प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा
प्रकृति, पर्यावरण और हम ६: फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग
कुछ अनाम पर्यावरण प्रेमी!
एक बार एक सज्जन पहाडों में चढाई कर रहे थे| उनके पास उनका भारी थैला था| थके माँदे बड़ी मुश्किल से एक एक कदम चढ रहे थे| तभी उनके पास से एक छोटी लड़की गुजरी| उसने अपने छोटे भाई को कन्धे पर उठाया था और बड़ी सरलता से आगे बढ़ रही थी| इन सज्जन को बहुत आश्चर्य हुआ| कैसे यह लड़की भाई का बोझ ले कर चल रही है जब कि मुझे तो एक थैला ले जाना दुभर हो रहा है? उन्होने लड़की से पूछा तो उसने बताया कि यह मेरे लिए बोझ नही है, मेरा भाई है| उसका भला कैसे बोझ होगा? तब उनके समझ में आया| यह कहानि बिल्कुल अर्थपूर्ण है| जब तक हम किसी बात को पराया समझते हैं, तब तक वह हमारे लिए बोझ होता है, कर्तव्य होता है| लेकिन जब उसी बात को हम अपनाते हैं; अपना मानते हैं, तो वह सरल और सहज होता है|
ठीक यही बात पर्यावरण के सम्बन्ध में भी हैं| आज हम कितना समझते हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना बड़ा कठिन हैं; बहुत मुश्किल काम हैं; लेकिन हमारे बहुत नजदीक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिससे विश्वास मिलता है कि पर्यावरण की रक्षा करना उतनी भी कठिन बात नही है| जैसे कई लोग आज मानते हैं- कई किसानों की यह धारणा है कि गाय को संभलना; गाय का पालन करना आज बहुत कठिन हो गया है| आज गौपालन 'viable' नही हैं| आज वह एक 'asset' नही, बल्की एक 'liability' है| लेकिन थोड़ी आँखें खुली रखी तो हमे दिखाई देता है कि यह अपरिहार्य नही है| आज भी ऐसे घूमन्तू समुदाय (nomadic tribes) हैं जो स्वयं बुरी स्थिति में होने के बावजूद गायों को पालते हैं| उनके लिए गाय कोई वस्तु नही; उनका स्वयं का ही एक अंग है| कुदरत से ताल्लुक रखनेवाले समुदायों में यह भी देखा जाता हैं कि चाहे उनके खाने के लिए कुछ हो ना हो, जो भी अतिथि उनके पास जाएगा, भूखा नही जाएगा| इन्सान तो दूर, वे कुत्ते को भी भूखा नही रखेंगे| अपनी सम्पदा उसके साथ भी शेअर करेंगे|
प्रकृति, पर्यावरण और हम ५: पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा
फॉरेस्ट मॅन: जादव पायेंग
कई बार हम कहते हैं कि अकेला इन्सान क्या कर सकता है? जो कुछ भी परिवर्तन करना हो, वह 'अकेला' कर ही नही सकता है, यह काम तो सरकार का है; यह हमारी बहुत गहरी धारणा है| लेकिन जिन लोगों को उनकी क्षमता का एहसास होता है, वे अकेले ही बहुत कुछ कर सकते हैं| उनकी पहल शुरू तो अकेले होती है, लेकिन धीरे धीरे बड़ा क़ाफिला जुड़ता जाता है| और एक अकेले इन्सान से शुरू हुआ कार्य विराट हो जाता है और उसमें दूसरे इन्सान ही नही, वरन् पशु- पक्षी भी अपना सहभाग देने चले आते हैं| पीछले लेख में हमने भारत के वॉटरमॅन के बारे में चर्चा की| इस लेख में हम भारत के एक ऐसे इन्सान की चर्चा करेंगे जिसे फॉरेस्ट मॅन कहा जाता है|
फिशिंग जनजातीय समुदाय से आनेवाले असम राज्य के जादव पायेंग! उन्होने अपने बचपन में पर्यावरण को क्षति पहुँचते हुए देखी| जीव जन्तुओं की मृत्यु होते देखी| उन्हे चिन्ता हुई और उन्होने साथियों से पूछ भी कि आगे जा कर क्या होगा? तब उनके साथियों ने उन्हे कहा कि कुछ नही होगा, सब ठीक होगा| लेकिन जादेवजी सन्तुष्ट नही हुए| उन्होने स्वयं से पूछा कि मै इसके लिए क्या कर सकता हूँ? और जो राह उन्हे दिखाई दी, उस राह पर आगे बढते गए- अकेले| कई दिन, महिने और साल आगे बढ़ते रहे| बाम्बू का एक पौधा लगाने से जो यात्रा शुरू हुई थी, उसी में आगे जा कर १३६० एकड़ का जंगल बन गया और उस जंगल में बंगाल के शेर और भारतीय गेण्डे जैसे ठेठ जंगली प्राणी भी रहने आ गए!
पानीवाले बाबा: राजेंद्रसिंह राणा
सूखे और अकाल के रेगिस्तान में हरियाली जैसे लगनेवाले कुछ उदाहरण भी हैं! उनमें से एक है राजेन्द्रसिंह राणा जी अर्थात् भारत के पानीवाले बाबा (Waterman of India)! आज यह इन्सान कई राज्यों के अकाल से संघर्ष करता हुआ नजर आता है| पहले राजस्थान के कई गाँवों मे जोहड़ और जलस्रोतों को पुनरुज्जीवित करने के बाद आज वे देशभर जाते रहते हैं और लोगों को पानी के संग्रह का महत्त्व बताते हैं| साथ में कई सरकारी योजनाओं को भी मार्गदर्शन देते हैं| द गार्डियन ने उनका नाम उन ५० लोगों की सूचि में रखा है जो इस ग्रह को बचा सकते हैं|
इस पानीवाले बाबा से मिलना हुआ महाराष्ट्र के नान्देड जिले के देगलूर गाँव में| देगलूर में विश्व परिवार नाम के एक संघटन के 'अकाल निवारण परिषद' में जाना हुआ| वहाँ पहली बार इन महामना से मिलना हुआ| उनके भाषण को सुनने का अनुभव अनुठा था| उन्हे सुन कर बहुत विशेष लगा| पहली बात तो वे बड़ी यात्रा कर आए| उनकी ट्रेन छह घण्टा लेट थी| ट्रेन के बाद दो घण्टे का सफर उन्होने किया| लोग काफी समय से प्रतीक्षा कर रहे थे, इसलिए बिना रेस्ट हाऊस गए, वे सीधा कार्यक्रम स्थल पर पहुँचे| और उनका एकदम अनौपचारिक शैलि का भाषण हुआ| भाषण कहना नही चाहिए, मैत्रीपूर्ण बातचीत कहनी चाहिए| उन्हे सुनते हुए लगा कि ऐसा यह कोई अपना जाना पहचाना डाक्टर है जो हमारी बीमारी का ठीक इलाज जानता है|
प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका
प्रकृति, पर्यावरण और हम ३: आर्थिक विकास का अनर्थ
शाश्वत विकास के कुछ कदम
जैसा हमने पहले देखा, आज बड़े पैमाने पर प्रकृति में असन्तुलन बढ़ रहा है| ह्युमन चेंज के कारण पर्यावरण बदल रहा है| मानव के अस्तित्व मात्र से पर्यावरण में बहुत बदलाव हो रहे हैं| ग्लेशियर्स पीघल रहे हैं, समुद्र के स्तर बढ़ रहे हैं, बेमौसम बरसात हो रही है और भी बहुत कुछ हो रहा है| ऐसे में प्रश्न उठता है कि अगर यह संकट इतना बड़ा है और पूरी मानवता इसके लिए जिम्मेदार है, तो इसमें से रास्ता कैसे निकाले? जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पूरी पृथ्वी के इन्सानों से जुड़े हैं| अगर उसे रोकना होगा, तो सबको बदलना होगा| यह सम्भव नही दिखता| शहर के लिए जितने पेड़ काटे जा चुके हैं, वे फिर से लगाना और बढ़ाना सम्भव नही लगता है| एक तरफ तो वह राह है जो तनाव की ओर आगे जा रही है| और दूसरी राह है सन्तुलन की| लेकिन वह सम्भव ही नही दिखती है| क्यों कि अगर नदी की पूरी जल धारा एक दिशा में जा रही हो, तो भला कोई कितनी देर उससे संघर्ष कर पाएगा?
लेकिन हताश होने की आवश्यकता नही है| प्रकृति में इतना भी असन्तुलन नही है कि हम कुछ भी नही कर सकते हैं| माना की बहुत सी चीजें प्रभावित हुई हैं, बहुत सी चीजें हमारे व्यक्तिगत नियंत्रण में नही हैं| लेकिन ऐसी भी बहुत चीजें है जो हम कर सकते हैं| उदाहरण लेते हैं ओला वृष्टी का या बेमौसम बरसात का| जब भी कभी ओला वृष्टी होती है या बेमौसम बरसात होती है, तो किसानों की बहुत हानि होती है| और यह होता ही रहेगा| अब बदले हुए पर्यावरण में सूखा, बाढ़, बेमौसम बरसात आदि सब चीजें होती ही जाएगी| इसके बारे में सजग होना पड़ेगा| इन चीजों के लिए तो हम कुछ नही कर सकते हैं| लेकिन हम हमारे खेत के लिए तो बहुत कुछ कर सकते हैं| खेत में सही तकनिकों के प्रयोग द्वारा मिट्टी की क्षमता सन्तुलित रख सकते हैं, फसलों को इस प्रकार स्वस्थ तरीके से ले सकते हैं जिससे अगर एक या दो फसलें जाती भी हैं, तो भी कम नुकसान होगा| हम कम गिरनेवाली या न गिरनेवाली बारीश के लिए कुछ नही कर सकते हैं; लेकिन हम यह तो कर सकते हैं कि जो बारीश गिरेगी, उसका पानी बचा सकते हैं| और इतनी क्षमता प्रकृति ने अब भी हमें दी हुई है| ऐसे ही कामों का एक उदाहरण यहाँ देखेंगे|
प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्रकृति, पर्यावरण और हम २: प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका
आर्थिक विकास का अनर्थ
आज हम जिसे विकास कहते हैं वह वास्तव में क्या है? आज हम कहते हैं कई देश विकसित हैं और कई देश विकासशील हैं| या ऐसा कहते हैं कि इस सरकार के पाँच सालों में राज्य का कुछ भी विकास नही हुआ| विकास का 'अर्थ' क्या है? विकास की प्रचलित धारणा पश्चिमी सभ्यता से आयी है और वह मूलत: आर्थिक विकास पर आधारित है| विकास माने आर्थिक विकास- आर्थिक क्षमता का विकास; अर्थव्यवस्था का विस्तार| शहर, उद्योग, उत्पाद और कन्ज्युमिंग से होनेवाला विकास| इस दिशा के रुपान्तरण को विकास कहा जाता है| जैसे पहले किसी के पास पाँच हजार तनख्वाह की जॉब थी और अब उसके पास दस हजार की जॉब है तो उसे इस धारणा में विकास माना जाएगा| लेकिन इस धारणा की सबसे बड़ी खामी यही है कि उसमें कई सारे अन्य पहलूओं पर गौर नही किया जाता है| कई अण्डरकरंटस ध्यान में नही लिए जाते हैं|
प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्राकृतिक असन्तुलन में इन्सान की भुमिका
पीछले लेख में हमने देखा की कुदरत के कानून द्वारा प्रकृति चलती है| उसकी एक व्यवस्था होती है| अगर इस व्यवस्था पर तनाव आ जाए, तो प्रकृति में भी परिवर्तन आता है| जैसे गुरुत्वाकर्षण एक नियम है| अगर हम टेढा चलेंगे तो इस नियम के कारण ही गिरेंगे| उसी प्रकार हम और प्रकृति के बीच हमारे कारण तनाव हो सकता है| और इसी वजह से जैसे गलत ढंग से चलने के कारण जैसे गुरुत्वाकर्षण गिराता हुआ दिखाई देता है, उसी तरह हमारी गलतियों के कारण प्रकृति प्राकृतिक आपदाएँ जैसे सूखा, बाढ, बेमौसम बारीश या भूकम्प ला रही है| इस लिहाज़ से क्लाएमेट चेंज को ह्युमन चेंज कहा जाना चाहिए| क्यों कि इन सब बदलावों की जड़ मानव ही है| जैसा पीछले भाग में कहा गया, मानव में उपर उठने की या नीचे गिरने की अद्भुत क्षमता है और इसलिए मानव का अस्तित्व बहुत खास बनता है| मानव कुदरत की बेहतर रक्षा भी कर सकता है और उसे तहस नहस भी कर सकता है|
प्रकृति, पर्यावरण और हम १: प्रस्तावना
प्रस्तावना
आज पर्यावरण में कई जगहों पर उथल- पुथल नजर आती है| देश के कई हिस्सों में सूखे का कहर बरस रहा है, पहाडियों में वृक्ष जल रहे हैं और पूरे जगत में भूकम्प आ रहे हैं, कहीं तुफान तो कहीं पहाड़ धस रहे हैं| हमारे देश की बात करते हैं तो सूखे की समस्या चरम पर है| ऐसे में मन में ख्याल आता है कि इन सब के लिए हम क्या कर सकते हैं? इस विषय पर आपसे कुछ कहना चाहता हूँ| अब तक इस विषय से सम्बन्धित जो समझा है वह आपसे कहना चाहता हूँ|
सूखे के समन्ध में दिखनेवाली समस्या मूल समस्या का दृश्य रूप है| समस्या का दिखनेवाला और उजागर होनेवाला रूप है| लेकिन वास्तव में यह समस्या उससे बहुत गहन है| उसके कई सारे आयाम हैं| पहले इन सब आयामों को समझना चाहिए| तभी हम इस पूरी परिस्थिति को समझ सकेंगे| इस लेखमाला द्वारा प्रकृति, पर्यावरण और हम इन्सान इस विषय पर कुछ बातचीत करने की इच्छा है| उपर से दिखनेवाली चीजें अलग होती हैं और जब हम गहराई में जा कर देखने की कोशिश करते हैं, तो कई नयी चीजें दिखाई देती हैं|