Tuesday, June 16, 2015

साईकिल पर जुले लदाख़ भाग ०- प्रस्तावना

लदाख़! भारत का वह रमणीय क्षेत्र! वस्तुत: वह एक जगह या पर्यटन स्थल न हो कर एक अद्भुत दुनिया है! लदाख़ वह दुनिया है जिसमें बर्फाच्छादित पर्वत, नदियाँ, झरने, जंगल, दंग कर देनेवाली झीलें, रेगिस्तान यह सब है! मानो लदाख़ एक युनिव्हर्स है जिसमें ये सभी चीजें साथ देखी जा सकती हैं| चार बरस पहले जब इस विश्व का कुछ आस्वाद लिया था तब से यहाँ फिर जाने की बड़ी आकांक्षा थी| उसके बाद जब से विलक्षण भारतीय ट्रेकर और साहसी यात्री नीरज जाटजी की लदाख़ साईकिल यात्रा पढी, तब से मन में ठान लिया कि लदाख़ साईकिल पर ही जाना है| दो साल पहले की यह बात है| उनकी यात्रा देखते ही एक प्राथमिक गेअरवाली साईकिल खरीद ली| दस साल के विराम के बाद साईकिल की जीवन में वापसी हुई| धीरे धीरे साईकिल चलाने का हुनर पुनर्जीवित होता चला गया| एक दिन में दस, पच्चीस, चालीस, साठ किलोमीटर साईकिलिंग से आगे बढता गया| धीरे धीरे शतक भी हुआ| बीच बीच में साईकिलिंग खण्डित भी होती रही; और फिर से जीवित भी हुई| साईकिल उठाने के दो सालों के भीतर छह हजार किलोमीटर भी पूरे हो गए जिसमें सात शतक और बीस से अधिक अर्धशतक भी हुए| पीछले साल एक एडव्हान्स साईकिल- टारगेट फायरफॉक्स भी ले ली|

यही क्रम आगे बढता गया और धीरे धीरे विश्वास बढ़ने लगा कि लदाख़ साईकिल पर जाया जा सकता है| किस्मत से बाकी सब चीजें भी अनुकूल रही| धीरे धीरे लदाख़ का प्लैन बन गया| हालाकि जब भी साईकिल पर बड़ी यात्रा कर लौट आता तो अन्दर से आवाज आती- बस हो गया लदाख़ यहीं पर! जब कड़ाके की धूप में रास्ते पर हांफता पंक्चर निकालने की असफल कोशिश करता, तब लगता कि लदाख़ यही पर हो गया| साईकिल पर बड़ी यात्रा करना एक शिखर को पार करने जैसा लगा| शिखर पार करने के बाद उतर कर खाई के अन्धेरे से गुजरना पड़ता है| उस समय बिलकुल लगता की छोडो यह पागलपन| बहुत हुआ| लेकिन अगले दिन ऊर्जा लौट आती| यही क्रम चलता रहा| शिखर के बाद खाई आती रही और उसके बाद फिर शिखर| धीरे धीरे ग्रेड ५, ग्रेड ४ और ग्रेड १ की चढाई भी चढ पाया| महाराष्ट्र में तोरणमाळ और पुणे के पास सिंहगढ जैसी चढाई साईकिल पर पार की| बढते स्टॅमिना का पता इस बात से लगता था कि पहले तो छोटी सी चढाई भी‌ साईकिल पर पार नही होती थी; एक तिहाई दूरी साईकिल पर चलने के बाद पैदल चलना पड़ता था| लेकिन जैसे अभ्यास जारी रहा, वही चढाई साईकिल पर पार की; हालाकि तीन बार रूकना पड़ा| फिर वही चढाई बिना रूके पार की| बाद में चार बार वही चढाई बिना रूके साईकिल पर पार की| उसके भी बाद हायर गेअर पर भी उसे पार किया| इस प्रकार बढ़ते स्टॅमिना का अनुभव हुआ|
स्टॅमिना बढाने के साथ साईकिल के मॅकेनिक का काम भी सीखता गया| साईकिल खोलना- जोड़ना सीख गया| पहिए और पूरा ढाँचा अलग करना सीख गया| पंक्चर और प्राथमिक ब्रेक सेटिंग- गेअर प्रणालि भी सीख गया| पंक्चर सीखना भी मजेदार रहा| कई बार पंक्चर निकालने का देख कर लगता था कि इसमें क्या है? पर जब आधा दिन साईकिल चलाने के बाद वाकई सड़क के किनारे साईकिल खड़ी कर पंक्चर निकालने के लिए बैठा तो लोहे के चने चबाने जैसा लगा| पाँच- छह बार असफल होने के बाद पंक्चर लगाना आ गया| लेकिन यह बात अच्छी थी कि मैने स्वयं को पाँच- छह बार असफल होने के अवसर भी दिए| उससे ही तो सीखना हुआ|

लदाख़ जाने से पहले कम से कम लगातार आंठ दिन की कोई साईकिल यात्रा करने का सोचा| पर वैसा कर नही पाया| वह होता तो और अभ्यास हो जाता| उसके बिना ही सही, बाकी तैयारी जारी रखी| दिसम्बर २०१४ में नौ दिनों में कुल लगभग ५५० किलोमीटर साईकिल निरंतर चलाई थी| इस पूरी यात्रा में महाराष्ट्र के परभणी के साईकिलिंग ग्रूप के सदस्य; नीरज जाट जी और नांदेड के एक सायकलिस्ट ने काफी मार्गदर्शन दिया| २०१५ आते आते साईकिलिंग में सातत्य बढ़ गया| वजन भी धीरे धीरे कम हुआ| लदाख़ जाते समय साईकिल ट्रेन में फोल्ड कर रखने का काफी विचार किया| कई बार उसका जुगाड़ कर देखा| साईकिल दो मिनट में फोल्ड तो हो जाती; पर उसके पहिए बड़े होते| उनको बोरे में रखने में सफलता नही मिली| काफी सोच- विचार और मशक्कत के बाद साईकिल ट्रेन में पार्सल में रखने का निर्णय लिया| साईकिल में नयी चेन और मजबूत पर महंगे होनेवाले नए टायर्स और ट्युब डाल दी| अच्छे से सर्विसिंग करवा ली| यह योजना सोलो साईकिलिंग थी| सभी को इसका अचरज हुआ; काफी कुछ सुझाव भी झेलने पड़े| जाते समय एक्सेसरीज को ले कर भी काफी सुझाव झेलने पड़े| अन्दर से जिन बातों की आवश्यकता लगी, उन पर ही ध्यान दिया| आखिर सब कुछ होने के बाद २६ मई को लदाख़ जाने के लिए निकला|

मूल योजना मनाली- लेह जाने की थी| पर मई के अन्त तक खुलनेवाला मनाली- लेह रोड़ इस वर्ष खुला ही नही था| वरन् वहाँ अत्यधिक बरफ जमी थी| उसके जल्द खुलने के आसार नही थे| इसलिए श्रीनगर रोड़ से ही जाना पड़ा| सोचा की करगिल से साईकिलिंग शुरू करूँगा| वहाँ तक ट्रेन- बस- जीप से जाऊँगा| अम्बाला तक ट्रेन, फिर जम्मू तक बस, जम्मू से श्रीनगर जीप और श्रीनगर से करगिल जीप ऐसी यात्रा हुई| जम्मू- श्रीनगर के बीच ट्रॅफिक या 'स्थानीय' कारणों से रूकने की नौबत नही आयी और सीधा आगे बढ़ सका| साईकिल को ट्रेन से ले जाते समय भी काफी दिक्कतें आयी| हर बार कुछ ना कुछ जुगाड़ करना पड़ा| आखिर कर अम्बाला कँट से करगिल तक बिना रूके यात्रा हुई|

श्रीनगर से आगे सोनामार्ग और झोजिला में बड़ी बरफ मिली| गर्मियों के दिनों में इतनी बरफ थोड़ी अप्रत्याशित थी| निरंतर तीन दिन यात्रा कर २९ मई की रात करगिल पहुँचा| करगिल में एक सादा सा होटल ढूँढा और विश्राम करने लगा| खाने के लिए ठीक होटल नही मिला| जैसे तैसे बिस्कुट- चिप्स खा लिए| यहाँ एक मजे की बात यह है कि करगिल २७०० मीटर्स की ऊँचाई पर है जहाँ हवा थोड़ी विरली होती है| हवा का प्रेशर कम होता है| इसलिए चिप्स के पैकेट अन्दर से एअर टाईट लग रहे है! करगिल में सुरू नदी का नाद वाकई रोमांचकारी है| करगिल! एलओसी पर आज का बसेरा!

लेकिन इसके अलावा बाकी हौसला बिलकुल ही डाउन है| जम्मू के बाद पहाड़ी सड़क थी; उलटी होने की सम्भावना के चलते कुछ भी खाया नही गया है| यात्रा में भी कम ही खाना था| इसलिए ऊर्जा स्तर न्यूनतम है| मन में डर चरम सीमा पर है| आज तक जीवन में कभी भी २५०० मीटर्स से अधिक ऊँचाई पर ट्रेक या साईकिलिंग नही की‌ है| लदाख़ पहले भी गया हुँ पर वह जीप में| हिमालय में कुछ ट्रेक तो किए हैं; पर वे सब छोटे या मध्यम श्रेणि के थे और २५०० मीटर्स के नीचे ही थे| इन सब बातों के चलते मन में डर बढ़ता चला गया| नीचे कितनी भी साईकिल चलायी हो; यहाँ साईकिल चलाना एक अलग ही बात है|‌ कई बार लगा कि यहीं से वापस लौट चलो; आगे बढ़ना नामुमकीन सा है| यहाँ से कम से श्रीनगर तुरन्त पहुँचा जा सकता है! मन सतत सी-सॉ जैसे कूंदता रहा| रात में नीन्द भी नही आयी और अस्वस्थता में रात बढ़ती गई| देर रात कहीं नीन्द लगी. . . .

सोनामार्ग में साईकिल और बरफ
















झोजिला के पास बरफ







 
करगिल, साईकिल और सुरू नदी!















































अगला भाग: साईकिल पर जुले लदाख़ भाग १- करगिल से बुधखारबू (७१ किमी)

10 comments:

  1. बहुत बढ़िया यात्रा वृतान्त.... मेरे लिए नये ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा...

    सफ़र हैं सुहाना
    www.safarhainsuhana.blogspot.in

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  2. Wonderful and inspiring....... I always knew you had it in you... Determination, dedication and dogged effort..... Keep it up Neeru...

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  3. Interesting blog ....keep travelling !

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  4. बहुत रोमांचक और साहसी यात्रा...बहुत ख़ूबसूरत चित्र

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  5. बहुत बढ़िया !!!

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  6. सांईक्लिग शुरू करते समय अपने भीतर के भय का और धीरे धीरे बढते हौसले का बडा सटीक वर्णन किया है । कुछ मेरे जैस्‍ो भी है जाे जा तो कही नही पाए लेकिन राह जिंदगी भर कागज पर बनाते रहे ।

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  7. काफ़ी तैयारी कर ली आपने तो। नीरज तो ऐवें ही चक्कर काट लेता है। :) यात्रा की दुश्वारियाँ एक घुमक्कड़ ही जानता है। मेरी अशेष शुभकामनाएं और बधाई।

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  8. नीरज तो एक अलग ही दुनिया का इंसान है किसी अन्य ग्रह से आया प्राणी ।
    आपके साहस की भी जितनी तारीफ की जाय कम है । आगे आपका साहस कहाँ तक कायम रहेगा ... देखते है हम लोग :)

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