Sunday, January 6, 2013

अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोs हिमालय: - २ नदीयाँ पहाड़ झील और झरने जंगल और वादी


नदीयाँ पहाड़ झील और झरने जंगल और वादी

जब समूचे उत्तर- मध्य भारत में ठण्ड का प्रकोप बढ रहा है, तब हिमालय दर्शन की यात्रा को इस कथन द्वारा फिर देखने का प्रयास करते है. . . पिथौरागढ़ !! वाकई में वहाँ काफी अधिक ठण्ड का प्रकोप चल रहा होंगा। तपमान में इतनी गिरावट आयी है कि राजस्थान में माउंट अबू, चुरू जैसे स्थानों पर पारा शून्य के नीचे चला गया है. . . .
























महान पर्वत से निकलती हुई महान धारा- रामगंगा थल के पास 

































पिथौरागढ़! श्रीविष्णू के दूसरे अवतार अर्थात कूर्मावतार की भूमि- कूर्माञ्चल अर्थात् कुमाऊँ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान! पिथौरागढ़ में एक दिन रुकना था। महाराष्ट्र से आरम्भ हुई दो दिन की यात्रा में विराम था। वहाँ की ठण्ड बर्फबारी के इलाकों की ठण्ड सहने के लिए वाकई अच्छा अभ्यास दे रही थी। भला हिमालय के शिखरों में जाने का पूर्वाभ्यास इससे और अच्छा कैसे हो सकता था। एक बात और अलग थी। देश के मध्य भाग में वैसे तो सर्दी के दिनों में भी शाम को सात बजे तक रोशनी होती है। दिल्ली से आते हुए देखा था कि वहाँ तो साढे पाँच को ही अंधेरा छाने लगा था। और पिथौरागढ़ में तो और जल्दी दिन खतम हो गया। शाम के पाँच बजने तक ही लग रहा था की रात हो गई। इस हिसाब से कुमाऊँ मध्य भारत से तीन घण्टे आगे चल रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा था!

यहाँ से अब वास्तविक यात्रा का आरम्भ होना था। जाना था जोशीमठ से आगे बद्रीनाथ की ओर! जहाँ तक रास्ता साथ दे वहाँ तक। जोशीमठ के आसपास के कुछ स्थान देखने की योजना भी बनाई थी। जोशीमठ से पास में औली नाम का एक हिलस्टेशन है। उसे भारत के स्किइंग का सबसे अव्वल स्थान माना जाता है। अभी जनवरी २०१३ में वहाँ आशियायी पर्वतीय खेल भी होने है। औली के बारे में और जानने के लिए एक अनुठे पर्यटक तथा देशप्रेमी मुसाफिर का यह ब्लॉग पढा जा सकता है। इसी ब्लॉग से जानकारी ले कर औली के बारे में सोचा था। पर हम जो सोचते है, वैसा होता नही है और जो होता है वह तो बिना सोचे हो जाता है! खैर, पिथौरागढ़ से निकलने के समय तक तो सब कुछ पूर्वानुमान के अनुसार ही हो रहा था।

कडकडाती ठण्ड में सुबह पाँच बजे निकल कर रोडवेज बस अड्डे का रास्ता पकड लिया। एक ट्रकवाले भाईसाहाब ने लिफ्ट भी दे दी। और बस अड्डे पर बस भी तैयार खडी़ थी। बस के वाहक या खलासी थल मुवानी बागेश्वरकह कर पुकार रहे थे। वैसे तो यह बस बडी़ अजीब सी थी। एक साथ तीन रास्तों की वह बस थी। एक रास्ता था थल से मुनिसयारी तक। एक दिन पूर्व ही पढा था कि मुनिसयारी के चोटियों पर ही नही, वहाँ के बजार में भी बर्फबारी हुई है। तो इस बस का एक मार्ग था मुनिसयारी की ओर। दूसरा मार्ग थल से अलग होनेवाला था। थल जा कर यह बस फिर मुवानी, बागेश्वर, हल्द्वानी के रास्ते दिल्ली तक का लम्बा सफर करनेवाली थी। करीब करीब कहिए कि जैसे ट्रेन के दो दो रूट होते है, वैसे ही इस बस के भी थे। इसीलिए सीधे बागेश्वर का टिकट भी नही दिया। पहले थल तक का ही टिकट दिया।

फिर सुबह- या रात के अन्तिम प्रहर के मध्य में कहिए- साढे़ पाँच बजे बस निकली। अच्छी संख्या में यात्री साथ थे। सभी ठण्ड के लिए पुरजोर तैयारी किए हुए। जैसे बस निकली, वैसे ही बस में महफिल शुरू हुई। पर यह महफिल भी समय के अनुरूप थी। भोले बाबा के प्रदेश की यात्रा हो तब साथ में भोले के ही गीत होंगे ना! फिर गीतों की मालिका शुरू हुई। भगवान शिव, ताण्ड़व नृत्य कथा, देवी पार्वती द्वारा श्रीराम की परीक्षा लिए जाने की कथा आदि शुरू हुआ।





























सोमेश्वराय शिव सोमेश्वराय हर हर भोले नम: शिवाय!!
 
जरा लगना भी चाहिए ना की पहाडों की और भोले बाबा के प्रदेश की सैर हो रही है!

अंधेरे में ही पिथौरागढ़ के किनारे पर स्थित आयटीबीपी केन्द्र पार किया। सामने नजारा शुरू हुआ। पर अभी रात्रि का अन्तिम प्रहर अपनी चरम सीमा पर था। करीब डेढ घण्टे के पश्चात् बुंगाछीना से आगे आने पर रोशनी आई। युँ कहिए कि कुछ कुछ दिखने लगा। आगे से जो नजारा शुरू होता है, उसे शब्दों में कहना मुश्किल ही नही, नामुमकीन है!! नदियाँ पहाड़ झील और झरने जंगल और वादी! कुछ कहने के बजाय इन कुछ तस्वीरों को माध्यम बनाते है।

पहाड़ का क्या कहना! पहाड़ का हर बिन्दु है जैसे गहना!! यहाँ तो हर एक स्थान रमणीय है!!

रास्ते में रामगंगा नदी भी साथ चल आई। ऊँचे ऊँचे पहाडों के नीचे से गुजरती हुई धारा! इसी के तट पर बसा है थल। यहाँ से ॐ पर्वत और पास लग रहा था। फोटो खींचने का प्रयास किया, पर इतना ठीक नही आया।

 हम शायद मानस सरोवर नही देख सकते है, पर कम से कम ऐसा स्थान तो देख ही सकते है जहाँ से मानस सरोवर दिखता हो! थल गाँव का दृश्य। फोटो के मध्य में बस के ठीक उपर दिख रहा सफेद पर्वत ॐ पर्वत है।


थल से यात्रा फिर आगे चल पडी। अब दिन वास्तव में शुरू हुआ था। समय के अनुसार गाडी में बजनेवाले गीत भी बदले। पुराने हिंदी सिनेमा के गीतों की दूसरी अलग महफिल शुरू हुई। जो बात यहाँ पर है, कहीं पर नहीं! ऐसे पुराने जमाने के बेहतरीन गीत साथ निभा रहे थे। आगे एक जगह पर बिती रात हुई बरसात के कारण रास्ता बन्द हुआ था। रास्ते पर पत्थर गिरे थे। उन्हे निकालने का कार्य जारी था। पर उसमें लगनेवाले समय के कारण बस मूडी और फिर दूसरी तरफ से बागेश्वर की ओर चल पडी। 
























बस को रास्ता बदलना पडा

















































































































बस पलट कर बेरिनाग के पास से और चौकोडी घाट से जानेवाले रास्ते पर जाने लगी। लगातार एक से एक मनोरम नजारे दर्शन दे रहे थे। एक स्थान पर सामने केबिन (या युं कहिए बाल्कनी) में बैठे हुए लोगों ने अचानक देखा की बरफ गिर रही है। जी हाँ, चौकोडी घाट में बरफ गिर रही थी!! इसकी ऊँचाई २००० मीटर से अधिक है। और मौसम खराब होने से आयी हुई बारीश से यहाँ बर्फबारी हो रही थी। लेकिन बस न रूकने के कारण फोटो लिया नही जा सका। कुछ ही अन्तर में घाटी से नीचे उतरने पर बर्फ कम होती गई और पीछे रह गई। पहाड़ में रास्ते ऐसे ही है। एक पहाड़ चढिए, घाट से गुजरिए और फिर नीचे आ कर दूसरे पहाड़ को चढना शुरू किजिए। अर्थात् उपर जाने के लिए नीचे से ही जाना होगा। उपर जाने का रास्ता सीधा नही मिलेगा!

नजारें और ठण्ड के सर्द माहौल का लुफ्त मन तो काफी उठा रहा था, लेकिन फिर धीरे धीरे शरीर ने शिकायत करनी शुरू कर दी। बागेश्वर पहुँचते पहुँचते ठण्ड शरीर तक पहुँच गई थी। ठण्ड में ऐसा ही होता है। ठण्ड का असर थोडी देर बाद होता है। और तब मन और शरीर की प्रतिक्रियाएँ अलग अलग हो जाती है। बागेश्वर में शरयू नदी ने स्वागत किया। लेकिन बस अड्डा आगे था इसीलिए नदी को देखने का अवसर नही मिला।

बस से उतरने पर पहले चाय ढुँढा। ऐसे सर्द नजारों में चाय तो चाहिए ही। लेकिन बस अड्डे के पास दोनो तरफ चाय का होटल मिला ही नही। ग्यारह बज गए थे, इसीलिए सभी जगह में खाना ही था। ग्यारह बज तो गए थे, पर ऐसा लग रहा था कि अभी अभी सुबह हुई है! एक होटल में सब्जी रोटी ले ली और खाना आरम्भ किया। पर यह क्या? उंगलियाँ तो अकड सी गई है। खाने में बडी दिक्कत हो रही है! खाना पकड में ही नही आ रहा है। जैसे तैसे खाना मुँह में डाल दिया और फिर आगे जाने की बस ढुँढी। सीधे कर्णप्रयाग की बस तो अब नही थी। वैसे भी सीधे कर्णप्रयाग तक जाना था भी नही। जाना तो ग्वालदाम या बैजनाथ तक ही था। क्यों कि इस अद्भुत प्रदेश को थोडी सी गहराई में जा कर देखना था। बैजनाथ की प्राइवेट बस जल्द ही मिल गई। बागेश्वर से करीब बीस किलोमीटर दूरी पर बैजनाथ है। दोपहर का माहौल तो था नही, पर समय जरूर हुआ था। इसीलिए सोचा कि बैजनाथ में ही रुका जाए। और ग्वालदाम में रुकना महंगा होगा, यह बात भी पता चली थी।

बैजनाथ पहुँचने में ज्यादा समय नही लगा। वहाँ का मुख्य आकर्षण नागर शैली का मन्दीर समूह था। इसीलिए सह- यात्रियों से पूछताछ की। दो- तीन जनों से पूछ कर साफ साफ पता किया। लोग भी इतने सीधे और उम्दे थे, कि जैसे उतरने हेतु आगे जा कर खडा रहने के लिए चला, तो दो- तीन लोगों ने स्वयम् टिकिट निकालनेवाले वाहक या खलासी को बतायाँ, इसे ऐसा पूलिया के पहले उतार दो। कितने सरल और सीधे इन्सान!! प्रकृति से जुडा़व साफ तौर पर झलक रहा था . . .

बैजनाथ में उतरने के पश्चात शान्ति का अनुभव हुआ। पुलिया के ठीक पहले बस से उतरा। सामने से गोमती नदी बह रही थी . . . छोटा सा गाँव, भीड कम ही थी। शहर न होने के वजह से एक सरलता थी। यहाँ चाय भी तुरन्त मिल गई। वैसे तो पहाड़ में चाय में शक्कर के बजाय गूड़ या मिशरी का प्रयोग करते है। पर शहरी चाय ही पी ली। पास में ही मन्दीर था। चाय पिते हुए सभी जानकारी ले ली। कुमाऊँ मण्डल विकास निगम का सरकारी यात्री आवास भी दूर नही था।

गोमती के किनारे स्थित मन्दीर का दर्शन किया। फिर यात्री निवास जा कर सामान रख दिया। रात के रुकने का प्रबन्ध हो गया। फिर बैंजनाथ के दूसरे दो मन्दीरों को देखने के लिए वहीं घूमना हुआ। छोटा सा और शान्त पहाडी कस्बा! पूरा दृश्य वास्तव में रमणीय नजारा था। दूर बादलों की टोली नजर आ रही थी। बर्फवाले पहाड फिलहाल नीचले पहाडों के और बादलों के पीछे थे। इसके आगे शब्दों के बजाय ये तस्वीरें दृश्य का अनुभव करा देंगी। 


बैजनाथ में स्वागत करनेवाली गोमती. . . 



उत्तराखण्ड में कदम कदम पर पावन स्थान है. . . हर स्थान हर का है. . .



























इस मन्दीर के साक्ष्य में नजाने इस प्रवाहिता से कितना पानी गुजरा होगा . . . 








ये तो झाँकी है. . . .

लक्ष्मी नारायण मन्दीर











इतनी सुन्दर राह है, मन्जिल  तो कैसी होंगी. . .


भ्रामरी देवी का मन्दीर
























घडी में शाम के पाँच बजने को आए, फिर भी लग ही नही रहा था कि सुबह की दोपहर हुई और अब शाम भी होने लगी है। मानो यह प्रदीर्घ सुबह ही चल रही थी। अविस्मरणीय नजारें और सपने के गाँव का भली भाँति दर्शन कर अपरिहार्य चायपान का लुफ्त उठाया।  वहीं पर काफी सस्ती मूंगफली के सींग भी मिल गए। उत्तराखण्ड की पूरी यात्रा में हर जगह- रास्ते में- बस में- होटल में- इन मूंगफली ने दर्शन दिया और बडा साथ भी निभाया! जैसे यह दिन जल्द शुरू हुआ था, वैसे जल्द सीमटने भी लगा। साढे़- पाँच होते होते लग रहा था की पूरी रात हो गई है। यात्री आवास सुना था। दो- चार ही जने थे। उसमें से दो जन तो मन्दीर में मिल भी चुके थे। अकेले व्यक्ति को इतने दूर से देखने के लिए आते हुए देख कर उन्हे अचरज भी हुआ था। लेकिन जैसे ही रात का राज्य शुरू हुआ, बिस्तर ने आकर्षित किया और मध्य भारत के समय के करीब तीन घण्टे पहले ही दीपनिर्वाण कर लिया। लेकिन क्या समां था . . . . .     


























 
अगला भाग: अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोS हिमालय: ३ चलो, तुमको लेकर चलें इन फिजाओं में. . .                                                                   

Tuesday, January 1, 2013

अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोs हिमालय: - १ हिमालय की गोद में . . .

हिमालय की गोद में . . .

“अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराज: पर्वतोs हिमालय:” अर्थात् महाकवि कालीदास ने कहाँ है कि उत्तर की दिशा में एक पर्वतों का महाराजा है जो हिमालय नाम से जाना जाता है। हिमालय की ओर जानेवाली यह यात्रा शुरू हुई सम्पर्क क्रान्ति एक्स्प्रेस से। वाकई में यह एक्स्प्रेस सम्पर्क की क्रान्ति ही लगी। मात्र दो- तीन स्टेशनों में और आरामदायक यात्रा के साथ उसने रास्ता युंहि पार करते हुए दिल्ली तक पहुंचा दिया। रास्ते में राजस्थान में प्रात:काल की चहचहाट के पूर्व लगभग अमावस के पहले का चन्द्रमा और उसके पास शुक्र ग्रह का अद्भुत दर्शन हुआ। दर्शन इतना अपूर्व था कि नदी के पानी में भी दोनों के प्रतिबिम्ब चमक रहे थे और उसे रोशन कर रहे थे। उगते हुए सूरज ने भी उपर के सीरे से दर्शन दिया।

दिल्ली पहुंचने पर शुरू हुई हिमालय की ओर की यात्रा। दिल्ली आनंद विहार आयएसबीटी से पिथौरागढ की बस से आगे बढना शुरू किया। उत्तराखंड परिवहन निगम की बस थी और पहाडी रास्ते के अनुसार छोटी भी थी। दिल्ली से गाजियाबाद होते हुए मुरादाबाद, उधम सिंह नगर, रुद्रपूर के रास्ते सुबह जल्दी टनकपूर तक आ गए। टनकपूर नेपाल सीमा पर स्थित एक गाँव है। यहाँ से सीधा पहाड शुरू होता है। टनकपूर- चम्पावत- पिथौरागढ रास्ता नेपाल सीमा के करीब से जाता है। यही आगे जा कर कैलास मानससरोवर यात्रा का एक मार्ग बनता है।


हिमालय की पहाडियों में जाना था, अत: ठण्ड को अभ्यस्त होना आवश्यक था। उसका प्रयास करते हुए प्रात:काल के अपूर्व नजारे का लुफ्त उठाना शुरू किया। नींद से संघर्ष भी जारी था। लेकिन रास्ता जब इतना अपूर्व हो, इतना अद्भुत हो, तो भला नींद किसे आएगी। यहाँ से बीआरओ अर्थात् सीमा सडक संगठन का कार्यक्षेत्र भी आरम्भ होता है। पहाड में ऊँचाई के हर क्षेत्र में बीआरओ सेना के साथ हमारी रक्षा के लिए हमारे साए जैसा साथ देती है। देखा जाए तो टनकपूर से पिथौरागढ का रास्ता है १५० किलोमीटर का  ही है और उसमें है मात्र पाँच- छह पहाड। पर एक पहाड चढना, सरसराती और निरंतर लहराती हुई सडक से आगे बढ कर वह पहाड उतर कर वापस सतह पर आना। फिर दुसरा पहाड तैयार ही है। इसी के बीच में चढाई पर बने खेत, खलियान, गाँव और पहाड के कोने कोने में फैले हुए घर! वाकई यहाँ से इन्सान भी बदल जाता है। जाएगा ही।

आईए, पहाड में आपका स्वागत है. . .


ध्यानपूर्वक देखने पर सुदूर अन्तर पर बर्फ के शिखरों की एक रेखा नजर आती है . . .






अनुठी प्राकृतिक विविधता. . . 

















































चम्पावत के आगे आने पर लोहाघाट के पास से एक रास्ता अल्मोडा जनपद में स्थित मायावती आश्रम की ओर जाता है। यहाँ पर हम ऐसी ऊँचाई पर पहुँचते है कि दूर नजारा शुरू हो जाता है। यहाँ से हिमालय के शिखरों की एक पंक्ति दृग्गोचर हो उठती है। इसमें त्रिशुल तथा ॐ पर्वत आदि पर्वत दिखाई देते है। वाकई २५० किलोमीटर से भी अधिक दूरी से यह दिखाई पडते है। परन्तु जैसे ही हम एक पहाड छोडते हुए नीचे जाते है, वह गायब हो जाते है। फिर चोटी के स्थान से वह दिखते है।

पिथौरागढ पास आने पर घाट नाम की एक जगह है। यहाँ बेहद अनोखा नजारा है। वैसे तो उत्तराखण्ड में हर स्थान एक पर्यटक और एक रम्य स्थल है। फिर भी ऊँचाईवाले स्थान बेहद अनुठे है। यहाँ ऊँची ऊँची चोटियाँ और पास ही में खाई है और दोनों के बीच में से रामगंगा बलखाती हुई बहती है. . . . वास्तव में इतनी ऊँचाई पर शब्द काम ही नही करते है।

गुरना नाम का एक छोटा सा मन्दीर है, जहाँ गाडी को ईश्वर का प्रसाद और आशीर्वाद मिलता है। रास्ते में यात्रियों की थकान दूर कर सुरक्षा की किरण फिर प्रज्वलित करना इसका कार्य है। ऐसे मन्दीर ऊँचाईवाले सभी क्षेत्रों में देखें जा सकते है। प्रकृति इतनी विराट तथा इतनी असाधारण है, कि इन्सान को खुद की शांति बनाए रखने के लिए ऐसा करना ही होगा। यही काम प्रकृति खुद भी निरंतर करती है- पहाड में से निकलने वाले शुद्ध पानी के झरनों द्वारा! पहाड में अधिकतर प्राकृतिक स्रोत का ही पानी पिया जाता है। यह कुदरत की देन है और कुदरत के पास जाने का एक पुरस्कार भी।

वास्तव में हिमालय ऐसा ब्रह्मांड है जहाँ फोटो, शब्द, विडियो आदि कृत्रिम चीजें काम ही नही कर सकती। शब्दों में ऐसे दृश्य का बयाँ भला कैसे किया जा सकता है, जिसमें अनन्त पहलू हो, जिसकी अगणित खूबियाँ हो। फोटो, शब्द तथा विडियो कुछ ही बातों को बता सकते है। पर हिमालय तो ऐसा ब्रह्माण्ड है, जिसमें अनन्त तथा अथांग ऊँचाईयाँ और गहराईयाँ भी है। फोटो या शब्दों में उसे बयाँ करने का मतलब सूरज को पानी के प्रतिबिम्ब द्वारा नापना है। फिर भी, हिमालय ना सही, उसके एक छोटे से प्रतिक के तौर पर ये कुछ फोटो . . .























ऊँचें ऊँचे पहाड और बहती बिलखाती रामगंगा नदी. . .
























पहाड वीरों की ही भूमि है।










































नजारा देखते देखते दोपहर में पिथौरागढ पहुँच गए। मानससरोवर यात्रा के एक मार्ग पर स्थित यह उत्तराखण्ड का पूर्व- उत्तर सीमा पर स्थित जनपद है। गाँव छोटा ही है और पहाड में ही बंसा है। यहाँ आयटीबीपी अर्थात् इंडो तिबेटन बॉर्डर पोलिस का एक केन्द्र भी है। बस स्टँड पर पहले कर्णप्रयाग या बागेश्वर तक जानेवाली बस की पूछताछ की और अच्छी जानकारी भी मिली। यहाँ बागेश्वर तक बस सीधा बस जाती है और वह सुबह पाँच बजे निकलती है। अगले दिन के प्रतीक्षा में बाकी बचे दिन में विश्राम कर लिया। ठण्ड वाकई जोरों पर थी। रात को थोडी वर्षा भी हुई। यह एक अच्छा संकेत था। यदि जाडों के आरम्भ में पहाडों के नीचले इलाकों में वर्षा होती है तो इसका अर्थ है निश्चित रूप से चोटी के स्थानों पर बर्फबारी होगी।
 












































अगला भाग: . अस्ति उत्तरस्यां दिशि नाम नगाधिराजः पर्वतोs हिमालय: २ नदियाँ पहाड झील और झरने जंगल और वादी