Sunday, May 8, 2016

प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना


प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना

प्रस्तावना

आज पर्यावरण में कई जगहों पर उथल- पुथल नजर आती है| देश के कई हिस्सों में सूखे का कहर बरस रहा है, पहाडियों‌ में वृक्ष जल रहे हैं और पूरे जगत में भूकम्प आ रहे हैं, कहीं तुफान तो कहीं पहाड़ धस रहे हैं| हमारे देश की बात करते हैं तो सूखे की समस्या चरम पर है| ऐसे में मन में ख्याल आता है कि इन सब के लिए हम क्या कर सकते हैं? इस विषय पर आपसे कुछ कहना चाहता हूँ| अब तक इस विषय से सम्बन्धित जो समझा है वह आपसे कहना चाहता हूँ|

सूखे के समन्ध में दिखनेवाली समस्या मूल समस्या का दृश्य रूप है| समस्या का दिखनेवाला और उजागर होनेवाला रूप है| लेकिन वास्तव में यह समस्या उससे बहुत गहन है| उसके कई सारे आयाम हैं| पहले इन सब आयामों को समझना चाहिए| तभी हम इस पूरी परिस्थिति को समझ सकेंगे| इस लेखमाला द्वारा प्रकृति, पर्यावरण और हम इन्सान इस विषय पर कुछ बातचीत करने की इच्छा है| उपर से दिखनेवाली चीजें अलग होती हैं और जब हम गहराई में जा कर देखने की कोशिश करते हैं, तो कई नयी चीजें दिखाई देती हैं|



प्रकृति अर्थात् निसर्ग सबसे बड़ी व्यवस्था है| पर्यावरण प्रकृति का वह हिस्सा है जो हमारे करीब होता है| और हम अर्थात् इन्सान इस पूरे विश्व में और इस फैली हुई अनंत व्यवस्था में एक बहुत ही छोटा कण जैसा अस्तित्व रखते हैं| यहाँ भगवान बुद्ध का एक वचन याद आता है| धम्मपद में उन्होने कहा है कि मानव मध्य देश में है| जिसका अर्थ कि इन्सान अस्तित्व के मध्य में है| इसे अगर आज की वैज्ञानिक भाषा में कहें तो यह अर्थ होता है कि सबसे सूक्ष्म वस्तु- परमाणू या परमाणू का मौलिक अणू और विश्व का अनगिनत फैलाव इन दो छोरों के ठीक मध्य में इन्सान है| इन्सान अणू से उतना ही बड़ा है जितना इन्सान से यह फैला हुआ विश्व बड़ा है| भगवान बुद्ध ने यह भी कहा है कि इन्सान एक चौराहा है| एक जंक्शन है| बुद्ध कहते हैं, इन्सान की चार सम्भावनाएँ हैं| एक सम्भावना पशु की है- दु:ख की ओर जाने की है| क्यों कि इन्सान का अतीत पशु का है| दूसरी सम्भावना सुख की है जिसे स्वर्ग कहते हैं| तिसरी सम्भावना इन्सान ही रहने की है- तनावग्रस्त- सुख और दु:ख में चक्कर काटता हुआ इन्सान| और चौथी सम्भावना बुद्धत्व है जो सुख और दु:ख दोनों से परे हैं| इन्सान इस तरह प्रकृति का ऐसा घटक है जो प्राकृतिक भी होता है और अप्राकृतिक भी होता है| अगर इन्सान बुद्धत्व प्राप्त करता हैं, तो बहुत उपर उठता है|‌ और वही इन्सान अगर पाशवी होता है, तो वह पशुओं से भी बुरा होता है| इसका अर्थ यह भी है कि इन्सान और प्रकृति का पारस्परिक सम्बन्ध बहुत ज्यादा होता है| और सूक्ष्म अर्थ में एक तिनका भी हिमालय से जुड़ा है| इसलिए ये सभी प्राकृतिक घटक एक दूसरे से बहुत निकट से जुड़े भी है और एक दूसरे से प्रभावित भी होते हैं| विज्ञान भी यही बात कहता है| खैर|

सूखे का ही उदाहरण लेते हैं| सूखा एक तरह से बीमारी है या तनाव की स्थिति है| लेकिन हमें ध्यान बीमारी के बजाय स्वास्थ्य पर देना चाहिए| इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि वाकई स्वास्थ्य क्या है| स्वस्थ स्थिति किसे माना जाना चाहिए? देखा जाए तो यह एक जटिल प्रश्न है| क्यों कि अबसोल्युट तरिके से देखते हैं तो जो कुछ भी हो रहा है- कितना भी भीषण, कितना भी अमानवी, आर्टिफिशिएल और अप्राकृतिक जैसा लगता हो, सब कुछ प्रकृति का ही हिस्सा है| फिलहाल हम स्वस्थ स्थिति को सन्तुलन की स्थिति कह सकते हैं| स्वस्थ स्थिति अर्थात् प्रकृति के सभी पहलूओं के बीच सन्तुलन और समन्वय| जिसे सिंबायोसिस कहा जाता है- सहचर्य कहा जाता है| ऐसी स्थिति जिसमें सभी घटक समान रूप से विकसित हो सकते हैं, सबके लिए सम्भावनाएँ अच्छी होती है|

मूल रूप से पृथ्वी की स्थिति ऐसी ही थी| लेकिन इन्सान एक विशिष्ट दर्जा रखता है और उसके कारण यह स्वस्थ स्थिति खतरे में पड़ गई है| और इस नजरिए से देखते हैं, तो सूखा बीमारी है ही, लेकिन वह एक अर्थ में प्रकृति का स्वयं को सन्तुलित करने का ज़रिया भी है| विज्ञान का एक नियम यहाँ विचारणीय हैं| न्यूटन का लॉ कहता है कि विश्व में ऊर्जा निर्माण भी नही की जा सकती है और नष्ट भी नही की जा सकती है; वह तो सिर्फ रूपान्तरित की जा सकती है| उसके सिर्फ रूप बदलते रहते हैं| कभी वह पानी होती है, कभी बरफ तो कभी भांप बनती है| कभी वह हरे भरे पेड़ों में होती है, तो कभी जीवाश्म में होती है या कटी लकडी में होती है| ये सब ऊर्जा के माध्यम मात्र है|

इसलिए इस समस्या को देखना उस जगह से होगा जहाँ हम इन्सान को इन्सान के तौर पर नही, बल्की प्रकृति के एक हिस्से के तौर पर देखेंगे| प्रकृति में हर व्यवस्था के नियम होते हैं| सब कुछ नियम के अनुसार ही होता है| इन्ही नियम प्रणालि को भगवान बुद्ध की भाषा में या विपश्यना परंपरा में कूदरत का कानून या प्रकृति का गुणधर्म (धर्म शब्द का मूल अर्थ यही है) कहा जाता है| ये नियम छोटे तिनके से ले कर बड़े से बड़े सितारे पर या दो सितारों के बीच के अवकाश पर भी लागू होते हैं| ऐसे नियमों से प्रकृति बन्धी हुई होती है| तो देखना यह होगा कि प्रकृति में पृथ्वी ग्रह पर इन्सान के लिए क्या नियम है? इसे इस तरह से सोच सकते हैं- पृथ्वी पर इन्सान के लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर क्या है? प्राकृतिक व्यवस्था की चौखट क्या है?‌ सन्तुलन बनाए रखने के लिए उस चौखट में रहना आवश्यक है| अगर इन्सान अपनी बुद्धी से उस चौखट का उल्लंघन करता है, तो उससे पूरे सन्तुलन में बाधा बनेगी और धीरे धीरे उसके परिणाम होने लगेंगे| इसके लिए हमें अतीत में इन्सान- प्रकृति सन्तुलन की स्थिति के बारे में सोचना होगा| आज पृथ्वी पर विभिन्न जगहों में और देशों में इन्सान- प्रकृति सन्तुलन की स्थिति को देखना होगा| जैसे गुरुत्वाकर्षण प्रकृति का नियम है और इसलिए चलते समय इस नियम के साथ चलना होता है| कोई गुरुत्वाकर्षण के विपरित जाता है, तो वह गिरेगा| यह कुदरत का कानून होता है| यही अन्य जगहों पर देखने के कई पैमाने है; कई इंडीकेटर्स है जिनकी चर्चा हम अगले भाग में करेंगे|

अगला भाग: प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-05-2016) को "किसान देश का वास्तविक मालिक है" (चर्चा अंक-2338) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. rochak hone ke sath hi gyanvardhak alekh ...next episode ki pratiksha rahegi :)

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आपने ब्लॉग पढा, इसके लिए बहुत धन्यवाद! अब इसे अपने तक ही सीमित मत रखिए! आपकी टिप्पणि मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है!