Saturday, June 20, 2015

साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह...

०. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना 

१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू

२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला


सिन्धू नदी की गूँज के साथ १ जून की सुबह हुई| लदाख़ी घर! एक थर्मास जैसे बर्तन में चाय मिली| सुबह अच्छी खासी ठण्ड है| घर के प्रमुख ने कुछ देर रूकने के लिए कहा|‌ यहाँ से लेह लगभग ८४ किलोमीटर है|‌ इसलिए जल्दी निकलना होगा| साईकिल को पानी से थोड़ा धोया| साईकिल ठीक है| लगभग १४० किलोमीटर चलने के बाद भी उसे कुछ भी नही हुआ है| बाहर की हवा का प्रेशर कम होने से टायर्स अन्दर से टाईट लग रहे हैं| कल यहाँ की नन्ही परियों के फोटो खींचने रह गए| सुबह उनके दर्शन नही हुए| कोई बात नही; आगे और भी‌ परियाँ‌ और राजकुमार मिलेंगे!

नुरला गाँव! सिन्धू नदी की धारा हर कदम पर साथ है| पहला पड़ाव ससपोल है जो चौबीस किलोमीटर दूर है| लेकिन नाश्ता उसके पहले ही मिल जाएगा| अभी बिस्किट और मुंगफली की चिक्की खा ली है तो निकलने में कोई अड़चन नही‌ है| यहाँ से अब लेह तक बीच में कोई बड़ा दर्रा या 'ला' नही‌ है| लेकिन छोटी मोटी‌ चढाई आती रहेगी|

तीन घण्टे लगे, लेकिन सहजता से पहला पड़ाव आ गया| ससपोल छोटा गाँव होने पर भी घूमक्कडों के लिए अच्छा है| ठहरने की सुविधा तो है ही होटल भी‌ है| यहाँ अच्छा नाश्ता किया| आमलेट- मॅगी और चाय- चिप्स| चॉकलेट भी लिए| कल दोपहर के बाद मैने बहुत कम खाया था| साढेतीन हजार मीटर जैसी ऊँचाई पर भूख थोड़ी कम लगती है| लेकिन खाना बहुत आवश्यक है| यहाँ से अब आगे कुछ चढाई है| फिर निम्मू के पहले उतराई आएगी| निम्मू सिन्धू- जांस्कर नदियों के संगम के पास है| ससपोल में बारिश हो रही है| शायद बारीश रूकने तक यही रुकना ठीक है| पूछताछ की तो पता चला अधिक बारीश नही होगी| आगे बढ़ा जा सकता है| ससपोल में ही कई बाईकर्स ने बगल वाले होटल में नाश्ता किया| उनकी बाईक्स पर 'ॐ मणि पद्मे हुँ' मन्त्र के फ्लॅग्ज लगे है|

ससपोल से बाहर निकलते ही चढाई शुरू हुई| कुछ देर तो साईकिल चला पाया| लेकिन अब पैदल जाना पड़ रहा है| उतने में ही‌ दो विदेशी साईकिलिस्ट क्रॉस हुए| पाँच मिनट तक हाय- हॅलो हुआ; पूछताछ हुई| उन्होने बताया कि उन्हे लेह में ठण्ड और ऊँचाई से कुछ तकलीफ हो रही है; इसलिए वे वापस लौट रहे हैं| कई पॅनिअर्स; तरह तरह की बॅग्ज आदि सामग्री उनकी साईकिल पर लदी थी| उन्होने मेरी पूछताछ की और तारीफ भी की| जब पता चला वे जर्मन हैं; तो दो वाक्य उनसे जर्मन में बोले| मुस्कुराते हुए विदा हुए|

यहाँ से अच्छी खासी चढाई शुरू हुई|‌ चढाई और उतराई दोनों पहलू सापेक्ष होते हैं| आप कौनसी‌ स्थिति में हैं- फ्रेश हैं/ थके हैं; हवा आपकी दिशा में‌ या विपरित दिशा में बह रही है; डाएट का और ऊर्जा का स्तर कितना है इस पर काफी‌ कुछ निर्भर करता है| आज मेरा तिसरा दिन है| ज़ाहिर है ऊर्जा का स्तर कम होगा| खाना भी अभी अभी खाया है| और मै साईकिल चला भी सकता हुँ; पर चढाई पर अधिक ऊर्जा व्यय नही करनी है| यहाँ बहुत अधिक चढाई तो होगी नही| आगे बाईस किलोमीटर पर निम्मू है जो दो नदियों के संगम का स्थान है| ज़ाहिर है उसके पहले उतराई आएगी| क्यों कि पानी तो नीचे की तरफ ही बहता है| और यह रास्ता करीब करीब सिन्धू नदी के पास से ही गुजरता है| इसलिए बहुत अधिक चढाई नही होगी| .. लेकिन यह एक ग़लतफहमी थी और उसका अहसास धीरे धीरे होता गया|

यहाँ भी मिलिटरी की ट्रकों का एक काफ़िला मिला| जवानों को सॅल्युट किया; उत्तर में भी सॅल्युट मिले| अब चढाई का असली मज़ा शुरू हुआ है| अब बिलकुल टेस्ट क्रिकेट जैसी स्थिति है| हवा भी अभी मेरे विपरित दिशा में जा रही है| कुछ भी हो; पैदल चलने में उतनी कठिनाई नही है| हां, गति जरूर धिमी है| ऐसे समय में गाने बड़े काम आते हैं| मोबाईल में गाने सुनता गया| फिर कुछ समय बाद मन ही मन गाने सुने| जब सफ़र में कुछ नही हो रहा हो- प्रगति एकदम धीरे हो रही हो- तब मन ही मन गाने याद करने से भी ऊर्जा मिलती है| और मन को चार्ज रखना जरूरी है| नही तो मन में डर की चपेट में आ जाएगा और यही लगेगा कि लेह तो अभी ४५ किलोमीटर दूर है और चला भी नही जा रहा है| उससे चलना और मुश्किल होगा| इसलिए मन में यदि गाने याद करता रहा तो उससे अनकॉन्शस माइंड बिज़ी रहेगा| कोई गाना भीतर ही भीतर प्ले होता रहेगा तो कुछ मनोरंजन भी होगा और ऊर्जा भी आएगी| कितना भी मुश्किल रास्ता क्यों ना हो; अगर "थोड़ी सी धूल मेरी.. धरती की मेरी वतन की" जैसा कोई भी गाना मन में भीतर ही प्ले होने लगे; तो अपने आप ऊर्जा आ जाएगी| ऊर्जा तो आ ही जाएगी; उस गाने से एक माहौल भी बनेगा| “अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो.. हमे साथ ले लो जहाँ जा रहे हो!” या "अजीब दास्ताँ है ये.. कहाँ शुरू कहाँ खतम.. ये मंज़िलें है कौनसी.. ना वो समझ सके ना हम..” ऐसे गाने मोबाईल में और मन में सुनते सुनते राह आसाँ होती गई|

रास्ते से गुजरने वाले थोड़े वाहन भी यदा कदा रूकते और पूछताछ करते| पानी पर्याप्त है| चॉकलेटस भी है| लेकिन चढाई अब भी जारी है| बीच में कुछ सड़क थोड़ी समतल जरूर है; पर उसमें भी साईकिल नही चलायी जा रही है| एक मोबाईल टॉवर दिखने के बाद लगा कि चलो; यही इस चढाई का सर्वोच्च बिन्दु होगा| लेकिन नही| सड़क अभी और आगे जा रही है| अब तो दोपहर होने लगी है| ससपोल से चलते हुए तीन घण्टे हो रहे हैं और अब भी सिर्फ नौ किलोमीटर आगे आया हुँ| मौसम भी खराब चल रहा है| बीच बीच में थोड़ी बूँन्दाबान्दी हो रही है| एक छोटी सी पुलिया पर कुछ देर बैठ कर पैर उपर किए| उन्हे स्ट्रेच करना और उल्टा करना उपयोगी है|

एकदम धिमी रफ्तार के साथ आगे चलता गया| अब अहसास हो रहा है कि ऐसी यात्रा में अच्छा खाना कितना आवश्यक है| कल दोपहर से मैने बहुत थोड़ा खाया था| शायद उसी की वजह से यह थकान हो रही है और पैदल चलने की रफ्तार भी बहुत कम हुई है| वैसे तो पैदल चलना इतना सरल होता है कि समतल सड़क पर हम जितनी रफ्तार से जाते हैं; उतनी ही रफ्तार से पहाड़ी सड़क पर भी जा सकते हैं| यही पैदल चलने की विशेषता है| कम से कम ऊर्जा खपत के कारण पहाड़ी रास्तों पर भी चलने में उतनी दिक्कत नही आती है| वाकई पैदल चलना साईकिल का 'पहला' गेअर है| लेकिन यहाँ पैदल चलने की भी गति कम हुई है|

बारीश में कई बार रूकते और विश्राम करते हुए ससपोल से दस किलोमीटर पार किए| आगे एक तिराहा दिख रहा है| यहाँ से एक सड़क लिकिर गोंपा की‌ तरफ जाती है| यहाँ एक दुकान भी दिख रहा है| होटल मिल गया| चाय तो मिलेगी ही; मॅगी और चिप्स भी मिलेंगे| ठण्ड में ठिठुरने के बाद चाय बहुत ज्यादा किमती है! जैसे ही होटल के पास रूका; और अधिक ठण्ड लगने लगी| अब तक चलने के कारण कुछ ऊर्जा भी मिल रही थी| होटल बिलकुल सुसज्ज है| आमलेट भी मिलेगा| अन्दर कुछ सामान पर 'सिर्फ मिलिटरी उपयोग हेतु' लिखा है| लेकिन यहाँ जनता को भी मिलिटरी द्वारा काफी सामान दिया जाता है| इसलिए लदाख़ में मिलिटरी के प्रति लोगों में अधिक अपनापन दिखता है| खैर|

आधे घण्टे तक नाश्ता किया और स्वयं का इन्धन भरा| बाहर से एक सज्जन आए| उन्होने बताया कि मौसम कितना खराब चल रहा है! बारीश तो है हि बर्फबारी भी हो रही है! वाकई बारीश के साथ हल्की बरफ गिर रही है| बिलकुल धुंदली धुंदली सी| एक बार तो चिन्ता हुई कि ऐसे में आगे बढ़ा जा सकता है? या फिर कुछ देर रूक कर बढूँ? और आज निम्मू में ही रूक जाऊँ? लेकिन जैसे ही इन्धन भरा; ऊर्जा आ गयी| चिप्स खाने से शायद शरीर में सॉल्ट (क्षार) की कमी भी दूर हुई और फिर से चलने की इच्छा हुई|‌ यहाँ से रोड़ कुछ समतल होता हुआ दिख रहा है| काफी देर बाद साईकिल पर बैठ कर अच्छा लगा| बर्फबारी लगभग खतम हो गई है| लेकिन मेरी सॅक पर बर्फ के कुछ कण जरूर गिरे! बारीश भी हल्की ही है| और दो किलोमीटर कुछ समतल रास्ता था और कुछ चढाई| रूक रूक कर पर साईकिल से ही उसे पार किया| यहाँ पर एक जगह 'ला' जैसे फ्लॅग्ज लगे हैं; एक छोटा टिला भी है| ज़रूर यह भी किसी ज़माने में ला जैसा स्थान होगा| अर्थात् इस सड़क का सर्वोच्च बिन्दु यानी पास भी यही है| अब इसके बाद बड़ी ढलान आएगी| यहाँसे दिखता नजारा अद्भुत है| चारों दिशा में पहाड़ पर बरफ ही बरफ है! और अब आगे निम्मू बारह किलोमीटर है; वहाँ तक उतराई! और सड़क बेहतरीन है| कहना होगा करगिल से अब तक सड़क बहुत ही अच्छी है| सॅल्युट, बीआरओ!

गिली सड़क पर चलना है तो सावधानी रखनी होगी| लेकिन उतराई का भी अपना मजा है| बस गति को थोड़ा सीमित रखना है| थोड़ा और आगे आने के बाद अब नीचे हरियाली दिखाई दे रही है| और सिन्धू मैया फिर से आ गयी| सिन्धू नदी ससपोल के आगे एक मोड़ ले कर दूसरे पहाड़ के पास से जाती है| और इस चरण में यह सड़क उससे थोड़ी दूर जाती है| लेकिन अब फिर सिन्धू नदी साथ आ रही है| निम्मू के पहले कई माने और गोंपा के स्थान लगे| मिलिटरी का भी बड़ा युनिट यहाँ है| निम्मू पहुँचते पहुँचते दोपहर के साढे तीन हुए| अर्थात् ससपोल से निम्मू की चौबीस किलोमीटर की दूरी पार करने के लिए साढेपाँच घण्टे लगे| अब क्या आज लेह पहुँचा जा सकता है?

निम्मू में भूख न होते हुए भी आलू पराठा खाया| निम्मू में सिन्धू- जांस्कर संगम भी लदाख आने का एक आकर्षण था| निम्मू से एक रास्ता सीधे संगम के पास जाता है| लेकिन आज ही लेह पहुँचना है, इसलिए संगम तक नीचे नही गया| उपर से ही संगम देखा| वाकई विश्वास अभी भी नही हो रहा है! यह दो नदियों के साथ दो वादियों का भी मीलन है! उपर से ही फोटो खींचा| समय कम है| शाम के साढे पाँच बजे है और यहाँ से आगे गुरूद्वारा पत्थर साहिब तक चढाई है| अगर पहुँचने में रात हो गई तो वहीं पर रूक सकता हुँ| इस चढाई ने भी समय लिया| लेकिन नजारे अपूर्व हैं! सिन्धू नदी नीचे रह गई है| यहाँ से सड़क फिर कुछ समय के लिए सिन्धू से बिछडती है| दूर नीचे जाती हुई नदी! निम्मू के बाद मौसम कुछ ठीक हो गया है| धूप खिली है| आगे के छह किलोमीटर भी‌ पैदल चलने पड़े


सॅल्यूट बीआरओ!
 










 


सिन्धू- जांस्कर संगम!!!!!






























गुरूद्वारा पहुँचते पहुँचते शाम हुई है| सात बजे है| अब यही रूकूं कि लेह जाऊँ? लदाख़ साईकिल पर जाने की प्रेरणा देनेवाले नीरज जाट जी से फोन पर पूछा| उन्होने कहा पत्थर साहिब से आगे उतराई तो है पर लेह के पहले पाँच किलोमीटर चढाई भी है| यहाँ से लेह वैसे बिलकुल पच्चीस किलोमीटर ही है| क्या करूँ? लेह में भी जिन सज्जन के पास रूकना है; उनको पहले ही बोल रखा है कि सम्भवत: आज ही लेह पहुँचूंगा| अभी एक घण्टा और रोशनी रहेगी| उसके बाद अन्धेरा| लेकिन उतराई होने के कारण तब तक लेह के पास भी आ जाऊँगा और बाकी दूरी अन्धेरे में भी पार की जा सकती है.. यह २५ किलोमीटर आज ही पूरा करता हुँ| करगिल से लेह तिसरे दिन पहुँचूंगा! यह सोच कर बड़ा निर्णय लिया... बाद में उसका कुछ पछतावा भी हुआ; लेकिन मज़ा भी उतना ही आया!

पत्थर साहिब से और एक किलोमीटर आगे थोड़ी चढाई थी| उतराई अब शुरू हुई| सूरज डूबने को है| पूरब में पूनम के एक दिन पहले का चाँद आया है! उतराई शुरू हुई| दूर लेह और हरियाली दिखने लगी है| उतराई भी बड़ी अच्छी है| सीधा उतरना है| इसलिए पच्चीस- तीस किलोमीटर प्रति घण्टा रफ्तार से उतरने लगा| धीरे धीरे रोशनी कम होती गई| और चाँद रोशन होता गया| कुछ ही देर में लगभग अन्धेरा हुआ! अब तो बस चाँद की रोशनी है और आने जानेवाले वाहनों का थोड़ा प्रकाश| लेकिन क्या अनुभव रहा! अन्धेरी रात, सुनसान सड़क और सामने पूरब के क्षितिज के पास उठा हुआ लगभग पूनम का चाँद| दिवाना बनाने के लिए इससे और क्या चाहिए? यहाँ साईकिल खूब दौडायी| बिलकुल ही दिवाना बनानेवाला नजारा है...

लेकिन अब उतराई खत्म! लेह अब भी कम से कम पन्द्रह किलोमीटर है! इसके बाद की यात्रा बड़ी कठिन है| फिर वही घसीटना शुरू हुआ| अब तो अन्धेरा है| लेकिन थकान इतनी ज्यादा थी‌ कि, दो मिनट रूक कर सॅक में से टॉर्च निकालने की भी इच्छा नही हुई| मुझे लगा था कि लेह के दस किलोमीटर पहले कुछ बस्ती मिलेगी- होटल मिलेगा- कुछ खा कर आगे जाऊँगा| लेकिन यहाँ तो विराना है! जम्मू- कश्मीर विश्वविद्यालय का एक कँपस लगा| कुछ ऑटोमोबाईल- गॅरेज जैसे दुकान लगे| वो भी यदा कदा| होटल या बस्ती बिलकुल भी नही! लेकिन अब रूकना नही है| साडेआँठ बजे तक पूरा अन्धेरा हो गया|‌ चाँद भी अब बादलों में है| भला हो उन वाहन चालकों का जो मेरी उपस्थिति समझ कर डिपर लाईट को बदल रहे हैं ताकि मुझे रास्ता दिख सके| हालाकि चाँद की रोशनी के कारण सड़क की रेखा तो निरंतर स्पष्ट दिखती रही|

चलते चलते बड़ी चिन्ता होने लगी‌| समतल रास्ते पर साईकिल चलाता रहा| लेकिन फिर पैदल चलना पड़ रहा है| जैसे तैसे एक बोर्ड मिला 'वेलकम टू लेह'! चलो, लेह पहुँच तो गए! पर आगे मील का पत्थर आया जिसमें लेह अब भी दस किलोमीटर है! लेह तक लिफ्ट लेने की इच्छा भी हुई| पर सोचा थोड़ा धैर्य रखो| इतना पास आने पर लिफ्ट... आगे कोई चौराहा; कोई जंक्शन भी नही मिला जहाँ कम से कम थोड़े लोग तो हो| आगे बढ़ता ही गया| सोचा चलो, एक के बजाय दो घण्टे अन्धेरे में चलेंगे| लेह जाएगा कहाँ? लेह पास तो आ गया पर मिलिटरी के कई युनिटस शुरू हुए| उसका और डर लगा| रात को साढे आँठ बजे उनके सामने से जाना... सैलानियों के और अन्य वाहन अब भी जा रहे हैं|

अन्धेरे में ही‌ देखा कि अरे! शायद रास्ता वापस नदी के पास आया है| बहुत धीमी रफ्तार से लेह पास आता गया| लेकिन एक परेशानी और है| मुझे लेह में चोगलमसर जाना है| वहाँ एक सज्जन है जिनके पास मै रूकूँगा| एक जगह कुछ जवान मिलें; उनसे चोगलमसर का रास्ता पूछा| उन्होने बताया की यही सड़क है; सीधा जाओ; मार्केट से राईट लेना| लेकिन उन्होने बताया कि चोगलमसर अब भी पन्द्रह किलोमीटर दूर होगा| वह लेह का एक सबअर्ब है या उसके पास का एक गाँव है| रूकते चलते चलते रूकते आगे बढ़ा| रात को साढेनौ बजे एअरपोर्ट के पास पहुँचा| यहाँ से लेह सिटी दो किलोमीटर आगे हैं और फिर वहाँ से चोगलमसर! बड़ी थकान लग रही है| उन सज्जन को फोन किया और कहाँ कि मै एअरपोर्ट तक पहुँचा हुँ| उनके पास कोई साधन नही था| इसलिए मुझे ही आगे जाना है| एक बार सोचा यही किसी होटल में रूकता हुँ| एक होटलवाले मित्र है| लेकिन उनका नंबर लगा नही| रात का कंजेशन होगा शायद| अब और कोई चारा नही है| घसीटते रहो|

एअरपोर्ट के बाद जैसे 'सिविलियन' बस्ती शुरू हुई; राहत की साँस ली| चलो; अब कोई मिलिटरीवाला या दरोगा मेरी पूछताछ नही करेगा; अब लेह शुरु हो गया है| रात के दस बजे एक होटल खुला मिला| लेकिन वहाँ सिर्फ नॉन व्हेज है| आगे बढ़ा| चोगलमसर के सज्जन ने- उनका नाम प्रोद्युत है- एक बात अच्छी बतायी कि आगे लेह सिटी से चोगलमसर रोड़ पर ढलान मिलेगी| पूछताछ करता आगे गया| उनका पता उन्होने बताया है; पर यहाँ लोगों को वह पता नही है| आगे देखना होगा|

आखिर कर ढलान मिली और चोगलमसर की ओर बढा| लेकिन मोबाईल की बॅटरी दम तोड़ रही है| प्रोद्युत जी मेरे लिए सड़क पर आएंगे; लेकिन और कितना आगे यह समझ नही आ रहा है| रात के करीब पौने ग्यारह बजे रोड़ पर आवाजाही थम गयी है| धीरे धीरे आगे बढ़ा और आयटीबीपी के स्टेशन पर पूछताछ की| उन्हे भी उस जगह का पता नही है| प्रोद्युत जी रोड़ पर आ कर खड़े हुए होंगे| लेकिन कितनी दूर? थकान इतनी है कि अब कुछ भी समझ में नही आ रहा है| शायद ऐसा तो नही कि मै रोड़ पर आगे आ गया हुँ? अन्धेरे में कुछ दिखा नही होगा| उसी समय मोबाईल बन्द हुआ| अब क्या करें? हायवे पर आवाजाही तो है; पर कोई बताने के लिए नही है|

एक जगह देख कर बैठा| सोचा कि स्लीपिंग बॅग तो है हि साथ में| चलो; यहीं किसी दुकान के पास रूकता हुँ| रात्रि के साड़े ग्यारह बजे हैं; चार बजे से रोशनी आएगी|‌ सुबह आगे जाऊँगा| चार- पाँच घण्टों की ही तो बात है| हायवे से सटे एक खाली स्थान पर जा कर सामान खोला| स्लीपिंग बॅग निकाली और उसमें घुस गया| साथ में एक दूसरा हँडसेट भी है; उसमें सिम डाल दिया| ऐसे लेह पहुँचा! लेकिन इतने देरी से पहुँचने के कारण इस खुशी में भी मलाल है| घरवालों को सुबह ही बताऊँगा| अभी बताने लायक स्थिति भी नही हैं! उतने में प्रोद्युत जी का फोन आया| उनको बताया कि मै सड़क पर ही रूक रहा हुँ| कल सुबह आऊँगा| वे दंग रह गए| लेकिन और उपाय भी नही सुझा| मै बहुत ज्यादा थका हुँ| अब बस सोऊँगा| बस कुछ ही घण्टों की तो बात हैं...

तिसरे दिन में भला लेह पहुँच गया; पर मैने कई सारी गलतियाँ की| पहली गलती तो यह थी कि प्रोद्युत जी का पता ठीक से पहले ही लेना था| उसका खामियाजा भुगता| रास्ते में मैने ठीक से खाना भी नही खाया| ना ही कोई चॉकलेट बार/ ओआरएस लिया| उससे भी गति कम हुई| और तिसरी बात- मैने मनाली- लेह की तुलना में करगिल- लेह सड़क का कम अध्ययन किया था| इसलिए मै ससपोल के बाद की चढाई के बारे में अन्जान था| लेह शहर की भी जानकारी कम ही थी| खैर| हुआ सो हुआ|

लगभग पूनम की रात है| चारों ओर पर्वत पर बरफ चमक रही है| यह भी खूब है! अगर रात कहीं रूकता तो यह बरफ- चांदनी कहाँ देखने को मिलती? ठण्ड तो बहुत ज्यादा है| ठण्ड से बुरी तरह काँप रहा हुँ| लेकिन यह भी इस मौसम को आदि होने में सहायता करेगा| देखते हैं| ..लेकिन इस रात मेरे नसीब में विश्राम नही है| मुझे इस तरह आ कर और साईकिल- सामान के साथ सोता देख कर कुत्ते बड़े उत्तेजित हुए| धीरे धीरे उनका भौंकना बढ़ता गया| वैसे तो कुत्ते मेरे दोस्त हैं; कुत्तों से मै हमेशा खेलता हुँ; उन्हे थपथपाता हुँ| और सभी कुत्ते ऐसे इन्सान को तुरन्त पहचान लेते है| फिर भी वे मेरे पास आ कर भौंकने लगे| शायद कह रहे हो, 'तुम हमारे दोस्त होंगे; पर इस समय इस जगह पर मत रूको!' दिन भर मैने मन ही मन कई गाने सुने थे| अब और एक सही- 'दोस्त दोस्त ना रहा!' कुछ देर वैसे ही लेटा रहा| लेकिन कुत्तों का स्वर बढ़ता गया| अचानक ज्युरासिक पार्क का एक सीन याद आ गया जिसमें डायनोसॉरस के कईं बच्चे एक आदमी को पकड़ते हैं... फिर सोचा कि चलो; निकलो| जैसे तैसे सामान साईकिल पर बान्धा| आगे बढ़ा| लेकिन कुत्तों का भौंकना भी मेरे साथ आगे बढ़ता रहा| पैदल चलने से न होगा| बची खुची ऊर्जा इकठ्ठा कर साईकिल पर बैठा और आगे जाने लगा| कुत्तों के भौंकने ने मेरा पीछा किया| कुछ पलों के लिए लगा कि चलो उनकी पकड़ से आज़ाद हुआ| एक किलोमीटर आगे पहुँचा| लेकिन यह क्या! अब पीछे से भौंकने की आवाज फॉरवर्ड हो कर आ रही है! जल्द ही पास के कुत्ते भी भौंकने लगे! ***** अब क्या करें? थोड़ा आगे गया और सोचना छोड कर एक दुकान के शटर के पास जा कर खड़ा हो गया| साईकिल टिका दी| सॅक नीचे रखी| तब देखा कि वहाँ पास ही में दो कुत्ते बैठे हुए हैं! लेकिन वे शान्त है| बाकी पडौस के कुत्ते भौंकने लगे| मैने एक ही किया कि मै शान्ति से वहीं खड़ा रहा| कुत्तों के सामने खड़ा रहा| धीरे धीरे कुत्ते ठण्डे हुए| भौंकना तो जारी रहा; लेकिन मेरे और पास नही आए| और भला हो उन दो कुत्तों का जो मेरे पास शान्ति से सोते रहे| अगर वे भी भौंकते तो मुश्किल था| लेकिन उन्होने मेरा साथ दिया|

अभी भी सवेरा होने के लिए कम से कम चार घण्टे चाहिए| उसी जगह बैठा रहा| बीच बीच में रोड़ से वाहन गुजरते| कुत्तों ने मुझे बख़्शा| बैठे बैठे एक झपकी ले ली| ठण्ड अत्यधिक है| लेकिन अब कोई उपाय नही| शरीर के नीचे हाथ रख कर बैठने से थोड़ी तसल्ली मिली| बीच बीच में कुत्तों का आवाज बढ़ने पर उठना पड़ रहा है| देर रात एक टेम्पो आ कर रूका| उसमें कुछ लोग थे; वे वहीं रूके| फिर चले गए| धीरे धीरे एक एक मिनट बिता| चान्द आगे बढ़ा| लेकिन रात में भी नजारा अपूर्व है| बरफ चाँद की रोशनी में भी चमक उठी है| बारिश ने भी बख़्श दिया| रात बितती गई| ठिठुरन बढ़ती गई|

सवेरे चार बजे एक मानुष प्रकट हुआ! वह उस दुकान का मालिक है! उसको संक्षेप में दास्ताँ सुनायी| उसको अचरज हुआ| फिर उसने दुकान में आग जलायी| यह उसका रोटी बेचने का दुकान है| आग के पास जाने से राहत मिली| आग से गर्मी लेते समय खड़े खड़े भी झपकी लग रही हैं! पर इस दुकानदार को प्रोद्युत जी के रूम का पता मालुम है| सुबह की पहली रोशनी फूटने लगेगी तब निकला| यहाँ से प्रोद्युत जी का रूम पास ही है| लेकिन आगे और बहुत पूछताछ करनी पड़ी| आगे सड़क पर फिर चढाई! जैसे तैसे सुबह साड़े छह बजे उनके रूम पर पहुँच गया| कल लगभग नब्बे किलोमीटर साईकिल चलायी और चिरस्मरणीय रात रही| मिसमॅनेजमेंट भी खूब रहा| लेकिन कुल मिला कर इसका भी मज़ा आया| जीवन में अब तक कभी भी इतना थका नही था जिससे खड़े खड़े झपकी लगे| कुल मिला के बढ़िया सफ़र रहा| करगिल से लेह तिसरे दिन! और हिन्दी सफ़र के साथ अन्त में अंग्रेजी सफ़र भी जुड़ गया| और क्या चाहिए
कल कुल ९० किमी चलायी| १७४५ मी. चढाई और १५३७ मी. ढलान|











 


6 comments:


  1. मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
    'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
    अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
    'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला'।।

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  2. बहुत बढ़िया, खैर अनजान जगहों पर कुत्तों से बचना चाहिए। आपने सही किया, कभी इनका दल आदमी के लिए खतरनाक भी साबित हो जाता है।

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  3. Thrilling.. And dogs!!!!!! Gosh! I would've died out of fear!!!!!!!!! By the way Neeru, would like to read your account of people there, their lifestyle, customs, houses, food et al and much more........

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  4. आपने बहुत रिश्क लिया । रात आराम से निम्मो में गुजारनी थी सुबह का सफ़र ठीक रहता ।लेह दर्शन एक दिन बाद सही ...

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  5. अरे भाई.... गज़ब हे आप...अनजानी जगह पर रात सड़क पर....सैलूट सैलूट....सैलूट.... एक पक्के घुमाकर को

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आपने ब्लॉग पढा, इसके लिए बहुत धन्यवाद! अब इसे अपने तक ही सीमित मत रखिए! आपकी टिप्पणि मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है!