्बी पाईपलाईन्स न होने के कारण पानी भी वापस उसी जमीन में जाता था| यह कहने का तात्पर्य यह नही है कि आधुनिक तकनीक और आधुनिक व्यवस्थाएँ बिल्कुल गलत है| नही| गलत हमारा प्रयोग है| हमारी समझ परिपक्व नही है| हम प्रकृति से क्या ले रहे हैं और उसे क्या दे रहे हैं, इसका ख्याल हमे नही है|

जितना हम प्रकृति से लेते हैं, उतना ही हमे उसे लौटाते रहना चाहिए| लेकिन आज होता क्या है? जंगल हटा कर शहर बनाए जाते हैं| पेड़ काट कर वहाँ बस्ती खड़ी होती है| प्रकृति में हर चीज एक दूसरे से जुड़ी है| बड़ी संख्या में पेड कटते जाएंगे, तो सन्तुलन तो बिगड़ेगा ही| शहर के लोगों को आक्सीजन तो चाहिए, पानी तो चाहिए, लेकिन पेड़ नही चाहिए| शहर के लिए जितने पेड़ कटे थे, वह भी लगाने की किसे इच्छा नही है| तब पर्यावरण में असन्तुलन आना कोई आश्चर्य की बात नही है|

हम जीवन में सिर्फ अच्छा, सिर्फ भला चाहते हैं| सिर्फ सुख चाहते हैं, दु:ख नही| सिर्फ खुशी चाहते हैं, दर्द नही| सिर्फ उजाला, अन्धेरा नही| लेकिन जीवन और प्रकृति तो ऐसे सभी विपरित छोरों का परिपूर्ण जोड़ है| इसलिए सिर्फ एक एक्स्ट्रीम को पकड़ने से कुछ नही होगा| एक एक्स्ट्रीम को पकडेंगे तो जल्द ही पेंडुलम के जैसे दूसरे एक्स्ट्रीम तक पहुँच जाएंगे| इसलिए अगर सन्तुलन चाहिए तो मध्य में रहना होगा| दोनों एक्स्ट्रीम छोड कर ठीक मध्य में रहना होगा और तब सन्तुलन की सम्भावना है| ऐसे सन्तुलन के कुछ उदाहरण अगले भागों में देखेंगे|

अगला भाग: प्रकृति, पर्यावरण और हम ४: शाश्वत विकास के कुछ कदम

2 comments:

  1. जितना हम प्रकृति से लेते हैं, उतना ही हमे उसे लौटाते रहना चाहिए| ........... बिलकुल यही होना चाहिए सही मायने में तभी हम विकसित कहलाएंगे जब ऐसा करेंगे ...
    बहुत सुन्दर चिंतनशील प्रस्तुति

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  2. धन्यवाद कविता जी!

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