नदीयाँ पहाड़ झील और झरने जंगल और वादी
जब समूचे उत्तर- मध्य भारत में ठण्ड का प्रकोप बढ रहा है, तब हिमालय दर्शन की यात्रा को इस कथन द्वारा फिर देखने का प्रयास करते है. . . पिथौरागढ़ !! वाकई में “वहाँ” काफी अधिक ठण्ड का प्रकोप चल रहा होंगा। तपमान में इतनी गिरावट आयी है कि राजस्थान में माउंट अबू, चुरू जैसे स्थानों पर पारा शून्य के नीचे चला गया है. . . .
महान पर्वत से निकलती हुई महान धारा- रामगंगा थल के पास |
पिथौरागढ़! श्रीविष्णू के दूसरे अवतार अर्थात कूर्मावतार की भूमि- कूर्माञ्चल अर्थात् कुमाऊँ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान! पिथौरागढ़ में एक दिन रुकना था। महाराष्ट्र से आरम्भ हुई दो दिन की यात्रा में विराम था। वहाँ की ठण्ड बर्फबारी के इलाकों की ठण्ड सहने के लिए वाकई अच्छा अभ्यास दे रही थी। भला हिमालय के शिखरों में जाने का पूर्वाभ्यास इससे और अच्छा कैसे हो सकता था। एक बात और अलग थी। देश के मध्य भाग में वैसे तो सर्दी के दिनों में भी शाम को सात बजे तक रोशनी होती है। दिल्ली से आते हुए देखा था कि वहाँ तो साढे पाँच को ही अंधेरा छाने लगा था। और पिथौरागढ़ में तो और जल्दी दिन खतम हो गया। शाम के पाँच बजने तक ही लग रहा था की रात हो गई। इस हिसाब से कुमाऊँ मध्य भारत से तीन घण्टे आगे चल रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा था!
यहाँ से अब वास्तविक यात्रा का आरम्भ होना था। जाना था जोशीमठ से आगे बद्रीनाथ की ओर! जहाँ तक रास्ता साथ दे वहाँ तक। जोशीमठ के आसपास के कुछ स्थान देखने की योजना भी बनाई थी। जोशीमठ से पास में औली नाम का एक हिलस्टेशन है। उसे भारत के स्किइंग का सबसे अव्वल स्थान माना जाता है। अभी जनवरी २०१३ में वहाँ आशियायी पर्वतीय खेल भी होने है। औली के बारे में और जानने के लिए एक अनुठे पर्यटक तथा देशप्रेमी मुसाफिर का यह ब्लॉग पढा जा सकता है। इसी ब्लॉग से जानकारी ले कर औली के बारे में सोचा था। पर हम जो सोचते है, वैसा होता नही है और जो होता है वह तो बिना सोचे हो जाता है! खैर, पिथौरागढ़ से निकलने के समय तक तो सब कुछ पूर्वानुमान के अनुसार ही हो रहा था।
कडकडाती ठण्ड में सुबह पाँच बजे निकल कर रोडवेज बस अड्डे का रास्ता पकड लिया। एक ट्रकवाले भाईसाहाब ने लिफ्ट भी दे दी। और बस अड्डे पर बस भी तैयार खडी़ थी। बस के वाहक या खलासी “थल मुवानी बागेश्वर” कह कर पुकार रहे थे। वैसे तो यह बस बडी़ अजीब सी थी। एक साथ तीन रास्तों की वह बस थी। एक रास्ता था थल से मुनिसयारी तक। एक दिन पूर्व ही पढा था कि मुनिसयारी के चोटियों पर ही नही, वहाँ के बजार में भी बर्फबारी हुई है। तो इस बस का एक मार्ग था मुनिसयारी की ओर। दूसरा मार्ग थल से अलग होनेवाला था। थल जा कर यह बस फिर मुवानी, बागेश्वर, हल्द्वानी के रास्ते दिल्ली तक का लम्बा सफर करनेवाली थी। करीब करीब कहिए कि जैसे ट्रेन के दो दो रूट होते है, वैसे ही इस बस के भी थे। इसीलिए सीधे बागेश्वर का टिकट भी नही दिया। पहले थल तक का ही टिकट दिया।
फिर सुबह- या रात के अन्तिम प्रहर के मध्य में कहिए- साढे़ पाँच बजे बस निकली। अच्छी संख्या में यात्री साथ थे। सभी ठण्ड के लिए पुरजोर तैयारी किए हुए। जैसे बस निकली, वैसे ही बस में महफिल शुरू हुई। पर यह महफिल भी समय के अनुरूप थी। भोले बाबा के प्रदेश की यात्रा हो तब साथ में भोले के ही गीत होंगे ना! फिर गीतों की मालिका शुरू हुई। भगवान शिव, ताण्ड़व नृत्य कथा, देवी पार्वती द्वारा श्रीराम की परीक्षा लिए जाने की कथा आदि शुरू हुआ।
“सोमेश्वराय शिव सोमेश्वराय हर हर भोले नम: शिवाय!!”
जरा लगना भी चाहिए ना की पहाडों की और भोले बाबा के प्रदेश की सैर हो रही है!
अंधेरे में ही पिथौरागढ़ के किनारे पर स्थित आयटीबीपी केन्द्र पार किया। सामने नजारा शुरू हुआ। पर अभी रात्रि का अन्तिम प्रहर अपनी चरम सीमा पर था। करीब डेढ घण्टे के पश्चात् बुंगाछीना से आगे आने पर रोशनी आई। युँ कहिए कि कुछ कुछ दिखने लगा। आगे से जो नजारा शुरू होता है, उसे शब्दों में कहना मुश्किल ही नही, नामुमकीन है!! नदियाँ पहाड़ झील और झरने जंगल और वादी! कुछ कहने के बजाय इन कुछ तस्वीरों को माध्यम बनाते है।
पहाड़ का क्या कहना! पहाड़ का हर बिन्दु है जैसे गहना!! यहाँ तो हर एक स्थान रमणीय है!!
रास्ते में रामगंगा नदी भी साथ चल आई। ऊँचे ऊँचे पहाडों के नीचे से गुजरती हुई धारा! इसी के तट पर बसा है थल। यहाँ से ॐ पर्वत और पास लग रहा था। फोटो खींचने का प्रयास किया, पर इतना ठीक नही आया।
हम शायद मानस सरोवर नही देख सकते है, पर कम से कम ऐसा स्थान तो देख ही सकते है जहाँ से मानस सरोवर दिखता हो! थल गाँव का दृश्य। फोटो के मध्य में बस के ठीक उपर दिख रहा सफेद पर्वत ॐ पर्वत है। |
थल से यात्रा फिर आगे चल पडी। अब दिन वास्तव में शुरू हुआ था। समय के अनुसार गाडी में बजनेवाले गीत भी बदले। पुराने हिंदी सिनेमा के गीतों की दूसरी अलग महफिल शुरू हुई। “जो बात यहाँ पर है, कहीं पर नहीं!” ऐसे पुराने जमाने के बेहतरीन गीत साथ निभा रहे थे। आगे एक जगह पर बिती रात हुई बरसात के कारण रास्ता बन्द हुआ था। रास्ते पर पत्थर गिरे थे। उन्हे निकालने का कार्य जारी था। पर उसमें लगनेवाले समय के कारण बस मूडी और फिर दूसरी तरफ से बागेश्वर की ओर चल पडी।
बस को रास्ता बदलना पडा |
बस पलट कर बेरिनाग के पास से और चौकोडी घाट से जानेवाले रास्ते पर जाने लगी। लगातार एक से एक मनोरम नजारे दर्शन दे रहे थे। एक स्थान पर सामने केबिन (या युं कहिए बाल्कनी) में बैठे हुए लोगों ने अचानक देखा की बरफ गिर रही है। जी हाँ, चौकोडी घाट में बरफ गिर रही थी!! इसकी ऊँचाई २००० मीटर से अधिक है। और मौसम खराब होने से आयी हुई बारीश से यहाँ बर्फबारी हो रही थी। लेकिन बस न रूकने के कारण फोटो लिया नही जा सका। कुछ ही अन्तर में घाटी से नीचे उतरने पर बर्फ कम होती गई और पीछे रह गई। पहाड़ में रास्ते ऐसे ही है। एक पहाड़ चढिए, घाट से गुजरिए और फिर नीचे आ कर दूसरे पहाड़ को चढना शुरू किजिए। अर्थात् उपर जाने के लिए नीचे से ही जाना होगा। उपर जाने का रास्ता सीधा नही मिलेगा!
नजारें और ठण्ड के सर्द माहौल का लुफ्त मन तो काफी उठा रहा था, लेकिन फिर धीरे धीरे शरीर ने शिकायत करनी शुरू कर दी। बागेश्वर पहुँचते पहुँचते ठण्ड शरीर तक पहुँच गई थी। ठण्ड में ऐसा ही होता है। ठण्ड का असर थोडी देर बाद होता है। और तब मन और शरीर की प्रतिक्रियाएँ अलग अलग हो जाती है। बागेश्वर में शरयू नदी ने स्वागत किया। लेकिन बस अड्डा आगे था इसीलिए नदी को देखने का अवसर नही मिला।
बस से उतरने पर पहले चाय ढुँढा। ऐसे सर्द नजारों में चाय तो चाहिए ही। लेकिन बस अड्डे के पास दोनो तरफ चाय का होटल मिला ही नही। ग्यारह बज गए थे, इसीलिए सभी जगह में खाना ही था। ग्यारह बज तो गए थे, पर ऐसा लग रहा था कि अभी अभी सुबह हुई है! एक होटल में सब्जी रोटी ले ली और खाना आरम्भ किया। पर यह क्या? उंगलियाँ तो अकड सी गई है। खाने में बडी दिक्कत हो रही है! खाना पकड में ही नही आ रहा है। जैसे तैसे खाना मुँह में डाल दिया और फिर आगे जाने की बस ढुँढी। सीधे कर्णप्रयाग की बस तो अब नही थी। वैसे भी सीधे कर्णप्रयाग तक जाना था भी नही। जाना तो ग्वालदाम या बैजनाथ तक ही था। क्यों कि इस अद्भुत प्रदेश को थोडी सी गहराई में जा कर देखना था। बैजनाथ की प्राइवेट बस जल्द ही मिल गई। बागेश्वर से करीब बीस किलोमीटर दूरी पर बैजनाथ है। दोपहर का माहौल तो था नही, पर समय जरूर हुआ था। इसीलिए सोचा कि बैजनाथ में ही रुका जाए। और ग्वालदाम में रुकना महंगा होगा, यह बात भी पता चली थी।
बैजनाथ पहुँचने में ज्यादा समय नही लगा। वहाँ का मुख्य आकर्षण नागर शैली का मन्दीर समूह था। इसीलिए सह- यात्रियों से पूछताछ की। दो- तीन जनों से पूछ कर साफ साफ पता किया। लोग भी इतने सीधे और उम्दे थे, कि जैसे उतरने हेतु आगे जा कर खडा रहने के लिए चला, तो दो- तीन लोगों ने स्वयम् टिकिट निकालनेवाले वाहक या खलासी को बतायाँ, इसे ऐसा पूलिया के पहले उतार दो। कितने सरल और सीधे इन्सान!! प्रकृति से जुडा़व साफ तौर पर झलक रहा था . . .
बैजनाथ में उतरने के पश्चात शान्ति का अनुभव हुआ। पुलिया के ठीक पहले बस से उतरा। सामने से गोमती नदी बह रही थी . . . छोटा सा गाँव, भीड कम ही थी। शहर न होने के वजह से एक सरलता थी। यहाँ चाय भी तुरन्त मिल गई। वैसे तो पहाड़ में चाय में शक्कर के बजाय गूड़ या मिशरी का प्रयोग करते है। पर शहरी चाय ही पी ली। पास में ही मन्दीर था। चाय पिते हुए सभी जानकारी ले ली। कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का सरकारी यात्री आवास भी दूर नही था।
गोमती के किनारे स्थित मन्दीर का दर्शन किया। फिर यात्री निवास जा कर सामान रख दिया। रात के रुकने का प्रबन्ध हो गया। फिर बैंजनाथ के दूसरे दो मन्दीरों को देखने के लिए वहीं घूमना हुआ। छोटा सा और शान्त पहाडी कस्बा! पूरा दृश्य वास्तव में रमणीय नजारा था। दूर बादलों की टोली नजर आ रही थी। बर्फवाले पहाड फिलहाल नीचले पहाडों के और बादलों के पीछे थे। इसके आगे शब्दों के बजाय ये तस्वीरें दृश्य का अनुभव करा देंगी।
बैजनाथ में स्वागत करनेवाली गोमती. . . |
उत्तराखण्ड में कदम कदम पर पावन स्थान है. . . हर स्थान हर का है. . . |
इस मन्दीर के साक्ष्य में नजाने इस प्रवाहिता से कितना पानी गुजरा होगा . . . |
ये तो झाँकी है. . . . |
लक्ष्मी नारायण मन्दीर |
इतनी सुन्दर राह है, मन्जिल तो कैसी होंगी. . . |
भ्रामरी देवी का मन्दीर |
घडी में शाम के पाँच बजने को आए, फिर भी लग ही नही रहा था कि सुबह की दोपहर हुई और अब शाम भी होने लगी है। मानो यह प्रदीर्घ सुबह ही चल रही थी। अविस्मरणीय नजारें और सपने के गाँव का भली भाँति दर्शन कर अपरिहार्य चायपान का लुफ्त उठाया। वहीं पर काफी सस्ती मूंगफली के सींग भी मिल गए। उत्तराखण्ड की पूरी यात्रा में हर जगह- रास्ते में- बस में- होटल में- इन मूंगफली ने दर्शन दिया और बडा साथ भी निभाया! जैसे यह दिन जल्द शुरू हुआ था, वैसे जल्द सीमटने भी लगा। साढे़- पाँच होते होते लग रहा था की पूरी रात हो गई है। यात्री आवास सुना था। दो- चार ही जने थे। उसमें से दो जन तो मन्दीर में मिल भी चुके थे। अकेले व्यक्ति को इतने दूर से देखने के लिए आते हुए देख कर उन्हे अचरज भी हुआ था। लेकिन जैसे ही रात का राज्य शुरू हुआ, बिस्तर ने आकर्षित किया और मध्य भारत के समय के करीब तीन घण्टे पहले ही दीपनिर्वाण कर लिया। लेकिन क्या समां था . . . . .
अगला भाग: अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोS हिमालय: ३ चलो, तुमको लेकर चलें इन फिजाओं में. . .
bahot badhiya....
ReplyDeleteMast ahe blog....
ReplyDeletekhupach chan lihila ahes dada!!
आनन्द आ गया। चित्र तो अच्छे हैं ही, लेखन शैली भी उससे अच्छी है।
ReplyDeleteएक बात पहली बार पता चली कि थल से ॐ पर्वत दिखता है।
हमारे पहाड के लोग ऐसे ही होते हैं, परदेसी के लिये तो खुलकर बिछने को तैयार।
अगली पोस्ट छप जायेगी तो मेल पर बता देना। आपका लेखन अच्छा लग रहा है।
भाईसाहाब, धन्यवाद! आपकी प्रतिक्रिया देख कर आनन्द हुआ। ॐ पर्वत थल से ही नही, वरन् हल्द्वानी से अल्मोडा के रास्ते पर शहर फाटक से आगे तथा पिथौरागढ के पहले आनेवाले घाट के आसपास से भी दिखता है। उसी प्रकार ऋषीकेश से लगभग 60 किमी दूरी पर भी एक स्थान से बर्फिले पहाड दूर से दिखते है (एक तरह से केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि मान्यवरों के दूत स्वागत करते है और जाते समय उस स्थान से विदा करते है)... यही तो है हिमालय का अद्भुत सौंदर्य!!
Deleteरुपकुन्ड जाते समय यह मन्दिर देखा था, साफ़ पानी में मछलियाँ तरती हुई बहुत लुभावनी लगती है।
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