२. अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोs हिमालय: २ नदियाँ पहाड झील और झरने जंगल और वादी
३. अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोS हिमालय: ३ चलो तुमको लेकर चलें इन फिजाओं में
४. अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोS हिमालय: ४ जोशीमठ दर्शन
५. अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोs हिमालय: ५ अलकनन्दा के साथ बद्रिनाथ की ओर
६.अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोs हिमालय: ६ औली जाने का असफल प्रयास और तपोबन यात्रा
हिमालय
की आज्ञा ले कर ऋषीकेश की ओर
१९
दिसम्बर की सर्द सुबह!
साढ़ेपाँच
बजे डॉर्मिटरी से निकल कर बस
स्टँड की तरफ पहुँचा|
उनकी
पुकार बड़ी दूर तक गूँज रही है|
बस
निकलने में दो मिनट है;
इसलिए
जा कर चाय ली जा सकती है|
सीट
पकड़ने का सवाल ही नही;
क्यों
कि उंगलियों पर गिने जा सकनेवाली
सवारियाँ ही बैठी हैं|
लेकिन
ठण्ड.
. . आज
हिमालय से निकलने का दिन आ ही
गया|
अभी
तकनिकी रूप से सुबह हो भी गई
हो तो रात ही चल रही है|
कम
से कम एक घण्टा अन्धेरा रहेगा
और तब तक आनेवाला नजारा छूट
जाएगा|
लेकिन
उजाले के बजाय प्रतीक्षा धूप
की है|
ठिठुरते
हुए चाय पी ली और बस चल पड़ी|
नजारा
अन्धेरे में ही पीछे जाता रहा|
बड़ी
देर बाद उजाला हुआ और धूप खिलने
तक तो बस पिपलकोटी पहुँच गई|
अब
जान में जान आ रही है|
सुबह
की धूप में हिमालय का नजारा
और अलकनन्दा!
चाहे
बुद्धी कितना भी अस्वीकार
करें;
पहाड़ों
में होने पर एक डर तो बना ही
रहता है|
रास्ता
इतना दुर्गम है कि मन के नीचले
तल में एक असुरक्षा की भावना
होती ही है कि एक बार यहाँ से
निकल कर मैदान में कब पहुँचूं...
क्यों
कि रास्ता इतना खतरनाक है.
. वास्तव
में इन्सान पंच महाभूतों से
बना हुआ होता है और जब हम पहाड़ों
में जाते है तो जागृत स्तर पर
नही लेकिन अर्धजागृत मस्तिष्क
में जरूर जमीन-
धरती
माँ की याद आती रहती है|
बल्कि
धरती से टूटे होने का भी अस्पष्ट
ख्याल होता है|
क्यों
कि हम इन पाँच तत्त्वों से बने
हुए हैं और इसलिए यदि हम ऐसी
जगह जाए जहाँ हवा,
पृथ्वी,
अग्नि,
जल
और आकाश से हमारा सम्पर्क
खण्डित हो जाए तो हम असहज होते
हैं|
समन्दर
के नीचे,
किसी
बन्द टनेल में;
किसी
रोप वे में बैठे हुए यही तो
महसूस होता है अलग अलग अनुपात
में|
शायद
इसी वजह से घर में रोता हुआ
छोटा बच्चा खुली हवा में ले
जाने पर तुरन्त शान्त होता
है|
खैर|
जोशीमठ
छोडने के बाद ऊँचाई निरंतर
कम होती है;
बाद
में कोई भी ऊँचा स्थान नही है|
लेकिन
सड़क चढती और उतरती ही रहती है|
एक
पहाड़ी पार करने पर फिर दूसरी|
उतरने
के लिए भी चढना होगा;
जैसे
हिमालय में जाते समय एक चोटि
पार करने के बाद खाई से गुजरना
होता है.
. . इसी
लिए तो इसे नगाधिराज कहते हैं|
जोशीमठ
से ऋषीकेश की दूरी महज
२५३ किलोमीटर है|
लेकिन
पहाड़ी रास्ता होने से पूरा
दिन लगता है|
बीच
बीच में रास्ता अधिक दुर्गम
भी दिख रहा है|
नन्दप्रयाग,
कर्णप्रयाग,
देवप्रयाग,
रुद्रप्रयाग!
बीच
में एक स्थान से बड़ा अपूर्व
नजारा देखने को मिला|
एक
जगह पर हिमालय की रेखा साफ नजर
आ रही थी|
जैसे
उत्तुंग पर्वत शिखर पुन:
एक
बार आशीर्वाद दे कर विदा कर
रहे हो और इस दृश्य के पास ही
नीचे घाटि से बहनेवाली गंगा
नदी|
जब
पहली बार हिमालय के पास आया
और जब पहली बार हरिद्वार के
निकट गंगा नदी देखी थी;
तो
ऐसी शान्ति महसूस हुई थी|
वाकई
पहाड़ की हवा कुछ और है|
यहाँ
तक कि कहते हैं कि पहाड़ आम बस्ती
का स्थान न हो कर ध्यान या साधना
की भूमि ही है|
इसी
लिए इसे देवभूमि कहते हैं या
कश्यप ऋषी का स्थान होने के
कारण उस भूमि को कश्मीर कहा
जाता है|
अब
ऋषीकेश में एक-
दो
दिन ठहरना है|
वहाँ
गंगा के तट पर और एक आश्रम में
जाऊँगा|
यहाँ
ऋषीकेश में वाकई हिमालय का
चरणस्पर्श होता है|
यहाँ
हिमालय की सीमा जो है|
ऋषीकेश
पहुँचने तक दोपहर के चार बजे
है|
अर्थात्
लगभग नौ-
दस
घण्टे लगे इस यात्रा में|
बहुत
थकान हो रही है|
और
कुछ उदासी भी छा रही है|
कुदरत
के पास जाते है तो उसकी कृपा
से प्रसन्न हो उठते हैं और इसी
कारण उससे दूर जाते समय अस्वस्थता
तो होगी ही|
ऋषीकेश
पहुँचने पर एकदम शहर जैसा लग
रहा है|
यहाँ
भी सरकारी डॉर्मिटरी ढूँढी|
एक
जगह पसन्द नही आयी तो दूसरी
डॉर्मिटरी चला गया|
यह
बिल्कुल गंगा के किनारे स्थित
है|
यह
सरकारी डॉर्मिटरी वास्तव में
एक रेसॉर्ट के भीतर है|
इसलिए
यहाँ दाम थोड़ा अधिक हैं-
एक
बिस्तर के २५० रूपए-
लेकिन
सुविधा बेहतर है|
साथ
ही गंगा से होटल गंगा से सटा
है|
रमणीय
बनाया गया है|
जब
नदी ऊँचे पहाड़ों से गिरनेवाले
झरनों की और प्रपातों की धारा
के रूप में दौडती है तो उसका
एक अलग रूप होता है|
यहाँ
गंगा के रूप में अनगिनत पहाड़ी
धाराएँ शान्ति से बह रही हैं|
यह
जीवन की ओर एक संकेत तो नही?
जब
हम उथले होते हैं;
जब
गिरते और उठते हैं;
तो
बहुत आवाज के साथ चलते हैं;
संघर्ष
होता हैं|
लेकिन
जब गहराई मिलती है और स्थिर
होते हैं;
तो
बिल्कुल शान्त होते हैं|
ऋषीकेश
में निवास की व्यवस्था तो हो
गई;
लेकिन
मन अशान्त है|
एक
तो यहाँ से मोबाईल में इंटरनेट
मिल गया|
फिर
वही शहर का घिसा-
पिटा
माहौल|
कुछ
लोगों को पहाड़ में जाते समय
अक्लमटाईज़ होना पड़ता है|
ऊँचाई-
ठण्ड
का आदि होना पड़ता है|
शायद
मुझे वापस शहर में आने के लिए
थोड़ा अक्लमटाईज़ होना पड़ेगा|
वह
शाम नदी के पास ही बिती|
यहाँ
ठण्ड एकदम कम है|
गंगा
नदी कुछ सान्त्वना दे रही है,
बता
रही है कि तुम अब भी पहाड़ के
करीब ही हो|
आज
के दिन अब ऋषीकेश में कहीं
जाना नही होगा|
मुश्किल
से एक होटल में जा कर कुछ भोजन
कर पाया|
जैसे
ही रात हुई,
पहाड़
में कई स्थान रोशनी से भर गएं|
पहाड़
के बीचोंबीच कितने लोग रहते
हैं|
एकाध
वाहन गुजरता है|
कई
बार यह भी महसूस किया है कि
पहाड़ में जाने के पहले कितने
दिन हम उस यात्रा के लिए तरसते
हैं|
चाहे
कोई भी यात्रा हो|
पिकनिक
ही हो|
लेकिन
एक बार जब हम यात्रा में होते
हैं;
'गन्तव्य'
स्थान
पर होते हैं;
तो
फिर मन भटकने लगता है|
वापस
चला जाता है|
पहाड़
में घूमते हुए भी हमें शहर की
और घर-
कारोबार
की याद अनिवार्य रूप से आती
ही है|
और
अब पहाड़ से दूर आने पर पहाड़ की
बड़ी याद आ रही है|
खैर,
पहाड़
के पास होने का अनुभव करने के
अभी
एक-
दो
दिन बचे हैं|
दूर हिमालय के शिखर और पास में बहती गंगा. . . |
SHIVALIK THE JEWEL OF BRO!! |
सुंदर !
ReplyDeleteNiranjan Velankarji,
ReplyDeleteNamaskar.
I am reading your blog with great interest. You have got very good command over Hindi.
Interesting.
थोडा सा फोटोशॉप भी सीखिये। मामूली सी मेहनत से फोटो और भी आकर्षक हो जायेंगे।
ReplyDeleteखैर, शानदार लिखा है।
badiya yatra vrutant ...
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