श्रीनगर और गंगीपोरा में स्वास्थ्य शिविर
१३ अक्तूबर की सुबह| आज डॉ. प्रज्ञा दिदी और डॉ. अर्पितजी वापस जाएँगे| उनके स्थान पर कल गोवा से डॉ. देसाई जी आए हैं| कल डॉ. प्रज्ञा दिदी और अर्पितजी ने मेडिसिन्स के कई सेट बनाए हैं| कल रात उन्होने वह काम किया| आज सुबह वे शंकराचार्य मंदीर देखने के लिए गए; लेकिन गाड़ी में स्पार्क होने से लौटना पड़ा| अब वे एअरपोर्ट जाएँगे| एक तरह से अब एक ही डॉक्टर होंगे तथा उनके साथ फार्मासिस्ट भी नही होगा| फार्मसिस्ट चेतनजी भी आज ही निकल रहे हैं| इसलिए अब मुझे भी चिकित्सा शिविरों पर जाना होगा| अब तक कुछ दवाईयों के बक्से बनाने और उन्हे एम्ब्युलन्स में रखने के अलावा मेरा इसमें कुछ सहभाग नही था| अब बाकी दिनों में यही काम मुख्य होगा|
सुबह सुरेंद्रजी के साथ मिल कर फोटोज को कॅप्शन देने के लिए बात हुईं| व्हिडिओ का ड्राफ्ट तो उन्होने बनाया है; उसे और बेहतर बनाना है| फोटो के कॅप्शन दादाजी और सुरेंद्रजी तय कर रहे हैं| आज के शिविरों के लिए दवाईयों के सेट तैयार है; फिर भी और सेट बनाने पडेंगे| कल जैसे गोवा से डॉ. देसाई जी आए, वैसे जयपूर से युवा इंजिनिअर पवनजी भी आए हैं| वे सोलार लाईटस का वितरण कार्य करेंगे| उसके लिए कंपनी से आए हैं| कल शायद वे श्रीनगर के शिविर में भी थे| कल डॉ. प्रज्ञा दिदी ने शिविर का काम डॉ. देसाई जी को हँड ओव्हर किया| और डॉक्टर आएँ इसके लिए सब लोग अपने अपने क्षेत्रों में सम्पर्क कर रहे हैं|
आज के पहले शिविर के लिए कल रात से ही दफ्तर में आए हुए दो कार्यकर्ता- जावेदजी और शाजिया दिदी आएँगे| आश्रम का शिविर अब रुटिन बन चुका है| आश्रम में भी कुछ दवाईयाँ रखी जाती हैं; संस्था का बैनर भी वहीं होता है| आश्रम परिसर के कुछ कार्मिक भी शिविर में सहयोग करते हैं| हालाकि मेरा पहला शिविर होने के कारण कुछ चिन्ता है| और फार्मसिस्ट भी नही है| साढ़े दस बजे तक शिविर की तैयारी हो गई| दवाईयाँ लगायी गई; बैनर लग गया| टेबल तो वहाँ के चाचाजी स्वयं लगाते है| शिविर शुरू हुआ| आज एक तरह से सब नया है| डॉक्टर भी कल ही आए हैं; उन्हे शिविर कार्यप्रणालि समझने में थोड़ा समय लग सकता हैं| शुरू में थोडी दिक्कतें आयी| सेवा भारती दफ्तर से दवाईयाँ लेते समय कैंची नही ली थी; और आश्रम में भी नही मिली; अत: उसे जा कर खरीदना पड़ा| सड़क पर दुकानें अब खुल गईं है| हालांकि उनके सामान की बड़ी हानि हुईं है| एक- दो आवश्यक दवाईयाँ सेट में नही मिल रही हैं| लेकिन डॉ. सर ने फिर अन्य दवाईयाँ से काम लिया|
श्री चन्द्र चिनार आश्रम में एक विशाल से चिनार वृक्ष के नीचे ही टेबल लगाया गया| धीरे धीरे रुग्ण आने लगे| सबसे पहले तो आश्रम परिसर के कार्मिक ही आए| बाद में लोगों की भीड शुरू हुई| शाजिया दिदी रुग्णों का पंजीयन कर रही हैं; मै और जावेदजी दवाईयाँ निकाल कर दे रहे हैं| कई बार दवाईयाँ न मिलने पर डॉ. सर को भी ढूँढ के देनी पड़ रही है| यहाँ कई दिनों से शिविर चलने के कारण सभी लोगों को पता है| धीरे धीरे लोगों की संख्या बढती गए और कतार बनी| सब कुछ शांति से चल रहा हैं| इस स्थान की एक और विशेषता यह है कि यहाँ मेरे मोबाईल को इंटरनेट मिल रहा है जो दफ्तर में नही मिलता है| यहाँ पर एक बात दिखी की आनेवाले मरिजों में अधिकतर सामान्य रुग्ण है| बहुत से रुग्णों को त्वचा की तकलीफें और बदन दर्द है| यहाँ अब भी सरकारी अस्पताल पूरे खुले नही हैं| इसलिए शिविर आवश्यक है|
करीब दो घण्टे शिविर चला और एक बजे के बाद धीरे धीरे बन्द करना पड़ा| साठ रुग्ण आए| शिविर समाप्त करना टेढी खीर है; क्यों कि लोग रूकते ही नही| उनका ताँता लगा ही रहता है| धीरे धीरे समझा कर पंजीयन बन्द किया| दवाईयाँ अन्दर आश्रम में रख दी| तब जा कर लोग रूके| आश्रम में ही भोजन किया| भोजन के बाद और कुछ रुग्ण आए और उनको भी दवाईयाँ देनी पड़ी|
तब तक फयाज़ भाई और हिलालभाई हमें लेने के लिए आ गए| उनके साथ पवनजी भी है| उन्हे गाँव में सोलार लाईटस का वितरण करना है| शहर में ही जावेदजी और शाजिया दिदी उतर गए| एक- दो दिन में ही जावेदजी से अच्छी दोस्ती हो गई है| ये दोनो कार्यकर्ता गांदरबल के हैं और सेवा भारती से हाल ही में जुड़े है| मजे की बाद यह थी की शाजिया दिदी के बोलने में आए कुछ अंग्रेजी शब्द विदेशी एक्सेंट जैसे लगे| गाँव के शिविर के लिए हिलाल भाई, फयाज़ भाई और नज़ीर भाई साथ होंगे| यह शिविर गंगीपोरा गाँव में होगा जो श्रीनगर से करीब तीस किलोमीटर दूर है|
गाँव छोटासा है| यहाँ एक बार दिखी की कश्मीर के गाँव केरल के गाँवों जैसे है| निरन्तर आबादी चलती रहती है| दो गाँवों के बीच बड़ा अन्तराल नही है| गाँव में पहुँचे तो कई प्रश्नार्थक चेहरों ने स्वागत किया| लोगों से कुछ बातचीत होने पर शिविर एक मस्जीद के प्रांगण में लेना तय हुआ| बॅनर लगे; एक कुर्सी लायी गई| लोग इकठ्ठा हुए थे| एम्ब्युलन्स से दवाईयों के बक्से उतारने तक भी भीड़ हुई| फयाज़ भाई ने कहा कि लाईटस अन्दर की तरफ रखो; वो इस गाँव में नही देने है| कुछ कँबल भी हैं; जो लाईटस के साथ दूसरे गाँव में देने हैं| उन्हे लगभग छिपाते हुए दवाईयाँ निकाली और शिविर शुरू हुआ| लेकिन शहर और गाँव के शिविर में बड़ा अन्तर है| यहाँ लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठी हुई है| सभी आयु के लोग- युवा, बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएँ| पंजीयन कर पर्ची बनाने के बावजूद लोग बड़ी भीड कर रहे हैं| दवाईयाँ निकाल कर देने में भी दिक्कत हो रही है| लेकिन डॉक्टर सर ने फिर काम सम्भाला और मरिजों को देखना शुरू कर दिया| साथ में हिलाल भाई और फयाज़ भाई हैं| शिविर चलता गया|
यहाँ जैसे ही कोई व्यक्ति आता; तो उसको अभिवादन करने हेतु 'सलाम वालेकुम' कहता हुँ| लेकिन 'सलाम वालेकुम' या उसके उत्तर में 'वालेकुम अस्सलाम' कहने के आदि नही होने के कारण बड़ी कठिनाई हुई| एक तरह से अनकॉन्शस मन बीच में आया| लेकिन धीरे धीरे सरलता हुई| यहाँ नमस्ते की भाषा नही चलती; यहाँ अभिवादन के लिए 'सलाम वालेकुम' ही बोलना चाहिए| और इसमें मजहब या स्वाभिमान का कोई मुद्दा नही है| अगर हम तमिलनाडू में हैं; तो 'नमस्ते' के बजाय 'वणक्कम' ही कहना पड़ेगा| उसका स्वाभिमान से कोई सम्बन्ध नही है और नही होना चाहिए| पर एक कार्यकर्ता ऐसे भी है जो 'सलाम वालेकुम' नही कहना चाहते थे| अपनी अपनी सोच है, और क्या| लेकिन सामनेवाले के साथ कार्य करते हुए उसी की भाषा में बात करना स्वाभाविक होता है| खैर|
यह शिविर लम्बा खीचता गया| बीच बीच में मस्जीद से नमाज भी अदा की जा रही है| स्थानीय लोगों में अधिकतर लोग बात करने में रस नही लेते| कुछ युवा हैं जो मुस्कुराते हुए बात करते हैं| लेकिन करीब ढाई- तीन घण्टों तक शिविर चला लेकिन किसी ने पानी भी नही दिया| एक तरह की दूरी साफ महसूस हुई| लेकिन रुग्ण बराबर आते रहें| महिलाएँ भी बड़ी संख्या में थी| और बेझिझक वह डॉक्टर सर से बात कर रही हैं| भाषा की अड़चन कहीं कहीं है; पर कार्यकर्ता उसके लिए तैयार हैं| यहाँ भी एक- दो दवाईयाँ नही मिलने के कारण वैकल्पिक दवाईयाँ देनी पड़ी| पवनजी ने पंजीयन का काम किया और फिर बाद में लोगों से बात करने लगे| वे बिलकुल नौजवान है और उन्हे पहले जॉब में मात्र तीन माह ही हुए हैं|
शिविर बन्द करने में बड़ी अड़चन हुई| अब तक कुछ लोगों ने अन्दर के कँबल देखे हैं और वे उसकी माँग कर रहे हैं| और रुग्ण है कि रूकने का नाम ही नही ले रहे हैं| आखिर धीरे धीरे सब दवाईयाँ एम्ब्युलन्स में रखनी पड़ी और फिर भी लोग नही माने| दो रुग्ण तो एम्ब्युलन्स में आए और दवाईयाँ ले गए| अर्थात् इसी की अपेक्षा थी|
अब दूसरे गाँव में जा कर लाईटस वितरण करना है| गाँव का नाम शायद शेखपोरा है| वहाँ गाँव के सरपंच के घर थोड़े समय रूके| यहीं पर भी लाईटस और कँबल को एक तरह से छिपा कर रखा गया| और घर में एक मीटिंग हुई| उस समय बड़े स्वादिष्ट चाय से खिदमद की गई| बाद में और लोग आते गएँ और फिर बन्द दरवाजे में मीटिंग हुई| फिर और लोग आने के बाद लाईटस का वितरण हुआ| उसके बाद और एक मीटिंग होने लगी| उस समय सरपंच के घर के बाहर कुछ लोग आए और कहने लगे कि आपने तो लाईटस सरपंच के रिश्तेदारों को ही दी| फिर फयाज़ भाई और अन्य कार्यकर्ताओं ने उन्हे किसी प्रकार समझा बुझा कर वापस भेजा| दूसरी मीटिंग बड़ी देर तक चली| वास्तव में इसमें हमारा रोल नही है| लाईटस देनेवाली कम्पनी का यह काम है| लेकिन रुकना पड़ा| फिर धीरे धीरे बात स्पष्ट हुई| यह गाँव बड़ा है और लाईटस मात्र तीस देने थे; इसलिए सरपंच ने अपने रिश्तेदारों में ही वे बाँटें| बाद में निकलते समय कँबल दिए गए| और कुछ स्थानीय लोगों ने भी लाईटस माँगे और देने पड़े|
इससे मन में कई सवाल उठें| जैसा कल के वितरण के बारे में थोड़ी देर तक लगा था, यहीं पर भी लगा| आवश्यकताओं का आंकलन कैसे किया गया हैं और किनको लाईटस देने है, यह कैसे तय किया हैं? यही सवाल लाईटस की कंपनीवाले पवनजी से भी किया| लेकिन उनके पास उत्तर नही है| और एक तो वे नौजवान है; अभी अभी कॉलेज से जॉब में उतरे हैं| कंपनी ने बताया वही वे कर रहें हैं| कंपनी को सिर्फ लोगों को लाईटस बाँटने से मतलब हैं और उनके फोटो से (जिससे वे सीएसआर में इस कार्य को दिखा सकेंगे)| लेकिन जाहिर सी बात है कि आवश्यकताओं का आंकलन नही किया गया| और फिर सरपंच और प्रभावशाली कार्यकर्ताओं ने लाईटस ले लिए| बाद में उसी पर दस्तखत लिए गएं और उसी कारण निकलने में बड़ी देर हुई| उस समय काफी चिन्ताएँ हुई| एक तो स्थानीय लोग ज्यादा बात नही करते हैं| इसलिए कुछ समय यह क्या हो रहा है, इसका भी पता नही चला| जब यह पता चला कि सामान बिना आवश्यकता का मूल्यांकन किए ही दिया जा रहा है तो एक तरह ग़ुस्सा भी आया| पर कोई कार्यकर्ता ने उसपर बात नही की| पवनजी भी चिंतित हुएँ; क्योंकि कुछ लाईटस अतिरिक्त भी देने पड़े| और डॉक्टर सर को भी लोग बार बार दवाई माँग रहे हैं| जैसे तैसे कुछ उपयोगी दवाईं हाथ में देनी पड़ी| गाँव से निकलते समय रात के नौ बज चुके हैं| मन बिलकुल अशान्त है| इस पूरे मसले के बारे में दादाजी से बात करनी पड़ेगी| और वे इसका स्पष्टीकरण जरूर करेंगे और उन्होने बाद में किया भी| लेकिन तब तक मन अशांत रहा| देखा जाए तो ऐसी स्थिति आपदाग्रस्त क्षेत्र में अप्रत्याशित नही कही जा सकती है| कुछ मिलता है यह देखने पर लोगों की माँगे रूकती ही नही है| यह मानवी स्वभाव है| शायद इसी लिए सेवा भारती ने सामग्री वितरण में अधिक काम नही किया| लेकिन इस पूरे विषय के कारण मन अशान्त बना रहा|
लौटते समय श्रीनगर में सड़कें सुनसान हो रही है| रात में सब लोग साथ हैं; इसलिए दादाजी से इस विषय पर बात नही की जा सकी| लेकिन मेरा मन अशान्त है, यह उन्होने तत्काल देखा| अब कल वे इसका उत्तर देंगे| लेकिन तब तक मन अशान्त रहेगा| देखते हैं|
SEWA BHARTI J&K
Vishnu Sewa Kunj, Ved Mandir Complex, Ambphalla Jammu, J&K.
www.sewabhartijammu.com
Phone: 0191 2570750, 2547000
e-mail: sewabhartijammu@gmail.com, jaidevjammu@gmail.com
१३ अक्तूबर की सुबह| आज डॉ. प्रज्ञा दिदी और डॉ. अर्पितजी वापस जाएँगे| उनके स्थान पर कल गोवा से डॉ. देसाई जी आए हैं| कल डॉ. प्रज्ञा दिदी और अर्पितजी ने मेडिसिन्स के कई सेट बनाए हैं| कल रात उन्होने वह काम किया| आज सुबह वे शंकराचार्य मंदीर देखने के लिए गए; लेकिन गाड़ी में स्पार्क होने से लौटना पड़ा| अब वे एअरपोर्ट जाएँगे| एक तरह से अब एक ही डॉक्टर होंगे तथा उनके साथ फार्मासिस्ट भी नही होगा| फार्मसिस्ट चेतनजी भी आज ही निकल रहे हैं| इसलिए अब मुझे भी चिकित्सा शिविरों पर जाना होगा| अब तक कुछ दवाईयों के बक्से बनाने और उन्हे एम्ब्युलन्स में रखने के अलावा मेरा इसमें कुछ सहभाग नही था| अब बाकी दिनों में यही काम मुख्य होगा|
सुबह सुरेंद्रजी के साथ मिल कर फोटोज को कॅप्शन देने के लिए बात हुईं| व्हिडिओ का ड्राफ्ट तो उन्होने बनाया है; उसे और बेहतर बनाना है| फोटो के कॅप्शन दादाजी और सुरेंद्रजी तय कर रहे हैं| आज के शिविरों के लिए दवाईयों के सेट तैयार है; फिर भी और सेट बनाने पडेंगे| कल जैसे गोवा से डॉ. देसाई जी आए, वैसे जयपूर से युवा इंजिनिअर पवनजी भी आए हैं| वे सोलार लाईटस का वितरण कार्य करेंगे| उसके लिए कंपनी से आए हैं| कल शायद वे श्रीनगर के शिविर में भी थे| कल डॉ. प्रज्ञा दिदी ने शिविर का काम डॉ. देसाई जी को हँड ओव्हर किया| और डॉक्टर आएँ इसके लिए सब लोग अपने अपने क्षेत्रों में सम्पर्क कर रहे हैं|
आज के पहले शिविर के लिए कल रात से ही दफ्तर में आए हुए दो कार्यकर्ता- जावेदजी और शाजिया दिदी आएँगे| आश्रम का शिविर अब रुटिन बन चुका है| आश्रम में भी कुछ दवाईयाँ रखी जाती हैं; संस्था का बैनर भी वहीं होता है| आश्रम परिसर के कुछ कार्मिक भी शिविर में सहयोग करते हैं| हालाकि मेरा पहला शिविर होने के कारण कुछ चिन्ता है| और फार्मसिस्ट भी नही है| साढ़े दस बजे तक शिविर की तैयारी हो गई| दवाईयाँ लगायी गई; बैनर लग गया| टेबल तो वहाँ के चाचाजी स्वयं लगाते है| शिविर शुरू हुआ| आज एक तरह से सब नया है| डॉक्टर भी कल ही आए हैं; उन्हे शिविर कार्यप्रणालि समझने में थोड़ा समय लग सकता हैं| शुरू में थोडी दिक्कतें आयी| सेवा भारती दफ्तर से दवाईयाँ लेते समय कैंची नही ली थी; और आश्रम में भी नही मिली; अत: उसे जा कर खरीदना पड़ा| सड़क पर दुकानें अब खुल गईं है| हालांकि उनके सामान की बड़ी हानि हुईं है| एक- दो आवश्यक दवाईयाँ सेट में नही मिल रही हैं| लेकिन डॉ. सर ने फिर अन्य दवाईयाँ से काम लिया|
श्री चन्द्र चिनार आश्रम में एक विशाल से चिनार वृक्ष के नीचे ही टेबल लगाया गया| धीरे धीरे रुग्ण आने लगे| सबसे पहले तो आश्रम परिसर के कार्मिक ही आए| बाद में लोगों की भीड शुरू हुई| शाजिया दिदी रुग्णों का पंजीयन कर रही हैं; मै और जावेदजी दवाईयाँ निकाल कर दे रहे हैं| कई बार दवाईयाँ न मिलने पर डॉ. सर को भी ढूँढ के देनी पड़ रही है| यहाँ कई दिनों से शिविर चलने के कारण सभी लोगों को पता है| धीरे धीरे लोगों की संख्या बढती गए और कतार बनी| सब कुछ शांति से चल रहा हैं| इस स्थान की एक और विशेषता यह है कि यहाँ मेरे मोबाईल को इंटरनेट मिल रहा है जो दफ्तर में नही मिलता है| यहाँ पर एक बात दिखी की आनेवाले मरिजों में अधिकतर सामान्य रुग्ण है| बहुत से रुग्णों को त्वचा की तकलीफें और बदन दर्द है| यहाँ अब भी सरकारी अस्पताल पूरे खुले नही हैं| इसलिए शिविर आवश्यक है|
करीब दो घण्टे शिविर चला और एक बजे के बाद धीरे धीरे बन्द करना पड़ा| साठ रुग्ण आए| शिविर समाप्त करना टेढी खीर है; क्यों कि लोग रूकते ही नही| उनका ताँता लगा ही रहता है| धीरे धीरे समझा कर पंजीयन बन्द किया| दवाईयाँ अन्दर आश्रम में रख दी| तब जा कर लोग रूके| आश्रम में ही भोजन किया| भोजन के बाद और कुछ रुग्ण आए और उनको भी दवाईयाँ देनी पड़ी|
तब तक फयाज़ भाई और हिलालभाई हमें लेने के लिए आ गए| उनके साथ पवनजी भी है| उन्हे गाँव में सोलार लाईटस का वितरण करना है| शहर में ही जावेदजी और शाजिया दिदी उतर गए| एक- दो दिन में ही जावेदजी से अच्छी दोस्ती हो गई है| ये दोनो कार्यकर्ता गांदरबल के हैं और सेवा भारती से हाल ही में जुड़े है| मजे की बाद यह थी की शाजिया दिदी के बोलने में आए कुछ अंग्रेजी शब्द विदेशी एक्सेंट जैसे लगे| गाँव के शिविर के लिए हिलाल भाई, फयाज़ भाई और नज़ीर भाई साथ होंगे| यह शिविर गंगीपोरा गाँव में होगा जो श्रीनगर से करीब तीस किलोमीटर दूर है|
गाँव छोटासा है| यहाँ एक बार दिखी की कश्मीर के गाँव केरल के गाँवों जैसे है| निरन्तर आबादी चलती रहती है| दो गाँवों के बीच बड़ा अन्तराल नही है| गाँव में पहुँचे तो कई प्रश्नार्थक चेहरों ने स्वागत किया| लोगों से कुछ बातचीत होने पर शिविर एक मस्जीद के प्रांगण में लेना तय हुआ| बॅनर लगे; एक कुर्सी लायी गई| लोग इकठ्ठा हुए थे| एम्ब्युलन्स से दवाईयों के बक्से उतारने तक भी भीड़ हुई| फयाज़ भाई ने कहा कि लाईटस अन्दर की तरफ रखो; वो इस गाँव में नही देने है| कुछ कँबल भी हैं; जो लाईटस के साथ दूसरे गाँव में देने हैं| उन्हे लगभग छिपाते हुए दवाईयाँ निकाली और शिविर शुरू हुआ| लेकिन शहर और गाँव के शिविर में बड़ा अन्तर है| यहाँ लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठी हुई है| सभी आयु के लोग- युवा, बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएँ| पंजीयन कर पर्ची बनाने के बावजूद लोग बड़ी भीड कर रहे हैं| दवाईयाँ निकाल कर देने में भी दिक्कत हो रही है| लेकिन डॉक्टर सर ने फिर काम सम्भाला और मरिजों को देखना शुरू कर दिया| साथ में हिलाल भाई और फयाज़ भाई हैं| शिविर चलता गया|
यहाँ जैसे ही कोई व्यक्ति आता; तो उसको अभिवादन करने हेतु 'सलाम वालेकुम' कहता हुँ| लेकिन 'सलाम वालेकुम' या उसके उत्तर में 'वालेकुम अस्सलाम' कहने के आदि नही होने के कारण बड़ी कठिनाई हुई| एक तरह से अनकॉन्शस मन बीच में आया| लेकिन धीरे धीरे सरलता हुई| यहाँ नमस्ते की भाषा नही चलती; यहाँ अभिवादन के लिए 'सलाम वालेकुम' ही बोलना चाहिए| और इसमें मजहब या स्वाभिमान का कोई मुद्दा नही है| अगर हम तमिलनाडू में हैं; तो 'नमस्ते' के बजाय 'वणक्कम' ही कहना पड़ेगा| उसका स्वाभिमान से कोई सम्बन्ध नही है और नही होना चाहिए| पर एक कार्यकर्ता ऐसे भी है जो 'सलाम वालेकुम' नही कहना चाहते थे| अपनी अपनी सोच है, और क्या| लेकिन सामनेवाले के साथ कार्य करते हुए उसी की भाषा में बात करना स्वाभाविक होता है| खैर|
यह शिविर लम्बा खीचता गया| बीच बीच में मस्जीद से नमाज भी अदा की जा रही है| स्थानीय लोगों में अधिकतर लोग बात करने में रस नही लेते| कुछ युवा हैं जो मुस्कुराते हुए बात करते हैं| लेकिन करीब ढाई- तीन घण्टों तक शिविर चला लेकिन किसी ने पानी भी नही दिया| एक तरह की दूरी साफ महसूस हुई| लेकिन रुग्ण बराबर आते रहें| महिलाएँ भी बड़ी संख्या में थी| और बेझिझक वह डॉक्टर सर से बात कर रही हैं| भाषा की अड़चन कहीं कहीं है; पर कार्यकर्ता उसके लिए तैयार हैं| यहाँ भी एक- दो दवाईयाँ नही मिलने के कारण वैकल्पिक दवाईयाँ देनी पड़ी| पवनजी ने पंजीयन का काम किया और फिर बाद में लोगों से बात करने लगे| वे बिलकुल नौजवान है और उन्हे पहले जॉब में मात्र तीन माह ही हुए हैं|
शिविर बन्द करने में बड़ी अड़चन हुई| अब तक कुछ लोगों ने अन्दर के कँबल देखे हैं और वे उसकी माँग कर रहे हैं| और रुग्ण है कि रूकने का नाम ही नही ले रहे हैं| आखिर धीरे धीरे सब दवाईयाँ एम्ब्युलन्स में रखनी पड़ी और फिर भी लोग नही माने| दो रुग्ण तो एम्ब्युलन्स में आए और दवाईयाँ ले गए| अर्थात् इसी की अपेक्षा थी|
अब दूसरे गाँव में जा कर लाईटस वितरण करना है| गाँव का नाम शायद शेखपोरा है| वहाँ गाँव के सरपंच के घर थोड़े समय रूके| यहीं पर भी लाईटस और कँबल को एक तरह से छिपा कर रखा गया| और घर में एक मीटिंग हुई| उस समय बड़े स्वादिष्ट चाय से खिदमद की गई| बाद में और लोग आते गएँ और फिर बन्द दरवाजे में मीटिंग हुई| फिर और लोग आने के बाद लाईटस का वितरण हुआ| उसके बाद और एक मीटिंग होने लगी| उस समय सरपंच के घर के बाहर कुछ लोग आए और कहने लगे कि आपने तो लाईटस सरपंच के रिश्तेदारों को ही दी| फिर फयाज़ भाई और अन्य कार्यकर्ताओं ने उन्हे किसी प्रकार समझा बुझा कर वापस भेजा| दूसरी मीटिंग बड़ी देर तक चली| वास्तव में इसमें हमारा रोल नही है| लाईटस देनेवाली कम्पनी का यह काम है| लेकिन रुकना पड़ा| फिर धीरे धीरे बात स्पष्ट हुई| यह गाँव बड़ा है और लाईटस मात्र तीस देने थे; इसलिए सरपंच ने अपने रिश्तेदारों में ही वे बाँटें| बाद में निकलते समय कँबल दिए गए| और कुछ स्थानीय लोगों ने भी लाईटस माँगे और देने पड़े|
इससे मन में कई सवाल उठें| जैसा कल के वितरण के बारे में थोड़ी देर तक लगा था, यहीं पर भी लगा| आवश्यकताओं का आंकलन कैसे किया गया हैं और किनको लाईटस देने है, यह कैसे तय किया हैं? यही सवाल लाईटस की कंपनीवाले पवनजी से भी किया| लेकिन उनके पास उत्तर नही है| और एक तो वे नौजवान है; अभी अभी कॉलेज से जॉब में उतरे हैं| कंपनी ने बताया वही वे कर रहें हैं| कंपनी को सिर्फ लोगों को लाईटस बाँटने से मतलब हैं और उनके फोटो से (जिससे वे सीएसआर में इस कार्य को दिखा सकेंगे)| लेकिन जाहिर सी बात है कि आवश्यकताओं का आंकलन नही किया गया| और फिर सरपंच और प्रभावशाली कार्यकर्ताओं ने लाईटस ले लिए| बाद में उसी पर दस्तखत लिए गएं और उसी कारण निकलने में बड़ी देर हुई| उस समय काफी चिन्ताएँ हुई| एक तो स्थानीय लोग ज्यादा बात नही करते हैं| इसलिए कुछ समय यह क्या हो रहा है, इसका भी पता नही चला| जब यह पता चला कि सामान बिना आवश्यकता का मूल्यांकन किए ही दिया जा रहा है तो एक तरह ग़ुस्सा भी आया| पर कोई कार्यकर्ता ने उसपर बात नही की| पवनजी भी चिंतित हुएँ; क्योंकि कुछ लाईटस अतिरिक्त भी देने पड़े| और डॉक्टर सर को भी लोग बार बार दवाई माँग रहे हैं| जैसे तैसे कुछ उपयोगी दवाईं हाथ में देनी पड़ी| गाँव से निकलते समय रात के नौ बज चुके हैं| मन बिलकुल अशान्त है| इस पूरे मसले के बारे में दादाजी से बात करनी पड़ेगी| और वे इसका स्पष्टीकरण जरूर करेंगे और उन्होने बाद में किया भी| लेकिन तब तक मन अशांत रहा| देखा जाए तो ऐसी स्थिति आपदाग्रस्त क्षेत्र में अप्रत्याशित नही कही जा सकती है| कुछ मिलता है यह देखने पर लोगों की माँगे रूकती ही नही है| यह मानवी स्वभाव है| शायद इसी लिए सेवा भारती ने सामग्री वितरण में अधिक काम नही किया| लेकिन इस पूरे विषय के कारण मन अशान्त बना रहा|
लौटते समय श्रीनगर में सड़कें सुनसान हो रही है| रात में सब लोग साथ हैं; इसलिए दादाजी से इस विषय पर बात नही की जा सकी| लेकिन मेरा मन अशान्त है, यह उन्होने तत्काल देखा| अब कल वे इसका उत्तर देंगे| लेकिन तब तक मन अशान्त रहेगा| देखते हैं|
चिनार वृक्ष के पास शिविर| डॉक्टर सर. कार्यकर्ता तथा रुग्ण |
दवाईयों के बक्से |
मस्जीद के सामने शिविर| बॅनर के पास फयाज़भाई |
क्रमश:
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