Thursday, October 10, 2019

साईकिल पर जुले किन्नौर- स्पीति १०: एक बेहद डरावनी बस यात्रा

१०: एक बेहद डरावनी बस यात्रा
 

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५ अगस्त की शाम को बड़े बुरे हालत में लोसर पहुँचा! काज़ा से सुबह निकलते समय तो सोचा था कि  काज़ा से लोसर और लोसर से कुंजुमला दर्रे तक जाऊँगा और वैसे ही वापस काज़ा को जाऊँगा| लेकीन सड़क और शरीर की स्थिति देखते हुए यह सम्भव नही है| इसलिए लोसर से ही बस लेनी होगी| और लोसर से मनाली की बस चलती है! लेकीन उसके लिए भी अच्छा विश्राम करना होगा| इसलिए तय किया कि लोसर में एक दिन विश्राम करूँगा और उसके बाद दूसरे दिन मनाली के लिए निकलूंगा| लोसर! स्पीति का तिसरा मुख्य गाँव और कुंजुमला दर्रे का बेस! यहाँ से ४५५० मीटर ऊँचाई का कुंजुमला दर्रा सिर्फ १९ किलोमीटर ही है| और वहाँ से सड़क बड़े ही दुर्गम क्षेत्र से बढ़ते हुए मनाली की ओर जाती है! स्पीति से यह सड़क लाहौल जाती है| लोसर में पहुँचने पर देखा कि मोबाईल टॉवर तो है! लेकीन नेटवर्क नही है| यहाँ बिजली बहुत अनियमित होती है, इसलिए जब बिजली आती है, तभी मोबाईल भी चलता है| इस यात्रा के पहले लगा था कि मोबाईल के बिना कुछ दिन विपश्यना जैसी स्थिति में गुजरने तो मज़ा आएगा| लेकीन यहाँ एक तरह से मोबाईल और कनेक्टिविटी का लगाव नही छुटता दिखाई दे रहा है| खैर| शाम को बिजली आई और थोड़ा नेटवर्क भी आया| लोसर में मेरे होटल में लिखा है- आप ४०७९ मीटर पर डिनर कर रहे हैं! लोसर में शाम तो थोड़ी अच्छी गई| लेकीन रात में बहुत ज्यादा ठण्ड बढ़ गई! रात को शेअरिंग सिस्टम के कमरे में हिमाचल के अन्य यात्री भी हैं| उनसे भी थोड़ी बात हुई|







अगली सुबह थोड़े आराम से नीन्द खुली| बहुत ज्यादा ठण्ड है! आज कुछ भी करना नही है| लेकीन साईकिल तो फोल्ड करनी होगी| कल सुबह मनाली की बस मिलेगी| सुबह दो बार चाय का आनन्द लिया| होटल में कमरा दूसरी मंजिल पर है और सामने बहुत सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं! मेरी स्थिति ठीक नही है, लेकीन कितनी सुन्दर जगह है यह! पास ही की पहाड़ी पर लोसर गोम्पा भी है| लेकीन वहाँ जाने की इच्छा नही हुई| चढाई भी है| सुबह काफी देर बाद ठण्ड थोड़ी कम हुई| मौसम भी ठीक नही है, बादल उमड़े हैं| ज्यादा तर समय पुराने जमाने के नोकिया मोबाईल में गाने सुनता रहा| इस छोटे से शुद्ध फोन ने इस यात्रा में बड़ा साथ दिया! दोपहर जब इच्छा हुई, तो साईकिल को फोल्ड कर दिया| फोल्ड कर साईकिल कॅरी केस अर्थात् बोरे में रख दी| बेचारा स्टैंड टूटा है| सुबह की बस का पता किया| यहाँ से मनाली के लिए बस निकलती है सुबह सांत बजे| यह बस है काज़ा से लोसर- ग्राम्फू- मनाली- कुल्लू! इसी बस से मनाली तक जाऊँगा और वहाँ से अंबाला| अब ट्रेन का टिकिट भी नया निकलना होगा| एक तरह से अब भी हताशा तो है, लेकीन this is part and parcel of the game! साईकिल चलाना या अन्य कोई भी खेल हो, उसमें तो ऐसी चीजें होती ही हैं| कभी रिटायर्ड हर्ट होना पड़ता है, कभी इंज्युरी होती है, कभी स्थिति खराब भी होती है| वैसे मेरी योजना २०- २१ दिन साईकिल चलाने की थी, लेकीन सिर्फ ८ दिन चला पाया| एक तरह से क्रिकेट की भाषा में चार टेस्ट की‌ शृंखला का पहला मैच मैने जिता, दूसरे मैच के तीन दिन भी अच्छे गए और अन्त में वह मैच ड्रॉ हुआ और बाकी के दो मैच भी रद्द हुए| कुल मिला कर १-० रही यह शृंखला! और हताशा के बावजूद मुझे लगभग लोसर तक की इस अविश्वसनीय यात्रा का एक तरह से फक्र रहेगा, अचिव्हमेंट का एहसास भी रहेगा|






लोसर में अगली रात में एक डरावना सपना देखा| देखा कि मै ऐसी ही विरान और खाई के पास से चढनेवाली सड़क से जा रहा हूँ! और किसी कारणवश मुझे ऐसे ही‌ एक डरावने मोड़ पर रात बितानी पड़ रही है! बहुत ज्यादा डर के कारण यह सपना टूटा! जब आँख खुली तो देखा कि होटल के कमरे में बाहर से हल्की रोशनी आ रही है और वह रोशनी पास की पहाड़ी पर होनेवाली गोम्पा के लाईट से आ रही है! अगले कई दिनों तक साईकिल पर चढाई करने के सपने आते रहे! ७ अगस्त की सुबह जल्द तैयार हुआ| होटल का बिल भी पे कर दिया| बस ठीक सांत बजे आयी| और आने के पहले दूर से दिखाई भी दी! लेकीन बस में जगह बिल्कुल भी नही‌ है| पहले तो सोचा था कि साईकिल के थैले को बस के बीच में होनेवाले पैसेज में या ड्रायवर के केबिन में रखूँगा| लेकीन वहाँ भी जगह नही है, सब तरफ यात्रियों का सामान! इसलिए मजबूर हो कर साईकिल के थैले को बड़ी मुश्कील से बस के उपर रखना पड़ा! ड्रायवर और कंडक्टर ने हाथ दिया और मै उसे चढा पाया! पहले ही उसे रस्सियाँ बान्ध रखी थी, इससे उसे बस से बान्ध भी दिया| लेकीन अब दिक्कत यह है कि आनेवाले उबड़- खाबड़ सड़क (?) पर क्या वह ठीक से बन्धी रहेगी? लोसर से बस निकली तो बैठने के लिए बिल्कुल भी जगह नही मिली| कई यात्री काज़ा से ही खड़े खड़े ही आए हैं! वाह! अब इस डरावनी बस यात्रा का आनन्द लेता हूँ!





लोसर से ही कुंजुमला की चढाई शुरू हो जाती है| साईकिल पर आता तो मेरा यह पहला 'ला' अर्थात् घाट होता! खैर! चढाई इतनी तिखी तो नही है, लेकीन सड़क बिल्कुल टूटी है| इससे इस न- सड़क ‌पर कोई भी वाहन चलाना चुनौतिपूर्ण ही होगा! कुंजुमला पहुँचने के लिए दो घण्टे लगे! लेकीन शानदार नजारे! इस यात्रा में अब तक बर्फ सिर्फ दूर या पास की चोटी पर देखे थे| लेकीन अब बर्फ पास और बाद में नीचे भी दिखाई देने लगी| ४५५० मीटर! यहाँ कुंजुमला माता के मन्दीर को हर वाहन परिक्रमा कर आगे बढ़ता है| बस भी यहाँ रूकी कुछ समय के लिए| थोड़ी देर कुंजुमला भी देखा! यहाँ से ग्राम्फू तक अधिकतर उतराई होगी| आगे बढ़ने पर चन्द्रताल से आनेवाली चन्द्रा नदी के भी दर्शन हुए (चिनाब अर्थात् चन्द्र- भागा में से चन्द्रा नदी)| लेकीन यह क्या! सड़क इतनी संकरी है कि कई मोड़ मूडने के पहले ड्रायवर को बस रिवर्स लेनी पड़ रही है| तब जा कर बस उस मोड़ को पार कर पा रही है! मै बस के पीछली सीट के पास खड़ा हूँ, तो हर मोड़ गुजरने के बाद पीछे मूड कर देखता हूँ! साईकिल के लिए सड़क इतनी विपरित भी नही लगती है| क्या मै आ पाता? रूको, इतना जल्दी निर्णय मत करो! सड़क उफनती चन्द्रा के पास से जाने लगी! क्या नजारे है! स्पीति से लाहौल आनेवाला है!





एक जगह बस ने एक छोटी सी पुलिया क्रॉस की| पीछे मूड कर देखा तो पता चला कि उस पुलिया के सामने ही एक गड्ढे से सड़क बड़ी सिकुड़ गई है और उसे बस के चालक ने 'वैसे ही' पार किया है!! ...कुछ देर बाद बातल आया| बातल एक तरह से लोसर और ग्राम्फू तक के ५० किलोमीटर के ट्रैक का मध्यबिन्दू है और चंद्रताल ट्रेक का आरम्भ स्थान भी! दो ट्रेकर यहाँ उतरे और मुझे बैठने के लिए जगह हुई| कुछ देर तक सड़क साधारण लगी| यानी साईकिल पर जाने- योग्य| लेकीन धीरे धीरे  सड़क की जगह सिर्फ ट्रैक आया और चारो तरफ खाई, पहाड़, झरने, ग्लेशियर इनमें से कुछ ना कुछ आने लगा| तब धीरे धीरे यहाँ साईकिल न चलाने का मलाल भी खोता गया! स्थिति इतनी बदल गई की खुशी होने लगी कि, भला हो मेरे मन का कि उसने यहाँ साईकिल पर आने का निर्णय नही लिया! साईकिलिस्ट के तौर पर होनेवाली अस्मिता बिल्कुल खो गई और खुद को ही धन्यवाद देने लगा कि बेटे, अच्छा हुआ, तो बस से यहाँ से जा रहा है! बीच बीच में तेज बहाव के झरने आने लगे| कुछ कुछ जगह ट्रैक पर बहुत बड़े गड्ढे हैं| इसलिए दो बार बस को रोक कर यात्रियों को नीचे उतारा गया| हम सबको पैदल चल कर वह पैच पार करना पड़ा| चप्पल पहनने का लाभ हुआ| एक पल के लिए डर भी लगा, लेकीन इतने लोग साथ में होने के कारण पार हो गया| ठण्डे पानी का तेज बहाव उस न- सड़क पर से गुजर रहा है| बीच में कुछ पत्थर हैं, उन के बीच में से चलना है| यहाँ बस- यात्रियों को इस लिए उतारा जाता है की बीच में गड्ढे में बस का टायर दो- तीन फीट नीचे जाता है| अगर यात्री बैठे रहे, तो बस उसमें फंस सकती है! यही दृश्य और एक बार दोहराया गया! कुंजुमला टॉप के बाद यह सड़क ऊँचे पहाड़ और ग्लेशियर्स के बीच नीचे उतरती है, इसलिए कई बार पानी इस सड़क या ट्रैक को पार करता है| कई झरने- जलप्रपात होते हैं| यहाँ अगर मुझे साईकिल लाने की दुर्बुद्धी होती तो इस पूरे चरण में पैदल ही चलना पड़ता! किसी भी वाहन के लिए यहाँ से पार होना खतरे से खाली नही है! एक तरफ झरने- ग्लेशियर्स और दूसरी तरफ खाई में बहनेवाली चन्द्रा! साथ के यात्रियों ने बताया कि छोटा दर्रा और बड़ा दर्रा ऐसे स्थानों पर ये झरने क्रॉस करने होते हैं| ऐसा ही आगे भी और एक है, लेकीन वहाँ यात्रियों को नीचे नही उतरना होगा! बस में एक सह- यात्री से बात हुई| पता चला कि वह लेह का है और देहरादून में जॉब करता है| फिर उससे दफा ३७०, लदाख़ के विषय आदि पर भी बात हुई!





... इस डरावने पैच में साईकिल की बड़ी फिक्र होने लगी| पहले जब बस कुंजुमला के लिए तेजी से तिरछी उपर चढ रही थी, तब साईकिल नीचे गिरने का डर था| या रस्सी छूटने का डर था| जब बस पहाड़ से सटे और प्राकृतिक टनेल जैसे स्थान से जा रही है तो डर है कि उपर के पहाड़ से उसे नुकसान तो नही होगा! साईकिल पर बहुत ही अत्याचार हो रहे हैं! लेकीन वह सब सह रही है और यही कह रही है- कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो! बड़ी देर बाद छत्रू आया| यह चन्द्रा के पास बंसा एक छोटा स्थान है| गाँव भी नही, लेकीन टेंट कॉलनी जैसा है| यहाँ कई सारे कैंप्स हैं| यात्रियों ने यहाँ नाश्ता किया| मनाली तक पहाड़ी सड़क पर उलटी के खतरे के कारण मैने आज खाने को स्पर्श ही नही किया है| थोड़ी देर छत्रू में चहलकदमी की! कितनी अजीब जगह है! बच गया मै! अगर साईकिल चला कर आता तो कहना पड़ता- चन्द्रा तेरा गाँव बड़ा प्यारा, मै तो गया मारा, आके यहाँ रे! कई घण्टों तक ऐसे रूट पर जाने के बाद डेस्परेशन होने लगा कि कब एक बार यह चरण पूरा हो जाए और मनाली- लेह रोड़ आ जाए! छत्रू के बाद इस न- सड़क ने चन्द्रा नदी क्रॉस की और चढाई शुरू हुई! मेरे लिए यह अप्रत्याशित थी| मेरे मैप और रूट के अनुसार मनाली- लेह हायवे पर होनेवाले ग्राम्फू तक उतराई ही होनी चाहिए थी| इस रूट पर मेरा प्लैन चौपट हो ही जाता| एक तो यहाँ एक दिन में ५० तो क्या, २५ किलोमीटर भी बहुत ज्यादा होते| इसलिए साईकिल पर लोसर से चल कर बातल और फिर बातल से चन्द्र-ताल और फिर अगले दिन बातल से छत्रू ऐसी योजना ठीक रहती! खैर! लेकीन अब मलाल की जगह राहत का ख्याल ही है! खैर!



छत्रू के बाद भी दुर्गम स्थिति बनी रही| बड़े ही दुभर रास्ते से सड़क उपर चढ रही है| बिल्कुल संकरी सड़क! रिवर्स लेते हुए आगे बढ़ना! नीचे खाई! लेकीन यहाँ बरफ भी बहुत दिखाई देने लगी है| स्पीति एक शुष्क रेगिस्तान होने से यहाँ बरफ की रेखा उपर होती है, लेकीन लाहौल में हरियाली और बरसात भी होती है, इसलिए बरफ की रेखा कुछ नीचे होती है| कई देर तक ड्रायवर की तरफ देखता रहा| बड़े ही असम्भव जैसे मोडों पर वो मज़े से बस चला रहा है! कई बार तो लगा कि एक हाथ छोड़ कर और इधर उधर बैठे लोगों से बात करते हुए वह चला रहा है! बाद में तो सड़क इतनी मूड़ रही है, दिखाई भी नही दे रही! तब लगने लगा कि मानो बस आसमाँ में ही जा रही है! तब आँख बन्द कर ली! प्रतीक्षा करने के अलावा कुछ कर भी नही सकता हूँ! तब मन में गाना याद आया-

अन्जाने सायों का राहों में डेरा है|
अन्देखी बाहों ने हम सबको घेरा है|
ये पल उजाला है बाक़ी अंधेरा है|

और यह अन्धेरा ग्राम्फू तक जारी रहा! जब ग्राम्फू आया तो अचानक तेज़ रफ्तार की एक ट्रक पास से गुजर गई| तब पता चला कि 'हायवे' शुरु हुआ है| तब बड़ी राहत की साँस ली! एक तरह से अब घूमक्कडों के प्रदेश से पर्यटकों के प्रदेश में वापसी हुई! देखा जाए तो स्पीति के रोड़ भी (रिकाँग पिओ से स्पीति तक के) मनाली- लेह हायवे से दुर्गम ही माने जाते हैं| स्पीति में मनाली- लेह को तो लोग टूरिस्ट हायवे ही बताते थे| इस लिहाज़ से मैने लोसर तक बड़ी दुर्गम सड़क पर साईकिल चलायी| बीच में "सिर्फ" पचास किलोमीटर का यह पैच सबसे अधिक दुर्गम है| मनाली- लेह से भी ज्यादा दुर्गम| हायवे पर पहुँचने तक दोपहर के बारह बज रहे हैं! सिर्फ पचास किलोमीटर के लिए पाच घण्टे लगे बस को| ग्राम्फू से नेटवर्क भी शुरु हो गया! कुछ हद तक बाहर की दुनिया में वापसी हुई! रोहतांगला के पहले कुछ स्थानों पर यह हायवे भी टूटा फूटा है| बीच बीचे में बाईकवाले और साईकिलवाले भी‌ दिखाई देने लगे| रोहतांगला! वाह! यहाँ बहुत ज्यादा बरफ मिली| वैसे कुंजुमला से आगे लगातार बरफ दिखाई दे ही रही है| अब इन्तजार है मनाली का| लेकीन रोहतांग के कुछ आगे दो घण्टे का जाम लगा! बाद में पता चला कि एक जगह तेज़ बारीश से सड़क टूट गई थी| इसलिए कई किलोमीटर तक का जाम लगा| मनाली! पहली बार इस तरफ आ रहा हूँ! मनाली पास आते आते बियास भी चली आई! वाह! शाम को पाँच बजे मनाली में पहुँचा!


 

साईकिल नही चलाई यहाँ, लेकीन साईकिल के थैले को बस में से तो ले गया| और किस्मत से साईकिल को कुछ भी नुकसान नही हुआ| साईकिल चढाते समय ड्रायवर और कंडक्टर ने सहायता की थी, उतरते समय जब दिक्कत हुई तो नीचे से कोई अन्जान व्यक्ति ने मदद की और साईकिल बस से नीचे रखी! उसे धन्यवाद दे दूं, तब तक वह भीड़ में खो भी गया| ड्रायवर को जरूर सैल्यूट किया! हिमाचल की बसें और इन बसों के ड्रायवर!!! यहाँ से वॉल्वो बस स्टैंड पर रिक्षा से साईकिल के थैले को ले गया| वॉल्वो की‌ डिक्की में साईकिल रखने में आसानी होती है| वहाँ प्रायवेट वॉल्वो बूक की और तुरन्त निकलनेवाली थी| जैसे तैसे इस थैले को उठा के वहाँ ले जाने लगा| लेकीन इस २१ किलो के थैले को जरा भी दूर तक ले जाना आसान नही है! जब बहुत दिक्कत हुई, तो वहाँ भी एक अन्जान व्यक्ति ने सहायता की| वॉल्वो बूकिंग जहाँ से किया था, वहाँ से वही व्यक्ति मेरे पास आया और बस तक मुझे छोड़ा| मनाली बहुत महंगा है, इसलिए वहाँ रूकना नही है| सीधा दिल्ली जानेवाली वॉल्वो से अम्बाला तक की यात्रा शुरू की! धीरे धीरे अब हिमालय से विदा लूँगा! आज गनीमत रही की इतनी डरावनी अ- सड़क पर भी ज्यादा परेशानी नही हुई| उलटी के तो लक्षण भी नही हुए| साईकिल भी सुरक्षित रही! अब जल्द ही हिमालय बाबा से विदा हो कर धरती मैया की शरण लेनी है| आज की मनाली तक की दुभर बस यात्रा भी किसी ट्रेक से कम नही‌ है! इस क्षेत्र में किसी वाहन से यात्रा करना, सिर्फ किसी वाहन में बैठना भी साहसिक ट्रेक से कम नही है! और कमजोर दिलवालों के लिए तो बिल्कुल नही है! खैर! हिमालय से लौटते समय मन में विचार आ रहे हैं इस साईकिल यात्रा के रिलेवन्स के| यह सिर्फ एक साईकिल यात्रा न हो कर एक सामाजिक उद्देश्य वाली यात्रा भी थी| इस सम्बन्ध में भी यह यात्रा आंशिक रूप से ही सफल हो सकी| और रही बात साईकिल यात्रा अधुरी रहने की, उस समय अन्त:प्रेरणा से जो निर्णय लेगा, उसका अर्थ दो हफ्तों के बाद पता चला जब मनाली- लेह सड़क पचास घण्टों तक जाम हुई... इन सबके बारे में बात करता हूँ इस शृंखला के अन्तिम लेख में|





अगला भाग: साईकिल पर जुले किन्नौर- स्पीति ११: इस यात्रा का विहंगावलोकन

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