प्रस्तुत है ओशो ने कही कुछ बातें. . .
किसी भी काम से ऊब जाना हमारा बुनियादी गुण है। हम किसी चीज को पाने के प्रयत्न में नहीं ऊबते, बल्कि पाकर ऊब जाते हैं। इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण ने सतत रूप से कर्तव्य करने की शिक्षा दी है।
संसार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना हमारा कर्तव्य है। ऐसा कृष्ण ने गीता में कहा है। उन्होंने कहा है अथक रूप से! बिना थके, बिना ऊबे।
शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना भी है। पशुओं में कोई ऊबता नहीं। आपने किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊबते नहीं देखा होगा। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है।
आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है।
किसी भी चीज से ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो मन करता है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। आदमी बड़े से बड़े महल में जाए, उससे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरुष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है। यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है। लेकिन मिलते ही ऊब जाता है।
संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, उन्हें पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं।
हम अगर झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, तो आपका सिर ऊपर होगा। झील में इसका उल्टा होगा। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम उलटे हैं। मगर यहीं बड़ी मुश्किल हो जाती है। संसार में तो ऊबना बाद में आता है, क्योंकि प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। प्राप्ति तो बाद में आएगी, प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।
कई लोग प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं, लेकिन कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे। फिर कितनी बार छूट गया वह। कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ी भर। एकाध दिन, दो दिन.. फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ। लोग कहते हैं कि ध्यान से कुछ हो सकेगा? मैं उनको कहता हूं कि जरूर हो सकेगा। लेकिन कर सकोगे? वे कहते हैं, बहुत कठिन तो नहीं है? मैं कहता हूं, बहुत कठिन जरा भी नहीं। कठिनाई सिर्फ एक है, सातत्य (निरंतरता) की। ध्यान तो बहुत सरल है, लेकिन कितने दिन कर सकोगे? मैं लोगों से कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से ही कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। बाकी तो पहले ही ऊब जाते हैं। हम रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबते। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबते। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबते। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबते। ध्यान करके क्यों ऊब जाते हैं? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!
कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता। बुद्ध ज्ञान मिलने के बाद चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार भी उन्हें ऊबते हुए नहीं देखा। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते। महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं। कभी चाहा नहीं कि अब कुछ और मिल जाए। परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है, लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक ऊब है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है।
धर्म में भरोसे का बड़ा मूल्य है। श्रद्धा का अर्थ होता है, ट्रस्ट यानी भरोसा। यानी कहने वाले के व्यक्तित्व से वे किरणें दिखाई पड़ती हैं, जो उसका प्रमाण देती हैं। वह जिस प्राप्ति की बात कह रहा है, वह वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता है। अर्जुन ने कृष्ण को कभी विचलित नहीं देखा है। उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी से कभी दुख का स्वर निकलते नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं।
हमारे देश में शरीर की नहीं, मनोभावों की तस्वीर बनाई जाती हैं। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, वे सदा तरोताजा हैं। शरीर तो जराजीर्ण होगा, मिटेगा। क्योंकि शरीर अपने नियम से चलेगा, पर कृष्ण की चेतना अविचलित भाव से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा बनी रहती है। कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। वे एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े नहीं खड़े रहते हैं। यह आंतरिक बिंब है। यह खबर देता है कि भीतर एक नाचती हुई, प्रफुल्ल चेतना है। भीतर गीत गाता मन है, जो सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है। ये गोपियां चारों पहर आसपास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। गोपियों से मतलब वस्तुत: स्त्रियों से नहीं है। कोई भी इतना प्यारा पुरुष पैदा हो जाए, तो स्त्रियां नाचेंगी ही, लेकिन यह प्रतीक कुछ और है। यह प्रतीक कहता है कि जैसे किसी पुरुष के चारों तरफ सुंदर, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो, चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो। ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा हो, ऐसे वे भीतर होते हैं। हम ऐसे ही कृष्ण की बात मानें और सतत अपना कर्तव्य करते रहें, तो ऊबेंगे नहीं।
किसी भी काम से ऊब जाना हमारा बुनियादी गुण है। हम किसी चीज को पाने के प्रयत्न में नहीं ऊबते, बल्कि पाकर ऊब जाते हैं। इसीलिए गीता में श्रीकृष्ण ने सतत रूप से कर्तव्य करने की शिक्षा दी है।
संसार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना हमारा कर्तव्य है। ऐसा कृष्ण ने गीता में कहा है। उन्होंने कहा है अथक रूप से! बिना थके, बिना ऊबे।
शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना भी है। पशुओं में कोई ऊबता नहीं। आपने किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊबते नहीं देखा होगा। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है।
आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है।
किसी भी चीज से ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो मन करता है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। आदमी बड़े से बड़े महल में जाए, उससे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरुष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है। यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है। लेकिन मिलते ही ऊब जाता है।
संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, उन्हें पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं।
हम अगर झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, तो आपका सिर ऊपर होगा। झील में इसका उल्टा होगा। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम उलटे हैं। मगर यहीं बड़ी मुश्किल हो जाती है। संसार में तो ऊबना बाद में आता है, क्योंकि प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। प्राप्ति तो बाद में आएगी, प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।
कई लोग प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं, लेकिन कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे। फिर कितनी बार छूट गया वह। कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ी भर। एकाध दिन, दो दिन.. फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ। लोग कहते हैं कि ध्यान से कुछ हो सकेगा? मैं उनको कहता हूं कि जरूर हो सकेगा। लेकिन कर सकोगे? वे कहते हैं, बहुत कठिन तो नहीं है? मैं कहता हूं, बहुत कठिन जरा भी नहीं। कठिनाई सिर्फ एक है, सातत्य (निरंतरता) की। ध्यान तो बहुत सरल है, लेकिन कितने दिन कर सकोगे? मैं लोगों से कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से ही कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। बाकी तो पहले ही ऊब जाते हैं। हम रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबते। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबते। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबते। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबते। ध्यान करके क्यों ऊब जाते हैं? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!
कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता। बुद्ध ज्ञान मिलने के बाद चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार भी उन्हें ऊबते हुए नहीं देखा। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते। महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं। कभी चाहा नहीं कि अब कुछ और मिल जाए। परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है, लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक ऊब है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है।
धर्म में भरोसे का बड़ा मूल्य है। श्रद्धा का अर्थ होता है, ट्रस्ट यानी भरोसा। यानी कहने वाले के व्यक्तित्व से वे किरणें दिखाई पड़ती हैं, जो उसका प्रमाण देती हैं। वह जिस प्राप्ति की बात कह रहा है, वह वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता है। अर्जुन ने कृष्ण को कभी विचलित नहीं देखा है। उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी से कभी दुख का स्वर निकलते नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं।
हमारे देश में शरीर की नहीं, मनोभावों की तस्वीर बनाई जाती हैं। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, वे सदा तरोताजा हैं। शरीर तो जराजीर्ण होगा, मिटेगा। क्योंकि शरीर अपने नियम से चलेगा, पर कृष्ण की चेतना अविचलित भाव से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा बनी रहती है। कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। वे एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े नहीं खड़े रहते हैं। यह आंतरिक बिंब है। यह खबर देता है कि भीतर एक नाचती हुई, प्रफुल्ल चेतना है। भीतर गीत गाता मन है, जो सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है। ये गोपियां चारों पहर आसपास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। गोपियों से मतलब वस्तुत: स्त्रियों से नहीं है। कोई भी इतना प्यारा पुरुष पैदा हो जाए, तो स्त्रियां नाचेंगी ही, लेकिन यह प्रतीक कुछ और है। यह प्रतीक कहता है कि जैसे किसी पुरुष के चारों तरफ सुंदर, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो, चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो। ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा हो, ऐसे वे भीतर होते हैं। हम ऐसे ही कृष्ण की बात मानें और सतत अपना कर्तव्य करते रहें, तो ऊबेंगे नहीं।
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