Friday, June 8, 2018

एटलस साईकिल पर योग- यात्रा भाग ६: देवगिरी किला और औरंगाबाद में योग- चर्चाएँ

६: देवगिरी किला और औरंगाबाद में योग- चर्चाएँ
योग साईकिल यात्रा का पांचवा दिन, १५ मई की सुबह| कल बहुत बड़ा दिन था| लेकीन रात में अच्छा विश्राम हुआ और सुबह बहुत ताज़ा महसूस कर रहा हूँ| आज की साईकिल राईड छोटी ही है- सिर्फ ३७ किलोमीटर| और आज पाँचवा दिन होने के कारण यह बहुत ही मामुली लग रही है| कल शाम को योग साधकों से मिलना नही हुआ था| आज उनसे मिलूँगा| कल मुझे रिसिव करने के लिए जो साधक आए थे, उनमें एक साईकिल चलानेवाले भी थे| आज उनके साथ पहले औरंगाबाद के पास होनेवाले देवगिरी किले पर जाऊँगा| वहाँ श्री. खानवेलकर और कुछ योग साधक आएंगे जिनसे अनौपचारिक बात होगी|

सुबह ठीक साढ़ेपाँच बजे निकला| महेन्द्रकर सर भी तैयार थे| वे औरंगाबाद में साईकिल चलाते हैं| उनके साथ दौलताबाद अर्थात् देवगिरी किले की तरफ बढ़ा| कई दिन अकेले साईकिल चलाई थी, आज बात करते हुए जाना अच्छा लग रहा है| और साथ में औरंगाबाद एक हिल स्टेशन होने के कारण होनेवाला सुहावना मौसम, हरियाली और छोटे पहाड़ भी है! दौलताबाद अर्थात् देवगिरी किला! अतीत की गहराईयों में से उपर उठता हुआ एक शिखर! जाने कितने समय, कितने लोग देखे होंगे इस किले ने! भारत के इतिहास का एक पुख़्ता प्रतिक! इस किले के बारे में एक बात बहुत रोचक है| जब अलाउद्दीन खिलजी की सेना इस पर हमला करने के लिए आई थी, तो कुछ दिनों तक उन्हे यही लगा कि देवगिरी के पास जो शरणापूर की गढ़ी या टीला है, वही देवगिरी है! इसलिए वे इसी के पास कुछ दिनों तक लड़ते रहे और बाद में उन्हे पता चला कि देवगिरी किला तो और आगे हैं! देवगिरी के पास आते समय पहले शरणापूर का टिला ही दिखा और एक पल के लिए मै भी धोख़ा खा गया!





बहुत जल्द देवगिरी किले के पास पहुँचा| शहर से यह मात्र १५- १६ किलोमीटर ही दूर है| सड़क पर कुछ चढाई और कुछ उतराई है| एक मज़े की बात यह दिखी कि जब जब चढाई आती है, तो मेरी साईकिल धीरे से चढती है और महेंद्रकर सर की साईकिल आगे जाती है, लेकीन जब समतल सड़क आती है, तब दोनो साईकिल बराबरी पर आ जाती है! किले के पास थोड़ी देर रूके| जल्द बाकी योग साधक भी पहुँचे| इस कार्य को ले कर कुछ बातचीत हुई| योग की अलग- अलग परंपराएँ, अलग अलग विधियों पर बात हुई| कई आसन और प्राणायाम अलग- अलग तरह से किए जाते हैं; उन्हे अलग नामों से भी पुकारा जाता है| आज कल योग में एक तरह की पारिभाषिक जटिलता जरूर बढ़ रही है| आज कई तरह का योग आसानी से उपलब्ध है| लेकीन ऐसे में हमें बहुत टटोल कर देखना चाहिए कि कौनसी विधि सही है और हमारे लिए क्या ठीक होता है| इस पर हर साधक को सजग रहना चाहिए| किले पर टहलते टहलते बात हुई| किले पर मोर और बन्दर भी दिखे! ऐसी प्राचीन वास्तू देखते समय मन में एक अलग अहसास होता है| यह किला या इसके जैसी प्राचीन वास्तुएँ कितनी प्राचीन है, इसके बारे में हम अक्सर सोचते हैं, विवाद भी करते हैं| लेकीन हमें यह भी तो देखना चाहिए कि हम में भी कुछ इतना ही प्राचीन है! और ऐसी जगहों पर जाने के समय इसका कुछ अहसास भी होता है! हममें जो इतना प्राचीन है, उसी को ढूँढने का नाम तो ध्यान है!





किले से लौटने के बाद कुछ देर विश्राम कर इस पूरे योग- कार्य की नींव डालनेवाले दिग्गज योग साधक डॉ. प्रशांत पटेल अर्थात् स्वामी प्रशांतानंद जी से मिलना हुआ| १९७० के दशक में इसी योग की साधना और फिर उसका प्रसार उन्होने किया था| उनसे मिलना एक बहुत ऊर्जा देनेवाला अनुभव रहा| वे योग साधक तो हैं ही, लेकीन बहुत विरला किस्म के कार्यकर्ता भी हैं| किस तरह किसी कार्य की शुरुआत की जाती है, उसमें अलग अलग लोगों को कैसे जोड़ा जाता है, किस तरह कितनी परेशानियों के बीच सातत्य रखना होता है ऐसी बहुत सी बाते सीखने को मिली| उन्होने अपने छात्र जीवन में योग साधना शुरू की और बाद में स्वामी सत्यानंद जी के मार्गदर्शन में उसकी दीक्षा ली| और लगभग उनकी साधना के साथ ही उनका दूसरों को सीखाना भी शुरू हुआ| जिस दिशा से, जिस माध्यम से लोग मिलते थे, वहीं वे जा कर लोगों को इस कार्य से अवगत करते थे, लोगों को योग धारा में लाने का पुरजोर प्रयास करते थे| एक अर्थ में वे योग के लिए मछलियाँ ही पकड़ते थे! और जब मछली को एक धारा से उठा कर दूसरी धारा में छोडा जाता है, तो वह तडफती है! इसलिए अक्सर लोग उनके साथ आने से मना भी करते थे| लेकीन डॉ. पटेल जी निरंतर लोगों को योग सीखाते रहे| उनके कुछ किस्से वाकई दिलचस्प है| जैसे किसी मित्र को योग सीखाने के लिए वे उसके घर जाते थे| और मित्र ऐसा कि उनके पहुँचने पर भी सोया रहता था| वे स्वयं ही उसे उठाते| फिर योग सीखाते| लेकीन वह मित्र योग नही सीखा! बहुत प्रयास करने पर भी मछली छूट गई|‌ लेकीन जाल बिछाना व्यर्थ भी नही गया, क्यों कि इस दौरान मित्र न सही, उसकी पत्नि योग सीख गई! ऐसे उन्होने तीन- चार दशकों तक कार्य किया| जहाँ से मिले, जैसे मिले, लोगों को उसमें जोड़ा| लोगों की भाषा में योग कहने लगे, योग प्रसार के लिए ही रमज़ान के रोजे रखे, चर्च में भी गए और चर्च में भी सरमॉन दिया| ऐसे धुरन्धर योग- गुरू द्वारा जिस कार्य की नीव डाली गई, वही कार्य बाद में परभणी शहर में और उसके बाद जालना एवम् औरंगाबाद में फैलता चला गया!

शाम को इसी प्रकार की चर्चा औरंगाबाद के विवेकानंद योग केंद्र के कार्यकर्ताओं के साथ हुई| शहर के साधकों की टीम से मिलना हुआ| हर एक के अनुभव अनुठे हैं| किसी ना किसी कारण से लोग योग से जुड़ते जाते हैं| धीरे धीरे योग प्रसार करने लगते हैं| और अपने व्यस्त जीवन में भी उसका प्रसार चालू रखते हैं| औरंगाबाद के विवेकानंद योग केंद्र के साधक जालना के सेंटर में कोर्स करने के बाद योग शिक्षक बने| उनमें से कुछ साधक अन्य सेंटर्स में भी सीख कर आए हैं| यहाँ की‌ टीम में महिलाओं का अच्छा सहभाग नज़र आया| पीछले कुछ समय से यहाँ वही कोर्स चलाया जा रहा है| जून में यह कोर्स शुरू होता है और उसकी प्रवेश प्रक्रिया अभी चल रही है| चर्चा में साधकों ने अपने कई तरह के अनुभव रखे| सिर्फ योग- आसन ही नही, बल्की ध्यान और जीवनशैलि से जुड़े अनुभव भी कहे गए| मैने भी मेरे साईकिलिंग और ध्यान से जुड़े अनुभव कहे| कुछ शिक्षिकाओं ने उनके और उनके छात्रों के अनुभव भी कहे| एक योग- शिक्षिका ने योग की साधना के बल पर उन्होने किस प्रकार शराब में लत लोगों से संवाद किया, यह भी कहा| शराब का व्यसन होनेवाले लोगों में जब वे गई, तो पहले कुछ दिनों तक उनका बहुत मज़ाक उडाया गया, लेकीन उन्होने वह सब सहा| बाद में धीरे धीरे वे लोग उन्हे सुनने के लिए तैयार हुए! किसी भी साधना में क्षमता सिर्फ कुछ करने की नही होती है, वरन् बहुत कुछ सहने की भी होती है| सबके अनुभव देखने पर उनसे अनुरोध किया के ये अनुभव लिखिए और विवेकानंद योग केंद्र की वेबसाईट/ ब्लॉग या फेसबूक पेज पर डालिए जिससे और लोगों को उनकी जानकारी होगी और प्रेरणा होगी!



आज सिर्फ ३७ किलोमीटर

इस प्रकार पाँचवा दिन पूरा हुआ और निरामय संस्था एवम् जालना- औरंगाबाद में जो योग कार्य हुआ, उसके एक दिग्गज योग गुरू डॉ. पटेल जी से मिल कर बहुत कुछ सीखने को मिला| एक तरह से आज मेरी साईकिल- यात्रा चरम पर है, इसके बाद एक तरह से वापसी की यात्रा शुरू होगी| कल जालना जाऊँगा और उसके बाद अन्य कुछ स्थानों पर जाते हुए वापस लौटूँगा| लेकीन क्या पाँच दिन रहे हैं ये! साईकिल तो चलाई ही, उसके साथ बहुत नए लोगों से जुड़ सका, बहुत लोगों से बहुत कुछ सीखने जैसा मिल रहा है! नए लोग मुझसे जुड़ रहे हैं और मेरे बहाने उस शहर की टीम के साथ भी जुड़ रहे हैं! और यही योग का अर्थ भी है- जोड़ना!

अगर आप चाहे तो इस कार्य से जुड़ सकते हैं| कई प्रकार से इस प्रक्रिया में सम्मीलित हो सकते हैं| अगर आप मध्य महाराष्ट्र में रहते हैं, तो यह काम देख सकते हैं; उनका हौसला बढ़ा सकते हैं| आप कहीं दूर रहते हो, तो भी आप निरामय संस्था की वेबसाईट देख सकते हैं; उस वेबसाईट पर चलनेवाली ॐ ध्वनि आपके ध्यान के लिए सहयोगी होगी| वेबसाईट पर दिए कई लेख भी आप पढ़ सकते हैं| और आप अगर कहीं दूर हो और आपको यह विचार ठीक लगे तो आप योगाभ्यास कर सकते हैं या कोई भी व्यायाम की एक्टिविटी कर सकते हैं; जो योग कर रहे हैं, उसे और आगे ले जा सकते हैं; दूसरों को योग के बारे में बता सकते हैं; आपके इलाके में काम करनेवाली योग- संस्था की जानकारी दूसरों को दे सकते हैं; उनके कार्य में सहभाग ले सकते हैं|

निरामय संस्था को किसी रूप से आर्थिक सहायता की अपेक्षा नही है| लेकीन अगर आपको संस्था को कुछ सहायता करनी हो, आपको कुछ 'योग- दान' देना हो, तो आप संस्था द्वारा प्रकाशित ३५ किताबों में से कुछ किताब या बूक सेटस खरीद सकते हैं या किसे ऐसे किताब गिफ्ट भी कर सकते हैं| निरामय द्वारा प्रकाशित किताबों की एक अनुठी बात यह है कि कई योग- परंपराओं का अध्ययन कर और हर जगह से कुछ सार निचोड़ कर ये किताबें बनाईं गई हैं| आप इन्हे संस्था की वेबसाईट द्वारा खरीद सकते हैं| निरामय संस्था की वेबसाईट- http://www.niramayyogparbhani.org/ इसके अलावा भी आप इस प्रक्रिया से जुड़ सकते हैं| आप यह पोस्ट शेअर कर सकते हैं| निरायम की वेबसाईट के लेख पढ़ सकते हैं| इस कार्य को ले कर आपके सुझाव भी दे सकते हैं| मेरे ब्लॉग पर www.niranjan-vichar.blogspot.in आप मेरी पीछली साईकिल यात्राएँ, अन्य लेख आदि पढ़ सकते हैं| आप मुझसे फेसबूक पर भी जुड़ सकते हैं| बहुत बहुत धन्यवाद!


अगला भाग: औरंगाबाद- जालना

2 comments:

  1. बहुत खूब, काफी दिनों के बाद आपकी सायकिल यात्रा पढ़ने मिली। शुभकामनाएँ एवं बधाई।

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