०. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना
१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू
२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला
३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह....
४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन
५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा
६. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ६- हेमिस गोंपा
७. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!!
लदाख़ से निकलते समय इस यात्रा सी जुड़ी बहुत सी यादें मन में ताजा हो रही हैं| मात्र पन्द्रह दिन की होने के बावजूद इस यात्रा ने बहुत कुछ दिया| बहुत कुछ देखने को मिला| लोगों से मिलना हुआ| स्वयं से भी कुछ हद तक मिलना हुआ| निकलने से वापसी की यात्रा तक लगातार ऐसे अनुभव आते रहे| स्टेशन पर साईकिल पार्सल भेजते समय वहाँ काम करनेवाले लड़कों ने हेलमेट के साथ मुझे देख कर कहा कि तुम तो क्रिश लग रहे हो! वहाँ से ले कर वापस पहुँचने तक कई अनुठे अनुभव आते रहे|
जब मै लदाख़ जाने के लिए निकल रहा था, तो लोगों की प्रतिक्रियाओं ने मुझे थोड़ा चौंकाया| लोग ऐसी प्रतिक्रिया दे रहे थे जैसे कि मै किसी युद्ध पर निकल रहा हुँ| धीरे धीरे एहसास हुआ कि शायद इसका कारण यह है कि हम लोग हमारे जीवन में कुछ अलग करना भूल सा गए हैं| इसके कारण जब कोई थोड़ा अलग करने का प्रयास करता है तो या तो हम उसे गलत समझते हैं या फिर उससे विपरित दूसरी कोटि की प्रतिक्रिया देते हैं| और हमारे देश के प्रति हमारे अज्ञान के बारे में क्या कहें? ऐसी प्रतिक्रियाएँ मेरी नजर में एक हद तक तो ठीक हैं; पर बाद में जा कर हमारी सँकरी सोच ही दर्शाती है| फिर भी लोगों ने बहुत हौसला बढ़ाया| और ऐसी प्रतिक्रियाएँ अपेक्षाकृत ही थी|
इस पूरी यात्रा में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई; जिसमें सामान्यत: न होनेवाले; न दिखनेवाली घटनाएँ घटी| मिलिटरीवालों के साथ रहना; लदाख़ी घर में ठहरना; लोगों से गहराई से मिलना... साईकिल की कुछ चीजें अद्भुत है| एक तो सभी लोगों तक साईकिलिंग पहुँच जाता है| उसकी विजिबिलिटी अच्छी है| यह लोगों को कुछ झकझोर सा भी देता है| इसलिए उनके दिल में एक जगह भी धीरे धीरे बनती है| इसी वजह से सिर्फ लोगों से मिलना और बातचीत करना हुआ; लोगों के जीवन को करीब से देखने का मौका भी मिला| साईकिलिंग से अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण; फिटनेस और देश से जुड़ाव का सन्देश भी जाता रहा| जो भी लदाख़ में साईकिल देखते; उन्हे स्वभावत: मन में प्रश्न आता कि यह कैसे यहाँ साईकिल चला रहा है! इस मामले में साईकिल का हाथ कोई नही पकड़ सकता है| लदाख़ में ही दस किलोमीटर की दूरी में औसतन सौ वाहन साईकिल को देखते होंगे; और उसमें बैठे चारसौ- पाँचसौ यात्रि भी| जरूर उन्हे भी यह सन्देश अप्रत्यक्ष और अपरोक्ष रूप से जाता होगा| इतने सारे मिलिटरीवालों को सॅल्युट और उत्तर में मिले हुए सॅल्युट!
कई अनुभव ऐसे हैं| जम्मू से श्रीनगर पहुँचने के बाद तुरन्त करगिल की जीप ले ली| उस समय श्रीनगर के कुछ ड्रायवरों ने पूछा; एक दिन श्रीनगर रूक कर जाओ; यहाँ भी देखो| करगिल की जीप में करगिल का एक बड़ा पूर्व- अफसर था| करगिलवाले लोग कश्मिरियों से कितने नाराज हैं, यह पता चला| करगिल जिला मुस्लीम बहुल तो है; पर आता लदाख़ क्षेत्र में ही है| कश्मीर के लोग लदाख़ का बहुत शोषण करते हैं| जगह जगह यह देखने को मिला| करगिल से लेह तक सड़क पर मुझे हाथ से; इशारे से या रूक कर हौसला देनेवाले कश्मीर के वाहन बहुत थोड़े थे| कश्मीर प्रॉपर (जम्मू और लदाख़ क्षेत्रों को छोड कर) के लोग दूसरों से स्वयं को थोड़ा अलग ही रखते हैं|
लामायुरू में कई लोगों ने मेरे साथ सेल्फी तो खींची; एक सज्जन अनुठे भी मिले| होटल में साथ चाय पीते हुए बात हुई| साईकिल देख कर उन्होने पूछताछ की| बात हुई| उन्होने कहा कि वे हमेशा लामायुरू आते रहते हैं और उन्हे लगता है कि पहले भी कई बार उन्होने लामायुरू देखा है| उन्हे बार बार लगता है कि वे यहाँ पहले भी आए हैं (शायद पूर्व जनम में)| अब वे लामायुरु में ध्यान कर रहे हैं| मैने उनके ध्यान को शुभकामनाएँ दी| ऐसा लदाख़ में कई लोगों को लगता है| प्रोद्युतजी ने भी बाद में बताया था कि कुछ गोंपा देख कर उन्हे लगा कि यह तो जाना- पहचाना है| मुझे भी तो लदाख़ में आने की इतनी अधिक इच्छा क्यों हुई? हिमालय का इतना गहरा सम्मोहन क्यों है?
तैयारी करते समय जैसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र में साँस लेने के बारे में सोच रहा था; कुछ बातें स्पष्ट हुई| एक तो उच्च पर्वतीय क्षेत्र में दीर्घ श्वसन ही सामान्य श्वसन है| हवा की कमी के कारण अपनेआप दीर्घ श्वसन ही किया जाता है| इसलिए उंचे पहाड़ पर रहनेवाले सभी लोग दीर्घ श्वसन ही स्वाभाविक रूप से करते हैं| और दीर्घ श्वसन को ध्यान की बुनियाद कहा जा सकता है| दूसरी बात यह पता चली कि, लदाख़ हो; उत्तराखण्ड- हिमाचल के कुछ हिस्से हो या तिब्बत- मानस सरोवर हो; वहाँ हमें जो नजारे दिखते हैं उनमें एक खास बात है| पूरा निला आकाश और निले सरोवर! और बड़ा ही अद्भुत; फैला हुआ नजारा| ध्यान के विशेषज्ञ कहते हैं कि ध्यान में मेन्दू की वेव्ज नीले रंग की होती है| निला रंग एक तरह से ध्यान का सूचक है| इसलिए कहीं ऐसा तो नही कि इन उच्च पर्वतीय स्थानों में प्राकृतिक रूप से ध्यान घटने में सहायता हो? दीर्घ श्वसन तो होता ही है| और तिसरी बात- बड़ा ही फैला हुआ नजारा अहंकार को नीचे गिराता है| चारों तरफ ऊँचे और फैले हुए पहाड़ और एक चिंटी जैसे हम! अहंकार गिर जाता है| इन तीनों बातों को मिला कर लगा कि हो ना हो जरूर उच्च पर्वतीय स्थान में और ध्यान प्रक्रिया में कुछ सम्बन्ध है| और वैसे भी हिमालय अनगिनत योगी और ध्यानियों की भूमी है| एक तरह से ध्यान ऊर्जा का वह एनर्जी फिल्ड है|
..इन सब बातों को समझते हुए लगा कि शायद हम उत्तुंग पर्वतों का जो सम्बन्ध पुण्य से जोड़ते हैं; वह पुण्य के बजाय ध्यान से होगा| क्यों कि वहाँ जाने पर अपनेआप ध्यान घटित होने में सहायता मिलती है| शायद इसीलिए तो तिब्बत विश्व का ऐसी एकमेव संस्कृति रही; जिसने मात्र एक ही विषय को स्वयं को अर्पित किया था- ध्यान में कैसे गहरें उतरे? लदाख़ तिब्बत का ही भाई है| पीछली बार की तरह इस बार भी यह अनुभव आया कि, नजारा इतना अद्भुत होता है; कि हम उसमें वाकई 'खो जाते' है| स्वयं की पृथकता कम होती दिखाई पड़ती है| कर्ता गिर जाता है; साक्षी बढ़ता है| जब इतना बड़ा पहाड़ सामने हो; तब 'करने' योग्य कुछ बचता ही नही; बस 'देखने' योग्य बचता है| शायद इसी ही कारण हमारे पास प्रथा है कि जब भी कोई चारधाम जैसी यात्रा कर आता था, तो सारा गाँव उसके दर्शन के लिए आता था| ध्यान ऊर्जा बाँटने के लिए ही यह होता होगा| खैर|
..इस यात्रा में सभी सायकलिस्ट मित्रों का बड़ा हाथ हैं| नीरज जाट जी को तो यह अनुभव समर्पित है| उनके बिना लदाख़ में साईकिलिंग सम्भव नही थी| बल्कि उन्हे ही देख कर साईकिल ली थी| उसके अलावा परभणी के साईकिल ग्रूप के मित्र और इंटरनेट पर अनुभव शेअर करनेवाले साईकिलिस्ट की भी बड़ी अहम भुमिका रही| आज की पिढि बहुत किस्मतवाली है| उसे सभी जानकारी उपलब्ध है जो पहले शायद कभी नही हुआ था| आज सभी क्षेत्रों में और सभी विषयों पर इतनी कुछ जानकारी उपलब्ध है कि अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो रुकने का कोई कारण नही है| उसका बहुत लाभ हुआ| यदि यह जानकारी न होती; तो ऐसी यात्रा के बारे में सोच भी नही सकता था| कई विदेशी और भारतीय साईकिलिस्ट भी लदाख़ में सोलो साईकिलिंग कर चुके हैं| सचिन गांवकर जैसे साईकिलिस्ट किसी सामाजिक विषय के लक्ष्य को ले कर पूरी देश की परिक्रमा करते हैं| ऐसे सभी मेरे प्रेरणास्थान से कम नही हैं|
साईकिल ने पूरी यात्रा में खूब साथ दिया| ट्रेन में पार्सल में जरूर उसके साथ अन्याय हुआ| जैसे तैसे उसे जाना पड़ा| जम्मू के बाद जीप से जाना पड़ा| पर साईकिल ने सौ प्रतिशत सहयोग दिया| देखा जाए तो हिमालय में साईकिलिंग के कुछ लाभ भी है| एक तो ठण्डे मौसम के कारण टायर गर्म हो कर फटने का खतरा नही होता है| स्पीड कम ही रहती है; सड़क पर नमीं होने से भी पंक्चर का खतरा कुछ कम होता है| और दूसरी मज़े की बात यह है की पूरी यात्रा में हर पल प्राकृतिक एसी लगा हुआ होता है! मैने जो पहाड़ चढे; वे भी एक तरह से आराम से चढ़े| नमिकेला और फोतुला तो मै टहलते गया| अर्थात् आराम से पैदल चढा| बाद में उतराई तो मुफ़्त थी! कुल मिला कर पैदल टहलना; एसी में साईकिलिंग करना और उतरना मुफ़्त में! और लोग जो तारीफ करते वह सोने पे सुहागा! यह भी खूब रही! यह सब सुन्दर सपना खर्दुंगला जैसी सड़कों पर बिखर गया!!
१० जून! लेह से सीधे जम्मू कुछ जीपें चलती हैं| लेह से शाम पाँच- छह बजे निकल कर दूसरे दिन सुबह श्रीनगर से जाते हुए रात जम्मू पहुँचा देती हैं| छब्बीस- सत्ताईस घण्टों की यह लगातार यात्रा भी किसी ट्रेक से कम नही है| सिधी जम्मू की जीप मिलने से श्रीनगर में साईकिल उतारने का और बान्धने का सवाल नही रहा| साईकिल ने मुझे पूरा सहयोग दिया; लेकिन साईकिल घर से करगिल तक ले जाने में बहुत ज्यादा कठिनाई हुई| ट्रेन में पार्सल कराना; फिर उसे उतराना; अगर नही उतरता है; तो दूसरे स्टेशन से वापस लेना; बस में रखना आदि बहुत कठिनाईयाँ थी| इसलिए हर जगह पर कुछ ना कुछ जुगाड़ पर 'पहचान' निकालनी पड़ी| काफी जुगाड़ करना पड़ा| तब जा कर साईकिल करगिल ले जा सका| बड़ी चिन्ता उसी की थी| ऐसे में विदेशी साईकिलिस्ट और घूमनेवालों की तारीफ जितनी की जाए कम है| एक तो उन्हे यहाँ अनगिनत कल्चरल शॉक्स झेलने होते हैं| हमारे देश में किसी भी बात की सटिक जानकारी कहीं नही मिलती है| छोटी छोटी बातों के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है| ऐसे में वे लोग कैसे इतनी बड़ी यात्राएँ करते हैं| कैसे दुर्गम इलाकों में लम्बे समय तक घूमते हैं! उनकी करन्सी हमारी करन्सी से साठ गुना बेहतर हैं; मान्य; लेकिन फिर भी हमारी सिस्टम में आ कर इतना कुछ कर पाना नि:सन्देह बड़ा आश्चर्यजनक है|
इस यात्रा में कई कठिण पल आए| लेह से निकलते समय बहुत बुरा लगा| बहुत दु:ख हुआ| उतना तो घर से निकलते समय भी नही हुआ था| लेह से विदा लेना यह इस यात्रा का दूसरा सबसे कठिन पल है| सबसे कठिन पल कौनसा होगा? रात में साइकिल चलाना या बारीश में चलाना या चढाई पर घसीटते जाना? नही| सबसे कठिन पल आठ महिने के बेटी से बिछडना था| वाकई...
लेह से जम्मू तक की यात्रा अच्छी रही| रात को दो बजे द्रास में रूके| यहाँ सुबह की रोशनी आने पर ही आगे झोजिला के लिए वाहनों को छोडा जाता है| झोजिला पर बड़ी बरफ है| क्या रास्ता है! वहाँ से जाने में असली मज़ा आता! एक बात अच्छी है कि यह जीप श्रीनगर नही रूकती है| श्रीनगर की कोई सवारी नही है| हर कोई श्रीनगर को टालना चाहता है और मजबूरन श्रीनगर होते हुए जाता है| श्रीनगर में पुलिस लेह के वाहनों को तकलीफ देती हैं| जम्मू क्षेत्र के और लदाख़ के वाहनों को नंबर देख कर रोकते हैं और पैसे वसूलते हैं| करगिलवालों की गाडियाँ बख़्शते हैं| श्रीनगर में कोई प्रोटेस्ट/ बन्द नही था; और पुलिस की चंगुल से जल्दी ही जीप आगे निकली| इसका ड्रायवर लदाख़ी है| बड़ी क्षमता है उसकी| अब जम्मू- श्रीनगर रोड़ पर ट्रॅफिक जाम नही होना चाहिए| नही तो कितने ही समय तक रूकना पड़ सकता है| संयोग से बनिहाल के अतिरिक्त कहीं ट्रॅफिक नही मिला| रामबन पर चिनाब नदी मिली! हिमाचल में उगम होने के बाद वह किश्तवाड़ के रास्ते यहाँ आती हैं| यहीं पर भी वह पहाड़ी नदी ही दिखती है| जैसे हम मूल स्रोत की ओर बढ़ते है या उसके पास पहुँचते हैं; अपने आप जीवनधारा शुद्ध होती है| देर सबेर रात जम्मू पहुँचा| एक रात रूक कर कल अमृतसर जाऊँगा| वहाँ से ट्रेन का बूकिंग किया है|
बाद में ट्रेन में भी लेह से लौटनेवाले यात्री मिले| फिर तारीफ! वे बुजुर्ग सरदारजी थे| उनसे अच्छी बातें हुई| 'इक ओंकार सत्नाम कर्ता पूरख निर्मोह निर्बैर...' पंक्ति का मतलब उन्होने समझाया| नान्देड़ के वे सरदारजी सन्त नामदेव की वाणि से बहुत प्रभावित लगे| फिर बातचीत जम्मू में कुछ ही दिन पहले हुए प्रोटेस्ट के बारे में हुई| उन्होने कहा कि यह सब शिवसेना ने किया है| जम्मू- कश्मीर में शिवसेना अपनी मौजुदगी दर्शाना चाहती है; इसलिए उन्होने गुरुद्वारे में लगाए गए पोस्टर्स निकाले| और वहीं से प्रोटेस्ट शुरू हुआ| बाद में उन्होने कई अनुभव शेअर किए| उन्होने कहा कि, आज कश्मीर में दो लाख सीख रहते हैं| और वे अपने बलबुते पर वहाँ डटे हैं| छत्तीसिंहपूरा जैसे गाँवों में आतंकियों ने छत्तीस सरदारों के सिर कलम किए थे; फिर भी सरदार वहाँ डटे रहे| आज श्रीनगर शहर में भी पचास हजार सरदार रहते हैं और वे भी बिल्कुल डट के वहाँ रहते हैं| उनका कहना था कि, कश्मिरी हिन्दुओं ने मायग्रेशन करने के बजाय वहीं रहना चाहिए था| आतंक का जवाब वीरता से देना चाहिए था| सरदार यहीं करते रहे हैं| जिसपर यह बिता हो; उसका दर्द तो वहीं जाने|
लदाख़ यात्रा में मिला क्या? इस यात्रा का कन्क्लुजन क्या है? व्यावहारिक रूप से देखा जाए, तो कुछ नही मिला| वरन् नौ हजार खर्चा ही आया| लेकिन थोड़ा उपर जा कर देखें तो कई सारी चीजें मिलीं जो अनमोल हैं| सब नजारें; अविस्मरणीय पल; जीवनभर की यादें; लोगों से मिलना और स्वयं से मिलने का प्रयास! अन्त में इतना ही कहूँगा कि एक विश्वास मिला कि हाँ, यही रस्ता तेरा है| इसी रास्ते पर तू आगे बढ़ सकता है| आगामी किसी यात्रा में इसका अगला पड़ाव आएगा| तब तक मध्यान्तर हुआ है| अन्त में लदाख़ यात्रा का सार यह है- “अभी अभी हुआ यकीं... जो आग हैं मुझमें कहीं.. हुई सुबह... मै जल गया... सूरज को मै निगल गया...”
१. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल- मुलबेक- नमिकेला- बुधखारबू
२. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग २- बुधखारबू- फोतुला- लामायुरू- नुरला
३. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ३- नुरला- ससपोल- निम्मू- लेह....
४. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ४- लेह दर्शन
५. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ५- सिंधू दर्शन स्थल और गोंपा
६. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ६- हेमिस गोंपा
७. साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ७- जुले लदाख़!!
लदाख़ से निकलते समय इस यात्रा सी जुड़ी बहुत सी यादें मन में ताजा हो रही हैं| मात्र पन्द्रह दिन की होने के बावजूद इस यात्रा ने बहुत कुछ दिया| बहुत कुछ देखने को मिला| लोगों से मिलना हुआ| स्वयं से भी कुछ हद तक मिलना हुआ| निकलने से वापसी की यात्रा तक लगातार ऐसे अनुभव आते रहे| स्टेशन पर साईकिल पार्सल भेजते समय वहाँ काम करनेवाले लड़कों ने हेलमेट के साथ मुझे देख कर कहा कि तुम तो क्रिश लग रहे हो! वहाँ से ले कर वापस पहुँचने तक कई अनुठे अनुभव आते रहे|
जब मै लदाख़ जाने के लिए निकल रहा था, तो लोगों की प्रतिक्रियाओं ने मुझे थोड़ा चौंकाया| लोग ऐसी प्रतिक्रिया दे रहे थे जैसे कि मै किसी युद्ध पर निकल रहा हुँ| धीरे धीरे एहसास हुआ कि शायद इसका कारण यह है कि हम लोग हमारे जीवन में कुछ अलग करना भूल सा गए हैं| इसके कारण जब कोई थोड़ा अलग करने का प्रयास करता है तो या तो हम उसे गलत समझते हैं या फिर उससे विपरित दूसरी कोटि की प्रतिक्रिया देते हैं| और हमारे देश के प्रति हमारे अज्ञान के बारे में क्या कहें? ऐसी प्रतिक्रियाएँ मेरी नजर में एक हद तक तो ठीक हैं; पर बाद में जा कर हमारी सँकरी सोच ही दर्शाती है| फिर भी लोगों ने बहुत हौसला बढ़ाया| और ऐसी प्रतिक्रियाएँ अपेक्षाकृत ही थी|
इस पूरी यात्रा में ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई; जिसमें सामान्यत: न होनेवाले; न दिखनेवाली घटनाएँ घटी| मिलिटरीवालों के साथ रहना; लदाख़ी घर में ठहरना; लोगों से गहराई से मिलना... साईकिल की कुछ चीजें अद्भुत है| एक तो सभी लोगों तक साईकिलिंग पहुँच जाता है| उसकी विजिबिलिटी अच्छी है| यह लोगों को कुछ झकझोर सा भी देता है| इसलिए उनके दिल में एक जगह भी धीरे धीरे बनती है| इसी वजह से सिर्फ लोगों से मिलना और बातचीत करना हुआ; लोगों के जीवन को करीब से देखने का मौका भी मिला| साईकिलिंग से अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण; फिटनेस और देश से जुड़ाव का सन्देश भी जाता रहा| जो भी लदाख़ में साईकिल देखते; उन्हे स्वभावत: मन में प्रश्न आता कि यह कैसे यहाँ साईकिल चला रहा है! इस मामले में साईकिल का हाथ कोई नही पकड़ सकता है| लदाख़ में ही दस किलोमीटर की दूरी में औसतन सौ वाहन साईकिल को देखते होंगे; और उसमें बैठे चारसौ- पाँचसौ यात्रि भी| जरूर उन्हे भी यह सन्देश अप्रत्यक्ष और अपरोक्ष रूप से जाता होगा| इतने सारे मिलिटरीवालों को सॅल्युट और उत्तर में मिले हुए सॅल्युट!
कई अनुभव ऐसे हैं| जम्मू से श्रीनगर पहुँचने के बाद तुरन्त करगिल की जीप ले ली| उस समय श्रीनगर के कुछ ड्रायवरों ने पूछा; एक दिन श्रीनगर रूक कर जाओ; यहाँ भी देखो| करगिल की जीप में करगिल का एक बड़ा पूर्व- अफसर था| करगिलवाले लोग कश्मिरियों से कितने नाराज हैं, यह पता चला| करगिल जिला मुस्लीम बहुल तो है; पर आता लदाख़ क्षेत्र में ही है| कश्मीर के लोग लदाख़ का बहुत शोषण करते हैं| जगह जगह यह देखने को मिला| करगिल से लेह तक सड़क पर मुझे हाथ से; इशारे से या रूक कर हौसला देनेवाले कश्मीर के वाहन बहुत थोड़े थे| कश्मीर प्रॉपर (जम्मू और लदाख़ क्षेत्रों को छोड कर) के लोग दूसरों से स्वयं को थोड़ा अलग ही रखते हैं|
लामायुरू में कई लोगों ने मेरे साथ सेल्फी तो खींची; एक सज्जन अनुठे भी मिले| होटल में साथ चाय पीते हुए बात हुई| साईकिल देख कर उन्होने पूछताछ की| बात हुई| उन्होने कहा कि वे हमेशा लामायुरू आते रहते हैं और उन्हे लगता है कि पहले भी कई बार उन्होने लामायुरू देखा है| उन्हे बार बार लगता है कि वे यहाँ पहले भी आए हैं (शायद पूर्व जनम में)| अब वे लामायुरु में ध्यान कर रहे हैं| मैने उनके ध्यान को शुभकामनाएँ दी| ऐसा लदाख़ में कई लोगों को लगता है| प्रोद्युतजी ने भी बाद में बताया था कि कुछ गोंपा देख कर उन्हे लगा कि यह तो जाना- पहचाना है| मुझे भी तो लदाख़ में आने की इतनी अधिक इच्छा क्यों हुई? हिमालय का इतना गहरा सम्मोहन क्यों है?
तैयारी करते समय जैसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र में साँस लेने के बारे में सोच रहा था; कुछ बातें स्पष्ट हुई| एक तो उच्च पर्वतीय क्षेत्र में दीर्घ श्वसन ही सामान्य श्वसन है| हवा की कमी के कारण अपनेआप दीर्घ श्वसन ही किया जाता है| इसलिए उंचे पहाड़ पर रहनेवाले सभी लोग दीर्घ श्वसन ही स्वाभाविक रूप से करते हैं| और दीर्घ श्वसन को ध्यान की बुनियाद कहा जा सकता है| दूसरी बात यह पता चली कि, लदाख़ हो; उत्तराखण्ड- हिमाचल के कुछ हिस्से हो या तिब्बत- मानस सरोवर हो; वहाँ हमें जो नजारे दिखते हैं उनमें एक खास बात है| पूरा निला आकाश और निले सरोवर! और बड़ा ही अद्भुत; फैला हुआ नजारा| ध्यान के विशेषज्ञ कहते हैं कि ध्यान में मेन्दू की वेव्ज नीले रंग की होती है| निला रंग एक तरह से ध्यान का सूचक है| इसलिए कहीं ऐसा तो नही कि इन उच्च पर्वतीय स्थानों में प्राकृतिक रूप से ध्यान घटने में सहायता हो? दीर्घ श्वसन तो होता ही है| और तिसरी बात- बड़ा ही फैला हुआ नजारा अहंकार को नीचे गिराता है| चारों तरफ ऊँचे और फैले हुए पहाड़ और एक चिंटी जैसे हम! अहंकार गिर जाता है| इन तीनों बातों को मिला कर लगा कि हो ना हो जरूर उच्च पर्वतीय स्थान में और ध्यान प्रक्रिया में कुछ सम्बन्ध है| और वैसे भी हिमालय अनगिनत योगी और ध्यानियों की भूमी है| एक तरह से ध्यान ऊर्जा का वह एनर्जी फिल्ड है|
..इन सब बातों को समझते हुए लगा कि शायद हम उत्तुंग पर्वतों का जो सम्बन्ध पुण्य से जोड़ते हैं; वह पुण्य के बजाय ध्यान से होगा| क्यों कि वहाँ जाने पर अपनेआप ध्यान घटित होने में सहायता मिलती है| शायद इसीलिए तो तिब्बत विश्व का ऐसी एकमेव संस्कृति रही; जिसने मात्र एक ही विषय को स्वयं को अर्पित किया था- ध्यान में कैसे गहरें उतरे? लदाख़ तिब्बत का ही भाई है| पीछली बार की तरह इस बार भी यह अनुभव आया कि, नजारा इतना अद्भुत होता है; कि हम उसमें वाकई 'खो जाते' है| स्वयं की पृथकता कम होती दिखाई पड़ती है| कर्ता गिर जाता है; साक्षी बढ़ता है| जब इतना बड़ा पहाड़ सामने हो; तब 'करने' योग्य कुछ बचता ही नही; बस 'देखने' योग्य बचता है| शायद इसी ही कारण हमारे पास प्रथा है कि जब भी कोई चारधाम जैसी यात्रा कर आता था, तो सारा गाँव उसके दर्शन के लिए आता था| ध्यान ऊर्जा बाँटने के लिए ही यह होता होगा| खैर|
..इस यात्रा में सभी सायकलिस्ट मित्रों का बड़ा हाथ हैं| नीरज जाट जी को तो यह अनुभव समर्पित है| उनके बिना लदाख़ में साईकिलिंग सम्भव नही थी| बल्कि उन्हे ही देख कर साईकिल ली थी| उसके अलावा परभणी के साईकिल ग्रूप के मित्र और इंटरनेट पर अनुभव शेअर करनेवाले साईकिलिस्ट की भी बड़ी अहम भुमिका रही| आज की पिढि बहुत किस्मतवाली है| उसे सभी जानकारी उपलब्ध है जो पहले शायद कभी नही हुआ था| आज सभी क्षेत्रों में और सभी विषयों पर इतनी कुछ जानकारी उपलब्ध है कि अगर कोई आगे बढ़ना चाहता है तो रुकने का कोई कारण नही है| उसका बहुत लाभ हुआ| यदि यह जानकारी न होती; तो ऐसी यात्रा के बारे में सोच भी नही सकता था| कई विदेशी और भारतीय साईकिलिस्ट भी लदाख़ में सोलो साईकिलिंग कर चुके हैं| सचिन गांवकर जैसे साईकिलिस्ट किसी सामाजिक विषय के लक्ष्य को ले कर पूरी देश की परिक्रमा करते हैं| ऐसे सभी मेरे प्रेरणास्थान से कम नही हैं|
साईकिल ने पूरी यात्रा में खूब साथ दिया| ट्रेन में पार्सल में जरूर उसके साथ अन्याय हुआ| जैसे तैसे उसे जाना पड़ा| जम्मू के बाद जीप से जाना पड़ा| पर साईकिल ने सौ प्रतिशत सहयोग दिया| देखा जाए तो हिमालय में साईकिलिंग के कुछ लाभ भी है| एक तो ठण्डे मौसम के कारण टायर गर्म हो कर फटने का खतरा नही होता है| स्पीड कम ही रहती है; सड़क पर नमीं होने से भी पंक्चर का खतरा कुछ कम होता है| और दूसरी मज़े की बात यह है की पूरी यात्रा में हर पल प्राकृतिक एसी लगा हुआ होता है! मैने जो पहाड़ चढे; वे भी एक तरह से आराम से चढ़े| नमिकेला और फोतुला तो मै टहलते गया| अर्थात् आराम से पैदल चढा| बाद में उतराई तो मुफ़्त थी! कुल मिला कर पैदल टहलना; एसी में साईकिलिंग करना और उतरना मुफ़्त में! और लोग जो तारीफ करते वह सोने पे सुहागा! यह भी खूब रही! यह सब सुन्दर सपना खर्दुंगला जैसी सड़कों पर बिखर गया!!
१० जून! लेह से सीधे जम्मू कुछ जीपें चलती हैं| लेह से शाम पाँच- छह बजे निकल कर दूसरे दिन सुबह श्रीनगर से जाते हुए रात जम्मू पहुँचा देती हैं| छब्बीस- सत्ताईस घण्टों की यह लगातार यात्रा भी किसी ट्रेक से कम नही है| सिधी जम्मू की जीप मिलने से श्रीनगर में साईकिल उतारने का और बान्धने का सवाल नही रहा| साईकिल ने मुझे पूरा सहयोग दिया; लेकिन साईकिल घर से करगिल तक ले जाने में बहुत ज्यादा कठिनाई हुई| ट्रेन में पार्सल कराना; फिर उसे उतराना; अगर नही उतरता है; तो दूसरे स्टेशन से वापस लेना; बस में रखना आदि बहुत कठिनाईयाँ थी| इसलिए हर जगह पर कुछ ना कुछ जुगाड़ पर 'पहचान' निकालनी पड़ी| काफी जुगाड़ करना पड़ा| तब जा कर साईकिल करगिल ले जा सका| बड़ी चिन्ता उसी की थी| ऐसे में विदेशी साईकिलिस्ट और घूमनेवालों की तारीफ जितनी की जाए कम है| एक तो उन्हे यहाँ अनगिनत कल्चरल शॉक्स झेलने होते हैं| हमारे देश में किसी भी बात की सटिक जानकारी कहीं नही मिलती है| छोटी छोटी बातों के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है| ऐसे में वे लोग कैसे इतनी बड़ी यात्राएँ करते हैं| कैसे दुर्गम इलाकों में लम्बे समय तक घूमते हैं! उनकी करन्सी हमारी करन्सी से साठ गुना बेहतर हैं; मान्य; लेकिन फिर भी हमारी सिस्टम में आ कर इतना कुछ कर पाना नि:सन्देह बड़ा आश्चर्यजनक है|
इस यात्रा में कई कठिण पल आए| लेह से निकलते समय बहुत बुरा लगा| बहुत दु:ख हुआ| उतना तो घर से निकलते समय भी नही हुआ था| लेह से विदा लेना यह इस यात्रा का दूसरा सबसे कठिन पल है| सबसे कठिन पल कौनसा होगा? रात में साइकिल चलाना या बारीश में चलाना या चढाई पर घसीटते जाना? नही| सबसे कठिन पल आठ महिने के बेटी से बिछडना था| वाकई...
लेह से जम्मू तक की यात्रा अच्छी रही| रात को दो बजे द्रास में रूके| यहाँ सुबह की रोशनी आने पर ही आगे झोजिला के लिए वाहनों को छोडा जाता है| झोजिला पर बड़ी बरफ है| क्या रास्ता है! वहाँ से जाने में असली मज़ा आता! एक बात अच्छी है कि यह जीप श्रीनगर नही रूकती है| श्रीनगर की कोई सवारी नही है| हर कोई श्रीनगर को टालना चाहता है और मजबूरन श्रीनगर होते हुए जाता है| श्रीनगर में पुलिस लेह के वाहनों को तकलीफ देती हैं| जम्मू क्षेत्र के और लदाख़ के वाहनों को नंबर देख कर रोकते हैं और पैसे वसूलते हैं| करगिलवालों की गाडियाँ बख़्शते हैं| श्रीनगर में कोई प्रोटेस्ट/ बन्द नही था; और पुलिस की चंगुल से जल्दी ही जीप आगे निकली| इसका ड्रायवर लदाख़ी है| बड़ी क्षमता है उसकी| अब जम्मू- श्रीनगर रोड़ पर ट्रॅफिक जाम नही होना चाहिए| नही तो कितने ही समय तक रूकना पड़ सकता है| संयोग से बनिहाल के अतिरिक्त कहीं ट्रॅफिक नही मिला| रामबन पर चिनाब नदी मिली! हिमाचल में उगम होने के बाद वह किश्तवाड़ के रास्ते यहाँ आती हैं| यहीं पर भी वह पहाड़ी नदी ही दिखती है| जैसे हम मूल स्रोत की ओर बढ़ते है या उसके पास पहुँचते हैं; अपने आप जीवनधारा शुद्ध होती है| देर सबेर रात जम्मू पहुँचा| एक रात रूक कर कल अमृतसर जाऊँगा| वहाँ से ट्रेन का बूकिंग किया है|
बाद में ट्रेन में भी लेह से लौटनेवाले यात्री मिले| फिर तारीफ! वे बुजुर्ग सरदारजी थे| उनसे अच्छी बातें हुई| 'इक ओंकार सत्नाम कर्ता पूरख निर्मोह निर्बैर...' पंक्ति का मतलब उन्होने समझाया| नान्देड़ के वे सरदारजी सन्त नामदेव की वाणि से बहुत प्रभावित लगे| फिर बातचीत जम्मू में कुछ ही दिन पहले हुए प्रोटेस्ट के बारे में हुई| उन्होने कहा कि यह सब शिवसेना ने किया है| जम्मू- कश्मीर में शिवसेना अपनी मौजुदगी दर्शाना चाहती है; इसलिए उन्होने गुरुद्वारे में लगाए गए पोस्टर्स निकाले| और वहीं से प्रोटेस्ट शुरू हुआ| बाद में उन्होने कई अनुभव शेअर किए| उन्होने कहा कि, आज कश्मीर में दो लाख सीख रहते हैं| और वे अपने बलबुते पर वहाँ डटे हैं| छत्तीसिंहपूरा जैसे गाँवों में आतंकियों ने छत्तीस सरदारों के सिर कलम किए थे; फिर भी सरदार वहाँ डटे रहे| आज श्रीनगर शहर में भी पचास हजार सरदार रहते हैं और वे भी बिल्कुल डट के वहाँ रहते हैं| उनका कहना था कि, कश्मिरी हिन्दुओं ने मायग्रेशन करने के बजाय वहीं रहना चाहिए था| आतंक का जवाब वीरता से देना चाहिए था| सरदार यहीं करते रहे हैं| जिसपर यह बिता हो; उसका दर्द तो वहीं जाने|
लदाख़ यात्रा में मिला क्या? इस यात्रा का कन्क्लुजन क्या है? व्यावहारिक रूप से देखा जाए, तो कुछ नही मिला| वरन् नौ हजार खर्चा ही आया| लेकिन थोड़ा उपर जा कर देखें तो कई सारी चीजें मिलीं जो अनमोल हैं| सब नजारें; अविस्मरणीय पल; जीवनभर की यादें; लोगों से मिलना और स्वयं से मिलने का प्रयास! अन्त में इतना ही कहूँगा कि एक विश्वास मिला कि हाँ, यही रस्ता तेरा है| इसी रास्ते पर तू आगे बढ़ सकता है| आगामी किसी यात्रा में इसका अगला पड़ाव आएगा| तब तक मध्यान्तर हुआ है| अन्त में लदाख़ यात्रा का सार यह है- “अभी अभी हुआ यकीं... जो आग हैं मुझमें कहीं.. हुई सुबह... मै जल गया... सूरज को मै निगल गया...”