Sunday, November 4, 2018

साईकिल पर कोंकण यात्रा भाग ८ (अन्तिम): देवगड़ से वापसी...

८ (अन्तिम): देवगड़ से वापसी...
 

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कोस्टल रोड़ से कुणकेश्वर जाने के बाद अगले दिन सबके साथ और कुछ जगह पर घूमना हुआ| साईकिल के बिना देवबाग बीच और तारकर्ली बीच देखना हुआ| समय की कमी के कारण साईकिल पर और कहीं जाना नही हुआ| कम से कम देवगड़- आचरा बीच जाने की इच्छा थी| बीच के साथ कोंकण के अन्दरूनी गाँवों का दर्शन होता| पर वह सम्भव नही हो सका| पत्नि और बेटी साथ में‌ होने की वजह से वापसी के रूट पर कम से कम गगनबावडा तक जाने की इच्छा भी‌ अधूरी रह गई| उनके साथ ही जाना पड़ा| वैसे तो कुणकेश्वर- जामसंडे की सड़क पर जो तिखी चढाई आती है, वह मैने साईकिल पर पार की‌ थी| पीछली बार गाडी पर जाते समय यही चढाई गगनबावडा घाट से भी अधिक खतरनाक मालुम पड़ी थी| इसलिए गगनबावडा घाट साईकिल पर न जाने का मलाल नही हुआ| वैसे भी इन दिनों में इतनी चढाईयाँ पार की है कि एक घाट इतना मायने नही रखता है|‌ खैर|










कुछ जगह छूट जाने पर भी बेहद शानदार यात्रा रही यह| सातवे दिन तक सुन्दर नजारे बने रहे| काफी हौसला भी आया, काफी कुछ सीखने को भी मिला| साथ ही मेरे बचपन की स्वप्नभूमि रहे देवगड़ में भी घूमना हुआ| और साईकिल की यह भी खास बात अनुभव की कि साईकिल पर घूमने के कारण मैने देवगड़ भी अलग अन्दाज़ से देखा| अगर हम साईकिल पर कहीं जाते हैं, तो निश्चित रूप से गाड़ी की यात्रा से और अलग नजरिए से सभी चीजें देख पाते हैं| कई और अवसर भी खुल जाते हैं| घर में भी बहुत अच्छा मिलना हुआ| इनमें एक बात बुआ ने बताई कि मै जब छोटा था, तो मेरे दादाजी के साथ राजापूर भी गया था, विजयदुर्ग से हम पावस गए थे| इसीलिए मुझे राजापूर- देवगड़ के बीच एक जगह पर परिसर जाना- पहचाना लगा था! मेरे लिए देवगड़ एक खास स्थान तो है ही, लेकीन मेरे करिअर में भी इसका खास स्थान है| यहीं वो जगह है जब मेरे करिअर के एक नाज़ुक मोड़ पर मैने बीएससी छोड कर बीए की‌ तरफ जाने का निर्णय लेने का साहस किया| ऐसी पुरानी एवम् बेटी के साथ बिते पलों की नई यादें ले कर अब विदा होने का समय है|









भाई की गाड़ी में साईकिल डाल कर पुणे लाना है| लेकीन जब साईकिल डिसमैंटल की, तब पता चला कि साईकिल गाड़ी में नही‌ बैठेगी! अब क्या करें! मेरा मन तो था की, पत्नि और बेटी भाई के साथ आ जाएंगे, मै बस से साईकिल लोड कर आऊँगा| लेकीन सबने इसके लिए मना कर दिया| साईकिल किसी दूसरी गाड़ी से ले जाने पर भी बात हुई| अभी देवगड़ में आम का सीजन नही है, इसलिए ऐसी कोई गाड़ी नही होगी| इसलिए काफी चर्चा के बाद साईकिल वही छोड कर गाड़ी में सबके साथ आने का निर्णय लेना पड़ा| मै पहले तो राज़ी नही हुआ, लेकीन मानना पड़ा| इसमें मेरा एक स्वार्थ यह भी था कि मेरे लिए अगले चरण में गगनबावडा घाट तक साईकिल चलाने की सम्भावना बनी रही| और दूसरी बात यह भी कि साईकिल कुछ दिनों तक उस विशेष स्थान पर रहेगी और एक तरह से विपश्यना भी करेगी! इसलिए साईकिल वहीं छोड कर लौटना पड़ा|









लेकीन साईकिल छोड कर आना काफी कठिन रहा| साईकिल से अधिक जुड़ाव बना है| इसलिए तक तरह से तन्हाई का अनुभव हुआ| साथ मी, थकान इसलिए भी हुई, क्यों कि एक तरह से साईकिल यात्रा की धारा बनी रही- मन में वही विचार जारी‌ रहे| इसलिए मानसिक तौर पर यह बहुत कठिन गया| उसमें और भी जटिलताएँ थी| एक तो ३० सितम्बर को मेरा मैरेथॉन था| और उसके तुरन्त बाद ६- ७ अक्तूबर को जालना में एक योग- सम्मेलन था जहाँ मेरी योग- साईकिल यात्रा में मिले सभी लोग फिर एक बार मिलनेवाले थे| वहाँ मुझे साईकिल पर ही जाने की इच्छा थी| और उसके ठीक पहले ३० सितम्बर को मैरेथॉन होने के कारण मेरे पास दिन बहुत कम थे| जटिलता और बढ़ाने के लिए बीच में रविवार के दिन गणेश विसर्जन भी था| अगर मै कोल्हापूर तक साईकिल ले भी आता, तो वहाँ से पुणे उस रविवार लाना कठिन था| क्यों कि दो दिनों तक कोल्हापूर की आवाजाही जैसे रूक जानेवाली थी| साथ में मुझे मैरेथॉन के पहले मुश्कील से सांत- आठ दिन ही मिलते| इसलिए मैरेथॉन को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय किया की गणेश- विसर्जन के ठीक पहले बस से ही साईकिल ले आऊँगा| क्यों कि मैरेथॉन के बाद मुझे तुरन्त जालना के कार्यक्रम में साईकिल पर जाना था| इस कारण देवगड़- गगनबावडा घाट- कोल्हापूर यात्रा नही हो सकी| भविष्य में कभी यह सम्भव हो सकेगा|










इसलिए सिर्फ एक दिन के लिए वापस देवगड़ गया| फिर उस घर में विराने में कुछ घण्टों के लिए ठहरा| शाम को देवगड़ से सीधे पुणे के लिए बस का तिकीट बूक किया| जब बस में साईकिल लोड करने का समय आया, तो पता चला कि इस बस को उपर सामान रखने का स्टैंड है ही नही! लेकीन दूसरा विकल्प था| साईकिल डिसमैंटल की, उसके दोनो पहिए अलग किए और फिर वह आसानी से ड्रायवर की सीट के पीछे एडजस्ट हो गई| पुरानी साईकिलें कई बार बस से ले गया हूँ, लेकीन कभी भी इस तरह डिसमैंटल कर नही रखी‌ थी! आज वह भी देख लिया! यह इसलिए भी सम्भव हुआ कि कोंकण के लोग बड़े सरल होते हैं| अगर यहीं पर कहीं दूसरी जगह के ड्रायवर या कंडक्टर होते, तो अकड़ जाते| इस तरह साईकिल रखने पर बाद में कोई दिक्कत नही आई| सुबह बहुत जल्द पुणे पहुँच गया, बस स्टैंड में ही दो मिनट में‌ चक्के फिर से साईकिल को लगाए और पच्चीस किलोमीटर साईकिल चला कर घर पहुँचा| तब जा कर एक बड़ी राहत की‌ सास ली|








(मेरे भाई ने लिए हुए फोटोज)

अब मैरेथॉन के लिए सिर्फ आंठ दिन रहे थे, इसलिए अब अच्छा विश्राम करना था, बहुत छोटे रन करने थे| लेकीन, लेकीन, इस यात्रा का अँटी क्लायमैक्स तब आया| लगातार दो रात बस से यात्रा करने से बहुत थकान हुई| तबियत नाज़ुक हो गई| और बाद में तो सिर दर्द- बुखार शुरू हुआ| एक तरह से वायरल इन्फेक्शन के लक्षण दिखाई देने लगे| तीन चार दिन जब बेड रेस्ट करनी पड़ी, तब मैरेथॉन जाना भी कठिन होने लगा| वायरल इन्फेक्शन के बाद तो जैसे मैरेथॉन हाथ से गई| ३० सितम्बर की यह महाराष्ट्र के त्र्यंबकेश्वर में होनेवाली मेरी पहली फुल मैरेथॉन थी| लेकीन नही जा पाया|  क्यों कि वीकनेस बहुत हुआ और कमजोरी हो गई| इसलिए मैरेथॉन तो चली ही गई, साथ में मै जालना के योग संमेलन में भी साईकिल पर नही जा सका| वहाँ भी बस से ही जाना पड़ा| संमेलन में तो सहभाग लिया, लेकीन उसके कुछ दिन बाद भी वीकनेस रहा| तबियत फिर थोड़ी नाज़ुक रही| इसलिए जिस उद्देश्य से साईकिल भागदौड़ कर वापस लायी थी, वह भी गया और उसके बीच मैरेथॉन भी गया! खैर!






(मेरे भाई ने लिए फोटोज)

लेकीन मेरी समझ यही‌ है कि एक इवंट का इतना महत्त्व नही होता है| मन्जिल का उतना महत्त्व नही होता है जितना यात्रा का होता है| गोल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण प्रोसेस होती है| सितम्बर के महिने में साईकिल यात्रा के लिए निकलने के ठीक पहले मैने ३६ किलोमीटर तक दौड़ की थी| साथ में पानी, पीठ पर सैक और कुछ सामान रखने के कारण यह प्रैक्टीकली फुल मैरेथॉन अर्थात् ४२ किमी जैसी ही थी| इसलिए मन में हौसला आ गया था| एक तरह से २१, २५, ३०, ३६ ऐसे चरणों से जा कर फुल मैरेथॉन के स्तर तक मै पहुँचा था| इस प्रक्रिया में ही बहुत कुछ सीखने को मिला, बहुत आनन्द आया| इसलिए मैरेथॉन मिस होने का गम नही है| ३० सितम्बर छूट गया हो, लेकीन २० जनवरी का मुंबई मैरेथॉन का मेरा टिकिट कन्फर्म है ही| वैसे भी मै यही मानता हूँ कि ईवंट का इतना महत्त्व नही होता है| वह सिर्फ एक पड़ाव होता है| और मेरे विचार से हमें किसी एक विशेष ईवंट को रूटीन के ट्रैनिंग के तौर पर देखना चाहिए और रोज के ट्रेनिंग को ईवंट जैसा स्पेशल समझना चाहिए| मुझे मेरे रनिंग से जुड़े सभी अनुभव अभी लिखना बाकी है| ‘मेरा पलायन' यह वह लेखमाला होगी| लेकीन अब तक उस लेखमाला का लगातार 'पोस्ट पोनायन' ही‌ चल रहा है! खैर| वे भी अनुभव जल्द ही लिखूँगा| इन सब बातों के साथ और कोंकण की साईकिल यात्रा की यादों के साथ अब इस लेखन को विराम देता हूँ| जिन जिन ने इस यात्रा में सहयोग किया, सहभाग लिया, उनके प्रति मन में कृतज्ञता है| जल्द आपसे मिलूँगा| बहुत बहुत धन्यवाद|










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